हम लोग बहुत ही भाग्यशाली हैं कि हमने जैनधर्म में जन्म लिया और चौबीस तीर्थंकर जैसे महान देव लोगों से हमको परिचय हो गया। परंतु उनमें भगवान पार्श्वनाथ तेर्इंसवें तीर्थंकर हैं। भगवान पार्श्वनाथ के जीवन की घटनाएँ, अनेक जीव के साथ उनके भवों का संबंध, वैर-भाव और उपसर्ग-निवारण आदि सब मिलकर एक घटनात्मक बन जाता है जो हमको बांध कर रखता है। चौबीस भगवान की मूर्तियों में भगवान पार्श्वनाथ की मूर्तियों में सबसे अधिक-विविधता है। भगवान के जन्म से १५ माह पूर्व से वाराणसी नगरी में सुबह, मध्यान्ह, संध्या में रत्नों की वर्षा होती थी। वाराणसी वह नगर था जो भरतक्षेत्र में काशी नगर के अलंकार रूप था। उस नगर के राजा विश्वसेन और उनकी रानी का नाम ब्राह्मी था। रत्नवर्षा करना एक परम्परा और नियोग है। श्री ह्री, धृति, कीर्ति आदि-देवागनाएँ माता की सेवा के लिए अंत:पुर में पहुँची। तीर्थंकर भगवान की माता जब शय्या पर शयन कर रही थीं। रात का समय था। एक आनंदमय संवेदन से माता का रोम-रोम सजल हो रहा था। उस समय माता ने अद्भुत सोलह सपने देखे। गर्भ में भगवान के सद्भाव के प्रभाव से अधिक विशुद्धि हो गयी। महारानी ने महाराज को इन सोलह सपनों के बारे में बताया तो उन्होंने मंंत्रीगण और सभासद से चर्चा करके ये बताया कि ये सपने तो बहुत शुभ शकुन हैं। अंतत: पौष कृष्णा एकादशी के दिन विशाखा नक्षत्र में तब सभी ग्रह अपने उच्च स्थान में थे, उस उत्तम समय में ब्राह्मी देवी ने भगवान तीर्थंकर को जन्म दिया। तब आकाश से सुगंधित पुष्पों की वर्षा हो रही थी। प्रभु जन्म होने पर आनंद और उत्साह का वर्णन कौन कर सकता है। वहाँ पर शंखध्वनी होने लगी, व्यंतरवासियों के यहाँ भी भेरीनाद होने लगा। सौधर्म इंद्र का आसन कांपने लगा। लेकिन प्रभू का जन्म हुआ ये जानकर आदर से मस्तक झुक गया। अपने जन्म का सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य समझकर सौधर्म इंद्र प्रभु का जन्मकल्याणक मनाने अपने परिवार के साथ वाराणसी नगर की ओर निकले। जब शची इंद्राणी ने बालक को देखा तो उसके नयनचकोर पुलकित हो गये। बालक अपने हाथों में उठाया और इंद्र को देने के लिए प्रसव मंदिर के बाहर आ गयी। शची ने जब बालक को इंद्र को सौंपा, तब उनका अनुपम सौन्दर्य देखकर इंद्र उनको देखते ही रह गये। इतने पर तृप्त न होने पर हजार नेत्रों से उन्हें देखकर अपने अंत:करण को तृप्त किया और प्रभु का मनोहर रूप देखते ही रहे। जैसे ही भगवान को अपने गोद में उठाया तो सभी देव-देवियाँ जय-जयकार करने लगे। बाद में इंद्र ने तीर्थंकर पिता की पूजा की, और कहा ‘‘हे राजन्! तीर्थंकर भगवान का जन्मकल्याणक करना हमारा नियम है और बड़े ही धूम-धाम से जन्मकल्याणक मनाया। समस्त लोगों पर भगवान का प्रभाव पड़ा था। इसीलिए जिनेन्द्र का पवित्र नाम पार्श्वनाथ रखा गया। देवोपुनीत भोगों के भोगने वाले कुमार धीरे-धीरे युवावस्था में पदार्पण कर गये। उनका मुख चंद्रमा के समान था। नेत्र कमल के समान और भुजाएँ विशाल थी। शरीर की काँति तमाल वृक्ष के समान मनोहर थी। एक दिन पार्श्वनाथ राजदरबार में बैठे हुए थे। सभा लगी हुई थी। एक मनुष्य