भारत की इस वसुन्धरा पर प्राचीनकाल से ही ऋषियों, मुनियों ने जन्म लिया है जिनकी त्याग-तपस्या के बल पर आज भी देश का मस्तक गौरव से ऊँचा उठा हुआ इै।
इस युग की तीर्थंकर परम्परा में सर्वप्रथम भगवान आदिनाथ ने जन्म लेकर कर्मभूमि का शुभारंभ किया और आत्मसाधनारूपदैगम्बरी दीक्षा लेकर अनादिकालीन मोक्ष परम्परा का दिग्दर्शन कराया। उनके पश्चात् भगवान महावीर तक २४ तीर्थंकर हुए तथा अंतिम केवली जम्बूस्वामी ने भी इसी पंचमकाल के आरंभ में मोक्ष प्राप्त किया। इसके बाद किसी ने मोक्ष प्राप्त नहीं किया क्योंकि पंचमकाल में जन्म लेने वाले मनुष्यों के लिए साक्षात् मोक्ष का द्वार नहीं खुला है, लेकिन क्रम परम्परा से प्राप्त कराने वाला मोक्ष का मार्ग आज भी सुलभ है, वह है रत्नत्रय की प्राप्ति।
कलिकाल में महान ज्ञान के धारी, भगवान सीमंधर स्वामी की वाणी को साक्षात् हृदयंगम करने वाले आचार्य कुन्दकुन्द हुए, जिनकी शिष्यपरम्परा में आचार्य उमास्वामी आदि बहुत से परम्परागत आचार्य हुए हैं। उसी परम्परा में १९वीं-२०वीं शताब्दी की महान विभूति चारित्रचक्रवर्ती आचार्य सम्राट् शांतिसागर महाराज ने दक्षिण प्रान्त में जन्म लिया जिनके निमित्त से सम्पूर्ण भारतवर्ष में जैन साधुओं का निर्बाधरूप से विहार हो रहा है और आज सैकड़ों की संख्या में दिगम्बर जैन साधु दृष्टिगत हो रहे हैं। उस साधु परम्परा के गणनायक तृतीय पट्टाधीश आचार्यश्री धर्मसागर जी महाराज का नाम भी उच्च कोटि में लिया जाता है।
जन्म और शैशव-विक्रम सं. १९७०, पौष शुक्ला पूर्णिमा, भगवान धर्मनाथ के केवलज्ञान कल्याणक का पवित्र दिवस, राजस्थान प्रान्त के बूंदी जिलान्तर्गत गंभीरा ग्राम में श्रेष्ठी श्री बख्तावरमल जी की धर्मपत्नी श्रीमती उमरावबाई की कूख से एक पुत्ररत्न ने जन्म लिया, जिसका नाम रखा गया चिरंजीलाल। इनकी जाति खण्डेलवाल और गोत्र छाबड़ा था। चिरंजीलाल अपने माता-पिता के इकलौते बेटे थे। बचपन में ही आपके माता-पिता का असामयिक निधन हो गया अत: आपका जीवन अल्प समय में ही माँ-पिता के लाड़-प्यार भरे संरक्षण से वंचित रह गया था किन्तु आपके ताऊ श्री वँâवरीलाल की पुत्री दाखाबाई, जो आपकी बड़ी बहन थीं, उनका प्यार व संरक्षण मिला। दाखाबाई बामणवास में रहती थीं, आप भी वहीं जाकर उनके पास रहने लगे। बहिन भी पति वियोग से दुखी थीं अत: आपका सानिध्य उनके भी दु:ख का पूरक बना और भाई-बहन का निर्मल स्नेह बहिन के जीवनपर्यंत बना रहा।
लौकिक एवं धार्मिक शिक्षा-पुरातन परम्परा में लौकिक शिक्षण को अधिक महत्त्व नहीं दिया जाता था। इष्टवियोगज दु:खों के निमित्त से भी चिरंजीलाल का प्रारंभिक अध्ययन अति अल्प ही रहा। बचपन में ही धार्मिक अनभिज्ञतावश आप मिथ्यादृष्टि देवी-देवताओं के मंदिर जाते रहे और उनकी भक्ति करते रहे। एक दिन आप जैन मंदिर में गए, वहाँ पर एक पंडित जी शास्त्र प्रवचन में मिथ्यात्व और सम्यक्त्व का प्रतिपादन कर रहे थे। वह बात आपके मस्तिष्क में बैठ गई और आपने मिथ्यात्व का त्याग कर दिया। बहिन दाखाबाई अच्छी धर्मपरायण महिला थीं, उनके संपर्क एवं अनुशासन में रहकर चिरंजीलाल जिनेन्द्र भगवान के कट्टर भक्त बन गए और प्रतिदिन मंदिर जाने लगे। सत्य है कि आत्महित की ओर प्रेरित करने वाले बंधु ही सच्चे बंधु होते हैं।
व्यापार-जीवन निर्वाह और शरीर का पोषण करने के लिए व्यापार भी करना पड़ता है इसी उद्देश्य से आपने १४-१५ वर्ष की अवस्था में छोटी-सी दुकान खोली। संतोषवृत्ति तो थी ही अत: जब दुकान पर आजीविकायोग्य लाभ हो जाता, उसी समय दुकान बंद कर देते तथा अपना शेष समय शास्त्र स्वाध्याय में लगाते।
