एक नीतिकार के अनुसार- शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहने के लिए तथा सुखी और शांतिपूर्ण जीवनयापन के लिए संतोष आवश्यक है। उन्होंने कहा कि संतोष: त्रिषु कर्तव्य:, स्वदारे भोजने धने अर्थात् हमें तीन चीजों में परम संतोष अनुभव करना चाहिए—अपनी पत्नी में, अपने भोजन में और अपने धन में।
इसके साथ ही यह भी कहा है कि अन्य तीन उपक्रमों में संतोष नहीं करना चाहिए—त्रिषु नैव कर्तव्य:, विद्यायां जपदानयो: अर्थात् विद्यार्जन में कभी संतोष नहीं करना चाहिए कि बस बहुत ज्ञान अर्जित कर लिया तथा जप और दान करने में भी संतोष नहीं करना चाहिए।
इसी नीति को ध्यान में रखते हुए परमपूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की सुशिष्या प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी ने प्रारंभ से ही गुरुसेवा के साथ-साथ विद्यार्जन को अपना प्रमुख लक्ष्य बनाया। उन्होंने प्रारंभ से ही कभी भी यह नहीं सोचा कि अब मुझे भजन आदि लिखने का अभ्यास हो गया है, अब बस और नहीं लिखना या अब मैंने अनेकों शास्त्रों का अध्ययन करके शास्त्री और विद्यावाचस्पति की परीक्षा में उत्तीर्णता प्राप्त कर ली है,
अब आगे पढ़कर क्या करना ? अपितु इन्होंने अपने एक-एक क्षण का सदुपयोग करते हुए खूब ज्ञान स्वयं अर्जित किया है तथा जन-जन में उसे वितरित भी किया है। महानुभावों! इस संसार में अनेक प्रकार की विद्याएँ-कलाएँ प्रचलित हैं जिनमें लेखनकला, गायनकला, नृत्यकला, संगीतकला, नाट्यकला, चित्रकला आदि प्रमुख हैं इनमें से भी लेखनकला अर्थात् साहित्यिक क्षेत्र से संबंधित अनेकों विधाएँ हैं जैसे-गद्य-पद्य-चम्पू-भजन-पूजन-नाटक–टीका आदि,
इनको लिखने वाले व्यक्ति अलग-अलग नामों से पहचाने जाते हैं अर्थात् गीत-भजन लिखने वालों को गीतकार कहा जाता है, कविता का लेखन/पठन करने वाले कवि कहलाते हैं, पुस्तके लिखने वाले लेखक कहे जाते हैं, संस्कृत अथवा हिन्दी टीका लिखने वालों को टीकाकार की संज्ञा दी जाती है आदि परन्तु यदि इन सभी विधाओं का किन्हीं एक ही व्यक्तित्व के द्वारा सृजन किया जाता हो तो उन्हें क्या कहना उचित होगा ? यह हम जैसे अल्पज्ञानियों की समझ से परे है।
पूज्य चंदनामती माताजी का व्यक्तित्व कुछ ऐसा ही है उन्होंने हजारों भजन लिखे, अनेकों पूजाएँ लिखीं, अनेकों हिन्दी स्तुतियाँ तथा कई एक संस्कृत के स्तोत्र लिखे, उन्होंने नाटक भी लिखे, षट्खण्डागम की सिद्धान्तचिंतामणि नामक संस्कृत टीका की हिन्दी में टीका लिखी, पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा रचित महावीर स्तोत्र की संस्कृत में टीका लिखी, कई शिक्षास्पद पुस्तके लिखीं, भक्तिमार्ग की वृद्धि हेतु कई विधानों की रचना की तथा पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा संस्कृत भाषा में लिखित (भगवान ऋषभदेव के सम्पूर्ण जीवन का वर्णन करने वाला) ‘‘श्री ऋषभदेव चरितम्’’ का हिन्दी अनुवाद किया।