सभा में आया, पार्श्वनाथ को नमस्कार करके उसने पूछा, ‘‘हे प्रभु! मैं उपवन से आ रहा हूँ। मेरी नजर-उधर एक मुनि पर पड़ी, धीर वीर लगते हैं। चारोें ओर भयंकर रूप से जलने वाली अग्नि में बैठकर सूर्य की तरफ दृष्टि लगाकर पंचाग्नि तप कर रहे हैं। भगवान पार्श्वनाथ ने अपने ज्ञान से पता किया उनका वैरी कमठ का जीव नरक की आयु भोगकर मनुष्यगति को आया है, और वही बालतप कर रहा है। हाथी पर सवार होकर वे वन में पहुँचे तो तपाग्नी में तपस्वी को देखा, और बंधुभाव से कहा कि इस तरह के िंहसामय तप से आत्मतत्व की प्राप्ति नहीं होती। केवल शरीर को कष्ट देने से किसी को आनंद नहीं मिलता। उसे तू छोड़ दे। ये सुनकर कमठ के मन पर कुछ असर नहीं हुआ। उनकी बात सुनकर उसे क्रोध आया। अनेक भवों का वैर उसे याद आया। अनेक नरक यातना भोगकर वह महीपाल तपस्वी हुआ। वह सोचने लगा कि मैं तपोवृद्ध, वयोवृद्ध हूूँ, यह बालक है फिर भी मुझे नमस्कार भी नहीं किया और उपदेश कर रहा है। जलती आग में लकड़ी डालने के लिए काटने को कुल्हाडी उठायी। तभी कुमार ने उसको मनाकर दिया। तो वह तपस्वी क्रोधित हो गया और कहा! अरे! इस समय तेरे पास वैभव ही वैभव है इसीलिए तू गर्वित हो गया है। यह सुनकर भी पार्श्वनाथ को क्रोध नहीं आया। तब तापसी को और क्रोध आया और उसने क्रोधित हो लक्कड़ के दो टुकड़े कर दिये उस लकड़ी में युगल नाग-नागिन का जोड़ा आग की उष्णता से छटपटा रहा था। नाग को मरने की हालत में देखकर पार्श्वनाथ ने उन्हें पंचपरमेष्ठी का मंत्र (णमोकार मंत्र) बोला। नाग ने भी उसे मन से सुना, जिससे अज्ञानांधकार दूर हो गया। मंत्र के प्रभाव से चारों ओर अग्नि से जलने वाले शरीर का त्याग करके नाग भवनवासी जाति का देव हो गया और वह नागिनी उसी देव की देवी हुई। नाग धरणेन्द्र और नागिनी पद्मावती हो गये। नाग-नागिन को अवधिज्ञान था।जिससे दोनों को उपकार का ज्ञान हुआ। महिपाल तपस्वी क्लेश प्रभाव से भवनवासी असुर जाति का देव हो गया। भगवान पार्श्वनाथ को पूर्ण यौवनावस्था प्राप्त हो गयी। राजा विश्वसेन और रानी उनके मंगल विवाह की सोचने लगे और उन्होेंने कुमार से बात की तो उन्होंने बड़े ही आदर से कहा—मैंने अनेक भवों में अनेक भोगों का भोग किया फिर भी मन को सच्चा आनंद नहीं मिला। क्योंकि भोगों से जो सुख मिलता है, अंतत: वो दुखदायक होता है। जो भोग को जानकर भी उन्हें स्वीकार करता है वह अज्ञानी जीव ऐसा है जैसे हाथ में दीपक होने पर भी कुंऐ में गिरता है। भोग, उपभोग, विषय-वासना में जीव के विज्ञान से उत्पन्न भाव हैं, नाम अलग हैं परंतु जीवों को दुख देते हैं ” एक बार अयोध्या के दूत द्वारा भगवान ऋषभदेव के भवों और अयोध्या वृतान्त सुनकर वे प्रभु उत्कृष्ट वैराग्य को प्राप्त हुए। लौकांतिक देवों ने भगवान के अंत:करन की वैराग्य भावना जान ली और ब्रह्म स्वर्ग से आकर उन्होंने भगवान की इस प्रकार स्तुति की-‘भगवान हमें अपना मधुर गीत प्रारंभ करने के लिए वसंत ऋतु ही चाहिए। प्रभु आपने मोह जाल से छूटने का जो पवित्र निश्चय किया है, वह आप जैसे उच्च आत्मा के-पूर्णतया अनुरुप है। मोहरूपी शत्रु को जीतने की आपकी इच्छा