-स्थापना (नरेन्द्र छंद)-
जिनशासन में परम पूज्य परमेष्ठी पाँच कहाते हैं।
वर्तमान में त्रय परमेष्ठी उनका रूप दिखाते हैं।।
धर्मसिंधु आचार्यप्रवर उनमें तृतीय परमेष्ठी हैं।
उनकी पूजन हेतु यहाँ आह्वानन स्थापन विधि है।।१।।
ॐ ह्रीं तृतीयपट्टाचार्यश्रीधर्मसागरमुनीन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं तृतीयपट्टाचार्यश्रीधर्मसागरमुनीन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं तृतीयपट्टाचार्यश्रीधर्मसागरमुनीन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं स्थापनं।
-अष्टक-
मुनिमन सम उज्वल जल लेकर, झारी से जलधारा कर लूँँ।
संसारभ्रमण हो नष्ट मेरा, ऐसी आतमशक्ती भर लूँ।।
श्री धर्मसागराचार्य प्रवर, मुनिवर को है वंदन मेरा।
खिल जावे ज्ञानकली मेरी, इस हेतु करूँ अर्चन तेरा।।१।।
ॐ ह्रीं तृतीयपट्टाचार्यश्रीधर्मसागरमुनीन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि मम सम शीतल चंदन ले, गुरुचरणों में चर्चन कर लूँ।
भव ताप विनाशन हो मेरा, ऐसा शीतल निज मन कर लूँ।।
श्री धर्मसागराचार्य प्रवर, मुनिवर को है वंदन मेरा।
खिल जावे ज्ञानकली मेरी, इस हेतु करूँ अर्चन तेरा।।२।।
ॐ ह्रीं तृतीयपट्टाचार्यश्रीधर्मसागरमुनीन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि मन सम दृढ़ अक्षत लेकर, त्रय पुंज चढ़ा गुणपुंज भरूँ।
निज अक्षय पद की प्राप्ति हेतु, मन में दृढ़ सम्यक्भाव धरूँ।।
श्री धर्मसागराचार्य प्रवर, मुनिवर को है वंदन मेरा।
खिल जावे ज्ञानकली मेरी, इस हेतु करूँ अर्चन तेरा।।३।।
ॐ ह्रीं तृतीयपट्टाचार्यश्रीधर्मसागरमुनीन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि मन सम अविकारी, प्रकृति के पुष्पों की अंजलि भर लूँ।
हो कामव्यथा उपशांत मेरी, यह ज्ञानाञ्जलि अर्पण कर दूँ।।
श्री धर्मसागराचार्य प्रवर, मुनिवर को है वंदन मेरा।
खिल जावे ज्ञानकली मेरी, इस हेतु करूँ अर्चन तेरा।।४।।
ॐ ह्रीं तृतीयपट्टाचार्यश्रीधर्मसागरमुनीन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि मन सम मिष्ट मधुर व्यंजन, पूजन के हेतु थाल भर लूँ।
हो क्षुधा रोग उपशांत मेरा, कुछ त्याग भाव मन में धर लूँ।।
श्री धर्मसागराचार्य प्रवर, मुनिवर को है वंदन मेरा।
खिल जावे ज्ञानकली मेरी, इस हेतु करूँ अर्चन तेरा।।५।।
ॐ ह्रीं तृतीयपट्टाचार्यश्रीधर्मसागरमुनीन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि मन सम वैरागी परिणति से, मोह तिमिर का नाश करूँ।
घृत दीपक से आरति करके, निज आतमसुख को प्राप्त करूँ।।
श्री धर्मसागराचार्य प्रवर, मुनिवर को है वंदन मेरा।
खिल जावे ज्ञानकली मेरी, इस हेतु करूँ अर्चन तेरा।।६।।
ॐ ह्रीं तृतीयपट्टाचार्यश्रीधर्मसागरमुनीन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि मन सम सुरभित धूप लिये, अग्नी में आज दहन कर लूँ।
ऐसी आतम शक्ती पाऊँ, सब संकट कष्ट सहन कर लूँ।।
श्री धर्मसागराचार्य प्रवर, मुनिवर को है वंदन मेरा।
खिल जावे ज्ञानकली मेरी, इस हेतु करूँ अर्चन तेरा।।७।।
