मगध देश में एक ब्राह्मण नाम का नगर था। वहाँ एक शांडिल्य नाम का ब्राह्मण रहता था। उसकी भार्या का नाम स्थंडिला था, वह ब्राह्मणी बहुत ही सुन्दर और सर्व गुणों की खान थी। इस दम्पति के बड़े पुत्र के जन्म के समय ही ज्योतिषी ने कहा था कि यह गौतम समस्त विद्याओं का स्वामी होगा। उसी स्थंडिला ब्राह्मणी ने द्वितीय गार्ग्य पुत्र को जन्म दिया था, वह भी सर्वकला में पारंगत था, इन्हीं ब्राह्मण की दूसरी पत्नी केशरी के पुत्र का नाम भार्गव था। इस प्रकार ये तीनों भाई सर्व वेद-वेदांग के ज्ञाता थे। वह गौतम ब्राह्मण किसी ब्रह्मशाला में पांच सौ शिष्यों का उपाध्याय था। ‘‘मैं चौदह महाविद्याओं का पारगामी हूँ, मेरे सिवाय और कोई विद्वान् नहीं है।’’ ऐसे अहंकार में यह सदा चूर रहता था। इन तीनों भाइयों के इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति नाम ही प्रसिद्ध हैं।
भगवान् महावीर को केवलज्ञान प्रगट होकर समवसरण की रचना हो चुकी थी किन्तु दिव्यध्वनि नहीं खिर रही थी। ६६ दिन व्यतीत हो गए। तभी सौधर्म इन्द्र ने समवशरण में गणधर का अभाव समझकर अपने अवधिज्ञान से ‘‘गौतम’’ को इस योग्य जानकर वृद्ध का रूप बनाया और वहाँ गौतमशाला में पहुँचकर कहते हैं-
‘‘मेरे गुरु इस समय ध्यान में होने से मौन हैं अत: मैं आपके पास इस श्लोक का अर्थ समझने आया हूँ।’’ गौतम ने विद्या के गर्व से गर्विष्ठ हो पूछा-‘‘यदि मैं इसका अर्थ बता दूँगा तो तुम क्या दोगे ?’’ तब वृद्ध ने कहा-यदि आप इसका अर्थ कर देंगे तो मैं सब लोगों के सामने आपका शिष्य हो जाऊँगा और यदि आप अर्थ न बता सके तो इन सब विद्यार्थियों और अपने दोनों भाइयों के साथ आप मेरे गुरु के शिष्य बन जाना। महाअभिमानी गौतम ने यह शर्त मंजूर कर ली क्योंकि वह समझता था कि मेरे से अधिक विद्वान इस भूतल पर कोई है ही नहीं। तब वृद्ध ने वह काव्य पढ़ा-
धर्मद्वयं त्रिविधकालसमग्रकर्म, षड्द्रव्यकायसहिता: समयैश्च लेश्या:।
तत्त्वानि संयमगती सहितं पदार्थै-रंगप्रवेदमनिशं वद चास्तिकायं।।
तब गौतम ने कुछ देर सोचकर कहा-‘‘अरे ब्राह्मण! तू अपने गुरु के पास ही चल। वहीं मैं इसका अर्थ बताकर तेरे गुरु के साथ वाद-विवाद करूँगा।’’ इन्द्र तो चाहता ही यह था। वह वृद्ध वेषधारी इन्द्र गौतम को समवशरण में ले आया।
वहां मानस्तम्भ को देखते ही गौतम का मान गलित हो गया और उसे सम्यक्त्व प्रगट हो गया। गौतम ने अनेक स्तुति करते हुए भगवान के चरणों में नमस्कार किया तथा अपने पांच सौ शिष्यों और दोनों भाइयों के साथ भगवान के पादमूल में जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। अन्तर्मुहूर्त में ही इन गौतममुनिराज को अवधि और मन:पर्ययज्ञान प्रगट हो गया तथा वे महावीर स्वामी के प्रथम गणधर हो गए। उत्तर पुराण में लिखा है-
‘‘तदनन्तर सौधर्मेन्द्र ने मेरी पूजा की और मैंने पांच सौ ब्राह्मण पुत्रों के साथ श्री वर्धमान भगवान को नमस्कार कर संयम धारण कर लिया। परिणामों की विशेष शुद्धि होने से मुझे उसी समय सात ऋद्धियाँ प्राप्त हो गईं। तदनन्तर भट्टारक वर्धमान स्वामी के उपदेश से मुझे श्रावण वदी प्रतिपदा के दिन पूर्वान्ह काल में समस्त अंगों के अर्थ तथा पदों का भी स्पष्ट बोध हो गया, पुन: चार ज्ञान से सहित मैंने रात्रि के पूर्व भाग में अंगों की तथा रात्रि के पिछले भाग में पूर्वों की रचना की, उसी समय मैं ग्रन्थकर्ता हुआ हूँ।’’
श्री गौतमस्वामी के द्वारा रचित कतिपय रचनायें दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में आज भी उपलब्ध हैं और प्रसिद्ध हैं।
इस प्रकार गौतम गणधर स्वामी ने अपने मुख से स्वयं को द्वादशांगश्रुत का ग्रंथ कर्ता कहा है। उन्होंने भगवान महावीर के मोक्ष दिवस को सायंकाल में केवलज्ञान प्राप्त किया पुन: आयु के अन्त में सम्पूर्ण कर्मों का नाश करके गुणावा से निर्वाण को प्राप्त किया है।
विशेष-वर्तमान में बिहार प्रान्त में स्थित गुणावा जी तीर्थ गौतम गणधर की निर्वाणभूमि तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध है। शास्त्रों में कहीं विपुलाचल पर्वत का नाम भी आता है।
चैत्यभक्ति-
चैत्यभक्ति के बारे में ऐसी प्रसिद्धि है कि गौतम ब्राह्मण जब भगवान महावीर स्वामी के समवसरण में पहुँचते हैं और मानस्तम्भ देखकर उनका मान गलित हो जाता है, तब भक्ति में गद्गद् होकर भगवान की स्तुति करते हुए उच्चारण करते हैं-‘‘जयति भगवान्’’ इत्यादि।
इस बात का स्पष्टीकरण स्वयं टीकाकार श्री प्रभाचन्द्राचार्य के शब्दों में देखिए-
‘‘श्रीवर्धमानस्वामिनं प्रत्यक्षीकृत्य गौतमस्वामी जयतीत्यादि स्तुतिमाह’’-
श्री वर्धमानस्वामी का प्रत्यक्ष दर्शन करके श्री गौतमस्वामी ‘‘जयति’’ इत्यादि स्तुति करते हैं। यथा-
जयति भगवान् हेमाम्भोजप्रचारविजृंभिता-वमरमुकुटच्छायोद्गीर्णप्रभापरिचुम्बितौ।
कलुषहृदया मानोद्भ्रान्ता: परस्परवैरिणौ, विगतकलुषा: पादौ यस्य प्रपद्य विशश्वसु:।।१।।
