देशभक्ति के गीत की दो पंक्तियों से विषय को प्रारंभ करता हूँ-
भरा नहीं जो भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं। वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।।
अर्थात् भारत की धरती पर जन्मे समस्त मानवजाति के हृदयों को झंकृत करने वाली कविताएं समय-समय पर इसीलिए रची गई हैं कि यदि किसी कारणवश स्वदेश के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह न करके मानव दिग्भ्रमित हो रहा हो तो उसमें देशप्रेम एवं उसकी रक्षा का भाव जागृत हो सके। ठीक इसी प्रकार से प्राणीमात्र का हित करने वाले शाश्वत एवं प्राकृतिक जैनधर्म के प्रति भी समस्त जैनधर्मावलम्बियों को हमेशा सचेत रहने की प्रेरणा धर्माचार्यों ने प्रदान करते हुए सम्यग्दर्शन के प्रभावना अंग में कहा है-
अर्थात् जैनशासन की महिमा का प्रकाश फैलाना-प्रचार-प्रसार करना प्रभावना अंग है। उस जैनशासन में वीतरागी देव-शास्त्र-गुरू की भक्ति के साथ-साथ तीर्थंकर भगवान जैसे महान् देवों के जन्म एवं पंचकल्याणकों से पावन तीर्थभूमियों का विकास एवं उनका प्रचार करना भी प्रभावना अंग का ही परिचायक है।
जन्मभूमि तीर्थ संस्कृति के उद्गम स्थल हैं- यूँ तो भारतभूमि पर सैकड़ों तीर्थ हैं जिनके दर्शन करके लोग मानसिक शांति प्राप्त करते हैं किन्तु जिस धरती पर धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करने वाले तीर्थंकर भगवान जन्म लेते हैं उनकी पूज्यता तो लेखनीगम्य हो ही नहीं सकती है। पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी कई बार प्रवचनों में कहा करती हैं- ‘‘तीर्थंकर भगवन्तों की जन्मभूमियाँ वास्तव में भारतीय संस्कृति की उद्गमस्थली हैं, क्योंकि वहाँ १५ महीने तक देवता असंख्य रत्नों की वृष्टि करते हैं, इन्द्र भी उस नगरी की बड़ी भक्तिपूर्वक प्रदक्षिणा करता है, महामुनिराज भी वहाँ जिनेन्द्र बालक को देखने के लिए आते हैं और अपने मन की प्रत्येक शंका का समाधान सहज पा जाया करते हैं। जहाँ से गृहस्थ धर्म एवं राजनीति के संचालन के साथ-साथ मोक्षमार्ग भी साकार होता है उस भूमि से अधिक पवित्र भला और दूसरा स्थान कौन हो सकता है? अर्थात् प्राथमिक रूप से हम सबके लिए तीर्थंकर जन्मभूमियाँ पूज्य हैं। जन्म के पश्चात् ही तपस्या और ज्ञान के क्रमानुसार सिद्धपद की प्राप्ति होती है अतः उनके निर्वाणस्थल सिद्धक्षेत्र के रूप में पावन-पूज्य हो जाते हैं।’’ इन सिद्धक्षेत्रों पर जाकर वंदना करने एवं निर्वाणलाडू चढ़ाने की परम्परा आज भी चली आ रही है, उनमें सम्मेदशिखर एवं पावापुरी में विशेषरूप से यात्रियों का तारतम्य जुड़ा हुआ है।
