संसार समुद्र से संसारी प्राणियों को पार करने वाले पवित्र स्थल तीर्थ कहे जाते हैं। वे तीर्थ दो प्रकार के होते हैं-द्रव्य तीर्थ और भावतीर्थ। रत्नत्रयस्वरूप भाव-परिणाम भावतीर्थ तथा महापुरुषों की चरणरज से पावन भूमियाँ द्रव्यतीर्थ हैं। उनमें २४ तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञानकल्याणक स्थल तीर्थक्षेत्र, मोक्षकल्याणक स्थल सिद्धक्षेत्र तथा चमत्कारिक तीर्थ अतिशय क्षेत्र की संज्ञा से जैन समाज में प्रसिद्ध हैं। दिगम्बर जैन आगम के अनुसार अनादिकाल से जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में होने वाले सभी चौबीसोें तीर्थंकर सदैव अयोध्या नगरी में जन्म लेते हैं एवं सम्मेदशिखर पर्वत से मोक्ष प्राप्त करते हैं इसीलिए ये दोनों तीर्थ ‘‘शाश्वत तीर्थ’’ कहलाते हैं। वर्तमान के हुण्डावसर्पिणी युग में इन दोनों तीर्थों के अतिरिक्त अन्य स्थानों पर भी भगवन्तों के जन्म एवं मोक्ष हो जाने से सोलह जन्मभूमियाँ एवं पाँच निर्वाणभूमियाँ हो गई हैं। जो इस प्रकार हैं-
१. अयोध्या
२. श्रावस्ती
३. कौशाम्बी
४. वाराणसी
५. चन्द्रपुरी
६. काकन्दी
७. भद्रपुरी
८. सिंहपुरी
९. चम्पापुर
१०. कम्पिल जी
११. रत्नपुरी
१२. हस्तिनापुर
१३. मिथिलापुरी
१४. राजगृही
१५. शौरीपुर
१६. कुण्डलपुर।
निर्वाणभूमियाँ-
१. अष्टापद
२. चम्पापुर
३. गिरनार
४. पावापुर
५. सम्मेदशिखर।
वर्तमान में निर्वाणक्षेत्र की पूजा करने की परम्परा तो जैन समाज में है किन्तु जन्मभूमि तीर्थों की न तो पूजा करने की परम्परा है और न ही चौबीस तीर्थंकरों के नाम एवं चिन्ह के समान उनके जन्मस्थल के नाम किन्हीं बालबोध आदि पुस्तकों में छपने की परम्परा ही देखने में आती है। यही कारण है कि जनसामान्य तो क्या, तीर्थक्षेत्र कमेटी आदि के कतिपय कार्यकर्ताओं को भी इन सोलहों जन्मभूमियों के नाम तक ज्ञात नहीं हैं। उदाहरण के तौर पर कुण्डलपुर प्रवास के मध्य मैंने हजारों जैन नर-नारियों से ‘राजगृही कौन से भगवान की जन्मभूमि है’, यह पूछा तो कोई भी सही उत्तर नहीं दे पाये। कुण्डलपुर के निकट स्थित उस राजगृही तीर्थ पर मैं फरवरी २००३ में स्वयं गई किन्तु वहाँ क्षेत्र कमेटी की ओर से मात्र भगवान महावीर की प्रथम देशना स्थल के नाम से ही प्रचार-प्रसार देखा, तब मैंने वहाँ मुनिसुव्रत भगवान की विशाल प्रतिमा विराजमान करवाकर उनका मंदिर बनाने की प्रेरणा दी एवं उनकी जन्मभूमि के बोर्ड, शिलालेख आदि लगवाए। भव्यात्माओं! यह तो केवल एक जन्मभूमि तीर्थ की बात आपको बताई गई है, इसी प्रकार अनेकों जन्मभूमियाँ आज अपने विकास एवं प्रसिद्धि हेतु आप जैसे श्रद्धालु भक्तों की प्रतीक्षा कर रही हैं। उनमें से हस्तिनापुर, अयोध्या, वाराणसी, सिंहपुरी, श्रावस्ती, कुण्डलपुर, काकंदी आदि कतिपय जन्मभूमि तीर्थों का जीर्णोद्धार एवं विकास तो आप सबकी सक्रियता एवं योगदान से हुआ है किन्तु अभी जहाँ भगवान शीतलनाथ की जन्मभूमि भद्दिलपुर एवं भगवान मल्लिनाथ-नमिनाथ की जन्मभूमि मिथिलापुरी विवाद के घेरे में हैं, वहीं भगवान पद्मप्रभ की जन्मनगरी कौशाम्बी (निकट इलाहाबाद), भगवान चन्द्रप्रभ की जन्मभूमि चन्द्रपुरी (बनारस के निकट) अत्यन्त वीरान स्थिति में हैं। इनमें कहीं-कहीं तो सुबह अभिषेक-पूजा और शाम को दीपप्रज्ज्वलन तक भी प्राय: कठिनता से ही होता है। इसीलिए आप सभी सक्रिय धर्मनिष्ठ श्रावक भक्तों से यही कहना है कि सर्वप्रथम इन तीर्थंकर जन्मभूमि तीर्थों एवं उनके कल्याणक क्षेत्रों के विकास में अपनी सर्वशक्ति लगाएँ। नये-नये स्थानों पर आज अनेक नये-नये तीर्थों का निर्माण करोड़ों रुपयों की लागत से हो रहा है। उनके प्रति हमारा कोई विरोध नहीं है किन्तु जो जन्मभूमि तीर्थ हमारी संस्कृति के उद्गमस्थल हैं, जिनकी उपेक्षा से जैनधर्म की प्राचीनता पर भी प्रश्नचिन्ह लग रहा है उनके विकास में उदासीनता क्यों? भव्यात्माओं! आप स्वयं सोचिये कि जिन भगवान पद्मप्रभ, चन्द्रप्रभ, महावीर स्वामी के नाम वाले अतिशय क्षेत्र पदमपुरा, तिजारा