यहाँ आपको उसी ‘‘श्री ऋषभदेव चरितम्’’ की हिन्दी टीका का परिचय प्रदान किया जा रहा है— इस टीका लेखन का प्रारंभीकरण करते हुए पूज्य माताजी ने सर्वप्रथम मंगलाचरण के श्लोकों का अर्थ करते हुए लिखा कि कृतकृत्यपने को प्राप्त सिद्धों को, समस्त त्रैकालिक जिनेन्द्रों को तथा भगवान आदिनाथ के चरित को हृदय में धारण करके मेरे द्वारा श्री ऋषभदेव तीर्थंकर के कुछ गुणों का वर्णन किया जा रहा है।
पूज्य माताजी ने यद्यपि अपनी अल्पज्ञता प्रगट करते हुए यहाँ कुछ गुणों का वर्णन करने की बात लिखी है परन्तु इस ग्रंथ को पूरा पढ़ने पर यह ज्ञात होता है कि भगवान ऋषभदेव के जीवन का कोई भी पहलू उनकी लेखनी से अस्पृश्य नहीं रह गया है। उन्होंने संस्कृत का हिन्दी अर्थ करने के साथ-साथ भावार्थ एवं विशेषार्थ के माध्यम से विषय को और भी अधिक सरल बना दिया है।
मंगलाचरण के पश्चात् पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने इसमें एकाक्षर से लेकर आठ अक्षरी छंदों के द्वारा स्वरचित संस्कृत श्लोकों से भगवान ऋषभदेव की स्तुति की है उसका हिन्दी अर्थ करते हुए पूज्य चंदनामती माताजी ने प्रत्येक श्लोकार्थ के पश्चात् दिए भावार्थ में तत्संबंधित कथाओं को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है।
इसी शृँखला में श्लोक नं. १० में ‘‘भगवान का एक नाम पुरुदेव भी है’’, इसकी व्याख्या करते हुए भावार्थ में उन्होंने वीतराग भगवान की महिमा का वर्णन करते हुए लिखा कि वीतराग भगवान की छवि हृदय में विराजमान करने से जहाँ हृदय पवित्र होता है, वहीं शारीरिक शक्ति भी प्राप्त होती है।
इसका उदाहरण देते हुए उन्होंने लिखा कि एकीभाव स्तोत्र के रचयिता श्री वादिराज मुनिराज को एक बार कुष्ठरोग हो जाने पर उन्होंने जिनेन्द्र भगवान की भक्ति की महिमा से सबको परिचित कराते हुए इस स्तोत्र में एक श्लोक लिखा-
प्रागेवेह त्रिदिवभवनादेश्यताभव्यपुण्यात्,
पृथ्वीचक्रं कनकमयतां देव निन्ये त्वयेदम्।
ध्यानद्वारं मम रुचिकरं स्वान्तगेहं प्रविष्ट:,
तत्विं चित्रं जिन वपुरिदं यत्सुवर्णीकरोषि।।
अर्थात् हे भगवन्! स्वर्ग लोक से माता के गर्भ में आने के छह महीने पहले आपने इस पृथ्वीमण्डल को स्वर्णमय बना दिया क्योंकि भगवान के माता के गर्भ में आने के छह माह पहले से कुबेर रत्नवृष्टि प्रारंभ कर देते हैं और पन्द्रह माह तक प्रतिदिन माता के आंगन में मोटी-मोटी रत्नवृष्टि करते हैं, जिससे धरती रत्नमयी हो जाती है। उसी समय के दृश्य का चित्रण करते हुए कुष्ट रोग से ग्रसित श्री वादिराज मुनिराज ने स्तुति के माध्यम से भगवान से शरीर निरोग करने मात्र की याचना न करते हुए चुनौती सदृश भाषा में कहा है कि भगवन्!
आपने माता के गर्भ में आने के छह माह पूर्व से पृथ्वी को स्वर्णमय कर दिया तो फिर ध्यान के द्वारा मेरे मनोहर अन्त:करणरूप मंदिर में प्रविष्ट हुए आप कुष्ठरोग से पीड़ित मेरे इस शरीर को यदि सुवर्णमय बना दें, तो इसमें क्या आश्चर्य है ?