रत्नत्रय मार्ग की ओर बढ़ते कदम-धार्मिक वृत्ति होते हुए भी जैन साधुओं का कभी निकटतम सानिध्य प्राप्त नहीं होने से धर्मकार्यों की ओर झुकाव नहीं हो पाया था। इसी मध्य नैनवाँ नगर में परमपूज्य आचार्यकल्प १०८ श्री चन्द्रसागर जी महाराज का चातुर्मास हो गया। उन सिंहवृत्ति के धारक, आगम पोषक गुरु का समागम प्राप्त कर आपके जीवन में नया मोड़ आया और शुद्ध भोजन का नियम लेकर आहार देने लगे। साथ-साथ पूजा-दानादि षट् क्रियाओं का भी दृढ़तापूर्वक पालन करने लगे तथा आजीवन ब्रह्मचारी रहने का संकल्प मन में कर लिया।कुछ ही दिनों बाद इंदौर नगर में पूज्य आचार्यकल्प श्री वीरसागर जी महाराज का समागम भी आपको प्राप्त हुआ। वहाँ पर पूज्य श्री की प्रेरणा से दो प्रतिमा के व्रतोें को धारण कर लिया। जब आचार्यकल्प चन्द्रसागर महाराज का चातुर्मास बड़नगर में था, उस समय आप बहन दाखाबाई के साथ गुरु के दर्शन के लिए गये और वहीं पर आपने सप्तम प्रतिमारूप ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया। अब आपके हृदय में दीक्षा की प्रबल भावना जाग्रत होने लगी। गुरु के सानिध्य में एकदेश संयम का पालन तो हो ही रहा था, अवसर पाकर इन्होंने गुरुदेव के समक्ष दीक्षा प्रदान करने की प्रार्थना की और वि.सं. २००१ चैत्र शुक्ला सप्तमी की मंगल बेला में बालूज नगर के जनसमूह के मध्य क्षुल्लक दीक्षा प्राप्त की। दीक्षित नाम क्षुल्लक भद्रसागर जी रखा गया। गुरु वियोग का दु:ख भी आपको अल्प समय में ही प्राप्त हो गया। वि.सं. २००१ फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा के दिन आचार्यकल्प चन्द्रसागर महाराज का सल्लेखनापूर्वक स्वर्गवास हो गया। इसके अनंतर क्षुल्लक भद्रसागर जी आचार्यकल्प श्री वीरसागर जी के सानिध्य में आ गये और क्षुल्लक अवस्था में ६ चातुर्मास गुरु के समीप ही किये। इसके बाद वि.सं. २००७ में फुलेरा नगर में पंचकल्याणक के अवसर पर तपकल्याणक के दिन ऐलक दीक्षा ग्रहण की किन्तु अब १ लंगोटी भी आपको भार प्रतीत होती थी अत: ६ माह पश्चात् फुलेरा में ही कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी सं. २००८ के दिन आपको पूर्ण महाव्रतरूप दैगम्बरी दीक्षा प्राप्त हो गई।
अब आप मुनि धर्मसागर जी महाराज के नाम से प्रसिद्ध हो गये। आपने गुरु के सानिध्य में रहकर सम्मेदशिखर आदि कई तीर्थ क्षेत्रों की वंदनाएँ कीं। वि.सं. २०१२ में आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज ने अपनी सल्लेखना के समय कुंथलगिरि से अपना आचार्यपट्ट वीरसागर मुनिराज को प्रदान किया था तदनुसार जयपुर-खानियाँ में वर्षायोग के समय विशेष समारोहपूर्वक चतुर्विध संघ ने सं. २०१२ में ही आचार्यकल्प वीरसागर महाराज को अपना आचार्य स्वीकार किया। आचार्य श्री वीरसागर महाराज ने कुशलतापूर्वक आचार्यपट्ट को निभाया और वि.सं. २०१४ में जयपुर चातुर्मास में आश्विन कृ. अमावस्या को आचार्यश्री की सल्लेखनापूर्वक समाधि हो गई। वीरसागर महाराज की समाधि के अनंतर समस्त संघ ने उनके प्रधान शिष्य मुनि श्री शिवसागर जी को आचार्यपट्ट प्रदान किया।
संघ से पृथव्â विहार-अब आचार्य शिवसागर महाराज के संघ का विहार गिरनार की तरफ हुआ। गिरनार जी की वंदना करके वापस लौटते समय ब्यावर (राज.) में संघ का चातुर्मास हुआ। मुनि धर्मसागर जी ने एक और मुनिराज पद्मसागर को साथ लेकर संघ से पृथक् विहार करके आनंदपुरकालू में वर्षायोग स्थापित किया। इसके अनंतर अजमेर और बूंदी में चातुर्मास के पश्चात् बुंदेलखण्ड की यात्रा का विचार बनाया। अब आपके साथ दो मुनिराज थे। बुंदेलखण्ड में इस संघ के विहार से अभूतपूर्व धर्मप्रभावना हुई। ३ वर्षों की इस यात्रा के पश्चात् आपने मालवा प्रान्तीय तीर्थक्षेत्रों की वंदना की तथा राजस्थान के विभिन्न प्रान्तों में भ्रमण करके धर्मप्रभावना के साथ शिष्य- परम्परा में भी वृद्धि की। अब आपके साथ ४ मुनिराज एवं १ ऐलक जी थे।