जी, चाँदनपुर महावीर जी में भक्तजन अपनी मनोकामना सिद्धी हेतु हजारों दीप जलाकर पूजा-अर्चना करते हैं उनकी जन्मभूमियाँ आज किस स्थिति में हैं? इन भगवन्तों के जन्म लिए बिना क्या अतिशय क्षेत्र उत्पन्न हो सकते थे? खैर! बीते हुए कल की बात छोड़ दीजिए और अब मेरी आप लोगों के लिए यही प्रेरणा है कि दिगम्बर जैन समाज की एक-एक सक्रिय संस्थाएँ एक-एक जन्मभूमि तीर्थ के विकास की भावना लेकर संस्कृति का संरक्षण करें क्योंकि जिन पवित्र स्थलों पर तीर्थंकर महापुरुषों ने जन्म लिया, जहाँ कुबेर द्वारा १५ महीनों तक रत्नवृष्टि हुई, जहाँ इन्द्र ने आकर प्रभु का दिव्य जन्मोत्सव मनाया, जहाँ से भगवन्तों ने अपने सर्वोदयी सिद्धान्तों का प्रचार किया और जहाँ जन्म लेकर प्रभु ने अजन्मा बनने का संकल्प लिया और मुक्तिपथ की ओर अग्रसर हुए, वे पावनभूमियाँ वास्तव में भारतीय संस्कृति की उद्गमस्थली हैं अत: जीर्णोद्धार, विकास एवं नवनिर्माण की शृँखला में सर्वप्रथम जन्मभूमियों की प्राथमिकता होनी चाहिए। इस संबंध में जैन समाज द्वारा हुई उपेक्षा के कारण ही कुछ इतिहासकारों(प्रो. आर.एस. शर्मा आदि) ने ‘‘प्राचीन भारत’’ आदि पुस्तकों में लिख दिया कि ‘‘भगवान महावीर जैनधर्म के संस्थापक हैं’’ तथा जैनियों ने शेष २३ तीर्थंकरों के नाम मिथक कथाओं के आधार पर गढ़ लिये हैं। यही कारण है कि मैं अनेक वर्षों से सभी को यह प्रेरणा दे रही हूँ कि अपने समस्त तीर्थंकरों की जन्मभूमियों का विकास सर्वप्रथम होना चाहिए तथा इसी उद्देश्य के लिए मैंने दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान-हस्तिनापुर के अन्तर्गत ‘अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थंकर जन्मभूमि विकास कमेटी’ का गठन कराया है। कुण्डलपुर में सन् २००४ में सम्पन्न हुए एवं भगवान पाश्र्वनाथ जन्मकल्याणक तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव वर्ष के अन्तर्गत पंचवर्षीय ‘जम्बूद्वीप महामहोत्सव-२००५’ के अवसर पर ‘‘तीर्थंकर जन्मभूमि विकास महाधिवेशन’’ के आयोजन सामाजिक कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने के अनूठे अभियान हैं, ऐसे अधिवेशन आप सभी को विशेष उत्सव पर अवश्य आयोजित करना चाहिए। मेरा यह भी कहना रहता है कि यदि एक-एक जन्मभूमियों को विकसित करने का संकल्प दिल्ली की एक-एक समृद्ध कॉलोनी, जयपुर, इंदौर, बम्बई, कलकत्ता जैसे बड़े-बड़े शहर ले लें, तो वह दिन दूर नहीं जब वे उपेक्षित जन्मभूमियाँ शीघ्र ही विकास की चरमसीमा पर होंगी। तीर्थंकर जन्मभूमि तीर्थों को विकसित करने हेतु वहाँ के पदाधिकारियों के लिए मेरी कतिपय प्रेरणाएँ हैं-
१. प्रत्येक तीर्थंकर की जन्मभूमि पर उन-उन भगवन्तों की बड़ी मूर्ति विराजमान करें।
२. प्रत्येक तीर्थंकर की जन्मभूमि पर उन-उन भगवन्तों के नाम वाले कीर्तिस्तंभ का निर्माण किया जाए तथा उसमें उन तीर्थंकर का पूरा जीवन चरित्र उत्कीर्ण करें।
३. उनकी जन्मतिथि पर प्रतिवर्ष उन भगवान का मस्तकाभिषेक कार्यक्रम वार्षिक मेले के रूप में आयोजित करें।
४. उनके निर्वाण दिवस पर लाडू चढ़ाएँ।
५. उन-उन भगवन्तों के इतिहास से संबंधित चित्रप्रदर्शनी, झांकियाँ आदि निर्मित हों।
६. जैनधर्म की प्राचीनता से जन-जन को परिचित कराने हेतु प्रत्येक तीर्थ पर प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का भी जन्मोत्सव एवं निर्वाणलाडू का कार्यक्रम आयोजित करें।
७. उन तीर्थों से प्रकाशित होने वाली तीर्थ एवं तीर्थंकर परिचय की पुस्तिका में दिगम्बर जैन ग्रंथ उत्तरपुराण के आधार से ही परिचय लिखकर प्रकाशित करें। इस संदर्भ में जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर से प्रकाशित पुस्तक ‘‘तीर्थंकर जीवनदर्शन’’ मंगाकर तीर्थंकरों के परिचय का सहयोग प्राप्त करें। इस प्रकार आप सभी भक्तजन तीर्थंकर जन्मभूमियों के विकास में अपना सहयोग प्रदान करके यश एवं पुण्य के भागी बनें, यही मेरी प्रेरणा एवं सभी के लिए मंगल आशीर्वाद है।