वे भगवान जयवन्त होवें कि जिनके चरणों का आश्रय लेकर कलुष मन वाले, मान से ग्रसित ऐसे परस्पर में एक दूसरे के वैरी भी जन्तु क्रूर भाव को छोड़कर परस्पर विश्वास को प्राप्त हो गए हैं। भगवान के चरण युगल कैसे हैं ? देवों द्वारा रचित सुवर्णमयी कमलों पर विहार करने से शोभा को प्राप्त हैं तथा इन्द्रों के मुकुटों की मणियों की निकलती हुई कांति की प्रभा से स्पशि&त हैं।
यह चैत्यभक्ति अनेक छन्दमय है, ३५ श्लोकों में बहुत ही मधुर, सरस और उत्तम है। अन्त में पांच श्लोक जो पृथ्वी छन्द में हैं उनका छन्द और वण& लालित्य अवण&नीय है। उनमें भगवान की वीतराग छवि और अनेक शुभ लक्षणों का वण&न है यथा-
अताम्रनयनोत्पलं सकलकोपवन्हेजयात्, कटाक्षशरमोक्षहीनमविकारतोद्रेकत:।
विषादमदहानित: प्रहसितायमानं सदा, मुखं कथयतीव ते हृदयशुद्धिमात्यन्तिकीम्।।३१।।
हे भगवन्! आपके नेत्रकमल लालिमा रहित हैं क्योंकि आपने सकल क्रोधरूपी अग्नि को जीत लिया है। आपके नेत्र कटाक्ष बाणों से भी रहित हैं क्योंकि आप में विकार का उद्रेक है ही नहीं। आप का मुख सदा मन्द-मन्द मुस्कान को लिए हुए है अर्थात प्रसन्न मुद्रायुक्त है क्योंकि आप में विषाद और मद का अभाव हो चुका है इसलिए हे नाथ! आपका मुख ही मानो आपके हृदय की आत्यन्तिक शुद्धि-निर्मलता को कह रहा है।
इस प्रकार से बहुत ही गूढ़ और महान अर्थ को लिए हुए यह चैत्यभक्ति अपने आप में अनुपम निधि है।
उसी प्रकार से मुनि, आयिका आदि जिस प्रतिक्रमण को प्रतिदिन प्रात: और सायंकाल में करते हैं वह दैवसिक-रात्रिक प्रतिक्रमण तथा पन्द्रह दिन में होने वाला या चार महीना या वर्ष में होने वाला बड़ा प्रतिक्रमण तथा अष्टमी आदि में होने वाली आलोचना-ये तीनों प्रतिक्रमण श्री गौतम स्वामी द्वारा रचित हैं। यह रचनायें साक्षात् उनके मुखकमल से विनिग&त हैं।
दैवसिक प्रतिक्रमण की टीका करते हुए श्री प्रभाचन्द्राचाय& कहते हैं-
‘‘श्रीगौतमस्वामी मुनीनां दुष्षमकाले दुष्परिणामादिभि: प्रतिदिनमुपाजि&तस्य कम&णो विशुद्ध्यथं& प्रतिक्रमणलक्षणमुपायं विदधानस्तदादौ मंगलाथ&मिष्टदेवताविशेषं नमस्करोति’’-
‘श्रीमते वर्धमानाय नमो’ इत्यादि।
श्री गौतमस्वामी इस दुष्षमकाल में मुनियों के द्वारा दुष्परिणाम आदि से प्रतिदिन उपाजि&त किए गए जो क्रम हैं, उनकी विशुद्धि के लिए प्रतिक्रमण लक्षण उपाय को कहते हुए उसकी आदि में मंगल के लिए इष्ट देवता विशेष को नमस्कार करते हैं-
श्रीमान् वर्धमान भगवान् को नमस्कार हो-इत्यादि।
निषीधिका दण्डक-
इस दैवसिक प्रतिक्रमण के अंतर्गत प्रतिक्रमण भक्ति में ‘‘निषीधिका दण्डक’’ आता है इसमें प्रथम पद जो ‘‘णमो णिसीहियाए’’ है, उसका अर्थ टीकाकार ने १७ प्रकार से किया है। यथा- १. जिन और सिद्ध की कृत्रिम-अकृत्रिम प्रतिमायें, २. उनके मन्दिर, ३. बुद्धि आदि ऋद्धि से सहित मुनिगण, ४. उनसे आश्रित क्षेत्र, ५. अवधि, मन:पय&य और केवलज्ञानी, ६. उनके ज्ञान उत्पत्ति के प्रदेश ७. उनसे आश्रित क्षेत्र, ८. सिद्धजीव, ९. उनके निवा&ण क्षेत्र, १०. उनसे आश्रित आकाश प्रदेश, ११. सम्यक्त्व आदि चार गुणयुक्त तपस्वी, १२. उनसे आश्रित क्षेत्र, १३. उनके द्वारा छोड़े गए शरीर के आश्रित प्रदेश, १४. योग में स्थित तपस्वी, १५. उनसे आश्रित क्षेत्र, १६. उनके द्वारा छोड़े गए शरीर के आश्रित प्रदेश, १७. और तीन प्रकार के पण्डितमरण में स्थित मुनिगण।
इस निषीधिका दण्डक में श्रीगौतमस्वामी ने अष्टापदपर्वत, सम्मेदशिखर, चम्पापुरी, पावापुरी आदि की भी वंदना की है।
जब चार ज्ञानधारी सर्वऋद्धि समन्वित गौतम गणधर इन तीर्थक्षेत्रों की वंदना करते हैं, तब आज जो अध्यात्म की नकल करने वाला कोई यह कह दे कि ‘‘यदि साधु के तीर्थ वंदना का भाव हो जावे तो उसे प्रायश्चित्त लेना चाहिए।’’ यह कथन जैन सिद्धान्त से कितना विपरीत है, यह विद्वानों को स्वयं सोचना चाहिए।
गणधरवलय मन्त्र-
इसी प्रकार बड़ा प्रतिक्रमण जो कि पाक्षिक, चातुमर्सिक और वार्षिकरूप से किया जाता है। उसकी टीका के प्रारम्भ में टीकाकार कहते हैं-
‘‘श्रीगौतमस्वामी दैवसिकादि प्रतिक्रमणादिभिनि&राकतु&मशक्यानां दोषानां निराकरणाथं& वृहत्प्रतिक्रमणलक्षमुपायं विदधानस्तदादौ मंगलाट्यथ&मिष्टदेवताविशेषं नमस्कुव&न्नाह णमोजिणाणमित्यादि।’’
ये ‘‘णमो जिणाणं, णमो ओहिजिणाणं’’ आदि ४८ मन्त्र गणधरवलय मन्त्र कहे जाते हैं, वृहत्प्रतिक्रमणपाठ में प्रतिक्रमणभक्ति में इनका प्रयोग है।
इन मन्त्रों का मंगलाचरणरूप धवला की नवमी पुस्तक में है। वहाँ का प्रकरण देखिए-
णमो जिणाणं-जिनों को नमस्कार हो।
यह सूत्र मंगल के लिए कहा गया।
पूर्व संचित कमों के विनाश को मंगल कहते हैं।
