यह अकाट्य सत्य है कि नारी जब तीर्थंकर पुत्र को जन्म देती है, लोक पूज्य बन जाती है देव इन्द्र आकर उसकी पूजा,स्तुति करते हैं। महान पुत्र की महान माता के गृह—आंगन में ही नहीं सम्पूर्ण नगरी में दिन में तीन—तीन बार करोड़ों—करोड़ों रत्नों की वृष्टि होती है और वह भी २—४ दिन नहीं पूरे पन्द्रह माह तक। तीर्थंकर के गर्भ में आने से पूर्व छह माह और गर्भ में आने के नौ माह तक। प्रतिदिन करोड़ों रत्न बरसाने के कारण पृथ्वी रत्नगर्भा ही नहीं, रत्नों से भर कर देदीप्यमान, शस्य श्यामला, सर्व ऋतुओं के फूल—फलों से भर जाती है। दूर—दूर तक आधि—व्याधि से मुक्त, आनंद से सराबोर। उस सौभाग्यशालिनी भावी माता की सेवा भी गर्भ—पूर्व से ही श्री,ह्री, धृति, कीर्ति आदि दिक्कुमारियाँ करने लगती हैं। उनके—वस्त्राभूषण, स्वादिष्ट व्यंजन स्वर्ग के देव लाने लगते हैं। देवकन्यायें माता के मनोरंजनार्थ नृत्य—नाद्य,वाद्य—संगीत प्रस्तुत करती हैं। महामाता से प्रश्नोत्तर करती हैं, पहेलियाँ पूछती हैं जो बड़े ही गूढ़ और आध्यात्मिक होते हैं, माता अत्यधिक बुद्धि —चातुर्य से तत्काल ही उन्हें उत्तर दे संतुष्ट कर देती हैं। माता गर्भ पूर्व सोलह शुभ स्वप्न देखती हैं, जो बड़े ही सुन्दर व अनुपमेय होते हैं, यही नहीं स्वर्ग से उतरता हुआ सुन्दर श्वेत वृषभ स्वयं में प्रवेश करते हुये भी अनुभव करती हैं। प्रात: जब वाद्य की मधुर ध्वनि से उनकी निद्रा भंग होती है तो स्वयं को अलौकिक ऊर्जा से युक्त एवं दिव्य आलोक से परिपूर्ण अत्यधिक उल्लासित अनुभव करती हैं । वे महाराजा पति के दरबार में पहुँचती हैं। सारा दरबार ही नहीं महाराज भी उनके सम्मान में खड़े हो जाते हैं, वे अर्धसिंहासन पर सप्रेम बिठा रानी के आने का अभिप्राय पूछते हैं और वह भावी माँ रात्रि में देखे हुये सोलह सुन्दर स्वप्नों को क्रमश: बताती हैं। पति नृपति उन स्वप्नों को सुनकर आल्हाद से भर जाते हैं । अपने व निमित्तज्ञानियों के विचार—विमर्श के बाद उन रहस्यमय स्वप्नों का फल तीर्थंकर पुत्र प्राप्त होता है। महारानी त्रिशला, प्रियकारिणी ने आषाढ़ शुक्ला षष्ठी को जब उत्तराषाढ़ नक्षत्र विद्यमान था तब मनोहर नामक चतुर्थ प्रहर में हस्ति, वृषभ, सिंह ,लक्ष्मी—अभिषेक, युगलमाल, चन्द्र, सूर्य, मत्स्ययुगल, दो कलश, सरोवर, समुद्र, सिंहासन, देव—विमान, धरणेन्द्र भवन, रत्नराशि, निर्धूम अग्नि ये सुन्दर सोलह स्वप्न देखे थे। ये स्वप्न आध्यात्मिक फलश्रुति लिये हुये थे अत: महारानी अत्यन्त उत्कंठित हो अनुपमेय आल्हाद से भर गयी थीं। उनका अप्रतिम पुण्य, जन्म—जन्मान्तर का तप—दान शुभ भावनाओं व उदात्त कामनाओं की फलश्रुति के रूप में चैत्र शुक्ला त्रयोदशी कालमंगल सोमवार को रात्रि के अंतिम भाग में जब चन्द्रमा उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र पर आया था तब माता ने जिनेश्वर को जन्म दिया