वर्तमान युग में २४ तीर्थंकर भगवन्तों के पाँचों कल्याणकों से पवित्र अनेकों तीर्थ हैं, जिनमें १६ जन्मभूमियाँ-
१ दीक्षाभूमि, ३ केवलज्ञानभूमि एवं ५ निर्वाणभूमियाँ हैं। दीक्षाभूमि १ एवं केवलज्ञान भूमि ३ होने का कारण यह है कि अधिकांश तीर्थंकरों के उन-उनकी जन्मभूमि में ही दीक्षा एवं केवलज्ञानकल्याणक हुए हैं। यहाँ सर्वप्रथम २४ तीर्थंकरों की १६ जन्मभूमियों के संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किए जा रहे हैं-
सोलह जन्मभूमियाँ
तीर्थंकर ऋषभदेव जन्मभूमि अयोध्या तीर्थ
(शाश्वत तीर्थ एवं वर्तमानकालीन पाँच तीर्थंकरों की जन्मभूमि)-
अयोध्या फैजाबाद से ५ किमी. है। यह दिल्ली-लखनऊ-मुगलसराय रेलवे लाइन पर उत्तर रेलवे का स्टेशन है। सड़क मार्ग से लखनऊ से १३९ किमी. और इलाहाबाद से १६० किमी. है। मुगलसराय, वाराणसी और लखनऊ व दिल्ली से सीधी गाड़ियाँ आती हैं।
जैन मान्यता के अनुसार अयोध्या शाश्वत नगरी है। प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के गर्भ और जन्मकल्याणक यहीं हुए। चार तीर्र्थंकरों-दूसरे अजितनाथ, चौथे अभिनंदननाथ, पाँचवें सुमतिनाथ और चौदहवें अनंतनाथ के गर्भ, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान कल्याणक यहीं पर हुए। इस प्रकार १८ कल्याणक सम्पन्न होने का सौभाग्य इस नगरी को प्राप्त है।
इसी नगरी में भगवान ऋषभदेव ने छ: कर्मों (असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिज्य) का ज्ञान समाज को दिया। अपनी पुत्री ब्राह्मी और सुंदरी को लिपि और अंक विद्या का ज्ञान दिया। भरत जी को बहत्तर कलाओं का शिक्षण दिया, सामाजिक व्यवस्था की स्थापना की, राजनैतिक सुव्यवस्था की दृष्टि से पुर, ग्राम, खेट, नगर आदि की व्यवस्था की। समूचे राष्ट्र को उन्होंने ५२ जनपदों में बांटा था।
भगवान के ज्येष्ठ पुत्र भरत ने यहीं से सम्पूर्ण भरत-खंड पर विजय प्राप्त कर प्रथम चक्रवर्ती सम्राट् होने का गौरव प्राप्त किया।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र के कारण अयोध्या को विशेष गौरव मिला। श्रीराम ने संसार में लोकमान्य मर्यादाओं की रक्षा, पितृभक्ति, बंधुत्व, जन सामान्य के महत्व ७आदि आदर्श उपस्थित किए।
अयोध्या से अनेकानेक महत्वपूर्ण घटनाओं का संबंध है लोकमानस पर उनकी गहरी छाप है।
यहाँ कुल नव दि. जैन मंदिर हैं-३ मंदिर रायगंज परिसर में (बड़ा मंदिर, तीन चौबीसी मंदिर, समवसरण मंदिर),१ मंदिर कटरा में और पाँच टोकों पर सुन्दर जिनमंदिर के निर्माण हुए हैं।
अयोध्या तीर्थ पर सभी जैन मंदिरों के निर्माण भारतगौरव आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज एवं पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी (जम्बूद्वीप रचना की पावन प्रेरिका) की प्रेरणा से सम्पन्न हुए हैं।
रायगंज परिसर के बड़ा मंदिर में भगवान ऋषभदेव की ३१ फुट उत्तुंग विशाल खड्गासन प्रतिमा विराजमान है।
तीर्थंकर संभवनाथ जन्मभूमि श्रावस्ती तीर्थ-
श्रावस्ती बलरामपुर-बहराइच रोड पर स्थित है। यह अयोध्या से गोंडा, बलराम होते हुए १०९ किमी. है। गोंडा, अयोध्या से ५० किमी. और वहाँ से बहराइच ४२ किमी. है। वहाँ से यह स्थान १७ किमी. है। यह प्राचीन नगर है किन्तु अब तो गोंडा और बहराइच जिलों की सीमा पर खंडहरों के रूप में है। रेल या बस-टैक्सी आदि से श्रावस्ती पहुँचा जा सकता है।
बलरामपुर-बहराइच मार्ग पर बसें खूब मिलती हैं। बलरामपुर से टैक्सी, जीप आदि भी मिलती है। बलरामपुर में एक जैन धर्मशाला भी बनी हुई है।
यह तीसरे तीर्थंकर भगवान संभवनाथ के गर्भ, जन्म, तप और केवलज्ञान का कल्याणक क्षेत्र है। भगवान का प्रथम समवसरण यहीं लगा था। भगवान महावीर का समवसरण भी यहाँ कई बार आया था।
श्रावस्ती आजकल सहेठ-महेठ कहलाता है। संभवत: यह मुनि मृगध्वज और मुनि नागदत्त की मुक्तिस्थली है यहीं पर जैन राजा सुहृद्ध्वज ने सैयद सालार यसऊद गाजी को हराया था।
अलाउद्दीन खिलजी ने यहाँ के मंदिरों, विहारों, स्तूपों, मूर्तियों को ध्वज किया था। भगवान संभवनाथ का मंदिर अब एक खंडहर के रूप में ही है। आजकल यह सोमनाथ मंदिर के नाम से जाना जाता है। सहेठ वह स्थान है, जहाँ पर जेतवन था। उस स्थान पर बौद्ध विहार था। महेठ प्राचीन श्रावस्ती था। इसके पश्चिमी भाग में जैन अवशेष प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुए हैं।
पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार यहाँ बहुत से जैन मंदिर थे। खुदाई में प्राप्त मूर्तियाँ, सिक्के, ताम्रपत्र व अभिलेख लखनऊ और कलकत्ता के संग्रहालयों में रखे हैं।
श्रावस्ती बौद्धों का भी तीर्थस्थल है। क्षेत्र पर (बहराइच जाने वाली सड़क पर) नवीन जैन मंदिर निर्मित हुआ है।
तीर्थंकर पद्मप्रभ जन्मभूमि कौशाम्बी तीर्थ-
इलाहाबाद से कौशाम्बी ६० किमी. दूर दक्षिण-पश्चिम दिशा में यमुना तट पर स्थित है। कौशाम्बी पहुँचने के दो मार्ग हैं।
इलाहाबाद से सराय अकिल (४२ किमी.) होते हुए सड़क से ६० किमी. पर यह क्षेत्र है। दूसरे रास्ते से इलाहाबाद से ३२ किमी. भखारी रेलवे स्टेशन है वहाँ से क्षेत्र ३२ किमी. दक्षिण की ओर है। प्राचीन वैभवसम्पन्न कौशाम्बी की जगह दो छोटे गाँव हैं-गढ़वा कौसमइनाम और कौसमखिराज। ये यमुना तट पर हैं। कौसमइनाम से क्षेत्र १ किमी. है।
छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ के गर्भ-जन्म, तप और ज्ञानकल्याणक यहीं पर हुए थे। दूसरी महत्वपूर्ण घटना यहाँ तब घटी जब भगवान महावीर केवलज्ञान प्राप्ति से पहले यहाँ पधारे थे। यहीं पर पारणा के लिए निकलने पर चंदनबाला जो सेठ वृषभसेन की पत्नी द्वारा बंधन में डाल दी गई थी, ने उनके दर्शन किए और उसके बंधन खुल गए। यहीं पर भगवान महावीर ने चंदनबाला के हाथों कोदों का आहार ग्रहण किया था। आगे चलकर भगवान महावीर के समवसरण में ३६००० आर्यिकाओं के संघ की प्रमुख यही चंदनबाला हुई।
भगवान महावीर कौशाम्बी कई बार पधारे थे। प्रयाग विश्वविद्यालय द्वारा खुदाई कराने पर यहाँ बड़ी संख्या में जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुईं। वे सब प्रयाग संग्रहालय में रखी हुई हैं। यह जैनधर्म का बहुत बड़ा केन्द्र रहा है।
तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ एवं पार्श्वनाथ जन्मभूमि वाराणसी तीर्थ का परिचय-
वाराणसी जैनधर्म का प्राचीन केन्द्र है। इसका प्राचीन नाम काशी है। यहाँ दो तीर्थंकरों-भगवान सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथ के गर्भ, जन्म, तप और केवलज्ञान कल्याणक हुए। भेलूपुर में तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ का तथा भदैनी घाट में सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ का जन्म हुआ था। भेलूपुर में विशाल दिगम्बर जैन मंदिर है, जिसे भगवान पार्श्वनाथ का जन्मस्थान मान जाता है, यहाँ दो और दिगम्बर जैन मंदिर भी हैं। इनके अतिरिक्त बूलानाले पर एक पंचायती मंदिर और अन्यत्र तीन चैत्यालय हैं। जौहरी जी के चैत्यालय में हीरे की एक प्रतिमा अति मनोज्ञ है। मैदागिन में विशाल दिगम्बर जैन मंदिर और धर्मशाला है।
भदैनी घाट (गंगातट) पर श्री स्याद्वाद महाविद्यालय दिगम्बर जैनों का एक प्रमुख शिक्षा केन्द्र है। यहाँ संस्कृत और जैन सिद्धान्तों की उच्चकोटि की शिक्षा दी जाती है। हिन्दू विश्वविद्यालय के समीपस्थ ‘सन्मति निकेतन’ नामक स्थान है जहाँ पर एक जैन मंदिर और छात्रावास है।
जैन परम्परा के अनुसार स्वामी समंतभद्र ने काशी में ही अपना रोग शांत किया और धर्मप्रभावना की थी। यहीं पर कविवर वृंदावन जी ने साहित्य साधना और काव्य रचना की थी। यहीं पर उनके पिता ने धर्मद्रोहियों का मानमर्दन कर जिनचैत्यालय बनवाया था।
स्थानीय भारत कला भवन में पुरातत्व संबंधी बहुमूल्य सामग्री संग्रहीत है। यह सामग्री विभिन्न युगों से संबंधित है। कलाभवन में पाषाण और धातु की अनेक मूर्तियाँ भी हैं।
हिन्दू मान्यता के अनुसार वाराणसी सप्त महापुरियों में है। यह भगवान शिव की नगरी कहलाती है। यहाँ अनेक शिवमंदिर हैं। काशी का संबंध सत्यवादी महाराजा हरिश्चंद्र, संत कबीर और गोस्वामी तुलसीदास से भी रहा है। काशी में प्राचीन विद्या के पठन-पाठन की परम्परा अभी भी है।
यहाँ गंगा के तट पर महामना मालवीय जी के प्रयासों से स्थापित काशी हिन्दू विश्वविद्यालय दर्शनीय है।
तीर्थंकर चन्द्रप्रभ जन्मभूमि चन्द्रपुरी तीर्थ-
यह मेनलाइन पर कादीपुर स्टेशन से ५ किमी. दूर गंगा तट पर है। सड़क मार्ग द्वारा यह वाराणसी से २० किमी. तथा सिंहपुरी से १७ किमी. है। यह मुख्य सड़क से २ किमी. अंदर है।
चंद्रपुरी अत्यंत रमणीक स्थान है। यहाँ आठवें तीर्थंकर भगवान चंद्रप्रभ के गर्भ-जन्म, तप और केवलज्ञानकल्याणक हुए। यहाँ गंगा तट पर दिगम्बर जैन मंदिर है, जिसे भारत सरकार के पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने सुरक्षित क्षेत्र घोषित किया हुआ है।
तीर्थंकर पुष्पदंत जन्मभूमि काकन्दी तीर्थ-
वर्तमान का खुखुंदू ही प्राचीन किष्किंधापुर या काकंदी नगर है। नूनखार स्टेशन से ३ किमी. पड़ता है। पश्चिम से आने वाले यात्रियों को देवरिया और पूर्व से आने वाले यात्रियों को सलेमपुर स्टेशन है। दोनों ही स्थानों से यह १४ किमी. पर है।
यहाँ तीन टीले और अनेक प्राचीन तालाब हैं। प्राचीन मंदिरों एवं भवनों के भग्नावशेष यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं।
इस स्थान का संबंध मुख्यत: नौवें तीर्थंकर भगवान पुष्पदंतनाथ से हैै। यहीं उनके गर्भ एवं जन्म तथा इसी नगर के पुष्पकवन में दीक्षाकल्याणक हुए थे। भगवान महावीर का समवसरण भी यहाँ कई बार आया था। यह स्थान अभयघोष मुनि का निर्वाणस्थल है। यहीं से अनेक जैन मुनियों ने मुक्ति प्राप्त की। खुदाई में यहाँ से अनेक जैन मूर्तियाँ, यक्षमूर्ति, चैत्यवृक्ष, स्तूप-अंश आदि प्राप्त हुए हैं। २०१० में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की पावन प्रेरणा से भव्य मंदिर का निर्माण कर भगवान पुष्पदंतनाथ की ९ फुट अवगाहना की पद्मासन प्रतिमा विराजमान की गई है।
तीर्थंकर शीतलनाथ जन्मभूमि भद्दिलपुर तीर्थ (भद्रिकापुरी)-
गया से कोल्हुआ पहाड़ ६७ किमी. है। इसे जैनी पहाड़ या पारसगिरि भी कहते हैं। गया से घंघरी, हंटरगंज व दंतारगांव होकर इस तीर्थ पर जाया जा सकता है। दंतारगांव में जैन धर्मशाला है, वहाँ से डेढ़ किमी. चलकर पर्वत की चढ़ाई आरंभ होती है, जो लगभग ३ किमी. है। मार्ग पगडंडी का ही है।
कोल्हुआ पहाड़ समुद्रतल से ५०० मीटर ऊँचा है। पहाड़ पर ध्वस्त प्राकार मिलते हैं। एक छोटा जैन मंदिर और विशाल सरोवर भी है।
कोल्हुआ पहाड़ से ८-१० किमी. दूर मोंदल गांव है। यही प्राचीन भद्रिकापुरी है। यहाँ भगवान शीतलनाथ के गर्भ और जन्मकल्याणक हुए थे। उनके दीक्षा और केवलज्ञान कल्याणक कोल्हुआ पहाड़ पर हुए थे। कोल्हुआ पहाड़ पर अनेक दर्शनीय प्राचीन प्रतिमाएँ हैं।