यदि ऐसा है तो ‘‘जिनसूत्रों का अथ& भगवान के मुख से निकला हुआ है, जो विसंवाद रहित होने के कारण केवलज्ञान के समान है तथा वृषभसेन आदि गणधर देवों द्वारा जिनकी शब्द रचना की गई है, ऐसे द्रव्य सूत्रों से उनके पढ़ने और मनन करनेरूप क्रिया में प्रवृत्त हुए सब जीवों के प्रतिसमय असंख्यात गुणित श्रेणीरूप से पूर्व संचित कर्मो की निर्जरा होती है।’’ इसी प्रकार विधान होने से यह जिन नमस्कारात्मक सूत्र व्यर्थ पड़ता है अथवा यदि यह सूत्र सफल है तो सूत्रों का अध्ययन व्यथ& होगा क्योंकि उससे होने वाला कम&क्षय इस जिन नमस्कारात्मक सूत्र में ही पाया जाता है, इस प्रकार दोनों का विषय भिन्न है।
आगे दूसरे सूत्र की उत्थानिका में विशेष स्पष्टीकरण हो रहा है। इस प्रकार द्रव्याथि&क जनों के अनुग्रहाथ गौतम भट्टारक महाक्रम प्रकृति प्राभृत की आदि में नमस्कार करके पया&याथि&क नययुक्त शिष्यों के अनुग्रहाथ उत्तर सूत्रों को कहते हैं।
णमो ओहिजिणाणं।— अवधिजिनों को नमस्कार हो।
यहाँ अभिप्राय यह है कि ‘‘महाक्रम प्रकृति प्राभृत’’ ग्रन्थ को रचते हुए भट्टारक श्री गौतमस्वामी मंगलाचरण में सर्वप्रथम ‘‘णमो जिणाणं’’ सूत्र का उच्चारण करते हैं। यद्यपि उतने एक सूत्र से मंगल हो गया है फिर भी पर्यायार्थिकजन के अनुग्रह के लिए आगे के अन्य सूत्रों की रचना करके मंगल करते हैं।
यहाँ यह बात विशेष समझने की है कि धवला के सूत्र साक्षात् जिनेन्द्र भगवान् के मुख से विनिर्गत होने से बहुत ही प्रमाणिक हैं।
यहाँ ‘णमो जिणाणं’ में छठे गुणस्थान से लेकर अर्हन्त भगवान तक के सभी जिनों को लिया है अव्रतियों को नहीं लिया है, ऐसा समझना चाहिए। एक-एक मन्त्र के अर्थों की कितनी विशेषता है, विशेष इच्छुकों को इनके टीका ग्रन्थों को पढ़ना चाहिए। एक मन्त्र के अर्थ को कहते हैं-
‘‘णमो दित्ततवाणं’’।
दीप्ति का कारण होने से तप दीप्ति कहा जाता है। दीप्त है तप जिनका, वे दीप्ति तप हैं। चतुर्थ व षष्ठ आदि उपवासों के करने पर जिनका शरीर तेज तप जनित लब्धि के माहात्म्य से प्रतिदिन शुक्ल पक्ष के चन्द्र के समान बढ़ता जाता है, वे ऋषि दीप्ततप कहलाते हैं। उनकी केवल दीप्ति ही नहीं बढ़ती है अपितु बल भी बढ़ता है क्योंकि शरीर, बल, माँस और रुधिर की वृद्धि के बिना शरीर दीप्ति की वृद्धि नहीं हो सकती है इसलिए उनके आहार भी नहीं होता क्योंकि उसके कारणों का अभाव है। यदि कहा जाए कि भूख के दु:ख को शांत करने के लिए वे भोजन करते हैं, सो भी ठीक नहीं क्योंकि उनके भूख के दु:ख का अभाव है।
धवला टीका से यह निश्चित है कि श्री गौतम स्वामी चार ज्ञान के धारक सर्व ऋद्धियों से समन्वित महान तपस्वी भगवान महावीर स्वामी के प्रथम गणधर थे। भगवान को केवलज्ञान होने के बाद भी ६६ दिन तक उनकी दिव्यध्वनि नहीं खिरी थी, फिर जब इन्द्र ने इस इन्द्रभूति गौतम को भगवान के समवशरण में प्रवेश कराया था तब उनके जैनेश्वरी दीक्षा लेने के बाद ही ६६ दिन के अनंतर भगवान की दिव्यध्वनि खिरी थी पुन: श्रीगौतमस्वामी ने दीक्षा लेते ही अन्तर्मुहूर्त के बाद मन:पर्ययज्ञान को प्राप्त कर लिया था उसी दिन सायंकाल में अंगपूर्व की रचना कर ली थी।
इन्हें धवला में भूतबलि आचार्य ने वैâसे लिया है, सो धवला में स्पष्ट किया है-
‘‘यह निबद्ध मंगल तो नहीं हो सकता क्योंकि कृति आदिक चौबीस अनुयोगद्वाररूप अवयवों वाले महाकर्मप्रकृति प्राभृत की आदि में गौतम स्वामी ने इसकी प्ररूपणा की है और भूतबलि भट्टारक ने वेदना- खण्ड के आदि में मंगल के निमित्त इसे वहाँ से लाकर स्थापित किया है अत: इसे निबद्ध मंगल मानने में विरोध है।’’
‘‘वर्धमान भगवान ने तीर्थ की उत्पत्ति की है।’’ अठारह महाभाषा और सात सौ क्षुद्रभाषा स्वरूप द्वादशांगात्मक उन अनेक बीजपदों के प्ररूपक अर्थकर्ता हैं तथा बीजपदों में लीन अर्थ के प्ररूपक बारह अंगों के कर्ता गणधर भट्टारक ग्रन्थकर्ता हैं। ग्रंथकर्ता गौतम स्वामी की विशेषता धवला टीकाकार क्या बतला रहे हैं। देखिए-
पाँच महाव्रतों के धारक, तीन गुप्तियों से रक्षित, पांच समितियों से युक्त, आठ मदों से रहित, सात भयों से मुक्त, बीज, कोष्ठ, पदानुसारी व सम्भिन्नश्रोतृत्व बुद्धियों से उपलक्षित, प्रत्यक्षभूत उत्कृष्ट अवधिज्ञान से असंख्यात लोकमात्र काल में अतीत, अनागत एवं वर्तमान परमाणु पर्यन्त समस्त मूर्त द्रव्य व उनकी पर्यायों को जानने वाले सप्त तपलब्धि के प्रभाव से मल-मूत्ररहित, दीप्ततपलब्धि के बल से सर्वकाल उपवासयुक्त होकर भी शरीर के तेज से दसों दिशाओं को प्रकाशित करने वाले, सर्वौषधि लब्धि के निमित्त से समस्त औषधियों स्वरूप, अनन्त बलयुक्त होने से हाथ की कनिष्ठा अंगुली द्वारा तीनों लोकों को चलायमान करने में समर्थ, अमृतास्रव आदि ऋद्धियों के बल से हस्तपुट में गिरे हुए सब आहारों को अमृत स्वरूप से परिणमाने में समर्थ, महातप गुण से कल्पवृक्ष के समान, अक्षीणमहानस लब्धि के बल से अपने हाथों में गिरे हुए आहारों की अक्षयता के उत्पादक, अघोरतप ऋद्धि के माहात्म्य से जीवों के मन, वचन एवं कायगत समस्त कष्टों को दूर करने वाले, सम्पूर्ण विद्याओं के द्वारा सेवित चरणमूल से संयुक्त, आकाशचारण गुण से सब जीवसमूहों की रक्षा करने वाले, वचन एवं मन से समस्त पदार्थों के सम्पादन करने में समर्थ, अणिमादिक आठ गुणों के द्वारा सब देवसमूहों को जीतने वाले, तीनों लोकों के जनों में श्रेष्ठ, परोपदेश के बिना अक्षर व अनक्षररूप सब भाषाओं से हम सबको ही कहते हैं-‘‘इस प्रकार सबको विश्वास कराने वाले तथा समवसरणस्थ जनों के कर्ण इन्द्रियों में अपने मुँह से निकली हुई अनेक भाषाओं के सम्मिश्रित प्रवेश के निवारक ऐसे गणधर देव ग्रन्थकर्ता हैं क्योंकि ऐसे स्वरूप के बिना ग्रन्थ की प्रमाणता का विरोध होने से धर्म रसायन द्वारा समवसरण के जनों का पोषण बन नहीं सकता।