अर्थात् कुछ भी आश्चर्य नहीं है। और इस स्तुति के प्रभाव से उनके शरीर से कुष्ट रोग बिल्कुल समाप्त हो गया तथा शरीर पूर्ण स्वस्थ, कंचन के समान दैदीप्यमान होने लगा। इस प्रकार पूज्य माताजी ने यहाँ एक पौराणिक इतिहास से हम सभी को परिचित करा दिया, आज किसी के पास पुराणों को पढ़ने का तो समय है नहीं, परन्तु गुरुओं की कृपाप्रसाद से हमें अनायास ही शास्त्र की सच्ची घटनाओं को संक्षेप में जानने का अवसर प्राप्त हो जाता है।
पुन: आगे ११वें श्लोक के अर्थ के पश्चात् भावार्थ में उन्होंने चौबीस तीर्थंकरों के अलग-अलग वर्णों का वर्णन लघु चैत्यभक्ति के आधार से किया है। पूज्य माताजी ने अपनी इस हिन्दी टीका का नाम ‘‘ब्राह्मी टीका’’ रखा है, इस ब्राह्मी टीका के मंगलाचरण में उन्होंने शार्दूलविक्रीडित छंद में भगवान ऋषभदेव की स्तुति में सुन्दर श्लोक की रचना की है जो कि सातों विभक्तियों से युक्त है तथा आगे अन्य भी स्वरचित श्लोकों के माध्यम से भगवान ऋषभदेव की वंदना की है।
पुन: अनेकों प्रकार से भगवान ऋषभदेव की स्तुति-वंदना के पश्चात् इस प्रथम अधिकार में भगवान के पूर्व दसभवों में से प्रत्येक भवों के नाम का एक साथ वर्णन करते हुए उन्हें नमस्कार किया है तथा दसवें भव पूर्व में ‘‘महाबल’’ की पर्याय का सुन्दर वर्णन किया है कि किस प्रकार स्वयंबुद्ध नामक मंत्री ने अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए राजा महाबल को मिथ्यात्व से हटाकर समीचीन धर्म से परिचित कराया तथा उनके जीवन का उद्धार करके अपने मंत्रीपने को सार्थक किया।
जिसके परिणामस्वरूप राजा महाबल आयु के अंत में समाधिपूर्वक मरण करके ऐशानस्वर्ग में ललितांग नाम के देव हो गए। आगे द्वितीय अधिकार में ललितांग देव के ऐश्वर्य आदि का वर्णन किया है। सर्वप्रथम उन्होंने भावार्थ में ललितांग शब्द का अर्थ घटित करते हुए लिखा कि भगवान के ३४ अतिशयों में से जन्मसंबंधी दश अतिशयों में ‘‘अतिशयरूप’’ नामक एक अतिशय है।
ललित अर्थात् सुन्दर अंग वाला अतिशयरूप है जिसका, वह ललितांग है। पुन: तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रंथ के आधार से स्वर्ग के वैभव आदि का वर्णन किया है। इस प्रकरण को पढ़ने से जानकारी प्राप्त होती है कि स्वर्ग में देवों को अतुलनीय सुख के साथ-साथ मरण का भयंकर दु:ख भी है।
उस ललितांग देव को भी मंदारमाला के मुरझाने से मरण का समय निकट जानकर अत्यन्त खेद हुआ तब सामानिक जाति के देवों द्वारा समझाने पर उसने भगवान की भक्ति में अपने अन्तिम समय को व्यतीत किया जिसके फलस्वरूप वह उत्पलखेट नामक नगर के स्वामी वज्रबाहु की वसुन्धरा रानी से वज्रजंघ नामक पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ।