तीर्थंकर श्रेयांसनाथ जन्मभूमि सिंहपुरी तीर्थ-
सिंहपुरी (सारनाथ) वह स्थान है, जहाँ ग्यारहवें तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ के गर्भ-जन्म, दीक्षा और केवलज्ञानकल्याणक हुए। यह वाराणसी से सड़क द्वारा ६ किमी. है। यहाँ आने के लिए बसें, टैक्सी आदि हर समय मिलती हैं। यहाँ रेलवे स्टेशन भी है। स्टेशन से लगभग आधा किमी. की दूरी पर दिगम्बर जैन मंदिर और धर्मशाला है।
जैन मंदिर के निकट ही एक विशाल स्तूप है। इसकी ऊँचाई लगभग ३३ मीटर है। यह स्तूप २२०० वर्ष पुराना बताया जाता है। इसका निर्माण ‘सम्राट प्रियदर्शी’ ने कराया था। स्तूप के सामने के सिंहद्वार के दोनों स्तंभों पर सिंहचतुष्क बना है। सिंहों के नीचे धर्मचक्र है, जिसके दाई तरफ बैल और घोड़े की मूर्तियाँ अंकित हैं। इस स्तंभ की सिंहत्रयी को भारत सरकार ने राजचिन्ह के रूप में स्वीकारा है तथा धर्मचक्र को राष्ट्रध्वज पर अंकित किया है। इस स्तूप के बारे में मतभेद हैं। कुछ लोग इसे जैन स्तूप मानते हैं क्योंकि बनवाने वाले का नाम ‘देवानां प्रिय’ ही दिया गया है। पुरातत्व विभाग ने इसको सम्राट अशोक द्वारा निर्मित माना है। ‘देवानां प्रिय’ और स्तूप निर्माण ईसा के कुछ समय पूर्व तक जैनों में बहुत प्रचलित था। पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से यहाँ भगवान श्रेयांसनाथ की ११ फुट पद्मासन श्यामवर्णी मनोहारी प्रतिमा मंदिर प्रांगण में विराजमान की गई हैं।
बौद्ध मान्यता के अनुसार यह तीर्थ बहुत महत्वपूर्ण है। यहाँ पर भगवान बुद्ध ने पंचवर्गीय शिष्यों को उपदेश देकर धर्मचक्र प्रवर्तन किया था। इसे सारनाथ के नाम से जाना जाता है।
यहाँ के संग्रहालय में बहुत सी जैन मूर्तियाँ हैं।
तीर्थंकर वासुपूज्य जन्मभूमि चम्पापुर तीर्थ-
गुणावां से नवादा केवल दो किमी. है। वहाँ से नाथनगर १९० किमी. है। यहां एक ही परिसर में क्षेत्र का कार्यालय, धर्मशाला और मंदिर हैं। खुला चौक पार करने पर पुराना दिगम्बर जैन मंदिर है। दो प्राचीन मानस्तंभ भी बने हैं। नाथनगर ही प्राचीन चंपापुर है। यहाँ बारहवें तीर्थंकर भगवान वासुपूज्य के पाँचों कल्याणक हुए थे। केवल यही एक ऐसा क्षेत्र है, जहाँ किन्हीं तीर्थंकर के पाँचों कल्याणक हुए हों। यह अतीत में भारत का अतिप्रसिद्ध सांस्कृतिक नगर रहा है। भगवान ऋषभदेव द्वारा स्थापित ५२ जनपदों में से अंग जनपद की राजधानी होने का इसे गौरव प्राप्त है। बौद्ध युग में इसकी गणना छ: महानगरियों में की जाती थी।
यहीं पर कभी प्रख्यात हरिवंश की स्थापना हुई थी। यह नगर गंगातट पर बसा हुआ था, जहाँ धर्मघोष मुनि ने समाधिमरण किया था। गंगा नदी के एक नाले पर जिसका नाम चंपा नाला है, एक प्राचीन जिनमंदिर दर्शनीय है। नाथनगर के निकट तीन दिगम्बर जैन मंदिर हैं यह सिद्धक्षेत्र है। यहाँ से पद्मरथ, अंचल, अशोक आदि अनेक मुनि मुक्त हुए हैं। यहाँ के तेरहपंथी मंदिर के विशाल प्रांगण में सन् २०१३ में भगवान वासुपूज्य की भव्य खड्गासन ३१ फुट प्रतिमा विराजित हुई है।
तीर्थंकर विमलनाथ जन्मभूमि कम्पिल जी तीर्थ-
शिकोहाबाद से रेल द्वारा कायमगंज जाना चाहिए। कायमगंज फर्रुखाबाद जिले की एक तहसील है। कम्पिला जी कायमगंज से ८ किमी. दूर है। सड़क पक्की है।
कंपिला जी ही प्राचीन काम्पिल्य है। यहाँ तेरहवें तीर्थंकर भगवान विमलनाथ के गर्भ, जन्म, तप और ज्ञानकल्याणक हुए थे। यह राजा दु्रपद की राजधानी थी। यहीं पर द्रौपदी का स्वयंवर हुआ था। हरिषेण चक्रवर्ती ने यहाँ पर जैन रथ निकलवाकर धर्मप्रभावना की थी। भगवान महावीर का समवसरण भी यहाँ आया था। बस्ती के बीच में एक अतिप्राचीन मंदिर (निर्माण काल ४९२ ई.) है। इसमें भगवान विमलनाथ की मूलनायक प्रतिमा है। पहले इस मंदिर में जमीन के नीचे बनी एक कोठरी में भगवान विमलनाथ के चरणचिन्ह थे। अब वह कोठरी बंद कर दी गई है और चरण-पादुका बाहर विराजमान कर दी गई हैं। भगवान विमलनाथ की मूर्ति अतिशयपूर्ण है।
कम्पिला जी में चारों ओर खण्डित जिनप्रतिमाएँ बिखरी पड़ी हैं। इससे स्पष्ट है कि यहाँ और भी मंदिर थे।
तीर्थंकर धर्मनाथ जन्मभूमि रतनपुरी तीर्थ-
रतनपुरी (रौनाही ग्राम) वह पवित्र स्थान है, जहाँ १५वें तीर्थंकर भगवान धर्मनाथ के गर्भ, जन्म, दीक्षा और ज्ञानकल्याणक हुए थे। यहीं पर उन्होंने धर्मचक्र प्रवर्तन किया था। मंदिर के अलावा प्राचीन शिखरबंद स्तूप है जिस पर भगवान धर्मनाथ के चरण-चिन्ह स्थापित हैं। महासती मनोरमा ने यहीं पर अपनी दर्शन प्रतिज्ञा का पालन करते हुए गजमुक्ता चढ़ाए थे। मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र जी के वनगमन के समय ग्रामवासियों के करुण रुदन के कारण गांव का नाम रौनाही पड़ गया। यह स्थान पैâजाबाद-बाराबंकी सड़क मार्ग पर अयोध्या से २९ किमी. है।
तीर्थंकर शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ एवं अरहनाथ जन्मभूमि हस्तिनापुर तीर्थ-
खेकड़ा से मेरठ ५३ (दिल्ली से ६२) किमी. है। मेरठ उत्तर रेलवे का प्रमुख स्टेशन है। यहाँ काफी संख्या में जैन रहते हैं तथा कई दर्शनीय जिनमंदिर हैं। मेरठ से ३७ किमी. दूर हस्तिनापुर है। दिल्ली व मेरठ से बसें चलती हैं।