गणधरदेव बुद्धि, तप, विक्रिया, औषध, रस, बल, अक्षीण, सुस्वरत्वादि ऋद्धियों तथा अवधि एवं मन:पर्यय ज्ञान से सहित होते हैं।
संपहि वड्ढमाणतित्थगंथकत्तारो वुच्चदे-
अब वर्धमान जिन के तीर्थ में ग्रन्थकर्ता को कहते हैं-
पाँच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय, पांच महाव्रत, आठ प्रवचनमाता अर्थात् पाँच समिति और तीन गुप्ति तथा सहेतुक बन्ध और मोक्ष।
‘‘उक्त पांच अस्तिकायादिक कथा हैं।’’ ऐसे सौधर्मेन्द्र के प्रश्न से सन्देह को प्राप्त हुए, पाँच सौ-पाँच सौ शिष्यों से सहित तीन भ्राताओं से वेष्टित, मानस्तम्भ के देखने से मान से रहित हुए, वृद्धि को प्राप्त होने वाली विशुद्धि से संयुक्त वर्धमान भगवान के दर्शन करने पर असंख्यात भवों में अर्जित महान कर्मों को नष्ट करने वाले, जिनेन्द्रदेव की तीन प्रदक्षिणा करके पंच सृष्टियों से अर्थात् पांच अंगों द्वारा भूमिस्पर्शपूर्वक वंदना करके एवं हृदय से जिनभगवान का ध्यान कर संयम को प्राप्त हुए, विशुद्धि के बल से मुहूर्त के भीतर उत्पन्न हुए समस्त गणधर के लक्षणों से संयुक्त तथा जिनमुख से निकले हुए बीजपदों के ज्ञान से सहित ऐसे गौतम गोत्र वाले इन्द्रभूति ब्राह्मण द्वारा चूंकि आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग, ज्ञातृधर्मकथांग, उपासकाध्ययनांग, अन्तकृद्दशांग, अनुत्तरोपपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरणांग, विपाकसूत्रांग व दृष्टिवादांग, इन बारह अंगों तथा सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक व निषिद्धिका, इन अंगबाह्य चौदह प्रकीर्णकों की श्रावण मास के कृष्ण पक्ष में युग की आदि में प्रतिपदा के पूर्व दिन में रचना की थी अतएव इन्द्रभूति भट्टारक वर्धमान जिन के तीर्थ में ग्रन्थकर्ता हुए। कहा भी है-
वर्ष के प्रथम मास व प्रथम पक्ष में श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के पूर्व दिन में अभिजित् नक्षत्र में तीर्थ की उत्पत्ति हुई।
भगवान महावीर की दिव्यध्वनि श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन खिरी थी, उन्हीं के धर्मतीर्थ का प्रवर्तन वर्तमान में चल रहा है। उनके धर्म को धारण करने वाले जीव उन्हीं वीर प्रभु के शासन में रह रहे हैं। इसीलिए यह श्रावणवदी एकम् का दिवस ‘वीरशासन जयंती’ के नाम से सर्वत्र मनाया जाता है।
धवला में श्री वीरसेनाचार्य कहते हैं-
‘पंचशैलपुर (पंचपहाड़ी से शोभित राजगृही के पास) में विपुलाचल पर्वत के ऊपर भगवान महावीर ने भव्यजीवों को अर्थ का उपदेश दिया।
इस अवसर्पिणी कल्पकाल के ‘दु:षमा सुषमा’ नाम के चौथेकाल के पिछले भाग में कुछ कम चौंतीस वर्ष बाकी रहने पर वर्ष के प्रथम मास, प्रथम पक्ष और प्रथम दिन में अर्थात् श्रावण कृष्णा एकम् के दिन प्रात:काल के समय आकाश में अभिजित् नक्षत्र के उदित रहने पर धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति हुई।
श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन रुद्रमुहूर्त में सूर्य का शुभ उदय होने पर और अभिजित् नक्षत्र के प्रथमयोग में जब युग की आदि हुई तभी तीर्थ की उत्पत्ति समझना चाहिए।।५७।।
यह श्रावणकृष्णा प्रतिपदा वर्ष का प्रथम मास है और युग का आदिप्रथम दिवस है। जैसा कि अन्यत्र ग्रंथों में भी कहा है।
अत: यह स्पष्ट है कि यह श्रावण कृष्णा एकम् का दिवस युग का प्रथम दिवस है। अर्थात् प्रत्येक सुषमा सुषमा, सुषमा आदि कालों का प्रारंभ इस दिवस से ही होता है जैसा कि टिप्पण में कहा गया है। इसलिए यह दिवस अनादिनिधन जैन सिद्धांत के अनुसार वर्ष का प्रथम दिवस माना जाता है। अनादिकाल से युग और वर्ष की समाप्ति आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा को होती है। युग तथा वर्ष का प्रारंभ श्रावण कृष्णा एकम् से होता है। वर्तमान में इसी दिन वीर प्रभु की दिव्यध्वनि खिरने से धर्मतीर्थ का प्रवर्तन इसी दिन से चला है। इसलिए यह दिवस और भी महान होने से महानतम अथवा पूज्यतम हो गया है।
भगवान् महावीर को केवलज्ञान वैशाख शुक्ला दशमी को प्रगट हो चुका था। किन्तु गणधर के अभाव में छ्यासठ दिन तक भगवान् की दिव्य ध्वनि नहीं खिरी इसके बारे में जयधवला में स्पष्ट किया है-
‘केवलज्ञान होने के बाद छ्यासठ दिन तक दिव्यध्वनि क्यों नहीं खिरी?’’ ‘गणधर के नहीं होने से।
‘सौधर्म इन्द्र ने केवलज्ञान होने के बाद ही गणधर को उपस्थित क्यों नहीं किया?
