तीर्थंकर जन्माभिषेक वंदना
जै जै जिनेन्द्र आपने जब जन्म था लिया।
सम्पूर्ण लोक में महा आश्चर्य भर दिया।।
सुरगृह में कल्पवृक्ष पुष्पवृष्टि कर झुके।
देवों के सिंहासन भी आप आप कंप उठे।।१।।
शीतल सुगन्ध वायु मंद मंद बही थी।
पृथ्वी भी तो हिलने से मानो नाच रही थी।।
संपूर्ण दिशायें गगन भी स्वच्छ हुये थे।
सागर भी तो लहरा रहा आनंद हुये से।।२।।
व्यंतर गृहों में भेरियों के शब्द हो उठे।
भवनालयों में शंखनाद गूँजने लगे।।
ज्योतिष गृहों में सिंहनाद स्वयं हो उठा।
सुरकल्पवासि भवन में घंटा भी बज उठा।।३।।
इंद्रों के मुकुट अग्र भी स्वयमेव झुक गये।
जिन जन्म जान आसनों से सब उतर गये।।
तब इंद्र के आदेश से सुर पंक्ति चल पड़ी।
सबके हृदय में हर्ष की नदियाँ उमड़ पड़ीं।।४।।
सुरपति प्रभू को गोद में ले गज पे चढ़े हैं।
ईशान इंद्र प्रभु पे छत्र तान खड़े हैं।।
सानत्कुमार औ महेंद्र चमर ढोरते।
सब देव देवियाँ बहुत भक्ती विभोर थे।।५।।
क्षण में सुमेरु गिरि पे जाके प्रभु को बिठाया।
पांडुकशिला पे नाथ का अभिषेक रचाया।।
सौधर्म इंद्र ने हजार हाथ बनाये।
संपूर्ण स्वर्ण कलश एक साथ उठाये।।६।।
सबसे प्रभू का न्हवन एक साथ कर दिया।
जय जय ध्वनी से देवों ने आकाश भर दिया।।
सब इंद्र और इंद्राणियों ने न्हवन किया था।
सब देव और देवांगनाओं ने भी किया था।।७।।
अभिषेक जल उस क्षण में पयोसिंधु बना था।
देवों की सेना डूब रही हर्ष घना था।।
जन्माभिषेक जिनका स्वयं इंद्र कर रहे।
उत्सव विशेष और की फिर बात क्या कहें।।८।।
सुरपति ने पुनः प्रभू को लाके जनक को दिया।
बहु देव और देवियाँ सेवा में रख दिया।।
सुर धन्य वे जो नाथ संग खेल खेलते।
मिथ्यात्वशत्रु को भी वे घानी में पेलते।।९।।
मैं भी करूँ सेवा प्रभु की भक्ति भाव से।
मिथ्यात्व का निर्मूल हो समकित प्रभाव से।।
बस एक प्रार्थना पे नाथ! ध्यान दीजिये।
‘सज्ज्ञानमती’ पूर्ण हो यह दान दीजिये।।१०।।