ॐ ह्रीं तृतीयपट्टाचार्यश्रीधर्मसागरमुनीन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि पद सम उत्तम फल लेकर, मुनि के पद में अर्पण कर लूँ।
उत्तम शिवफल की प्राप्ति हेतु, निज को निज में स्थिर कर लूँ।।
श्री धर्मसागराचार्य प्रवर, मुनिवर को है वंदन मेरा।
खिल जावे ज्ञानकली मेरी, इस हेतु करूँ अर्चन तेरा।।८।।
ॐ ह्रीं तृतीयपट्टाचार्यश्रीधर्मसागरमुनीन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि पद सम ले अनमोल अनघ पद हेतु अर्घ्य का थाल भरूँ।
‘‘चन्दनामती’’ आठों द्रव्यों को ले अनर्घ्यपद प्राप्त करूँ।।
श्री धर्मसागराचार्य प्रवर, मुनिवर को है वंदन मेरा।
खिल जावे ज्ञानकली मेरी, इस हेतु करूँ अर्चन तेरा।।९।।
ॐ ह्रीं तृतीयपट्टाचार्यश्रीधर्मसागरमुनीन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा-
स्वच्छ सुगंधित नीर ले, डालूँ गुरुपद धार।
रत्नत्रय की प्राप्ति के, हेतु करूँ जलधार।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
तरह तरह के पुष्प ले, गुरुपद में विकिरन्त।
पुष्पांजलि माध्यम बने, हो आत्मीक सुगंध।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-शेर छंद-
जैवन्त पूज्य पंच परम गुरू जगत में।
जैवन्त हों परमेष्ठि पाँच प्रभू जगत में।।
जैवन्त हों जिनशासन के धाम जगत में।
जैवन्त हों जिनआगम से मान्य जगत में।।१।।
उन पाँच में अरिहंत सिद्ध आज नहीं हैं।
उन मूर्तियाँ जिनालयों में राज रही हैं।।
आचार्य उपाध्याय साधु आज भी होते।
ये तीन परमेष्ठी सभी के पाप को धोते।।२।।
मुनि-आर्यिका क्षुल्लक व क्षुल्लिका के रूप में।
जो संघ चतुर्विध रखें आचार्य वे कहें।।
उनमें ही धर्मसिन्धु इक आचार्य गुरु हुए।
जो बालब्रह्मचारी यतिवर गुरू हुए।।३।।
गंभीर ग्राम में इन्होंने जन्म लिया है।
अपने पिता व माता को धन्य किया है।।
बचपन से युवावस्था में आते ही तुमने।
आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण किया तुमने।।४।।
क्षुल्लक की दीक्षा क्रम से तुमने ग्रहण करी।
श्री चन्द्रसिंधु मुनिवर की शिष्यता मिली।।
श्री वीरसिन्धु गुरु से मुनिव्रतों को ले लिया।
निर्ग्रन्थ बन के मोक्षमार्ग को ग्रहण किया।।५।।
चारित्रचक्रि शांतिसिंधु की परम्परा।
तृतीय पट्टाचार्य धर्मसिंधु मुनिवरा।।
नामानुसार गुण भी तुममें अवतरित हुए।
अक्षुण्ण शृँखला में सूर्य बन उदित हुए।।६।।
इस आर्षमार्ग की सदैव वृद्धि की तुमने।
दृढ़ भावना से धर्म की समृद्धि की तुमने।।
जयमाला के माध्यम से है प्ाूर्णार्घ्य समर्पण।
है ‘‘चन्दनामती’’ का श्रीगुरु के पद नमन।।७।।
जयशील हो चिरकाल तक ये वेष तुम्हारा।
संसार को मिलता रहे आशीष तुम्हारा।।
आचार्य धर्मसागर जयमाल को गाऊँ।
निज रत्नत्रय की प्राप्ति हित पूर्णार्घ्य चढ़ाऊँ।।८।।
आचार्य वीरसागर के शिष्य को नमन।
शिवसिन्धु जी के पट्ट पर अभिषिक्त को नमन।।
चउसंघ के नायक गुरू को अर्घ्य है अर्पण।
पूर्णार्घ्य के माध्यम से है सर्वस्व समर्पण।।९।।
ॐ ह्रीं तृतीयपट्टाचार्यश्रीधर्मसागरमुनीन्द्राय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।