‘नहीं, क्योंकि काललब्धि के बिना सौधर्म इन्द्र गणधर को उपस्थित करने में असमर्थ था।’
‘जिसने तीर्थंकर के पादमूल में महाव्रत ग्रहण किया है, ऐसे पुरुष को छोड़कर अन्य के निमित्त से दिव्यध्वनि क्यों नहीं खिरती?’
‘ऐसा ही स्वभाव है और स्वभाव दूसरों के द्वारा प्रश्न करने योग्य नहीं होता।’
‘उन इन्द्रभूति नाम के गौतम गणधर ने (उसी दिन) बारह अंग और चौदह पूर्व रूप ग्रंथों की एक ही मुहूर्त में (४८ मिनट में) क्रम से रचना की। अत: भावश्रुत और अर्थ पदों के कर्ता तीर्थंकर हैं तथा तीर्थंकर के निमित्त से गौतम गणधर श्रुत पर्याय से परिणत हुए, इसलिए द्रव्यश्रुत के कर्ता गौतम गणधर हैं। उन गौतम स्वामी ने भी दोनों प्रकार का श्रुतज्ञान लोहार्य को दिया। लोहार्य ने भी जम्बूस्वामी को दिया। परिपाटी क्रम से (एक के बाद एक) ये तीनों ही सकलश्रुत के धारण करने वाले कहे गये हैं और यदि परिपाटी क्रम की अपेक्षा न की जाये तो उस समय संख्यात हजार सकलश्रुत के धारी हुए हैं।’ अर्थात् संख्यात हजार मुनि द्वादशांग के पारगामी हुए हैं।
दिव्यध्वनि सर्वभाषामयी है अक्षर-अनक्षरात्मक है, जिसमें अनंत पदार्थ समाविष्ट है अर्थात् जो अनंत पदार्थों का वर्णन करती है, जिसका शरीर बीजपदों से ग़ढ़ा गया है, जो प्रात: मध्यान्ह और सायं इन तीनों कालों में छह-छह घड़ी तक निरंतर खिरती रहती है। इस समय को छोड़कर बाकी समय गणधर देव के संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय को प्राप्त होने पर उन्हें दूर करने के लिए खिरती है।’’
यहाँ पर दिव्यध्वनि को सर्वभाषारूप कहा है-
‘‘अठारह महाभाषा और सात सौ लघु भाषाअों से युक्त, तिर्यंच, देव और मनुष्यों की भाषा के रूप में परिणत होने वाली ऐसी दिव्यध्वनि है।’’
‘‘अठारह महाभाषा, सात सौ क्षुद्र भाषा, तथा और भी जो संज्ञी जीवों की अक्षर-अनक्षरात्मक भाषाएं हैं उन सभी रूप से दिव्यध्वनि होती है। वह तालु, दांत, कंठ, ओष्ठ के व्यापार से रहित है। तीनों कालों में नव मुहूर्तों तक खिरती है। इसके अतिरिक्त गणधरदेव, इंद्र अथवा चक्रवर्ती के प्रश्नानुरूप शेष समयों में भी खिरती है।’’
दिव्यध्वनि सुनने का माहात्म्य-‘‘जैसे चन्द्रमा से अमृत झरता है उसी प्रकार जिनेन्द्रदेव की वाणी को सुनकर बारह गणों के भव्यजीव अनंतगुणश्रेणीरूप विशुद्धि से संयुक्त शरीर को धारण करते हुए असंख्यात श्रेणीरूप कर्मपटल को नष्ट कर देते हैं।’’
दिव्यध्वनि सुनने के लिए बैठने का स्थान-‘‘समवसरण में बारह कोठों के क्षेत्र से यद्यपि वहाँ पर पहुँचने वाले जीवों का क्षेत्रफल असंख्यात गुणा अधिक है, तथापि वे सब जीव जिनदेव के माहात्म्य से एक-दूसरे से अस्पृष्ट रहते हैं। जिन-भगवान के माहात्म्य से बालक आदि सभी जीव प्रवेश करने अथवा निकलने में अंतर्मुहूर्त में ही (४८ मिनट के अंदर ही) संख्यात योजन चले जाते हैं।
इन कोठों में कौन नहीं जा सकते हैं ?-इन कोठों में मिथ्यादृष्टि, अभव्य और असंज्ञी जीव कदापि नहीं जाते हैं तथा अनध्यवसाय से युक्त, संदेह से संयुक्त और विविध प्रकार के विपरीत भावों सहित जीव भी वहाँ नहीं रहते हैं। इससे अतिरिक्त वहाँ पर जिन-भगवान के माहात्म्य से आतंक, रोग, मरण, जन्म, वैर, कामबाधा, क्षुधा और पिपासा की बाधाएं भी नहीं होती है।’’
हरिवंशपुराण में भी बताया है कि वहाँ शूद्र, पाखंडी व अन्य वेषधारी तापसी आदि नहीं जा सकते हैं।
वर्तमान में दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के अनुसार ग्यारह अंग और चौदह पूर्वरूप श्रुत नहीं हैं। फिर भी वर्तमान में जो षट्खंडागम, कसायपाहुड़, महाबंध, समयसार, प्रवचनसार आदि ग्रंथ उपलब्ध हैं वे भगवान की वाणी के अंशरूप ही हैं। यथा-‘‘जिनका अर्थरूप से तीर्थंकरों ने प्रतिपादन किया है और गणधरदेव ने जिनकी ग्रंथ रचना की है ऐसे द्वादश अंग आचार्य परम्परा से निरंतर चले आ रहे हैं। परन्तु काल प्रभाव से उत्तरोत्तर बुद्धि के क्षीण होने पर उन अंगों को धारण करने वाले योग्य पात्रों के अभाव में वे उत्तरोत्तर क्षीण होते आ रहे हैं। इसलिए जिन आचार्यों ने आगे श्रेष्ठ बुद्धि वाले पुरुषों का अभाव देखा और जो अत्यन्त पापभीरू थे, जिन्होंने गुरु परम्परा से श्रुत और उसका अर्थ ग्रहण किया था उन आचार्यों ने तीर्थ विच्छेद के भय से उस समय अवशिष्ट रहे हुए अंग संबंधी अर्थ को पोथियों में लिपिबद्ध किया, अतएव वे असूत्र न होकर सूत्र ही हैं।