महाभारत काल में यह नगरी कुरुप्रदेश की राजधानी बताई जाती थी। कौरव-पांडव यहीं के थे। हस्तिनापुर ही वह तीर्थ है जहाँ इस युग के आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का विहार हुआ था। उन्होंने एक वर्ष के उपवास के बाद यहाँ पदार्पण किया। तब यहाँ के राजा श्रेयांस थे। उन्होंने भगवान को इक्षुरस का आहार देकर पुण्यलाभ प्राप्त किया था। वह तिथि थी अक्षय तृतीया। तब से ही अक्षय तृतीया का पर्व संचालित हो गया। इस प्रकार श्रेयांस को दान का आद्यप्रवर्तक कहा जाने लगा। इस क्षेत्र में भगवान आदिनाथ का समवसरण कई बार आया था। बाद में यहीं पर तीन पद के धारी (चक्रवर्ती, कामदेव, तीर्थंकर) श्री शांतिनाथ, कुंथुनाथ और अरनाथ इन तीन तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, तप और ज्ञानकल्याणक हुए थे। इन तीर्थंकरों ने छह खंड पृथ्वी की दिग्विजय करके चक्रवर्ती की विभूति पाई थी किन्तु उसको तृणवत् समझ, उसका त्याग कर दिया और इस प्रकार वे धर्मचक्रवर्ती हुए। यह तीर्थ हमें त्याग धर्म की शिक्षा देता है। श्री मल्लिनाथ का समवसरण भी यहाँ आया था। कुछ विद्वानों के मतानुसार भगवान पार्श्वनाथ का भी यहाँ पदार्पण हुआ था।
बलि और उसके मंत्रियों द्वारा अकम्पनाचार्य और अन्य ७०० मुनियों पर यहीं उपसर्ग किया गया था। उस उपसर्ग को मुनि विष्णुकुमार ने वामन रूप धारण कर दूर किया था। तभी से रक्षाबंधन का पर्व प्रारंभ हुआ।
ई. सन् १९७४ में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का इस तीर्थ पर पदार्पण हुआ, तभी से हस्तिनापुर ने नए इतिहास की रचना प्रारंभ कर दी, आज सम्पूर्ण विश्व इस तीर्थ को ‘जम्बूद्वीप रचना’ के कारण जानता है। विश्व की इस अद्वितीय रचना में जितने भी मंदिर हैं, अद्वितीय और स्वयं में अनूठे हैं। तीनमूर्ति मंदिर, कमल मंदिर, तीनलोक रचना आदि अनेकानेक मंदिर विशेष दर्शनीय और वंदनीय हैं। यहाँ करोड़ों वर्ष पूर्व भगवान ऋषभदेव के प्रथम आहार की स्मृति कराता ‘‘भगवान ऋषभदेव पारणा मंदिर’’ भी है। पर्यटन विभाग द्वारा ‘‘धरती का स्वर्ग’’ कहे जाने वाले इस पवित्र स्थल पर देश के ही नहीं विदेश के भी पर्यटक आकर असीम शांति की अनुभूति करते हैं। यहीं जैन भूगोल के समग्र स्वरूप को प्रदर्शित करने वाली अद्वितीय स्वर्णिम तेरहद्वीप रचना भी निर्मित है।
उत्तर भारत के गौरव का प्रतीक माना जाने वाला जम्बूद्वीप अपने आप में एक परिपूर्ण आध्यात्मिक केन्द्र है। सन् १९८५ से राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय आकर्षण केन्द्र के रूप में उभरे इस तीर्थ को दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान नामक संस्था संचालित करती है। शिक्षा प्रेमियों के लिए यहाँ लगभग १५ हजार पुस्तकों के भण्डारण का ‘जम्बूद्वीप पुस्तकालय’ तथा ‘गणिनी ज्ञानमती शोधपीठ’ के द्वारा विभिन्न जैन साहित्य पर शोधकार्य चलता है। हजारों मुद्रित ग्रंथों के साथ-साथ उक्त पुस्तकालय में अनेक प्राचीन प्राकृत एवं संस्कृत की पांडुलिपियाँ भी धरोहर के रूप में विद्यमान हैं। आबाल-गोपाल सभी की रुचि को ध्यान में रखते हुए इस परिसर के अंदर हीरक जयंती एक्सप्रेस में २४ तीर्थंकरों की १६ जन्मभूमियों का दिग्दर्शन, जम्बूद्वीप रेल, झूले आदि मनोरंजन के साधन एवं हरे-भरे लान आदि प्राकृतिक सौन्दर्य अद्भुत एवं दर्शनीय है। यहाँ होली, दीपावली, कार्तिक पूर्णिमा, अक्षय तृतीया, शरदपूर्णिमा आदि विशेष अवसरों पर विशेष मेला लगता है जिसमें दिगम्बर एवं श्वेताम्बर सम्प्रदाय के संगठन का परिचय प्राप्त होता है।
हस्तिनापुर में प्राचीन दि. जैन बड़ा मंदिर है, जिसमें अनेकों भव्य मंदिर हैं, वैâलाशपर्वत की मनोहारी रचना है। श्वेताम्बर मंदिर भी है, जिसके अन्तर्गत अष्टापद बना हुआ है।
यहाँ कार्तिक आष्टान्हिका के पर्व पर विशाल मेला होता है। फाल्गुनी आष्टान्हिका और ज्येष्ठ कृष्णा १४ को भी मेले होते हैं। अक्षय तृतीया के दिन भी विशेष समारोह आयोजित होता है।
तीर्थंकर मल्लिनाथ एवं नमिनाथ जन्मभूमि मिथिलापुरी तीर्थ-
उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ और इक्कीसवें तीर्थंकर भगवान नमिनाथ की जन्मभूमि ‘‘मिथिलापुरी’’ है जो वर्तमान में नेपाल के अंदर मानी जा रही है। उत्तरपुराण ग्रंथ में मिथिला नगरी बंग देश (बंगाल) में वर्णित है अतः यह खोज का विषय है।
इस मिथिला नगरी में इन दोनों तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान ये चार-चार कल्याणक हुए हैं। भगवान मल्लिनाथ ने माता प्रजावती और पिता कुम्भराज से मगशिर शुक्ला एकादशी को जन्म लिया था। इन्होंने विवाह नहीं किया और बालब्रह्मचारी रहकर दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर ली थी। पुनः सम्मेदशिखर पर्वत से मोक्ष प्राप्त किया था और भगवान नमिनाथ ने पिता विजय और माता वर्मिला से आषाढ़ कृष्णा दशमी के दिन अश्विनी नक्षत्र में जन्म लेकर मिथिलापुरी को पवित्र किया था तथा उन्होंने भी सम्मेदशिखर पर्वत से मोक्ष प्राप्त किया था। कुछ लोगों ने इस मिथिलानगरी का अस्तित्व काठमाण्डू (नेपाल) में मानकर वहाँ जैनमंदिर का निर्माण भी किया है किन्तु उसका निर्विवाद अस्तित्व जनता के समक्ष अवश्य आना चाहिए।
तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ जन्मभूमि राजगृही तीर्थ-