उन वज्रजंघ राजा के इतिहास को तृतीय अधिकार में वर्णित किया गया है। यहाँ केवल इतना ही उल्लिखित करना उचित है कि इन राजा वज्रजंघ ने श्रीमती रानी के साथ एक बार वन में चारणऋद्धिधारी मुनियों को आहार देकर महान पुण्य का बंध किया था, जिसके फलस्वरूप राजा वज्रजंघ का जीव आगे आठवें भव में भगवान ऋषभदेव एवं रानी श्रीमती का जीव राजा श्रेयांस के रूप में हुए हैं।
ये वज्रजंघ और श्रीमती उस भव में आयु के अंत में मरणकर पात्रदान के प्रभाव से भोगभूमि में आर्य-आर्या हो गये। आगे चतुर्थ अधिकार में भोगभूमि के सुखों का विस्तार से वर्णन किया है कि उत्तम-मध्यम-जघन्य इन तीन प्रकार की भोगभूमियों में जन्म लेने वाले मनुष्यों का जीवन कल्पवृक्षों पर आधारित होता है तथा वहाँ किसी का अकालमरण नहीं होता है।
सभी जीव नीरोगी रहते हैं। इस प्रकार भोगभूमि की वर्णना के पश्चात् कुभोगभूमियों में उत्पन्न मनुष्यों के बारे में बताते हुए उन्होंने लिखा है कि यहाँ कुमानुष उत्पन्न होते हैं-किन्हीं के एक जांघ होती है, कोई पूँछ वाले, कोई सींग वाले और कोई गूंगे होते हैं। मनुष्य इन कुभोगभूमि में किस कारण से उत्पन्न होते हैं, इस बात को बताते हुए पूज्य माताजी ने त्रिलोकसार ग्रंथ के आधार से लिखा कि-
जो जीव जिनलिंग धारण कर मायाचारी करते हैं, ज्योतिष एवं मंत्रादि विद्याओं के द्वारा आजीविका करते हैं, धन के इच्छुक हैं, गृहस्थों के विवाह आदि कराते हैं, सम्यग्दर्शन के विराधक हैं, मौन छोड़कर आहार करते हैं आदि-आदि अनेक कारणों से मनुष्य कुभोगभूमि में कुमनुष्य होेते हैं।
आगे पूज्य आर्यिकाश्री ने बताया कि भोगभूमि में उन आर्य-आर्या को दो चारणऋद्धिधारी मुनियों ने पूर्वजन्म के स्नेह के संस्कारवश सम्यग्दर्शन ग्रहण करा दिया जिसके कारण उन दोनों ने ऐशान स्वर्ग में देवपद प्राप्त कर लिया।
इस अधिकार में आगे देव-धर्म-गुरु आदि की महिमा का वर्णन अनेक सुन्दर श्लोकों के माध्यम से किया है परन्तु विस्तारभय से यहाँ उस प्रकरण को नहीं लिया है।
आगे पाँचवें अधिकार में पूज्य माताजी ने लिखा कि आर्य के जीव ने स्वर्ग में ‘श्रीधर’ देव तथा श्रीमती के जीव ने स्त्रीपर्याय से छूटकर ‘‘स्वयंप्रभ’’ देव की पर्याय को प्राप्त किया। वहाँ भी भगवान जिनेन्द्रदेव की पूजा-भक्ति करते हुए उन श्रीधरदेव को एक केवलज्ञानी प्रीतिंकर मुनिराज का दर्शन लाभ हुआ, जिनसे ज्ञात हुआ कि महाबल की पर्याय में जो स्वयंबुद्ध मंत्री था, उसका जीव ही क्रम-क्रम से प्रीतिंकर मुनिराज हुआ है तथा शेष तीन मंत्रियों में से दो तो निगोद चले गए और एक शतमति मंत्री मिथ्यात्व के कारण द्वितीय नरक में गया पुन: यहाँ नरक पृथिवियों का वर्णन करते हुए संसारी प्राणियों को सदा सम्यग्दर्शन धारण करने की प्रेरणा प्रदान की है।
क्योंकि आचार्य कहते हैं कि इस संसार में सम्यग्दर्शन के समान कोई भी कल्याणकारी वस्तु नहीं है तथा मिथ्यात्व के समान अन्य कुछ भी दु:खकारी नहीं है। श्रीधरदेव का जीव आयु के अंत में सल्लेखनापूर्वक शरीर का त्यागकर सुसीमा नाम की नगरी के सुदृष्टि राजा की सुन्दरनन्दा महारानी से सुविधि नाम का पुत्र हुआ और श्रीमती का जीव आगे चलकर उन सुविधिराजा का केशव नाम का पुत्र हुआ।