इस उद्धरण से स्पष्ट है कि आचार्यों द्वारा रचित ग्रंथ भगवान की वाणी के ही अंशरूप हैं। अत: पूर्णतया प्रामाणिक हैं। इस वीर शासन जयंती दिवस को सोल्लासपूर्ण वातावरण में मनाते हुए प्रत्येक जैन श्रावकों का कर्तव्य हो जाता है कि उस दिन स्वाध्याय करने का नियम लेकर अपने ज्ञान को समीचीन बनावें और वीर भगवान के शासन में रहते हुए अपने आत्मा को कर्मों से छुटाने के पुरुषार्थ में लगें तथा प्रतिदिन निम्नलिखित श्लोक के द्वारा श्रुतदेवता की आराधना, उपासना, भक्ति करते रहें-
अंगंबज्झणिम्मी अणाइमज्झंतणिम्मलंगाए।
सुयदेवयअंबाए णमो सया चक्खुमइयाए।।४।।
जिसका आदि, मध्य और अंत से रहित निर्मल शरीर अंग और अंगबाह्य से निर्मित है और जो सदा चक्षुष्मती जागृतचक्षु हैं ऐसी श्रुतदेवी माता को मेरा सतत नमस्कार होवे।
भगवान महावीर का समवसरण बन गया था किन्तु भगवान की दिव्यध्वनि नहीं खिरी थी। जब प्रभु का श्रीविहार होता था तब समवसरण विघटित हो जाता था एवं प्रभु का श्रीविहार आकाश में अधर होता था। देवगण भगवान के श्रीचरण कमलों के नीचे-नीचे स्वर्णमयी सुगंधित दिव्य कमलों की रचना करते रहते थे पुनः जहाँ भगवान रुकते, अर्धनिमिष मात्र में कुबेर आकाश में अधर ही समवसरण बना देता था।
हरिवंश पुराण में आया है कि छ्यासठ दिन तक मौन से विहार करते हुए प्रभु राजगृह में पहुँचे-
षट्षष्टिदिवसान् भूयो मौनेन विहरन् विभुः।
आजगाम जगत्ख्यातं जिनो राजगृहं पुरम्।।
आरुरोह गिरिं तत्र विपुलं विपुलश्रियम्।
प्रबोधार्थं स लोकानां भानुमानुदयं यथा।।
इन्द्राग्निवायुभूताख्याः कौडिन्याख्याश्च पण्डिताः।
इन्द्रनोदनयाऽऽयाताः समवस्थानमर्हतः।।
प्रत्येकं सहिताः सर्वे शिष्याणां पञ्चभिः शतैः।
त्यक्ताम्बरादिसंबंधाः संयमं प्रतिपेदिरे।।
सुता चेटकराजस्य कुमारी चंदना तदा।
धौतैकाम्बरसंवीता जातार्याणा पुरःसरी।।
श्रेणिकोऽपि च संप्राप्तः सेनया चतुरंगया।
सिंहासनोपविष्टं तं प्रणनाम जिनेश्वरम्।।
प्रत्यक्षीकृतविश्वार्थं कृतदोषत्रयक्षयम्।
जिनेंद्रं गौतमोऽपृच्छत् तीर्थार्थं पापनाशनम्।।
स दिव्यध्वनिना विश्वसंशयच्छेदिना जिनः।
दुन्दुभिध्वनिधीरेण योजनान्तरयायिना।।
श्रावणस्यासिते पक्षे नक्षत्रेऽभिजिति प्रभुः।
प्रतिपद्यन्हि पूर्वाण्हे शासनार्थमुदाहरत्।।
तदनन्तर छ्यासठ दिन तक मौन से विहार करते हुए श्रीवर्धमान जिनेन्द्र जगत्प्रसिद्ध राजगृह नगर आये। वहाँ जिस प्रकार सूर्य उदयाचल पर आरूढ़ होता है उसी प्रकार वे लोगों को प्रतिबद्ध करने के लिए विपुल लक्ष्मी के धारक विपुलाचल पर्वत पर आरूढ़ हुए।
इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति तथा कौण्डिन्य आदि पण्डित इन्द्र की प्रेरणा से श्रीअर्हंत देव के समवसरण में आये। वे सभी पंडित अपने पाँच-पाँच सौ शिष्यों से सहित थे, इन सभी ने वस्त्रादि का त्याग कर संयम धारण कर लिया। उसी समय राजा चेटक की पुत्री कुमारी ‘चन्दना’ एक स्वच्छ वस्त्र-सफेद साड़ी धारण कर आर्यिकाओं में प्रमुख गणिनी हो गयीं। राजा श्रेणिक भी अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ समवसरण में पहुँचे और वहाँ पर सिंहासन पर विराजमान श्री वर्द्धमान भगवान को नमस्कार किया।
तीनों लोकों के समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष जानने वाले एवं राग-द्वेष और मोह को क्षय करने वाले,पापनाशक श्री जिनेन्द्रदेव से श्री गौतम गणधर ने तीर्थ की प्रवृत्ति करने के लिए प्रश्न किया।
अनंतर श्रीमहावीर स्वामी ने श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के प्रातःकाल के समय अभिजित् नक्षत्र में समस्त संशयों को छेदने वाले, दुन्दुभि के शब्द के समान गंभीर तथा एक योजन तक पैâलने वाली दिव्यध्वनि के द्वारा शासन की परंपरा चलाने के लिए उपदेश दिया।
अन्यत्र ग्रंथों में आया है कि-
जब इंद्रराज ने देखा-भगवान को केवलज्ञान होकर ६५ दिन व्यतीत हो गये, फिर भी प्रभु की दिव्यध्वनि नहीं खिर रही है क्या कारण है ? चिंतन कर यह पाया कि गणधर का अभाव होने से ही दिव्यध्वनि नहीं खिरी है। तब सौधर्मेंद्र ने इन्द्रभूति ब्राह्मण को इस योग्य जानकर उस अभिमानी को लेने के लिए युक्ति से वृद्ध का रूप बनाया और वहाँ ‘‘गौतमशाला’’ में पहुँचे। वहाँ के प्रमुख गुरु ‘इन्द्रभूति’ से बोले-
‘मेरे गुरु इस समय ध्यान में लीन होने से मौन हैं अतः मैं आपके पास इस श्लोक का अर्थ समझने आया हूँ।’
गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति ब्राह्मण ने विद्या से गर्विष्ठ होकर पूछा-
‘यदि मैं इसका अर्थ बता दूंगा तो तुम क्या दोगे ?’