राजगृही नालंदा से १३ किमी. और बिहारशरीफ से २३ किमी. है। यह बख्त्यारपुर-राजगृही रेलवे लाइन का आखिरी स्टेशन है। नई दिल्ली से सीधे ट्रेन चलती है। यहाँ गया से नवादा होते हुए भी आया जा सकता है। भागलपुर से क्यूल जंक्शन होते हुए नवादा या बख्त्यारपुर उतरकर भी यहाँ पहुँचा जा सकता है।
तीर्थ के रूप में राजगृही की प्रसिद्धि भगवान महावीर के पहले से है। यहाँ बीसवें तीर्थंकर भगवान मुनिसुव्रतनाथ के गर्भ, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान कल्याणक हुए थे। राजगृही पाँच पहाड़ियों का समूह है इसलिए इसे पंचशील या पंचपहाड़ी भी कहते हैं। इन पाँच पहाड़ियों के नाम हैं : विपुलाचल, रत्नगिरि, उदयगिरि, अरुणगिरि (स्वर्णगिरि) और वैभारगिरि। इन्हीं पाँच पहाड़ियों से अनेक मुनियों ने मोक्ष प्राप्त किया है, य्ाथा-मुनिराज जीवंधर, श्वेत सुंदार्व, वैशाख, विद्युच्चर, गंधमादन, प्रीतिकर, धनदत्त आदिइसलिए राजगृही सिद्धक्षेत्र माना जाता है। भगवान महावीर का समवसरण यहाँ अनेक बार आया और राजा श्रेणिक ने अपनी शंकाओं का निवारण किया।
राजनैतिक दृष्टि से यह नगरी मगध की राजधानी रही है। महाराज श्रेणिक बिंबसार और उनके पुत्र कुणिक अजात-शत्रु की राजधानी भी यहीं थी। महाभारत काल में यह जरासंघ की राजधानी थी। उस युग में सामाजिक दृष्टि से इसका काफी महत्व था।
गौतम बुद्ध के संघ भी यहाँ कई बार आए। तत्कालीन श्रमण तीर्थंकरों और चिंतकों की यह क्रीड़ाभूमि थी। राजगृही प्राचीनकाल से ही जैनधर्म का प्रमुख केन्द्र रहा है। भगवान महावीर का धर्मचक्र प्रवर्तन इसी पवित्र स्थान पर हुआ। यहाँ श्रेणिक नामक राजा भगवान की शरण में आए और राजा एवं भगवान के अन्य भक्त जैनधर्म के उपासक बने। नि:संदेह यह स्थान पतितोद्धारक है। यहाँ निर्मल गरम जल के झरने हैं जिनमें नहाने के बाद थकान मिट जाती है।
सबसे पहले विपुलाचल पर्वत आता है, जिस पर चार जिनंदिर हैं। भगवान मुनिसुव्रतनाथ के चार कल्याणकों का स्मारक इसी पर्वत पर है। यहीं भगवान महावीर की देशनास्वरूप एक स्तंभ में चारों ओर प्रतिमाएँ स्थापित हैं। उपरांत उदयगिरि पर जाना चाहिए। इस पर दो मंदिर हैं। खुदाई में यहाँ दो प्राचीन दिगम्बर मंदिर भी निकले हैं। इनकी मूर्तियाँ नीचे लालमंदिर में पहुँचा दी गई हैं। यहाँ से तलहटी में होकर तीसरे पर्वत श्रमणगिरि पर जाना चाहिए। यहाँ पर तीन मंदिर हैंं। पहाड़ से उतरकर चौथे पहाड़ के रास्ते में सोन भंडार गुफा मिलती है। यहाँ दीवारों पर प्रतिमाएँ बनी हुई हैं। अंतिम पर्वत वैभारगिरि है। जिस पर पाँच मंदिर हैं। यहाँ एक विशाल प्राचीन मंदिर निकला है, जिसमें २४ कक्ष हैं। यह लगभग १२०० वर्ष पुराना है। इसमें कई मूर्तियाँ विराजमान हैं। इन सब मंदिरों के दर्शन करके यहाँ से डेढ़ किमी. दूर गणधर भगवान के चरणोें की वंदना करने जाना चाहिए। पहाड़ की तलहटी में सम्राट श्रेणिक के महलों के चिन्ह मिले हैं।
राजगृही में दो प्राचीन जिनमंदिर हैं, जिसमें लाल मंदिर जी में ई. सन् २००३-२००४ में कमलाकार जिनमंदिर में भगवान मुनिसुव्रतनाथ की श्यामवर्णी खड्गासन प्रतिमा विराजमान हुई है तथा विपुलाचल पर्वत की तलहटी में मानस्तंभ का भी निर्माण हुआ है।
तीर्थंकर नेमिनाथ जन्मभूमि शौरीपुर तीर्थ-
फिरोजाबाद से बस द्वारा शिकोहाबाद पहुँचकर शौरीपुर-बटेश्वर पहुँचा जा सकता है। बटेश्वर शिकोहाबाद से २५ किमी. है। बटेश्वर से शौरीपुर २ किमी. है।
शौरीपुर यादववंशी राजा शूरसेन की राजधानी था। यह स्थान बाईसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ (अरिष्टनेमि) के गर्भ और जन्मकल्याणक का स्थान है। यह श्रीधन्य, यम, विमलासुत केवलियों की मुक्तिभूमि और बहुत से मुनियों की केवलज्ञान भूमि भी है।
नेमिनाथ श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे। नेमिनाथ के पिता का नाम महाराजा समुद्रविजय था। उस समय यह नगर बड़ा समृद्ध था। बाद में श्रीकृष्ण की लीलाभूमि मथुरा हो गई। राजगृही अधिपति जरासंध के आक्रमणों से त्रस्त होकर यदुवंशी इस क्षेत्र का त्याग करके द्वारिका जा बसे।
शौरीपुर में कई प्राचीन दिगम्बर जैन मंदिर हैं। मुख्य मंदिर दो मंजिला है। दूसरा मंदिर वरुआमठ सबसे प्राचीन है। यहाँ कई मनोज्ञ प्रतिमाएँ हैं। एक बड़े परकोटे के भीतर कई प्राचीन टोंकें व छत्रियाँ हैं। एक छत्री में मुनि धन्य एवं यम की चरण पादुकाएँ हैं। दालान में भगवान नेमिनाथ की मूंगई पाषाण की एक प्रतिमा अत्यन्त मनोहारी एवं अतिशययुक्त है। यहाँ एक प्राचीन कुआं भी है, जिसका जल स्वास्थ्यवर्धक है।
शौरीपुर बटेश्वर होकर ही पहुँचना होता है। बटेश्वर यमुना तट पर स्थित प्रमुख शैव-तीर्थ है। यहाँ बटेश्वर महादेव का प्रसिद्ध मंदिर है और यमुना के किनारे एक सौ एक शिव मंदिर हैं। यहाँ यमुनातट पर एक विशाल जैन मंदिर है, जिसके साथ धर्मशाला भी है। इसमें श्री अजितनाथ भगवान की विशालकाय प्रतिमा है। इस मंदिर का निर्माण यहाँ के भट्टारकों ने कराया था। यहाँ श्री जगतभूषण आदि भट्टारकों का पट्ट (गादी) भी रहा है। यमुना के चढ़ जाने पर मंदिर का एक भाग जलमग्न हो जाता है। यहाँ भूगर्भ से प्रतिमाएँ मिलती रहती हैं। ३ जून १९७६ को इस क्षेत्र के लगभग ८० दस्युओं ने इसी मंदिर के प्रांगण में आत्मसमर्पण किया था।
तीर्थंकर महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर तीर्थ-