इन राजा सुविधि ने कालान्तर में वैराग्य भावों से ओत-प्रोत होकर क्रम-क्रम से श्रावक के व्रतों तथा मुनिव्रतों को धारणकर आयु के अंत में विधिपूर्वक नश्वर शरीर का त्यागकर अच्युत स्वर्ग में इन्द्रपद प्राप्त किया।
इस अधिकार में श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाओं तथा बारह व्रतों आदि के सुन्दर वर्णन के साथ-साथ विभिन्न आचार्यों के द्वारा विभिन ग्रंथों के आधार से गुणव्रत और शिक्षाव्रतों की क्रम भिन्नता को भी बताया है। पुन: अधिकार के अंत में लघु कथानकों के माध्यम से विषय का स्पष्टीकरण किया गया है। इसी क्रम में सातवें अधिकार में अच्युतेन्द्र नाम की व्याख्या करते हुए पूज्य माताजी ने लिखा है कि जो च्युत होकर पुन: जन्म धारण नहीं करता, वही वास्तव में अच्युत होता है।
आगे स्वर्ग की स्थिति आदि का वर्णन करते हुए देव-देवियोें की उत्पत्ति स्थान को बताया है। पुन: प्रत्येक सोलह स्वर्गों में, नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश आदि में स्थित भवनों की संख्या आदि को बताया है कि ऊर्ध्वलोक में जितने विमान हैं, उतने ही जिनभवन होते हैं पुन: मध्यलोक एवं अधोलोक के जिनभवनों की संख्या बताई है।
समस्त अकृत्रिम–कृत्रिम जिनप्रतिमाओं का वर्णन करते हुए आर्यिकाश्री ने लिखा है कि गृहचैत्यालय में किस प्रकार की प्रतिमा विराजमान करनी चािहए ? अनेक श्रावकाचार आदि ग्रंथों के आधार से लिखा गया यह प्रकरण श्रावकों के लिए विशेष पठनीय है। उन अच्युतेन्द्र का जीव स्वर्ग से चयकर पुण्डरीकिणी नगरी के राजा की रानी से ‘वज्रनाभि’ नाम के पुत्र हुए, ये ही आगे ‘वज्रनाभि चक्रवर्ती’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। आगे आठवें अधिकार में चक्रवर्ती के वैभव का अति सुन्दर वर्णन है।
इसी भव में उन चक्रवर्ती ‘वज्रनाभि ने वैराग्यभावपूर्वक दीक्षा धारणकर वज्रसेन तीर्थंकर के निकट में सोलहकारण भावनाओं का चिंतवन करते हुए तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया था। इस अधिकार में सोलह कारण भावनाओं का सुन्दर विवेचन है तथा सल्लेखना मरण के भेदों का वर्णन भगवती आराधना ग्रंथ के आधार से किया है।
इस प्रकार वेवज्रनाभि महामुनि उपशमश्रेणी पर आरूढ़होकर पृथक्त्ववितर्क नामक शुक्लध्यान को पूर्णकर उत्कृष्ट समाधि को प्राप्त हुए तथा अंत में उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में प्राण छोड़कर सर्वार्थसिद्धि पहुँचे और वहाँ अहमिन्द्र पद को प्राप्त हुए। नवमें अधिकार में सर्वार्थसिद्धि विमान के अहमिन्द्र देवों के अनुपम सुख-ऐश्वर्य का वर्णन किया गया है इस अधिकार में सप्त परमस्थानों में से सर्वाधिक महत्वपूर्ण ‘‘सज्जाति’’ नामक परमस्थान की महिमा का विस्तृत वर्णन है इस सम्पूर्ण प्रकरण को अवश्य ही पढ़कर अपने सज्जातित्व की सभी को रक्षा करना है, जिसके प्रभाव से क्रम-क्रम से आगे सद्गृहस्थ, पारिव्राज्य आदि परमस्थानों को प्राप्त करके अंतिम निर्वाण परमस्थान को सुलभता से प्राप्त किया जा सकता है।
