मंगलाचरण
ऊँ नमो मंगलं कुर्यात्, ह्रीं नमश्चापिमंगलं।
मोक्षबीजं महामंत्रं, अर्हं नम:सुमंगलम्।।१।।
तीर्थकृत्सन्निधौ धर्म—चक्राणि विभान्त्यपि।
ते तानि चापि चक्राणि, कुर्वन्तु मम मंगलम्।।२।।
-गीता छंद-
तीर्थेश प्रभु के समवसृति में, प्रथम कटनी पर दिखें।
ये धर्मचक्र चहुँ दिशी, हजार आरों से दिपें।।
ये चक्र सर्वप्रकाश से, मिथ्यात्व तम को नाशते।
अज्ञान को भी दूर करके, ज्ञान ज्योति प्रकाशते।।३।।
-नरेन्द्र छंद-
अष्टम भूमि के बाद प्रथम कटनी वैडूर्य मणी की है।
बारह कोठे अरु चार गली, से सोलह बनी सीढ़ियां हैं।।
चूड़ी सम गोल इसी ऊपर, चारों दिश में यक्षेंद्र खड़े।
वे शिर पर धर्मचक्र धारें, उन वंदत सुख सौभाग्य बढ़े।।४।।
-नाराच छंद-
समोसरण जिनेश आदिनाथ का विशाल है।
सुपीठ उपरि धर्मचक्र सहस रश्मि जाल है।।
जिनेन्द्र के विहार में सुअग्र अग्र ये चलें।
सहस्रआर धर्मचक्र मैं नमूं सदा भले।।१।।
जिनेंद्र आदिनाथ पीठ दाहिनी दिशी दिपे।
सुधर्मचक्र भव्य के हजार पाप को खिपे।।जिनेंद्र.।।२।।
समोसरण जिनेश के सुपीठ पे अपर दिशा।
सुधर्मचक्र भक्त के हजार दोष टालता।।
जिनेन्द्र के विहार में सुअग्र अग्र ये चलें।
सहस्रआर धर्मचक्र मैं नमूं सदा भले।।३।।
जिनेंद्र आदिनाथ के हि उत्तरी कटनीय पे।
सुयश शीश पे विराजमान चक्र बहु दिपे।।जिनेंद्र.।।४।।
अजित जिनेंद्र का समोसरण अजेय विश्व में।
हजार रश्मि से चमक रहा अपूर्व पूर्व में।।जिनेंद्र.।।५।।
जिनेश के समोसरणविषे सुदूर से दिखे।
हजार खंड मोह के करे अपूर्व तेज से।।जिनेंद्र.।।६।।
अपूर्व तेज से सुभक्त चित्त अंधकार को।
क्षणेक में भगावता सहस्रआर चक्र जो।।जिनेंद्र.।।७।।
महान दीप्तिमान चक्र रात्रि भी न हो वहां।
अनेक कोटि सूर्य तेज देख लाजते१ वहां।।जिनेंद्र.।।८।।
जिनेश सम्भवेश का समोसरण चकासता२।
वहीं पे पूर्व में हि धर्मचक्र खूब भासता३।।जिनेंद्र.।।९।।
मुनीश शीश नावते अपूर्व भक्तिभाव से।
गणीशकीर्ति धर्मचक्र की सदैव गावते।।जिनेंद्र.।।१०।।
सुरेश पूजते सदैव अष्टद्रव्य लाय के।
नरेश वंदते सदैव धर्मचक्र भाव से।।जिनेंद्र.।।११।।
अनंत जन्म के अनंत कर्म नष्ट होयंगे।
सुचक्र वंदते अनंत ज्ञान सौख्य होयंगे।।जिनेंद्र.।।१२।।
जिनेश अभिनंदनेश का समोसरण दिपे।
वहां सुपूर्वदिक्क में सुचक्र तेज से दिपे।।जिनेंद्र.।।१३।।
असंख्य देव देवियां सुचक्र पूजते वहां।
सुअप्सरायें बांसुरी बजाय गावती वहां।।जिनेंद्र.।।१४।।
निजात्म तत्व प्राप्ति हेतु साधु वंदना करें।
सुचक्र के समीप आर्यिकायें स्तोत्र उच्चरें।।जिनेंद्र.।।१५।।
शशीकिरण हजार से अधीक रश्मियां धरे।
सुचक्र सौम्यकांति से दिशा प्रसन्न भी करे।।जिनेंद्र.।।१६।।
-दोहा-
सुमतिनाथ जिनराज का, समवसरण अभिराम।