बिहार शरीफ से नालंदा १२ किमी. है। नालंदा बौद्ध विश्वविद्यालय के लिए विख्यात है किन्तु अब इसके ध्वंसावशेष ही मिलते हैं। नालंदा से बड़गाँव नामक गाँव तीन किलोमीटर की दूरी पर है। गांव के बाहर एक १५० वर्ष प्राचीन जिनमंदिर है। यही स्थान भगवान महावीर की जन्मभूमि (कुण्डलपुर) माना जाता रहा है। यहाँ पर एक प्राचीन मंदिर है एवं भगवान के चरण विराजमान हैं। इसे भगवान की गर्भ एवं जन्मभूमि माना जाता है।
भगवान महावीर जन्मूभूमि कुण्डलपुर (नालंदा) में ‘नंद्यावर्त महल’ नाम से निर्मित तीर्थ परिसर में १०८ फुट ऊँचा कलात्मक शिखर वाला विश्वशांति भगवान महावीर मंदिर है तथा उसके आजू-बाजू में भगवान ऋषभदेव मंदिर, नवग्रहशांति मंदिर हैं। महल के ठीक सामने तीन मंजिल ऊँचा विशाल त्रिकाल चौबीसी मंदिर है तथा दूसरी ओर भगवान महावीर के जन्म की याद दिलाता नंद्यावर्त महल है। नंद्यावर्त महल परिसर प्राचीन क्षेत्र के निकट है। सन् २००३-२००४ में विकसित इस तीर्थ की महिमा अद्भुत है। सम्मेदशिखर, राजगृही आदि तीर्थ की वंदना करने वाले यात्री इस तीर्थ की चरण रज से स्वयं को धन्य मानते हैं।
इलाहाबाद-प्रयाग-
कानपुर से इलाहाबाद २०० किमी. है। इलाहाबाद (प्रयाग) गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम पर बसा है। यह भारत का अतिपवित्र तीर्थ माना जाता है हिन्दू इसे तीर्थराज कहते हैं। यह शिक्षा और संस्कृति का प्रमुख केन्द्र है। संगम के निकट ही इलाहाबाद का प्रसिद्ध किला है। किले के अंदर एक वटवृक्ष है। यह अक्षय वट कहलाता है। कहते हैं कि तीर्थंकर ऋषभदेव ने इसी वटवृक्ष के नीचे तप किया था। यहीं उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ था इसीलिए इसे अक्षयवट कहते हैं। इस नगर में चार शिखरबंद मंदिर हैं जिनमें प्राचीन प्रतिमाएँ हैं। मंदिरों की बनावट मनोहारी है। चाहचंद मुहल्ले में जैन धर्मशाला है। यहाँ किला, विश्वविद्यालय, संगम, आनंदभवन, हिन्दी साहित्य सम्मेलन भवन, उच्च न्यायालय आदि अनेक दर्शनीय स्थल हैं।
यहाँ बारहों महीने यात्री आते रहते हैं। हर बारहवें वर्ष ‘कुंभ’ और छठे वर्ष ‘अर्धकुंभ’ पड़ता है। उस समय यहाँ बड़ा भारी मेला लगता है। लाखों की संख्या में स्नानार्थी आते हैं।
प्रयाग तपस्थली-तीर्थंकर ऋषभदेव ने जिस सिद्धार्थ वन में जाकर वटवृक्ष के नीचे दिगम्बर दीक्षा ग्रहण की थी वह स्थान इलाहाबाद में त्रिवेणी संगम के पास किले के अंदर है और वहाँ प्राचीन वटवृक्ष है। उसी से प्रभावित होकर इलाहाबाद से वाराणसी जाते समय तेरह किमी. पर प्रयाग तपस्थली का निर्माण सन् २००१ में हुआ है। यहाँ दीक्षा तपोवन, समवसरण रचना, वैâलाशपर्वत, गुफा मंदिर व कीर्तिस्तंभ के दर्शन होते हैं। कुल पाँच मंदिर हैं।
अहिक्षेत्र या अहिच्छत्र-
मुरादाबाद से चंदौसी लाइन पर आंवला स्टेशन से रामनगर (जिला-बरेली) केवल १८ किमी. है। रामनगर ही अहिक्षेत्र है। आंवला स्टेशन से अहिक्षेत्र के लिए जीप व टैम्पो आदि मिलते हैं। बरेली, बदायूं, रामपुर व दिल्ली से बस सेवा उपलब्ध है।
भगवान पार्श्वनाथ कुमारावस्था में वाराणसी में गंगातट पर घूम रहे थे। उन्होंने कमठ के जीव को अग्नि जलाकर पंचाग्नि तप करते हुए देखा। अपने अवधिज्ञान से उन्होंने जान लिया कि एक लकड़ी में सर्पयुगल है। लकड़ी चीरने पर वह सर्पयुगल निकला। उन्हें मरणासन्न जान भगवान ने सम्बोधन दिया। यह सर्प युगल स्वर्ग में धरणेंद्र और पद्मावती हुये।
भगवान पार्श्वनाथ दीक्षा के उपरान्त इस क्षेत्र में आकर तपस्या में लीन हुए। तापस के जीव कमठ ने उन पर घोर उपसर्ग किया। वह तनिक भी विचलित नहीं हुए। धरणेन्द्र और पद्मावती ने आकर अपने ‘नागफण मंडलरूप’ छत्र लगाकर अपनी कृतज्ञता प्रकट की। उपसर्ग दूर हुआ। भगवान को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। यहीं से उनके प्रथम धर्मचक्र का प्रवर्तन हुआ। उपसर्ग की अवस्था में सौ फण का छत्र होने के कारण धरणेन्द्र ने इस स्थान का नाम अहिच्छत्र या अहिक्षेत्र प्रकट किया।
‘महाभारत’ में पांचाल जनपद का उल्लेख मिलता है। उसके दो भाग बताए गए हैं। उत्तर भाग की राजधानी अहिक्षेत्र और दक्षिण भाग की राजधानी कांपिल्य। पहले पूरे पांचाल पर द्रुपद का राज्य था। द्रोणाचार्य ने उसे जीत लिया। फिर दो भागों में विभाजित कर दिया। उत्तम पांचाल पर स्वयं राज्य करने लगे। दक्षिण पांचाल द्रुपद को दे दिया।
यहां एक प्राचीन किला भी है, जो महाभारतकालीन बताया जाता है। यहां विस्तृत भूभाग में यत्र—तत्र प्राचीन खंडहर तथा कई शिलालेख और जैन मूर्तियां मिली हैं। यह क्षेत्र जैनधर्म का प्रमुख केन्द्र रहा है। यहां जैन राजाओं का दीर्घकाल तक राज्य रहा है। राजा वसुपाल ने यहां एक सुन्दर सहस्रकूट जिनमन्दिर का निर्माण कराया था। उसमें कसौटी के पाषाण की भगवान पार्श्वनाथ की नौ हाथ ऊंची लेपदार प्रतिमा विराजमान की थी। आचार्य पात्रकेशरी ने यहीं पर पद्मावती देवी द्वारा फणमंडप पर लिखित अनुमान के लक्षण पर अपनी शंका का निवारण किया था और जैनधर्म की दीक्षा ली थी। यह घटना राजा अवनिपाल के शासनकाल की है। राजा इस घटना से प्रभावित हुआ और उसने जैनधर्म स्वीकार कर लिया था। जिस समय गिरनार पर्वत पर भगवान नेमिनाथ का निर्वाणकल्याणक मनाया गया था, उसी समय यहां के राजा ने भी निर्वाणोत्सव मनाया था।
यहां एक प्राचीन शिखरबंद मन्दिर है। इसमें एक वेदी ‘तिखाल वाले बाबा’ की कहलाती है। बाबा का बड़ा चमत्कार है। इस मूर्ति की बड़ी मान्यता है। अनेक लोग मनौती मनाने आते हैं।