आगे उन्होंने लिखा कि ये अहमिन्द्र देव अब यहाँ से च्युत होकर भगवान (ऋषभदेव) के गर्भावतार आदि कल्याणकों को प्राप्त करेंगे। इस दसवें अधिकार के अन्तर्गत पूज्य माताजी ने दस अन्तराधिकार के माध्यम से भगवान ऋषभदेव की पर्याय के सम्पूर्ण जीवन दर्शन को प्रस्तुत किया है इसके प्रथम अन्तराधिकार में गर्भकल्याणक का वर्णन है।
इसमें सर्वप्रथम उन्होंने षट्काल परिवर्तन की सुन्दर व्याख्या की है पुन: अयोध्या नगरी की शोभा आदि को बताते हुए महाराजा नाभिराज की महारानी मरुदेवी के पवित्र गर्भ में तीर्थंकर शिशु के आगमन को बताया है पुन: क्रम-क्रम से आगे के अन्तराधिकारों में भगवान का जन्मकल्याणक, प्रभु ऋषभदेव का विवाहोत्सव, दीक्षाकल्याणक, भगवान ऋषभदेव की आहारचर्या, केवलज्ञानकल्याणक, दिव्यध्वनि का वर्णन, भरतचक्रवर्ती, निर्वाणकल्याणक, जिनमंदिर निर्माण आदि के बारे में विस्तार से वर्णन किया है सभी प्रकरण अवश्य पठनीय हैं।
आगे ‘‘तीर्थंकर शासन परम्परा’’ नामक अंतराधिकार के द्वारा दसवें अधिकार का समापन किया है पुन: अंतिम ग्यारहवें अधिकार में वर्तमान शासन नायक भगवान महावीर स्वामी के सम्पूर्ण जीवनवृत्त को दर्शाते हुए अनादिनिधन जैनधर्म की महिमा का प्रतिपादन किया है। इस ब्राह्मी टीका का समापन पूज्य माताजी ने भगवान ऋषभदेव के केवलज्ञानकल्याणक दिवस, फाल्गुन शु. एकादशी, ७ मार्च २०१३ को भगवान ऋषभदेव की प्रथम पारणा भूमि हस्तिनापुर के जम्बूद्वीप स्थल पर निर्मित रत्नत्रय निलय वसतिका में जिनचैत्यालय के सम्मुख बैठकर किया है।
इसके अतिरिक्त उन्होंने संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में अन्य कई रचनाएँ रची हैं, जिनके बारे में भी जानना आवश्यक है- सर्वप्रथम वसन्ततिलका छंद में ‘‘श्री ऋषभदेव स्तुति:’’ है इसमें आर्यिकाश्री ने छह श्लोकों के माध्यम से श्री ऋषभदेव भगवान का गुणानुवाद किया है, जिसका प्रथम श्लोक इस प्रकार है-
आदीश्वरादिजिनसूर्ययुगादिनाथ:, साकेतशासनपति: पुरुदेवनाथ:।
स्वायम्भुव: सकललोकहितंकरो य:, तं नाभिनन्दनजिनं प्रणमामि नित्यं।।१।।
पुन: अंत में अनुष्टुप् छंद के छठे श्लोक द्वारा स्तुति का समापन करते हुए लिखा है-
इत्थंभूतां स्तुतिं कृत्वा, नाभेयस्य महात्मन:।
बोधिं समाधिमिच्छामि, चन्दनामतिरार्यिका।।६।।
अर्थात् उन्होंने नाभिराय के पुत्र भगवान ऋषभदेव की स्तुति करके कुछ छोटी-मोटी वस्तु की याचना नहीं की अपितु उन्होंने भगवान से बोधि और समाधि की कामना की है। इसी प्रकार शिखरिणीछंद में एक ‘‘श्री समवसरण स्तुति:’’ की रचना भी अति सुन्दर भावपण है।