तब वृद्ध ने कहा-‘यदि आप इसका अर्थ कर देंगे, तो मैं सब लोगों के सामने आपका शिष्य हो जाऊँगा और यदि आप अर्थ न बता सके तो इन सब विद्यार्थियों और अपने दोनों भाइयों के साथ आप मेरे गुरु के शिष्य बन जाना।’
महाअभिमानी इंद्रभूति ने यह शर्त मंजूर कर ली, क्योंकि वह यह समझता था कि मेरे से अधिक विद्वान् इस भूतल पर कोई है ही नहीं। तब वृद्ध ने वह काव्य पढ़ा-
‘‘धर्मद्वयं त्रिविधकालसमग्रकर्म, षड्द्रव्य-कायसहिताः समयैश्च लेश्याः।
तत्त्वानि संयमगती सहितं पदार्थै-रंगप्रवेदमनिशं वद चास्तिकायम्।।
तब गौतम गोत्र से ‘गौतम’ नाम से प्रसिद्ध इन्द्रभूति ने कुछ देर सोचकर कहा-‘अरे ब्राह्मण! तू अपने गुरु के पास ही चल। वहीं मैं इसका अर्थ बताकर तेरे गुरु के साथ वाद-विवाद करूँगा।’
सौधर्मेंद्र तो यही चाहते थे। तब वेषधारी इंद्रराज गौतम को लेकर भगवान के समवसरण की ओर चल पड़े।
वहाँ मानस्तंभ को देखते ही गौतम का मान गलित हो गया और उन्हें सम्यक्त्व प्रगट हो गया। समवसरण के सारे वैभव को देखते हुए महान आश्चर्य को प्राप्त उन्होंने भगवान महावीरस्वामी का दर्शन किया और भक्ति में गद्गद् होकर स्तुति करने लगे-
‘जयति भगवान् हेमाम्भोज-प्रचार-विजृंभिता-वमरमुकुटच्छायोद्गीर्ण-प्रभापरिचुम्बितौ।।
कलुषहृदया मानोद्भ्रान्ताः परस्परवैरिणो। विगतकलुषाः पादौ यस्य प्रपद्य विशश्वसुः।।१।।
स्तुति करके विरक्तमना होकर उन इंद्रभूति ने प्रभु के चरण सानिध्य में जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। तत्क्षण ही उन्हें मति-श्रुत ज्ञान के साथ ही अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान प्रगट हो गया। वे गणधर पद को प्राप्त हो गये तभी भगवान की दिव्यध्वनि खिरी थी।
‘कषायपाहुड़’ ग्रंथ में प्रथम दिव्यध्वनि के बारे में प्रश्नोत्तररूप में बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है-
जिन्होंने धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करके समस्त प्राणियों को संशयरहित किया है, जो वीर हैं-जिन्होंने विशेषरूप से समस्त पदार्थ समूह को प्रत्यक्ष कर लिया है, जो जिनों में श्रेष्ठ हैं तथा राग, द्वेष और भय से रहित हैं ऐसे भगवान महावीर धर्मतीर्थ के कर्ता हैं।
प्रश्न-भगवान महावीर ने धर्मतीर्थ का उपदेश कहाँ पर दिया ?
उत्तर-‘सेणियराए सचेलणे महामंडलीए सयलवसुहामंडलं भुंजते मगहामंडल-तिलओवमराय….?
गिह-णयर-णेरयि-दिसमहिट्ठिय-विउलगिरिपव्वए सिद्धचारणसेविए बारहगण-परिवेड्ढिएण कहियं।
जब महामण्डलीक श्रेणिक राजा अपनी चेलना रानी के साथ सकल पृथिवी मंडल का उपभोग करता था तब मगधदेश के तिलक के समान राजगृह नगर की नैऋत्य दिशा में स्थित तथा सिद्ध और चारणों द्वारा सेवित विपुलाचल पर्वत के ऊपर बारहगणों-सभाओं से परिवेष्टित भगवान महावीर ने धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया।
राजगृह नगर के पास स्थित पंचशैलपुर है-जिसे पंचपहाड़ी कहते हैं। पूर्व दिशा में चौकोर आकार वाला ऋषिगिरि नाम का पर्वत है। दक्षिण दिशा में वैभार पर्वत, नैऋत्य दिशा में विपुलाचल नाम का पर्वत है, ये दोनों त्रिकोण आकार वाले हैं। पश्चिम, वायव्य और उत्तर दिशा में धनुष के आकार वाला ‘छिन्न’ नाम का पर्वत है। ऐशान दिशा में गोलाकार पांडु नाम का पर्वत है। ये सब पर्वत कुश के अग्रभागों से ढके हुए हैं।
प्रश्न-किस काल में धर्मतीर्थ की उत्पत्ति हुई है ?
उत्तर-भरत क्षेत्र संबंधी अवसर्पिणी काल के दुःषमसुषमा नामक चौथे काल में नौ दिन, छह महिना अधिक तैंतीस वर्ष अवशिष्ट होने पर धर्मतीर्थ की उत्पत्ति हुई है। कहा भी है-
इम्मिस्सेवसप्पिणीए चउत्थकालस्स पच्छिमे भाए।
चोत्तीसवासावसेसे किंचि विसेसूणकालम्मि।।
इस अवसर्पिणी काल के दुःषमसुषमा नामक चौथ्ो काल के पिछले भाग में कुछ कम चौंतीस वर्ष बाकी रहने पर धर्मतीर्थ की उत्पत्ति हुई है।
आगे इसी को स्पष्ट करते हैं-चौथे काल में पंद्रह दिन और आठ महीना अधिक पचहत्तर वर्ष बाकी रहने पर आषाढ़ शुक्ला षष्ठी के दिन बहत्तर वर्ष की आयु लेकर मति-श्रुत-अवधि ज्ञान के धारक भगवान महावीर पुष्पोत्तर विमान से च्युत होकर गर्भ में अवतीर्ण हुए। उन बहत्तर वर्षों में तीस वर्ष कुमार काल है, बारह वर्ष छद्मस्थ काल है तथा तीस वर्ष केवली काल है। इन तीनों कालों का जोड़ बहत्तर वर्ष होता है। इस ७२ वर्ष प्रमाण काल को पंद्रह दिन और आठ महीना अधिक ७५ वर्ष में घटा देने पर वर्द्धमान जिनेंद्र के मोक्ष जाने पर जितना चतुर्थ काल शेष रहता है उसका प्रमाण होता है।
इस काल में छ्यासठ दिन कम केवली काल अर्थात् २९ वर्ष, नौ महीना और चौबीस दिन के मिला देने पर चतुर्थकाल में नौ दिन और छह महीना अधिक तैंतीस वर्ष बाकी रहते हैं।
शंका-केवलिकाल में से छ्यासठ दिन किसलिए कम किये हैं ?
समाधान-भगवान महावीर को केवलज्ञान की उत्पत्ति हो जाने पर भी छ्यासठ दिन तक धर्मतीर्थ की उत्पत्ति नहीं हुई थी, इसलिए केवलिकाल में से छ्यासठ दिन कम किये गये हैं।
जयधवला में कहा है-
‘‘दिव्वज्झुणीए किमट्ठं तत्थापउत्ती ?
गणिंदाभावादो।
सोहम्मिंदेण तक्खणे चेव गणिंदो किण्ण ढोइदो ?
ण, काललद्धीए विणा असहेज्जस्स देविंदस्स तड्ढोयणसत्तीए अभावादो।’’
शंका-केवलज्ञान की उत्पत्ति के अनंतर छ्यासठ दिन तक दिव्यध्वनि की प्रवृत्ति क्यों नहीं हुई ?
