तीर्थंकर भगवान साक्षात् जिन कहलाते हैं जिनके बारे में कहा है कि१’’ जिण इव विहरंति सदा ते जिणकप्पे ठिया सवणा।” अर्थात् जो जिन के समान सदा विहार करते हैं वे जिनकल्प में स्थित श्रमण जिनकल्पी हैं। इस कथन के अनुसार ये तीर्थंकर भगवान ही जिन’’ कहलाते हेैं। उनके समान सदा विहार करने वाले मुनि जिनकल्पी कहलाते हंैं। इस कथन से यह स्पष्ट है कि तीर्थंकर महामुनि की चर्या जिनकल्पी मुनियों के लिए उदाहरणस्वरूप है अत: पर्वतों की कंदरा, गुफा, श्मशान आदि में निवास करने वाले तीर्र्थंकर भगवान किसी शहर, ग्राम, मंदिर या वसतिका आदि में वर्षायोग स्थापित करते हैं यह बात असंभव है। दिगम्बर संप्रदाय के प्रथमानुयोग ग्रंथों में भी तीर्थंकरों के वर्षायोग अर्थात् चातुर्मास करने का विधान, प्रमाण या उदाहरण उपलब्ध नहीं होता है।
वास्तव में तीर्थंकर भगवान को दीक्षा लेते ही अंतर्मुहूर्त में मन:पर्ययज्ञान प्रकट हो जाता है तथा वे छद्मस्थ अवस्था में केवलज्ञान होने तक मौन ही रहते हैं और अकेले ही विचरण करते हैं, न उनके पास शिष्यपरिकर रहता है, न संघव्यवस्था रहती है वे निर्द्वंद्व रहते हुये विचरण करते हैं और निर्जन स्थान आदि में ध्यान करते हैंं।
जिनकल्पी मुनियों में जिन शब्द में कल्प प्रत्यय हुआ है वह उनके किंचित् न्यून अर्थ को सूचित करता है। तथा-‘‘ईषदसमाप्तौ कल्पदेश्यदेशीया२।।५५६।।”
ईषत्-किंचित् अपरिसमाप्ति के अर्थ में कल्प, देश्य और देशीय प्रत्यय होते हैं जैसे ईषत् अपरिसमाप्त: पटु:-पटुकल्प:। अर्थात् किंचित परिपूर्णता में किंचित कमी रहते हुए के अर्थ में कल्प प्रत्यय होता है अत: जो जिनकल्पी की चर्या कही गई, उनके लिए उदाहरणस्वरूप और उनकी अपेक्षा भी जो विशेष हैं, परिपूर्ण हैं वे ही ‘जिन’ होते हैं, वे ही तीर्थंकर हैं अत: इनके वर्षायोग का कोई कारण प्रतीत नहीं होता है, न ही आगम में प्रमाण ही मिलता है।श्वेताम्बर ग्रंथों में भगवान महावीर के ४२ चतुर्मास माने हैं। १२ मुनि अवस्था में एवं ३० केवली भगवान की अवस्था में। ये दिगम्बर जैन ग्रंथों से संभव नहीं है।