इसके पाँच श्लोकों में पूज्य माताजी ने समवसरण की महिमा का वर्णन करते हुए क्रम-क्रम से सभी भूमियों के नाम बता दिए हैं तथा अन्तिम श्लोक के माध्यम से इस बात को भी बता दिया है कि पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से इस समवसरण की प्रतिकृति बनाकर पूरे देश में ‘‘भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार’’ के नाम से उसका भ्रमण कराया गया, इसका अंतिम श्लोक इस प्रकार है-
महेत्थंभूता सा कृतिविरचितात्यन्तशुभदा,
गणिन्या: मातु: ज्ञानमतिशुभमाशीषमुदितम्।
समग्रे देशेऽसौ समवसरण: भ्राम्यति किल,
सदा मे शं कुर्यात् समवसरणस्याधिपजिन:।।५।।
पुन: वसंततिलका छंद में ‘‘महावीर वंदना’’ नामक सुन्दर रचना है, आठ श्लोकों में निबद्ध इस वंंदना का द्वितीय श्लोक इस प्रकार है-
कुण्डलपुरस्य वसुधा विमला समृद्धा,
सिद्धार्थभूप जननी त्रिशला च मान्या।
इन्द्रेण लोक मागत्य कृत: सुपूजा,
हे तीर्थनाथ! जिनवीर! नमोस्तु तुभ्यम् ।।२।।
इन चार पंक्तियों में रचयित्री ने लिखा कि भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर है, उनके पिता का नाम महाराजा सिद्धार्थ एवं माता का नाम महारानी त्रिशला था तथा स्वर्ग से इन्द्रगण आकर जिन भगवान महावीर की पूजा करते थे, ऐसे हे भगवान महावीर स्वामी! तुमको नमस्कार हो!
इसी शृँखला में आर्यिका श्री चंदनामती माताजी ने संस्कृत भाषा में पंचम पट्टाचार्य श्री श्रेयांससागर जी महाराज एवं गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की पूजन भी लिखी है तथा पूज्य गणिनी माताजी की भक्ति में चार संस्कृत स्तुतियाँ रचीं, जिनमें से दो शार्दूलविक्रीडितछंद में, एक उपजाति छंद में और एक वसंततिलका छंद में है।
वसंततिलका छंद में लिखी गई स्तुति का प्रथम श्लोक इस प्रकार है-
या ज्ञानवारिग्रहणे पृथिवी समाना।
या धर्मध्यानकरणे धरणि: समाना।।
या संघवृद्धिकरणे गणिनी प्रधाना।
तां ज्ञानमूर्तिममलां सततं नमामि।।१।।
पूज्य माताजी के प्रति श्रद्धा-भक्ति से परिपूर्ण होकर उन्होंने एक स्तुति के अंत में भगवान से प्रार्थना करते हुए लिखा है कि-
ज्ञानमत्यार्यिका माता, जीयात् वर्षशतं भुवि।
चन्दनामति शिष्याया:, पूर्यात् सर्वं मनोरथं।।
आगे उन्होंने पूज्य माताजी की भक्ति करते हुए ‘‘द्वासप्ततिज्ञानसूत्राणि’’ अर्थात् बहत्तर ज्ञानसूत्रों की रचना की है, जिसे प्रतिदिन पढ़कर भव्यगण अपने ज्ञान की वृद्धि कर सकते हैं।
इन सूत्रों के माध्यम से उन्होंने पूज्य माताजी के विभिन्न रूपों को नमन किया है। भगवान ऋषभदेव की स्तुति में शार्दूलविक्रीडित छंद में एक बहुत ही सुन्दर रचना की है, जिसमें एक ही श्लोक में सातों विभक्तियों के द्वारा भगवान का स्तवन किया गया है-
आदीशो भगवानयं जिनवरादीशं मुदा नौम्यहं।
आदीशेन च लभ्यते स्म सुखमादीशाय तस्मै नम:।।
आदीशान्नपर: प्रभु: भुवि तथादीशस्य धर्मो जिन:।
आदीशे हृदयो ममापि नमित: श्र्यादीश! मां रक्षतु।।