था। महारानी प्रियकारिणी त्रिशला, प्राची दिशा सदृश थीं। क्योंकि उन्होंने जिनेन्द्र वर्धमान—महावीर जैसे आदित्य को जन्म दिया था, माँ त्रिशला पूर्वा नहीं अपितु अपूर्वा थीं, उनका जैसा पुत्र अपूर्व—अनुपमेय—अद्वितीय, मात्र एक ही था। पुत्रोत्पत्ति के साथ ही तीनों लोकों में सुख—शांति,आनंद—उल्लास की ज्योतिर्मय तरंग फैल गयी थी । ‘पुण्यफला अरिहन्ता’ के रूप में लोक में सर्वाधिक पुण्यात्मा भव्य पर्याय तीर्थंकर की होती है उसी प्रकार संसार में सर्वश्रेष्ठ नारी एवं सर्वाधिक पुण्यशालिनी तीर्थंकर की माता होती है। काम पुरुषार्थ का सर्वोत्कृष्ट फल दम्पत्ति रूप में तीर्थंकर के माता—पिता को प्राप्त होता है और यह माता अपने तीसरे भव में ही मोक्ष की प्राप्ति कर सिद्ध भगवान् बन लेती हैं। श्रीमानतुंगाचार्य जी ने कहा है—
महान् माता की स्तुति में कविहृदय आचार्यश्री ने यथार्थ के दर्शन कराने का प्रयत्न किया है परन्तु उस अपूर्वा—अनुपमेय नारीरत्न का सौभाग्य तो अनिर्वचनीय है। तीर्थंकर की माता बनना तो बहुत बड़ा सौभाग्य और जन्म —जन्मान्तर की तपस्या का फल है ही परन्तु सामान्य रूप से भी योग्यतम संतान उत्पन्न करना नारीत्व की सफलता और मातृत्व की सार्थकता मानी गयी है, कहा गया है—
नारी जन तो भक्तजन,या दाता या शूर, नहीं तो रहना बाँझ ही, वृथा गवाँ मत नूर।
संसार की हर स्त्री माँ बनना चाहती है और उसे ईश्वर का वरदान है, यह गौरव नारी को ही प्रकृतिप्रदत्त है। मानवीय समाज में परम्परागत तथा धर्म—न्याय—नीति के अनुसार अलग—अलग परिवारों में पले—पुषे युवक—युवती समाज और कानून की मान्यतानुसार स्वजनों—परिजनों तथा अग्नि को साक्षी मान परिणय सूत्र में बँधते हैं तथा जीवनपर्यन्त दम्पत्ति रूप में एक साथ रहकर धर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थ को यथाशक्ति धर्मपूर्वक करने का संकल्प ही नहीं,सौगन्ध खाते हैं,यहाँ इनका मुख्य प्रयोजन है वंश परम्परा को चलाना, राष्ट्र और समाज की समृद्धि के लिये योग्य संतान को जन्म देना, उनका लालन—पालन, शिक्षित—संस्कारित कर योग्य नागरिक बनाना। उनका ध्येय दिव्य कामना, शिव—संकल्प से सन्तति उत्पन्न करना है। काम पुरुषार्थ या कामनीति में ब्रह्मचर्याणुव्रत एक कवच का काम करता है। पुरुष का स्वभार्यासंतोषी, परस्त्री व वेश्या के प्रति मन—वचन—काय से विरक्त होना आवश्यक है वहीं स्त्री को कुल—जाति से विशुद्ध, पातिव्रत्य व सतीत्व की शुचिता से युक्त होना ही चाहिये उन्हीं से आदर्श संतान की आशा की जा सकती है। एक आदर्श माँ ही अपनी इच्छानुसार आदर्श संतान को जन्म देने में समर्थ होती है। रानी मदालसा ने विवाह से पूर्व पति से वचन लिया था कि वह अपनी संतान को अपनी इच्छानुसार बनायेगी। राजा उसके गुण—चातुर्य तथा बुद्धिमत्ता से प्रभावित था अत: वचन दे दिया। रानी ने गर्भस्थ शिशु को वैराग्य से पोषित किया, घुट्टी