इस मध्यलोक के पुष्कर द्वीप में पूर्व मेरू के पश्चिम की ओर विदेह क्षेत्र में सीतोदा नदी के उत्तर तट पर एक ‘सुगन्धि’ नाम का देश है। उस देश के मध्य में श्रीपुर नाम का नगर है। उसमें इन्द्र के समान कांति का धारक श्रीषेण राजा राज्य करते थे। उनकी पत्नी धर्मपरायणा श्रीकांता नाम की रानी थी। वे दम्पत्ति पुत्र रहित थे अत: पुरोहित के उपदेश से पंच वर्ण के अमूल्य रत्नों से जिन प्रतिमाएँ बनवाईं, आठ प्रातिहार्य आदि से विभूषित इन प्रतिमाओं की विधिवत् प्रतिष्ठा करवाई, पुन: उनके गंधोदक से अपने आपको और रानी को पवित्र किया और आष्टान्हिकी महापूजा विधि की। कुछ दिन पश्चात् रानी ने उत्तम स्वप्नपूर्वक गर्भधारण किया पुन: नवमास के बाद पुत्र को जन्म दिया। बहुत विशेष उत्सव के साथ उसका नाम ‘श्रीवर्मा’ रखा गया।किसी समय ‘श्रीपद्म’ जिनराज से धर्मोपदेश को ग्रहण कर राजा श्रीषेण पुत्र को राज्य देकर दीक्षित हो गये। एक समय राजा श्रीवर्मा भी आषाढ़ मास की पूर्णिमा के दिन जिनपूजा महोत्सव करके अपने परिवारजनों के साथ महल की छत पर बैठे थे कि आकस्मिक उल्कापात देखकर विरक्त होकर श्रीप्रभ जिनेन्द्र के समीप दीक्षा लेकर श्रीप्रभ पर्वत पर संन्यास मरण करके प्रथम स्वर्ग में श्रीप्रभ विमान में श्रीधर नाम के देव हो गये।
धातकीखंड द्वीप की पूर्व दिशा में जो इष्वाकार पर्वत है उसके दक्षिण की ओर भरतक्षेत्र में एक ‘अलका’ देश है। उसमें अयोध्या नगर है उस नगर के अजितंजय राजा की अजितसेना रानी ने किसी समय उत्तम स्वप्न देखे और नवमास बाद श्रीधर देव को जन्म दिया। उसका नाम ‘अजितसेन’ रखा गया। पुण्य के उदय से अजितसेन ने चक्रवर्ती के चक्ररत्न और वैभव को प्राप्त कर लिया। श्रद्धा आदि गुणों से सम्पन्न राजा ने किसी समय एक मास का उपवास करने वाले अरिन्दम साधु को आहारदान देकर महान पुण्य बन्ध कर लिया था। दूसरे दिन वह राजा गुप्तप्रभ जिनेन्द्र की वन्दना के लिए मनोहर नामक उद्यान में गये। भगवान के मुख से अपने पूर्व भव सुनकर विरक्त होकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। आयु के अन्त में नभस्तिलक पर्वत के अग्रभाग पर शरीर छोड़कर सोलहवें स्वर्ग में इन्द्र हो गये।
पूर्व धातकीखंड द्वीप में सीता नदी के दाहिने तट पर एक मंगलावती नाम का देश है। इसके रत्नसंचय नगर में कनकप्रभ राजा राज्य करते थे, उनकी कनकमाला रानी थी। वह अच्युतेन्द्र वहाँ से आकर इन दोनों के पद्मनाभ नाम का पुण्यशाली पुत्र हुआ। किसी समय पद्मनाभ राजा श्रीधर मुनि के समीप धर्मोपदेश श्रवण कर दीक्षित हो गये, सोलहकारण भावनाओं का चिन्तवन कर ग्यारह अंग में पारंगत होकर सिंहनिष्क्रीडित आदि कठिन-कठिन तप करने लगे। तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करके आयु के अन्त में विधिवत् मरण करके वैजयन्त विमान में अहमिन्द्र हो गये। इनके श्रीवर्मा, श्रीधरदेव, अजितसेन चक्रवर्ती, अच्युतेन्द्र, पद्मनाभ, अहमिन्द्र, चन्द्रप्रभ भगवान ये सात भव प्रसिद्ध हैं।
पंचकल्याणक वैभव-अनन्तर जब इनकी छह माह की आयु बाकी रह गई, तब जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में चन्द्रपुर नगर के महासेन राजा की लक्ष्मणा महादेवी के यहाँ रत्नों की वर्षा होने लगी। चैत्र कृष्ण पंचमी के दिन गर्भकल्याणक महोत्सव हुआ एवं पौष कृष्ण एकादशी के दिन भगवान चन्द्रप्रभ का जन्म हुआ। इंद्रों ने सुमेरु पर्वत पर ले जाकर १००८ कलशों से तीर्थंकर शिशु का जन्माभिषेक करके महामहोत्सव मनाया। किसी समय दर्पण में अपना मुख देख रहे थे कि भोगों से विरक्त होकर देवों द्वारा लाई गई ‘विमला’ नाम की पालकी पर बैठकर सर्वर्तुक वन में गये। वहाँ पौष कृष्ण एकादशी के दिन हजार राजाओं के साथ दीक्षा ले ली। पारणा के दिन नलिन नामक नगर में सोमदत्त के यहाँ आहार हुआ था। तीन माह का छद्मस्थ काल व्यतीत कर भगवान दीक्षावन में नागवृक्ष के नीचे फाल्गुन कृष्ण सप्तमी के दिन केवलज्ञान को प्राप्त हो गये। तभी आकाश में अधर समवसरण की रचना हो गई। इंद्र की आज्ञा से कुबेर द्वारा निर्मित समवसरण का वैभव अचिन्त्य है।
ये चन्द्रप्रभ भगवान समस्त आर्य देशों में विहार कर धर्म की प्रवृत्ति करते हुए सम्मेदशिखर पर पहुँचे। एक माह तक प्रतिमायोग से स्थित होकर फाल्गुन शुक्ला सप्तमी के दिन ज्येष्ठा नक्षत्र में सायंकाल के समय शुक्लध्यान के द्वारा सर्वकर्म को नष्ट कर सिद्धपद को प्राप्त हो गये। भगवान के पाँचों कल्याणक महोत्सव इंद्रों द्वारा मनाये जाते हैं।