इसी प्रकार पंचवर्णी ह्रीं को नमन करते हुए उन्होंने लिखा-
ह्रींकारं चन्द्रसंयुत्तं, तीर्थंकरसमन्वितं।
पंचवर्णप्रभं चैव, ह्रींकाराय नमो नम:।।
हम जैसे अल्पज्ञानी तो इन रचनाओं का किञ्चित् वर्णन करने में ही अशक्तता महसूस करते हैं परन्तु पूज्य माताजी ने तो अपने अथाह ज्ञान के बल पर इन सुन्दर रचनाओं को लिखकर अपने वैदुष्य से सभी को परिचित करा दिया है।
अब इसी क्रम को आगे बढ़ाते हैं-अध्यात्मरसरसिक आचार्यश्री कुन्दकुन्ददेव द्वारा रचित ग्रंथराज समयसार को आधार बनाकर पूज्य आर्यिका श्री ने एक ‘‘समयसार विधान’’ की रचना की, इसमें विशेष बात यह है कि इस विधान के अन्तर्गत जिन ४४४ मंत्रों के द्वारा समयसार ग्रंथ की आराधना की गई है, उन सभी मंत्रों को पूज्य चंदनामती माताजी ने स्वयं रचा है।
समय-समय पर पूज्य माताजी छोटे-छोटे श्लोकों की रचना किया करती हैं, इसी क्रम में उन्होंने आर्यिका रत्नमती माताजी की दो संस्कृत स्तुतियाँ रचीं जो कि अत्यन्त भावपूर्ण हैं। पूज्य चंदनामती माताजी के समस्त संस्कृत साहित्य की प्रमुख विशेषता यह है कि अत्यन्त सरलभाषा का प्रयोग होने के कारण इन रचनाओं को आसानी से पढ़ा व समझा जा सकता है।
हम सब अत्यन्त सौभाग्यशाली हैं जो कि हमें ऐसे काल में एवं ऐसे क्षेत्र में जन्म लेने का अवसर प्राप्त हुआ है, जिसमें हम ऐसी विदुषी माताजी के दर्शन प्राप्त करने के साथ-साथ उनकी ज्ञानगंगा में अवगाहन करके अपनी अज्ञानरूपी मलिनता को प्रक्षालित करने का प्रयास कर रहे हैं। वास्तव में गुरुओं के द्वारा प्राप्त ज्ञान ही सही दिशा प्रदान करने में समर्थ होता है।
यदि ऐसा नहीं हो तो शायद हमें विद्यालय/महाविद्यालय/विश्वविद्यालय आदि में जाने की जरूरत ही नहीं पड़ती, बाजार से पुस्तके खरीदकर कोई भी उन्हें पढ़कर विद्वान् बन जाता परन्तु जिस प्रकार बाजार से दवाइयाँ खरीदी जा सकती हैं परन्तु स्वास्थ्य नहीं खरीद सकते हैं, अच्छा स्वास्थ्य बनाने के लिए संतुलित-पौष्टिक खान-पान और व्यायाम की आवश्यकता होती है,
ठीक उसी प्रकार बाजार से पुस्तके तो खरीदी जा सकती हैं परन्तु ज्ञान नहीं खरीदा जा सकता है, वह ज्ञान हमें गुरुओं के श्रीमुख से ही प्राप्त होता है। इस प्रकार प्रज्ञाश्रमणी पद से विभूषित परम पूज्य आर्यिका श्री चंदनामती माताजी के पावन चरणों में नमन करते हुए यही मंगल प्रार्थना है कि पूज्य माताजी का ज्ञान निरन्तर वृद्धिंगत हो, जिससे हम अज्ञानी प्राणियों को प्राचीन पुराणों के आधार से ज्ञानवर्धक साहित्य प्राप्त होता रहे और हम अपनी आत्मा को अज्ञानान्धकार से मुक्त करके ज्ञानरूपी सूर्य से प्रकाशित कर सके।
क्योंकि यह सच है कि ज्ञान की कोई सीमा नहीं है, ज्ञान असीम है, जो जितना जानते हैं, उनके लिए उससे भी ज्यादा जानना शेष है। पूज्य माताजी के दीर्घ-स्वस्थ-यशस्वी जीवन की मंगलकामना करते हुए मैं अपनी लेखनी को यहीं विराम देती हूँ।