यहां कुल तीन मन्दिर हैं। रामनगर गांव में एक विशाल दिगम्बर जैन मन्दिर है। यहाँ का तीस चौबीसी मंदिर विशेष दर्शनीय है।
यहां पर एक कुंए के जल में विशेष गुण है। उस जल के पीने से अनेक रोग शांत हो जाते हैं। प्राचीन काल में समीपस्थ क्षेत्रों के राजा, नवाब आदि इस कुएं का जल मंगवाते थे। उत्तराभिधाना बावड़ी के जल में स्नान करने से कुष्ट रोग दूर हो जाता है। यहां के वन से अनेक प्रकार की औषधियाँ प्राप्त होती हैं।
मंदारगिरि-
मंदारगिरि भागलपुर से ४९ कि. मी. दूर है। यह भगवान वासुपूज्य का तप और मोक्षकल्याणक स्थान है। भागलपुर से मंदारगिरि को रेल और बस दोनों जाती हैं।
गांव का नाम बौंसी है। रेलवे स्टेशन के सामने बस स्टैंड से आधे किलोमीटर की दूरी पर दिगम्बर जैन मंदिर और धर्मशाला है। क्षेत्र का कार्यालय भी यहीं है। क्षेत्र कार्यालय से मंदारगिरि पर्वत ३ कि.मी. है। तलहटी से पर्वत की चढ़ाई डेढ़ कि. मी. से कुछ अधिक है। रास्ते में मंदिर और जलकुंड है। पर्वत शिखर पर दो बड़े मंदिर हैं : ‘बड़ा दिगम्बर जैन मन्दिर’ और ‘छोटा दिगम्बर जैन मन्दिर’ जहां भगवान वासुपूज्य की खड्गासन दिव्य प्रतिमा विराजमान है। पास ही एक गुफा भी है। तीनों जगह भगवान वासुपूज्य के चरणचिह्न अंकित हैं।
हिन्दू मान्यता के अनुसार समुद्रमंथन के समय इसी पर्वत (मंदराचल) को राई बनाया गया था।
प्रभाषगिरि-पभोसा-
यह कल्याणक क्षेत्र है। छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ के दीक्षा और ज्ञानकल्याणक का स्थान है। पभोसा कौशाम्बी का ही भाग माना जाता है। यहाँ एक विशाल दिगम्बर जैन मंदिर है। कुछ प्राचीन मूर्तियाँ भी जो खेतों से मिली थीं, यहाँ विराजमान हैं। मूलनायक प्रतिमा अतिशययुक्त है। यह दिन के बढ़ने-घटने के साथ रंग बदलती दिखाई देती है। एक चमत्कार यह भी बताया जाता है कि यहाँ केशर बरसती है, विशेष रूप से कार्तिक सुदी १३ और चैत्र सुदी १५ को।
यह क्षेत्र दीर्घकाल तक जैनों का एक प्रमुख केन्द्र रहा है। यहाँ का राजा उदयन बड़ा मंदिर था। उसके समय में यहाँ पर जैनधर्म बहुत उन्नति पर था। यहाँ आसपास में जैन पुरातत्त्व संबंधी सामग्री और मूर्तियाँ बहुतायत से मिली हैं।
गिरनार-
गिरनार तीर्थक्षेत्र को आचार्य वीरसेन ने धवला टीका में मंगल—क्षेत्र माना है। इस क्षेत्र में बाईसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ के तीन कल्याणक-दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण हुए हैं। गिरनार जूनागढ़ से केवल ५ कि. मी. है। जूनागढ़ में बंडीलाल दिगम्बर जैन कारखाना नाम से क्षेत्र का कार्यालय है। इसी में मंदिर और मानस्तंभ भी हैं। यहीं बड़ी धर्मशाला है। धर्मशाला से कुछ दूर चलने पर पहाड़ पर चढ़ने की सीढ़ियां शुरू हो जाती हैं। ४४०० सीढ़ियां चढ़कर पहली टोंक है। यहां पर ४ दिगम्बर जैन मंदिर और धर्मशाला हैं। निकट ही राजुल गुफा है। कहा जाता है कि राजुलमती ने यहीं तपस्या की थी। गुफा अंधेरी है और बैठकर जाना पड़ता है। फिर १०९ सीढ़ी चढ़कर गोमुख कुंड आता है। वहां दीवार में २४ चरण बने हुए हैं।
गोमुख से आगे खंगार का किला और अनेक श्वेताम्बर मंदिर हैं। पहली टोंक से १०० सीढ़ी चढ़कर अनिरुद्धकुमार की टोंक और निकट में अंबादेवी का मंदिर है। (यह मंदिर अब हिन्दुओं के अधिकार में है)। फिर ७०० सीढ़ी चढ़कर शंभुकुमार की टोंक और उसके बाद २५०० सीढ़ी चढ़कर पांचवी टोंक भगवान नेमिनाथ की है। यहां पण्डों ने अनधिकृत कब्जा किया हुआ है। चौथी टोंक प्रद्युम्नकुमार की है। इस प्रकार भगवान नेमिनाथ की टोंक तक पहुंचने में ९९९९ सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। वापसी में पहली टोंक से १४९९ सीढ़ियों द्वारा सहस्राम्र वन जाते हैं।
इस क्षेत्र पर ही आचार्य धरसेन के शिष्य पुष्पदंत एवं भूतबलि ने षट्खंडागम ग्रंथ की रचना की थी। पर्वत की तलहटी में निर्मल ध्यान केन्द्र में भव्य जिनालय दर्शनीय है। जूनागढ़ शहर में भी ऊपर कोट के पास दिगम्बर जैन मंदिर है।
श्री सम्मेदशिखर रेलवे स्टेशन का नाम पारसनाथ है, यह स्टेशन हावड़ा-दिल्ली रेलवे लाइन पर स्थित है, कस्बे का नाम ईसरी बाजार है। यहाँ तेरापंथी और बीसपंथी दो धर्मशालाएँ हैं। जिनमें भव्य दिगम्बर जैन मंदिर हैं। इसी के पास जैन सन्त गणेशप्रसाद जी वर्णी की समाधि है, साथ ही दिगम्बर जैन मंदिर है। यहाँ त्यागी आश्रम भी है। यहाँ से सम्मेदशिखर पर्वत दिखाई देता है। बस या टैक्सी द्वारा पहाड़ की तलहटी मधुवन पहुँचना चाहिए। ईसरी से मधुवन २२ किमी. है। ईसरी में कुल चार दिगम्बर जैन मंदिर हैं।
मधुवन में तेरापंथी और बीसपंथी कोठियों के अधीन कई धर्मशालाएँ हैं। जिनमें भव्य दिगम्बर जैन मंदिर हैं। कुन्दकुन्द मार्ग पर शाश्वत ट्रस्ट भवन, शाश्वत बिहार, उत्तरप्रदेश प्रकाश भवन एवं और भी कई धर्मशालाएँ हैं। इसी सड़क पर भगवान आदिनाथ व शीतलनाथ के मंदिर हैं। बीसपंथी कोठी के सामने मध्यलोक की रचना, तीर्थक्षेत्र कमेटी का कार्यालय, आचार्य श्री विमलसागर जी की समाधि, तीस चौबीसी का मंदिर व समवसरण रचना मंदिर दर्शनीय है।
