(चाल-हे दीनबंधु…..)
जैवंत तीर्थंकर अनंत सर्वकाल के।
जैवंत धर्मवंत जो त्रैविध्य काल के।।
जै पाँच भरत पाँच ऐरावत में हो रहे।
जै भूत वर्तमान औ भविष्य के कहे।।१।।
इस जंबूद्वीप में हैं भरत और ऐरावत।
इन दो ही क्षेत्र में सदा हो काल परावृत।।
जो पूर्वधातकी औ अपर धातकी कहे।
इन दोनों में भी भरत ऐरावत सदा कहे।।२।।
वर पुष्करार्ध पूर्व अपर में भी दोय दो।
हैं क्षेत्र भरत और ऐरावत प्रसिद्ध जो।।
इस ढाई द्वीप में प्रधान क्षेत्र दश कहे।
षट्काल परावर्तनों से चक्रवत् रहें।।३।।
इनके चतुर्थ काल में तीर्थेश जन्मते।
जो भूत वर्तमान भाविकाल धरंते।।
इस विध से तीस बार हो चौबीस जिनेश्वर।
ये सात सौ हैं बीस कहे धर्म के ईश्वर।।४।।
इनकी त्रिकाल बार बार वंदना करूँ।
मैं भक्तिभाव से सदैव प्रार्थना करूँ।।
सम्पूर्ण कर्मपर्वतों की खंडना करूँ।
निज ‘ज्ञानमती’ पाय फेर जन्म ना धरूँ।।५।।
अनंत दर्शन ज्ञान औ, सुख औ वीर्य अनंत।
अनंत गुण के तुम धनी, नमूँ नमूँ भगवंत।।६।।