श्रेष्ठ है। प्रत्येक जीव सुख चाहता है। परन्तु मृत्यु के बाद जन्म न हो ऐसे केवल आप जैसे वीतरागी करते हैं। प्रभो धर्म की सृष्टी कीजिए। संसार मोहरूपी कीचड़ में फंसा है। धर्म को आप जैसे हाथों की जरूरत है। दिगम्बर दीक्षा धारण कीजिए और केवलज्ञान पाकर भव्य जीवों को ज्ञान दीजिए। भगवान के वैराग्य के कारण इंद्र तथा देवों के आसन कांपने लगे। तब इंद्र सब देवों को लेकर बनारस आ गये, और दीक्षाकल्याणक मनाया। पालकी में भगवान को बिठाया। अश्व नामक वन में भगवान आ गये। पालकी से उतरकर पूर्व दिशा की ओर मुख कर स्फटिकमणी की पाषाण शिला पर पर्यंकासन से विराजमान हो गये। ‘ॐ नम: सिद्धेभ्य:’ कहकर केशलुंचन किया और दीक्षा ले ली। उस दिन पौषकृष्णा एकदशी का प्रात:काल था। जन्म से ही तीन-ज्ञान के धारक भगवान के दीक्षा लेते ही चौथा मन:पर्यय ज्ञान प्रकट हुआ। दीक्षा लेने के बाद गुल्मश्वेट नगर में गये। वहाँ के राजा ने नवधा भक्तिपूर्वक भगवान का पड़गाहन करके आहार दिया। प्रभु का आहार क्या था, वह तो एक महोत्सव था। उसके प्रभाव से देवों ने पंचाश्चर्य किये-शीतल सुगंधित हवा बहने लगी, देवों ने पुष्पवर्षा की । एक बार प्रभु देवदारु वृक्ष के नीचे ध्यानमग्न हुए। तभी कमठ का देव रूपी जीव आकाशमार्ग से जा रहा था। अकस्मात विमान रुक गया। उसको पूर्व भव का वैर स्मरण में आ गया। उसको क्रोध आया, उसने भीषण गर्जना की, प्रलयकारी वर्षा करना प्रारंभ किया। फिर उसने पवन को भी प्रवाहित किया। उससे नगर पर्वत, वृक्ष उड़ गये। इतना होने पर भी पार्श्वनाथ विचलित नहीं हुए, तब वो अधिक क्रोधित हो गया। बाद में वो भयंकर शस्त्रशस्त्रों की वर्षा करने लगा। वे शस्त्र भी तप के प्रभाव से पुष्प बनकर गिरते थे। जब शस्त्र भी निष्फल हुआ, तब माया से अप्सराओं का समूह उत्पन्न किया। वो नृत्य-गीत करने लगे। परन्तु पार्श्वनाथ अंतर्विहार में मग्न थे। किन्तु कमठ भी हार मानने वालों में नहीं था। उसने रौद्र पशुओं द्वारा उपसर्ग किया, किन्तु अनेक प्रयत्न के बाद भी प्रभु अपने आत्मज्ञान से विचलित नहीं हुए। उसी समय संवर देव ने सात दिन तक उपसर्ग किया। अपने ज्ञान से नागेन्द्र धरणेन्द्र अपनी देवी पद्मावती के साथ आये। धरणेन्द्र ने भगवान को चारों ओर से अपने फणों के द्वारा ढक लिया। पद्मावती देवी भगवान को मस्तक के ऊपर धारण कर लिया और इस प्रकार अपने उपकारी के प्रति कृतज्ञता धरणेन्द्र-पद्मावती ने बताई। अंत में संवर ने हार मानी और भगवान के समवसरण में उसने क्षमा-माँगकर शरण ली। भगवान के शुक्ल ध्यान के प्रभाव से उनका मोहमयी कर्म नष्ट हो गया था और उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ था। वह दिन चैत्र कृष्णा चतुर्दशी का था। अंत में उन्होंने श्रावण शुक्ला सप्तमी को सम्मेदशिखर पर्वत के स्वर्णभद्र वूâट से विशाखा नक्षत्र में प्रात:काल मोक्ष प्राप्त किया। उस समय जितने भी अंतर दृष्टी, दिव्यज्ञान के धारक मुनि थे वे जान गये कि भगवान मोक्ष को प्राप्त हो गए उन्होंने प्रभु को भक्ती से प्रणाम किया और विधीपूर्वक चारों निकायों के देवों ने जिनेन्द्र के निर्वाणकल्याणक की पूजा की।