तित्थयरस्स विहारो लोअसुहो णेव तत्थ पुण्यफलो।
वयणं च दाणपूजारंमयरं तं ण लेवेइ।।५४।।
तीर्थंकर का विहार संसार के लिए सुखकर है परन्तु उससे तीर्थंकर को पुण्यरूप फल प्राप्त होता है ऐसा नहीं है तथा दान और पूजा आदि आरंभ के करने वाले वचन उन्हें कर्मबंध से लिप्त नहीं करते हैं। अर्थात् वे दान पूजा आदि आरंभों का जो उपदेश देते हैं उससे भी उन्हें कर्मबंध नहीं होता हैै। श्रावकों को दान-पूजा आदि पुण्य कार्य करते ही रहना चाहिए।
पावागमदाराइं अणाइरूवट्ठियाइ जीवम्मि।
तत्थ सुहासवदारं उग्घादेंतो कउ सदोसो।।५७।।
जीवों में पापास्रव के द्वार अनादिकाल से खुले हुए हैं। उनके रहते हुए जो जीव शुभास्रव के द्वार को खोलता है अर्थात् शुभ-पुण्य आस्रव के कारणभूत कार्यों को करता है वह सदोष कैसे हो सकता है?