धर्मचक्र पूरब दिशी, झुक झुक करूँ प्रणाम।।१७।।
समवसरणदक्षिणदिशी, धर्मचक्र चमकंत।
इक हजार आरों सहित, वंदन से अघ अंत।।१८।।
प्रथम पीठ पर अपर दिश, धर्मचक्र भास्वान्।
सूर्यचंद्र फीका करे, वंदत स्वात्म निधान।।१९।।
धर्मचक्र उत्तरदिशी, आरे एक हजार।
चमचम करते शोभते, नमत मिले भवपार।।२०।।
पद्मप्रभू जिनराज का, समवसरण विलसंत।
वंदूँ श्रद्धा भक्ति से, मिले सुज्ञान अनंत।।२१।।
समवसरण में पीठ पर, धर्मचक्र अभिनंद्य।
भक्तिभाव से मैं नमूँ, सुर नर मुनिगण वंद्य।।२२।।
प्रथम पीठ वैडूर्यमणि, निर्मित शोभावान्।
धर्मचक्र को नित नमूँ, रोग शोक दुख हान।।२३।।
पद्मा लक्ष्मी तुम चरण, सेवे भक्ति भरंत।
धर्मचक्र की वंदना, करते सौख्य भरंत।।२४।।
श्रीसुपार्श्व जिनदेव का, समवसरण सुर मान्य।
धर्मचक्र पूरब दिशी, नमत बनूँ जग मान्य।।२५।।
रत्नत्रय निधि के धनी, वीतराग जिनदेव।
धर्मचक्र वंदूं मुझे, एक रत्न ही देव।।२६।।
दशधर्मों के हेतु मैं, करूँ आपकी सेव।
धर्मचक्र वंदूं सदा, पूरो वांछा देव।।२७।।
क्रोध मान मायादि मुझ, दोष हरो जिनदेव।
परम शांति हित मैं करूँ, धर्मचक्र की सेव।।२८।।
चंद्रनाथ भगवान का, समवसरण अतिशायि।
धर्मचक्र वंदूं सदा, जिनवर वृष सुखदायि।।२९।।
चंद्र कांति सम आपके, गुणमणि धवल अनंत।
हजार आरों से दिपे, नमत चक्र भव अंत।।३०।।
सर्व व्याधि पीड़ा नशे, धर्मचक्र वंदत।
अंत समाधी हो भली, यही आश भगवंत।।३१।।
आत्मसुखामृत पीवते, ऋद्धिधारि मुनिसंत।
धर्मचक्र को सेवते, निजगुणरत्न भरंत।।३२।।
-चामर छंद-
पुष्पदंत नाथ का समोसरण अपूर्व है।
हजार आर से दिपंत धर्मचक्र पूर्व है।।
रोग शोक भी टलें हजार पाप शांत हों।
धर्मचक्र वंदते निजात्म सौख्य लाभ हो।।३३।।
क्रोध मान छद्म लोभ राग द्वेष मोह ये।
आतमा को कष्ट दें इन्हें निकाल दीजिए।।रोग.।।३४।।
आप पाद पद्म सेय मैं निहाल हो गया।
तीन रत्न पाय के हि भाग्यशाली हो गया।।रोग.।।३५।।
गंध वर्ण रस स्पर्श शून्य आतमा अमूर्त।
आप पाद वंदते हि प्राप्त होय निज स्वरूप।।रोग.।।३६।।
शीतलेश का समोसरण शतेंद्र पूज्य है।
वाक्य भी अतीव शीत सर्व दोष दूर हैं।।रोग.।।३७।।
अंतरातमा नमें जिनेंद्र पाद भक्ति से।
सर्व दोष टाल के हि सिद्ध आतमा बनें।।रोग.।।३८।।
सार्वभौम चक्रवर्ति संपदा लहें वही।
भक्ति से जिनेंद्र पाद वंदते सदा यहीं।।रोग.।।३९।।
जन्म मृत्यु नाश के अपूर्व धाम दीजिये।
नाथ आप पास में मुझे स्थान दीजिये।।रोग.।।४०।।
श्री श्रेयांसनाथ समोसर्ण में अधर रहें।
भव्य जीव के अनंत पाप को तुरत दहें।।रोग.।।४१।।
साधुवृन्द आप पाद वंदते सुयश लहें।
आत्मरस पियूष का प्रवाह चित्त में बहे।।रोग.।।४२।।
चार ज्ञान धारि भी गणेश आप वंदते।
भव्य जीव वंद वंद सर्व दोष खंडते।।रोग.।।४३।।