में तप—त्याग का मंत्र दिया, शुद्ध—बुद्ध निरंजन होने की लोरी सुनाई और क्रमश: छह पुत्रों को योगी बना आत्मोद्धार में लगा दिया और जब राजा ने मनुहार की कि मुझे राज्य का उत्तराधिकारी चाहिये तो रानी मदालसा ने एक न्यायी योद्धा के रूप में युवराज दिया, यह आदर्श मातृत्व है। जीजाबाई ने भी शिवाजी को अपनी इच्छानुसार महान् योद्धा सम्यक् आचरण से युक्त मुगलों से टक्कर लेने वाला साहसी वीर बनाया था, तो इतिहास का स्वर्णाक्षर बना। ऐसी एक नहीं अनगिनत घटनायें हैं। सुभाषचन्द्र बोस ने कहा था ‘मुझे सौ अच्छी माता दे दो, मैं तुम्हें एक अच्छा राष्ट्र दूँगा परन्तु आज वह मातायें पैदा ही नहीं हो रहीं, यहाँ तो माता स्वयं ही भौतिकता के भ्रमर में फसी हुई है। आज शिक्षित—सम्पन्न महिलायें माँ बनने से कतरा रहीं हैं। माँ बनने का गौरव और संतान सुख उन्हें ऐन्द्रिक सुख में बाधा प्रतीत होता है अत: अनिच्छा और मजबूरी में उत्पन्न हुई संतान भ्रष्टाचारी, अत्याचारी, आतंकवादी, बलात्कारी और लुटेरा व स्वार्थी बनती है जो देश—समाज, परिवार को ही नहीं माता—पिता को भी दुख और क्लेशप्रदायक होती है। ‘नहि विष बेल अमिय फल फल ही’। आज आवश्यकता है नारियों को मातृत्व के लिये संस्कारित किया जाये और नारी को ही नहीं,नर—नारी समान रूप से कर्त व्यशील हो सहयोगी बनें, आदर्श सृजन की तैयारी आवश्यक है। वे लक्ष्य निर्धारित करें उन्हें कैसी संतान चाहिए, यदि वे आदर्श माता—पिता बन योग्यतम संतान दे सकते हैं तो यह राष्ट्र एवं समाज व परिवार के लिये वरदान होगा। नारी सृजन महिमा तथा मातृत्व के गौरव को सर्वाधिक महत्त्व दें। मानवता की रक्षा और जीवन की कुंजी मातृत्व के आदर्श में है। सच्चे मन से दिव्य मानवता की अभीप्सा, आध्यात्मिक सृजन तथा आदर्श से प्रेरणा नारी के उदात्त विचारों में समन्वित हो तो संसार में महापुरुषों का अभाव हो ही नहीं सकता। नारी ही विश्वकल्याणक ज्योति को जगा सकती है। तीर्थंकर का जन्मोत्सव नहीं अपितु जन्मकल्याणक महोत्सव मनाया जाता है क्योंकि वे जन—जन के कल्याण के लिये अवतरित होते हैं । तीर्थंकर माता अन्तर—बाह्य व्यवहार में इतनी शुचिता का सौन्दर्य लिये होती हैं कि मानव ही नहीं देवियाँ भी सेवा—सान्निध्य में स्वयं को कृतकृत्य कर अहोभाग्य मानती हैं। वर्तमान में नि:स्पृही सन्त एवं धार्मिक — सामाजिक सहिष्णुता से समन्वित सदाचारी,बौद्धिक प्रखरता एवं कर्मठ—श्रमशीलता से युक्त नर—नारी की बहुत बड़ी भूमिका है अत: नारी को कामनीति और काम पुरुषार्थ के रहस्य और आदर्श को जानना व मानना होगा। वह पुरुष को धक्का मारकर उसका स्थान ले रही है परन्तु वह उसकी शक्ति है, प्रेरणा है, आधार है, जन्मदात्री है, सहगामिनी है अत: मानवता की रक्षा उसका प्रथम कर्तव्य है। नारी आधार सृजन का है, वह अमिय फले या विषफल दे, पोषण, ऊर्जा,संस्कारों से, मानव—दानव पैदा कर दे।