—अथ स्थापना-नरेन्द्र छंद—
तीर्थंकरों के धर्म प्रवर्तन काल धर्म बरसे हैं।
केवलज्ञानी मुनी आर्यिका होते ही रहते हैं।।
तीर्थ प्रवर्तन काल पूजहूँ ऋषि मुनिगण को पूजूँ।
आह्वानन स्थापन करके सर्व दुखों से छूटूँ।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिसाधुसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिसाधुसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिसाधुसमूह!अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक—नरेन्द्र छंद
सिंधु नदी का प्रासुक जल ले कंचन भृंग भराऊँ।
जिनपद गुरुपद धारा करते भव भव तपन बुझाऊँ।।
तीर्थंकर का तीर्थ प्रवर्तन काल जजूँ मन लाके।
जितने हुये केवली मुनिगण वंदूँ शीश झुकाके।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिसाधुभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
केशर चंदन कर्पूरादिक घिसकर सुरभित लाऊँ।
मोह ताप से तप्त स्वात्म में पद चर्चत सुख पाऊँ।।तीर्थं.।।२।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिसाधुभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
तंदुल अक्षत अमल धोयकर पुंज चढ़ाके पूजूँ।
रत्नत्रय निधि प्राप्त होय मुझ भवभव दुख से छूटूँ।।तीर्थं.।।३।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिसाधुभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंद कमल बेला सुमनों का हार बनाकर लाऊँ।
कामदर्पहर प्रभुपद अर्चत मनवांछित फल पाउँâ।।
तीर्थंकर का तीर्थ प्रवर्तन काल जजूँ मन लाके।
जितने हुये केवली मुनिगण वंदूँ शीश झुकाके।।४।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिसाधुभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मालपुआ पकवान समोसे भर भर थाल चढ़ाऊँ।
क्षुधा वेदनी शीघ्र नष्ट हो आतम तृप्ती पाऊँ।।तीर्थं.।।५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिसाधुभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ण दीप में घृत भर करके तमहर ज्योति जलाऊँ।
सर्व हृदय अज्ञान दूर कर ज्ञान ज्योति प्रगटाऊँ।।तीर्थं.।।६।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिसाधुभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप सुगंधित धूप घटों में खेऊँ कर्म जलाऊँ।
पर से भिन्न निजातम सुख को पाकर दु:ख नशाऊँ।।तीर्थं.।।७।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिसाधुभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आम अनार संतरा नींबू सरस मधुर फल लाऊँ।
स्वात्म सौख्य फलप्राप्त करन को प्रभु के निकट चढ़ाऊँ।।तीर्थं.।।८।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिसाधुभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंधाक्षत पुष्प चरुवर दीप धूप फल लाऊँ।
अर्घ बनाकर भक्तिभाव से प्रभु के निकट चढ़ाऊँ।।तीर्थं.।।९।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—
तीर्थकाल को पूजते, त्रयधारा सुखकार।
करूं शांतिधारा अबे, होवे शांति अपार।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
वकुल मल्लिका केवड़ा, सुरभित पुष्प अनेक।
पुष्पांजलि अर्पण करूँ, मिले आत्म निधि एक।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।