जो गृहस्थ नित्य अर्चना करें व दान दें।
वे तुरंत खार भव समुद्र पार पा सकें।।रोग.।।४४।।
वासुपूज्य कीर्ति को सरस्वती सदा कहे।
आप पाद वंद भव्य सर्व आपदा दहें।।रोग.।।४५।।
अष्ट द्रव्य आदि से सुलेश पाप हो सही।
विंदु मात्र विष समुद्र नीर दूषता नहीं।।रोग.।।४६।।
जो गृहस्थ आप बिंब औ निलय बनावते।
दोय तीन ही भवों में सिद्धि सौख्य पावते।।रोग.।।४७।।
सप्त भंग की तरंग से ध्वनी तरंगिणी।
भव्य पाप पंक धोय के करे पवित्रनी।।रोग.।।४८।।
-वसंततिलका छंद-
तीर्थेश श्रीविमल के सुसमोसरण में।
यक्षेश शीश पर धर्म सु चक्र धारें।।
श्रीधर्मचक्र नमते मन ध्वांत१ भागे।
सज्ज्ञानसूर्य चमके शिव सौख्य जागे।।४९।।
आरे हजार चमकें जिनधर्म पैâले।
मोहारि शीश झट काट स्वराज्य ले लें।।श्री.।।५०।।
सम्यक्त्व रत्न अनमोल त्रिलोक में है।
जो आप भक्त उनको क्षण में मिले हैं।।श्री.।।५१।।
धर्मोपदेश प्रभु का अद्भुत जगत् में।
जो पा लिये भुवन में धन धन्य वो हैं।।श्री.।।५२।।
स्वामी अनंत यम अंतक नान्त्य गुणभृत्।
सौधर्म इन्द्र तुम किन्नर है शिरोनत।।श्री.।।५३।।
श्रीचक्र का सहज तेज अपूर्व ऐसा।
कोटी रवी शशि व अगनी में न वैसा।।श्री.।।५४।।
हैं आप में विमल दर्शन ज्ञान शक्ती।
निर्बाध सौख्य गुणमणिनिधियाँ अनंती।।श्री.।।५५।।
जो आपके चरण में नमते सदा ही।
वे गुण अनंत निज के धरते सदा ही।।श्री.।।५६।।
श्री धर्मनाथ निज आसन से अधर हैं।
मृत्यृंजयी पद सरोज नमें मुनी हैं।।श्री.।।५७।।
जो जन्म मृत्यु भव दु:ख विनाश चाहें।
वे धर्मतीर्थ जल में नित ही नहावें।।श्री.।।५८।।
पंचेंद्रियां मन छहों वश में करें जो।
छै द्रव्य को श्रद्धहें सुख से तिरें वो।।श्री.।।५९।।
जो साधु नित्य रमते जिनपाद में ही।
वे पावते निज सुधारस धाम जल्दी।।श्री.।।६०।।
श्री शांतिनाथ जिनके सु समोसरण में।
भक्ती धरें परम शांत बने क्षणों में।।श्री.।।६१।।
जो आपके चरण पंकज में नमें हैं।
वे सर्व वैर कलहादि स्वयं वमें हैं।।श्री.।।६२।।
हो पूर्ण शांति मन में इस हेतु वंदूं।
संपूर्ण ज्ञान सुख से निज आत्म मंडूं।।श्री.।।६३।।
श्री शांतिनाथ तिहुं लोक सुशांति दाता।
तुम नाम मंत्र जपते मिटती असाता।।श्री.।।६४।।
-सखी छंद-
श्री कुंथुनाथ जग त्राता, तुम समवसरण सुखदाता।
वैडूर्यमणी कटनी पे, नमुँ धर्मचक्र अतिदीपे।।६५।।
पहली कटनी मन मोहे, अठ मंगल द्रव्य सु सोहें।
जिन धर्मचक्र अति चमके, सब पुण्य फले अतिदमके।।६६।।
इस धर्मचक्र कटनी पे, पूजन सामग्री शोभे।
जिन धर्मचक्र मैं वंदूं, भवभव के दुख को खंडूं।।६७।।
धन धान्य स्वजन की वृद्धी, जिन वंदत सर्व समृद्धी।
जिन धर्मचक्र मैं वंदूं, भवभव के दुख को खंडूं।।६८।।
जो भक्तिभाव ले करके, जिन वंदें मन वच तन से।