सम्मेदाचल महापवित्र तथा अत्यन्त प्राचीन सिद्धक्षेत्र है। यह अनादि तीर्थ माना जाता है। इसकी वंदना करके प्रत्येक जैन अपना अहोभाग्य समझता है। अनंत तीर्थंकर भगवान अपनी अमृतवाणी और दिव्यदर्शन से इस तीर्थ को पवित्र बना चुके हैं। अनंतानंत मुनिगण यहाँ से मुक्त हुए हैं। इस युग के २० तीर्थंकर भी यहीं से मोक्ष पधारे हैं। मधुवैâटभ जैसे दुराचारी प्राणी भी यहाँ के पवित्र वातावरण में आकर पवित्र हो गये और स्वर्ग सिधारे। नि:संदेह इस तीर्थराज की महिमा अपार है। इंद्रादिक देव इसकी वंदना करके ही अपना जीवन सफल हुआ समझते हैं। यदि कोई भव्य जीव इस तीर्थ की यात्रा-वंदना भाव सहित करे तो उसे पूरे पचास भव भी धारण नहीं करने पड़ते। इस क्षेत्र का इतना प्रबल प्रभाव है कि वह ४९ भवों में ही संसार भ्रमण से छूटकर मोक्षलक्ष्मी का अधिकारी होता है। पं. द्यानतराय जी ने तो यहाँ तक कहा है-
एक बार वंदे जो कोई। ताहि नरक पशुगति नहिं होई।।
एक अन्य कवि ने इसी भाव को इस प्रकार व्यक्त किया है-
‘‘पुण्यवान पाते हैं दर्शन, छुटें नरक पशुगति के बंधन’’
इस गिरिराज की वंदना करने से परिणामों में निर्मलता होती है। फलत: पुण्य-कर्मबंध होता है, आत्मा में वह पुनीत संस्कार अत्यन्त प्रभावशाली हो जाता है कि जिससे पाप पंक में वह गहरा नहीं फंसता है। दिनोंदिन परिणामों की विशुद्धि होने से एक दिन वह प्रबल पौरुष प्रकट होता है, जो उसे आत्म स्वातंत्र्य अर्थात् मुक्ति दिलाता है। सम्मेदाचल की वंदना करते समय इस धर्म सिद्धांत का ध्यान रखें और बीस तीर्थंकरों के जीवन-चरित्र और गुणों में अपना मन लगाए रखें।
इस सिद्धाचल पर देवेन्द्र ने आकर जिनेन्द्र भगवान के निर्वाणस्थल चिन्हित कर दिए थे। उन स्थानों पर ‘चरण चिन्ह’ सहित सुंदर टोंक निर्मित की गई थीं। कहते हैं कि सम्राट श्रेणिक के समय में वे अतीव जीर्ण अवस्था में थीं। यह देखकर उन्होंने स्वयं उनका जीर्णोद्धार कराया और भव्य टोंकें निर्मित करा दीं। कालदोष से वे भी नष्ट हो गईं, जिस पर अनेक दानवीरों ने अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग जीर्णोद्धार में लगाकर किया। सन् १६७८ में यहाँ पर दिगम्बर जैनों का एक महान जिनबिम्ब प्रतिष्ठोत्सव हुआ था। पहले पालगंज के राजा इस तीर्थ की देखभाल करते थे। बाद में दिगम्बर जैनों का यहाँ जोर हुआ किन्तु मुसलामानों के आक्रमण में यहाँ का मुख्य मंदिर नष्ट हो गया। तब एक स्थानीय जमींदार भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा को अपने घर उठा ले गया। वह यात्रियों से कर वसूल करके उनको दर्शन कराता था। सन् १८२० ई. में कर्नल मैकेंजी ने अपनी आँखों से यह दृश्य देखा था। पर्याप्त यात्रियों के एकत्र होने पर वह कर वसूल करके दर्शन कराता था। जो कुछ भेंट चढ़ती थी सब वह ले लेता था। पार्श्वनाथ की टोंक वाले मंदिर में दिगम्बर जैन प्रतिमा ही प्राचीनकाल से रही है।
अब दिगम्बर, श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के जैन इस तीर्थ को पूजते हैं और मानते हैं।
उपरैली कोठी से ही पर्वत वंदना का मार्ग प्रारंभ होता है। वंदना प्रात: चार बजे से प्रारंभ होती है। ३ किमी. चढ़ाई चढ़ने पर गंधर्व नाला पड़ता है। फिर दो किमी. आगे चढ़ने पर दो मार्ग हो जाते हैं। बाईं तरफ का मार्ग पकड़ना चाहिए क्योंकि वह सीतानाला होकर गणधर टोंक को गया है। दूसरा रास्ता पार्श्वनाथ की टोंक से आता है। यहाँ से तीन किमी. की चढ़ाई पर चोपड़ा कुण्ड का दिगम्बर जैन मंदिर पड़ता है जिसमें भगवान पार्श्वनाथ, भगवान चन्द्रप्रभु व भगवान बाहुबली जी की प्रतिमाएँ विराजमान हैं। वहाँ से गणधर टोंक १ किमी. है। कुल चढ़ाई ९ किमी. है।
सबसे पहले गणधर टोंक की वंदना की जाती है। कहा भी है कि-
जिनवाणी की व्याख्या करके जीवों का उपकार किया।
इसीलिए श्री गणधर जी का सबने जय-जयकार किया।।
जिनराजों की टोंक से पहले वन्दन है श्री गणधर का।
जिनके तेजस्वी प्रकाश से तिमिर मिटे जीवन भर का।।
पर्वतराज पर कुल २१ प्राचीन टोंक हैं। एक गणधर की और २० विभिन्न तीर्थंकरों की हैं। दिगम्बर आम्नाय की इन सभी टोंकों में चरण-चिन्ह स्थापित हैं। जिस प्रकार गीली मिट्टी पर चलने से चरणों के चिन्ह बन जाते हैं उसी प्रकार यह चरण चिन्ह बने हैं।
पहले गौतम स्वामी की टोंक की वंदना करके बाएं हाथ की तरफ वंदना करते हैं। दसवीं श्री चन्द्रप्रभ जी की टोंक बहुत उॅँâची है। श्री अभिनंदननाथ जी की टोंक से उतरकर तलहटी में जलमंदिर में जाते हैं और फिर गणधर की टोंक पर पहुँचकर पश्चिम दिशा की ओर वंदना करते हैं। अंत में भगवान पार्श्वनाथ की स्वर्णभद्र टोंक पर पहुँचते हैं। यह टोंक सबसे ऊँची है और यहाँ का प्राकृतिक दृश्य बड़ा सुहावना है। यहाँ पहुँचते ही यात्री अपनी थकान भूल जाता है और जिनेन्द्र पार्श्व की चरण-वंदना करते ही आत्माह्लाद में निमग्न हो जाता है। यहाँ दर्शन-पूजन, सामायिक करके लौट आना चाहिए। नीचे उतरते समय ५०० मीटर पर डाक बंगले में दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी की ओर से रात्रि विश्राम और दिन में भोजन की व्यवस्था रहती है। सीतानाले पर जलपान गृह है, जिसका जीर्णोद्धार दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी ने कराया है। कोठियों की ओर से यात्रियों के लिए स्वल्पाहार व चाय का प्रबंध रहता है।
पर्वत समुद्र तल से लगभग १५०० मीटर ऊँचा है। इस पर्वतराज का प्रभाव अचिंत्य है। कुछ भी थकान मालूम नहीं होती है। नीचे मधुवन में लौटने पर वहाँ के मंदिरों के दर्शन करना चाहिए। मनुष्य जन्म पाने की सार्थकता तीर्थयात्रा करने में है और सम्मेदाचल की वंदना करके मानव कृतार्थ हो जाता है।