अनादि काल से संसार में भ्रमण करने वाले इस प्राणी ने अनन्त दु:खों को सहन किया। एक श्वास में १८ बार जन्ममरण किया। एक अन्तर्मुहूर्त में छ्यासठ हजार तीन सौ छत्तीस बार जन्म मरण किया। इस संसार का नाशक आत्मीय जिनधर्म को स्वीकार नहीं किया। न ही इस धर्म को प्राप्त कर स्वकीय स्वरूप में लीन होकर उत्तमपद को प्राप्त करने वाले महापुरुषों के प्रति अनुराग कर उनके द्वारा कथित धर्म को धारण ही किया इसलिए संसार भटकते रहते हैं। जन्म-मरण करते रहते हैं। किसी महान पुण्य के उदय से मानव पर्याय उत्तमकुल जिनवाणी का श्रमण जिनधर्म को प्राप्त कर आत्मकल्याण के साथ-साथ जीर्णोद्धार, नूतन जिनमंदिर निर्माण कर जिन बिम्ब स्थापन करते हैं वे महापुरुष आदरणीय, अनुकरणीय एवं पूजनीय होते हैं, प्रशंसा के पात्र होते हैं। जिनमंदिर निर्माण, जिनबिम्ब स्थापना से जिन धर्म का उद्योतन होता है सम्यग्दर्शन निर्मल होता है। जिनधर्म की अनादिनिधनता की सिद्धि इन्हीं आयतनों से होती है। जिस प्रकार एक महल का निर्माण चार खंभों पर स्थित है, उसी प्रकार जिनधर्म का अस्तित्व जिनमंदिर, जिनबिंब, जिनशास्त्र और उनके कथन अनुसार चलने वाले साधुगण के आधार पर आधारित है। जो भव्य मानव स्वकीय कालुष्य भावों को दूर कर परस्पर में मैत्री भावों की भावना को रखकर जिनधर्म का द्योतन करते हैं उनके समान दूसरा कोई पुण्यात्मा नहीं है। हमारे आराध्य देव ने अिंहसा परमोधर्म: का उपदेश देकर सारे जगत का कल्याण किया है। उनके जिनशासन का प्रत्येक प्राणी को प्रचार-प्रसार करना चाहिए तथा जो जिनधर्म का द्योतन प्रचार-प्रसार करते हैं उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर तथा उनके कार्यों में सहयोगी बनकर पुण्योपार्जन करना हमारा परमकर्तव्य है। उसको कभी नहीं भूलना चाहिए। भगवान महावीर की जन्मभूमि का विकास जन-जन के लिए हितकारी हो, यही मेरी मंगलकामना है।