वो पावें सुख अतिशायी, जिनधर्मचक्र सुखदायी।।६९।।
श्री अरहनाथ भगवंता, उन समवसरण विलसंता।
जिन धर्मचक्र मैं वंदूं, भवभव के दुख को खंडूं।।७०।।
मोहारिजयी अरनाथा, मुनि नित्य नमाते माथा।
जिन धर्मचक्र मैं वंदूं, भवभव के दुख को खंडूं।।७१।।
सब विघ्न अरी झट भागे, वंदन से सब सुख सागे।
जिन धर्मचक्र मैं वंदूं, भवभव के दुख को खंडूं।।७२।।
श्रीमल्लिनाथ भवविजयी, इन समवसरण सुखभरई।
जिन धर्मचक्र मैं वंदूं, भवभव के दुख को खंडूं।।७३।।
चिन्मय चिंतामणि देवा, चिंतित फलती प्रभुसेवा।
जिन धर्मचक्र मैं वंदूं, भवभव के दुख को खंडूं।।७४।।
जिन कल्पतरू फलदाता, बिन मांगे सब सुखदाता।
जिन धर्मचक्र मैं वंदूं, भवभव के दुख को खंडूं।।७५।।
सब इष्ट फलें पूजा से, सब विघ्न भगें पूजा से।
जिन धर्मचक्र मैं वंदूं, भवभव के दुख को खंडूं।।७६।।
मुनिसुव्रत जिनवर भक्ती, इससे प्रगटे निज शक्ती।
जिन धर्मचक्र मैं वंदूं, भवभव के दुख को खंडूं।।७७।।
रत्नत्रय अनघ निधी है, जिनपूजा से मिलती है।
जिन धर्मचक्र मैं वंदूं, भवभव के दुख को खंडूं।।७८।।
जो तपश्चरण नित करते, वे भी निज भक्ती धरते।
जिन धर्मचक्र मैं वंदूं, भवभव के दुख को खंडूं।।७९।।
जिनभक्ती समकित निधि है, इस बिन सिद्धी नहिं हो है।
जिन धर्मचक्र मैं वंदूँ, भवभव के दुख से छूटूँ।।८०।।
-अडिल्ल छंद-
समवसरण में नमि जिनराज विराजते।
प्रथम पीठ पर धर्म, चक्र शुभ राजते।।
सप्त परम स्थान, हेतु भक्ती करूँ।
धर्मचक्र को नमूं, मुक्ति लक्ष्मी वरूँ।।८१।।
अशुभ कर्म के बंध, उदय सत्ता टले।
ऋद्धि सिद्धि भरपूर, होय अतिशय भले।।सप्त.।।८२।।
सौम्य छवी नासाग्र दृष्टि मन को हरे।
सम्यग्दृष्टि भाव भक्ति से सुख भरें।।सप्त.।।८३।।
अशुभ योग से बचूँ प्रवृत्ती शुभ करूँ।
देश चरित को धार कर्म हल्के करूँ।।सप्त.।।८४।।
नेमिनाथ जिन समवसरण में राजते।
पूजत ही निजज्ञान ज्योति हृदि भासते।।सप्त.।।८५।।
रत्न जटित सिंहासन, छवि जन मन हरे।
अधर राजते जिनवर, त्रिभुवन सुख करें।।सप्त.।।८६।।
तीन छत्र शिर ऊपर, शोभें कांति से।
त्रिभुवन प्रभुत्ता कहें, सभी को भाव से।।सप्त.।।८७।।
ढोरें चौंसठ चंवर यक्ष भक्ती भरे।
जो जन भक्ती करें सुयश जिन विस्तरें।।सप्त.।।८८।।
पार्श्वनाथ जिनराज, सर्व सरताज हैं।
समवसरण में आप, सर्व जन तात हैं।।सप्त.।।८९।।
संकट मोचन शोकहरन, भविशर्ण हैं।
आप एक भववारिधि तारण तर्ण हैं।।।सप्त.।।९०।।
क्षमा मार्दव आर्जव सत्य सुधर्म हैं।
तुम भक्ती से धर्म करें शिव शर्म हैं।।सप्त.।।९१।।
शुचि संयम तप त्याग, अकिंचन ब्रह्मव्रत।
जिन भक्ती से पूरण हों, ये धर्म सब।।सप्त.।।९२।।
महावीर जिन समवसरण अतिशय भरा।
खाई लत्ाा बगीचे से चहुंदिश हरा।।सप्त.।।९३।।
अन्धे लंगड़े लूले बहिरे स्वस्थ हों।