क्या कभी जन्मभूमि पर एक दीप भी जलाने का मन बनाया है? प्रिय बन्धुओं! वर्तमान में चौबीस तीर्थंकरों की सोलह जन्मभूमियाँ हैं, हो सकता है कि इनमें से अनेक के दर्शन भी आपने किये हों किन्तु क्या उनके बारे में कभी आपने ऐसा कुछ सोचा है कि ये तीर्थ सांस्कृतिक धरोहर के रूप में विश्व के समक्ष आएं। वास्तव में वह क्षण बड़ा रोमाँचक और दर्दनाक था जब पूज्य ज्ञानमती माताजी ने अपनी अन्तरात्मा की आवाज भक्तों तक पहुँचाने के लक्ष्य से एक सभा में कहा था- ‘‘आज का युग चमत्कार का युग बन गया है, लोग भौतिक मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए अतिशयक्षेत्रों की ओर भाग रहे हैं। उन अतिशयक्षेत्रों में चांदनपुर के महावीर, तिजारा के चन्द्रप्रभ, पदमपुरा के पदमप्रभु भगवान के समीप प्रतिदिन हजारों-हजार दीपक भक्तों द्वारा जलाये जाते हैं, सोने-चाँदी के छत्र चढ़ाये जाते हैं किन्तु क्या कभी भक्तों ने उनके सामने खड़े होकर चिन्तन किया है कि श्री महावीर स्वामी की जन्मभूमि कुण्डलपुर में, चन्द्रप्रभ की जन्मभूमि चन्द्रपुरी में या पदमप्रभु की जन्मभूमि कौशाम्बी में कभी एक दीपक भी जलता है या नहीं? वहाँ प्रकाश है या अंधकार? वहाँ सुरक्षा व्यवस्था भी है या नहीं? वहाँ प्रभु की वेदी भी ठीक से बनी है या नहीं? एवं उन जन्मभूमियों के प्रति हमारा कुछ दायित्व भी है या नहीं? यदि ऐसे प्रश्नों के प्रति कुछ सोचने को मन मजबूर होता है तब तो अवश्य अभी मानवता के अंकुर शेष हैं और उनको प्रस्फुटित करते ही फूल और फल आते देर नहीं लगेगी। अतः मेरी आपसे यही प्रेरणा है कि पहले भगवन्तों की उपेक्षित जन्मभूमियों को सच्चे तीर्थ के रूप में साकार करो। अन्य स्थानों पर मंदिर या नये तीर्थ बनाने की अपेक्षा तीर्थ को ही तीर्थ बनाने में सहस्रगुणा पुण्य अधिक है।’’ पूज्य श्री की उपर्युक्त प्रेरणा में यही अन्तर्वेदना निहित है कि समाज अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक हो तथा ‘‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’’के अनुसार अपनी जन्मभूमि से भी अधिक महत्व तीर्थंकर जन्मभूमियों को प्रदान करें तो वह दिन दूर नहीं रहेगा जब जैनधर्म पुनः अपनी गौरव गरिमा को प्राप्त होकर दिग्दिगन्त व्यापी बनेगा। इन जन्मभूमि तीर्थों के बारे में जानकर किसी भी नगर की श्रद्धालु दिगम्बर जैन समाज अथवा कोई दानी परिवार एक-एक तीर्थ के उद्धार एवं विकास का संकल्प यदि ले ले तो अतिशयोक्ति की बात नहीं है। जिस प्रकार से अपने पैतृक मकान, दुकान एवं व्यापार का योग्य पुत्र सदैव संरक्षण, संवर्धन करना ही कर्तव्य समझता है उसी प्रकार तीर्थंकर भगवन्तों के अभयारण्य शासन में रहकर सभी भक्तों का भी कर्तव्य है कि उनके जीर्ण-शीर्ण तीर्थस्थलों का जीर्णोद्धार कर उनका यथायोग्य विकास करें तथा विकास करने वालों के प्रति सदैव वात्सल्यभाव रखकर धर्मवृद्धि की अनुमोदना करें ताकि पुण्य का बंध हो। जन्मभूमि तीर्थों के विकास की श्रँृखला में वर्तमान सहस्राब्दि की ऐतिहासिक उपलब्धि के रूप में भगवान महावीर की जन्मभूमि का विकास कार्य तेजी से हुआ है। जहाँ ८ से १० अक्टूबर २००३ तक ‘‘कुण्डलपुर महोत्सव’’ आयोजित हुआ। जन्मभूमि समिति एवं बिहार सरकार पर्यटन विभाग के संयुक्त तत्त्वावधान में आयोजित इस महोत्सव में देशभर से भक्तों ने पधारकर विभिन्न धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लिया।