समाधान-गणधर न होने से उतने दिन तक दिव्यध्वनि की प्रवृत्ति नहीं हुई।
शंका-सौधर्मेन्द्र ने केवलज्ञान प्राप्त होते ही गणधर देव को क्यों नहीं उपस्थित किया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि काललब्धि के बिना सौधर्म इन्द्र गणधर को उपस्थित करने में असमर्थ था, उसमें उसी समय गणधर को उपस्थित करने की शक्ति नहीं थी।
शंका-जिसने अपने तीर्थंकर पादमूल में महाव्रत स्वीकार किया है ऐसे पुरुष को छोड़कर अन्य के निमित्त से दिव्यध्वनि क्यों नहीं खिरती है ?
समाधान-ऐसा ही स्वभाव है और स्वभाव दूसरों के द्वारा प्रश्न करने योग्य नहीं होता है, क्योंकि यदि स्वभाव में ही प्रश्न होने लगे तो कोई व्यवस्था ही न बन सकेगी।
अतएव कुछ कम चौंतीस वर्ष प्रमाण चौथे काल के रहने पर तीर्थ की उत्पत्ति हुई यह सिद्ध हुआ।
कोई अन्य आचार्य ‘‘भगवान वर्द्धमान की आयु ७१ वर्ष, ३ माह २५ दिन प्रमाण है’’ ऐसा कहते हैं।
आषाढ़ शुक्ला षष्ठी से चैत्र शुक्ला त्रयोदशी तक ९ माह ८ दिन हुए। चैत्र शुक्ला चतुर्दशी से अट्ठाईस वर्ष व्यतीत कर पुनः मगसिर कृष्णा दशमी तक लेने से अट्ठाईस वर्ष सात माह बारह दिन (२८ वर्ष, ७ माह १२ दिन) होते हैं। मगसिर कृ. ११ से आगे बारह वर्ष के बाद वैशाख शुक्ला दशमी को केवलज्ञान हुआ अतः १२ वर्ष, ५ माह १५ दिन बाद केवली हुए हैं। वैशाख शुक्ला ११ से आगे वैशाख शुक्ला १० तक उन्तीस वर्ष पुनः वैशाख शुक्ला ११ से कार्तिक कृष्णा अमावस्या तक पाँच माह बीस दिन ऐसे २९ वर्ष, ५ माह, २० दिन का केवली काल है। इस प्रकार वर्द्धमान जिनेन्द्र की आयु ७१ वर्ष, ३ माह, २५ दिन प्रमाण मानी गयी है।
भगवान महावीर की आयु बहत्तर वर्ष की थी। दूसरे मत से इकहत्तर वर्ष, तीन माह, पच्चीस दिन की थी। ये दोनों मत जयधवला ग्रंथ में आये हैं।
श्रावणकृष्णा एकम् के दिन भगवान की प्रथम दिव्यध्वनि खिरी थी जब इंद्रभूति ब्राह्मण ने वर्द्धमान भगवान से जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की थी। उत्तरपुराण में कहा है-
‘श्रीवर्द्धमानमानम्य संयमं प्रतिपन्नवान्।’
श्रीवर्द्धमान स्वामी को नमस्कार करके सकलसंयम ग्रहण कर लिया था।
दिव्यध्वनि का वर्णन तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में आया है।
जोयणपमाणसंट्ठिद-तिरियामरमणुव णिवहपडिबोधो।
मिदमधुरगभीरतरा-विसदविसयसयल भासाहिं।
अट्ठरसमहाभासा खुल्लयभासा वि सत्तसयसंखा।
अक्खरअणक्खरप्पय सण्णीजीवाण सयलभासाओ।।
एदासिं भासाणं तालुवंदतोट्ठकंठवावारं।
परिहरिय एक्ककालं भव्वजणाणंदकर-भासो।।
एक योजन प्रमाण तक स्थित तिर्यंच, देव और मनुष्यों के समूह को बोध प्रदान करने वाली भगवान की दिव्यध्वनि होती है। यह दिव्यध्वनि मृदु-मधुर, अतिगंभीर और विशद-स्पष्ट विषयों को कहने वाली संपूर्ण भाषामय होती है। यह संज्ञी जीवों की अक्षर और अनक्षररूप अठारह भाषा और सात सौ लघु भाषाओं में परिणत होती हुई, तालु-ओंठ-दाँत तथा कंठ के हलन-चलनरूप व्यापार से रहित होकर एक ही समय में भव्य जीवों को आनंदित करने वाली होती है ऐसी दिव्यध्वनि के स्वामी तीर्थंकर भगवान होते हैं।
षट्खंडागम ग्रंथ में श्रीवीरसेनस्वामी कहते हैं-
‘‘तेण महावीरेण केवलणाणिणा कहिदत्थो तम्हि चेव काले तत्थेव खेत्ते खयोवसम-जणिदचउ-रमलबुद्धि-संपण्णेण बह्मणेण गोदमगोत्तेण सयलदुस्सुदि-पारएण जीवाजीवविसयसंदेह-विणासणट्ठ-मुवगयवड्ढमाण-पादमूलेण इंदिभूदिणावहारिदो।।’’
इस प्रकार केवलज्ञानी भगवान महावीर के द्वारा कहे गये पदार्थ को उसी काल में और उसी क्षेत्र में क्षयोपशम विशेष से उत्पन्न चार प्रकार के-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्ययरूप निर्मल ज्ञान से युक्त संपूर्ण दुःश्रुति-अन्यमतावलंबी वेद-वेदांग में पारंगत, गौतमगोत्रीय ऐसे इन्द्रभूति ब्राह्मण ने जीव-अजीव विषयक संदेह को दूर करने के लिए श्रीवर्द्धमान भगवान के चरणकमल का आश्रय लेकर ग्रहण किया अर्थात् प्रभु की िदव्यध्वनि को सुना।
इसीलिए भगवान महावीर ‘अर्थकर्ता’ कहलाये हैं।
‘पुणो तेणिंदभूदिणा भावसुदपज्जय-परिणदेण बारहंगाणं चोद्दसपुव्वाणं च गंथणमेक्केण चेव-मुहुत्तेण रयणा कदा।’’
पुनः उन इन्द्रभूति गौतमस्वामी ने भावश्रुत पर्याय से परिणत होकर बारह अंग और चौदह पूर्वरूप ग्रंथों की रचना एक ही मुहूर्त में कर दी।
श्रावण कृष्णा प्रतिपदा को राजगृही के विपुलाचल पर्वत पर भगवान महावीर की दिव्यध्वनि खिरी थी यही प्रथम देशना दिवस-‘वीरशासन जयंती’ के नाम से प्रसिद्ध है। उसी दिन श्री गौतमस्वामी ने गणधर पद प्राप्त करके द्वादशांगरूप श्रुत की रचना की थी जो कि मौखिक मानी गई उसे लिपिबद्ध नहीं किया जा सकता है। आज का उपलब्ध सारा जैन वाङ्मय इस द्वादशांग का अंशरूप है।