बीस हजार सीढ़ियाँ चढ़ जिन भक्त हों।।सप्त.।।९४।।
धर्म चक्र के हजार आरे चमकते।
अंधकार जन मन का हरते दमकते।।सप्त.।।९५।।
जो परोक्ष में समवसरण को वंदते।
वे निश्चित प्रत्यक्ष दर्श को पावते।।सप्त.।।९६।।
-दोहा-
एक एक जिनराज के, चार-चार वृष१ चक्र।
छ्यानवें को वंदते, ज्ञानमती मम भद्र।।९७।।
—गीताछंद—
तीर्थंकरों के समवसृति में, चारदिश में शोभते।
ये धर्मचक्र हजार आरों, से चहूँदिशि चमकते।।
जो धर्मचक्र स्तोत्र यह, भविजन पढ़ेंगे भक्ति से।
वे धर्मचक्र चलाएँगे, नित वंद्य होंगे इंद्र से।।९८।।
-दोहा-
धर्मचक्र जिनदेव का, कहा अनादि अनंत।
समवसरण में राजता, अत: आदि भी अंत।।९९।।
-रोला छंद-
जय जय श्रीजिनदेव, जय जय श्री भगवंता।
जय जय तुमपद सेव, करते मुनिगण संता।।
जय जय सुर नर वंद्य, चरण कमल अतिशायी।
मिले निजातम सद्म, साम्य सुधारस पायी।।१००।।
जो तुम भक्ति करंत, पुण्य भंडार भरे हैं।
कटते पाप अनंत, गुण भंडार धरे हैं।।
विष निर्विष हो जाय, सर्प बनें सुम१ माला।
शत्रु मित्र हो जाय, अग्नि बने जल कमला।।१०१।।
नदी िंसधु तालाब, पार करें इक क्षण में।
स्थल सम बन जाय, नहिं डूबे जन जल में।।
जो जन हों प्रतिकूल, सब अनुकूल बने हैं।
व्यंतर भूत पिशाच, क्षण में दूर भगे हैं।।१०२।।
कुष्ठ भगंदर आदि, व्याधि नशें भक्ती से।
नहिं टिक सकती आधि, आर्त भगे शक्ती से।।
बंधे असाता कर्म, सातामय परिणमते।
जो वंदे जिन चर्ण, अशुभकरम शुभ बनते।।१०३।।
इष्ट वियोग न होय, नहिं अनिष्ट संयोगा।
इच्छित पूरे होय, कभी न हो दुख शोका।।
राजादिक सब वश्य, सब जग में यश पैâले।
करें सभी सन्मान, शांति स्वस्थता मीले।।१०४।।
धन धान्यादिक वृद्धि, वंश फले संतति से।
भार्या पुत्र सुतादि, बढ़ें धर्म नीति से।।
श्रावक धर्म बढ़ाय, दान शील उपवासा।
जिन पूजा सुखदाय, करो गृहस्थ निवासा।।१०५।।
समवसरण में पीठ, नीलमणी का सुंदर।
धर्मचक्र हैं चार, आरे सहस मनोहर।।
इनको वंदें भव्य, अतिशय पुण्य बढ़ावें।
करें करम वन ध्वस्त, शिव रमणी को पावें।।१०६।।
-दोहा-
नमूँ नमूँ नित भक्ति से, धर्मचक्र तिहुंकाल।
ज्ञानमती सुख संपदा, देकर करो निहाल।।१०७।।
-दोहा-
चौबीसों तीर्थेश को, नमूं अनंतों बार।
समवसरण में राजते, धर्मचक्र सुखकार।।१।।
हस्तिनापुर क्षेत्र पर, जंबूद्वीप विख्यात।
अतिशय जिनमंदिर यहां, अखिल विश्व में ख्यात।।२।।
चारित्र चक्रवर्ती गुरू, शांतिसागराचार्य।
उनके पट्टाधीश श्री, वीरसागराचार्य।।३।।
उनकी शिष्या आर्यिका ज्ञानमति, जग मान्य।
गणिनी मैंने भक्तिवश, रचा स्तोत्र महान।।४।।
जब तक जग में सौख्यप्रद, जिनशासन गुणखान।
धर्मचक्र स्तोत्र यह, तब तक हो सुखदान।।५।।
(इति श्रीतीर्थंकरधर्मचक्रस्तोत्रं समाप्तं)।।
।।इति मंगलं भूयात्।।