गुरु का संयोग-वियोग और आचार्यपट्ट-वि.सं. २०२४ तक आपने अपने लघु संघ सहित विभिन्न प्रान्तों में भ्रमण किया। अनन्तर २०२५ में बिजौलिया नगर में चातुर्मास सम्पन्न करके आपने श्री महावीर जी शांतिवीर नगर में होने वाले पंचकल्याणक महोत्सव में सम्मिलित होने के लिए विहार कर दिया। यहाँ पर आचार्य शिवसागर महाराज का संघ भी विराजमान था। कहते हैं उस समय उभय संघ सम्मिलन का दृश्य अभूतपूर्व था। १० वर्षों से बिछुड़े हुए गुरु भाइयों का यह अद्वितीय मिलन था। आचार्य शिवसागर महाराज को अचानक ज्वर चढ़ जाने से फाल्गुन कृष्णा अमावस को आकस्मिक उनका स्वर्गवास हो गया। समस्त संघ में शोकाकुल सा वातावरण हो गया।चूँकि पंचकल्याणक प्रतिष्ठा भी सम्पन्न होनी थी और ११ व्रतियों की दीक्षाओं का निर्णय भी पूर्व से ही था अत: आठ दिनों तक समस्त संघ के ऊहापोह के अनन्तर अष्टमी को मुनि धर्मसागर जी को आचार्यपट्ट प्रदान किया गया। उसी दिन आपके करकमलों से ६ मुनि, २ आर्यिका, २ क्षुल्लक और १ ऐलक ऐसी ११ दीक्षाएँ हुईं। ये वे ही दीक्षार्थी थे जिन्होेंने आचार्य शिवसागर जी के समय दीक्षा की प्रार्थना की थी। तब से लेकर कई वर्षों तक आप अपने विशाल संघ का संचालन करते हुए पूरे भारतवर्ष में जैनधर्म की ध्वजा फहराई। समय-समय पर आपके करकमलों से बहुत सी दीक्षाएँ भी सम्पन्न हुईं हैंं।
२५००वें निर्वाण महोत्सव पर प्रभावना-ईसवी सन् १९७४ में जब तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी का २५००वाँ निर्वाण महोत्सव अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर राजधानी दिल्ली में मनाने की योजना चल रही थी, उस समय आचार्य धर्मसागर महाराज का संघ अलवर (राज.) में था। पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी दिल्ली में अपने संघ सहित थीं। आचार्यरत्न श्री देशभूषण महाराज एवं उपाध्याय मुनि श्री विद्यानंद जी महाराज भी दिल्ली में विराजमान थे। पूज्य माताजी के हृदय में यह प्रबल इच्छा थी कि ऐसे समय आचार्य धर्मसागर जी का संघ दिल्ली अवश्य आना चाहिए। माताजी ने समाज के गणमान्य व्यक्तियों के समक्ष विचार रखे किन्तु सबने इस विशाल संघ को और उस परम्परा की क्रियात्मक शुद्धि के पालन हेतु अपनी असमर्थता व्यक्त की किन्तु माताजी कहाँ मानने वाली थीं उन्होंने डॉ. लालबहादुर शास्त्री, लाला श्यामलाल जी ठेकेदार, डॉ. वैâलाशचंद, कम्मोजी, पन्नालाल जी तेजप्रेस, आदि कई लोगों को आदेश देकर आचार्यसंघ के पास निवेदन करने को भेजा। दिल्ली गांधीनगर की जैन समाज ने भी माताजी के आदेशानुसार पूर्ण सहयोग प्रदान कर आचार्यश्री के पास जाकर श्रीफल चढ़ाकर दिल्ली पदार्पण के लिए आग्रह किया।
सब के अथक प्रयासों से आचार्यसंघ का दिल्ली लाल मंदिर में चातुर्मास स्थापित हुआ और निर्वाण महोत्सव की प्रत्येक गतिविधि में आपका अंतिम निर्णय लिया जाता था। दिगम्बर सम्प्रदाय के परम्परागत पट्टाचार्य होने से आपका विशेष अतिथि के रूप में राष्ट्रीय समिति में भी नाम रखा गया था। आपने यहाँ पर भी निर्भयतापूर्वक अपनी परम्परा का पालन किया। दिल्ली में आपके ससंघ मंगल विहार से काफी धर्म प्रभावना हुई। ८ दीक्षाएँ भी दरियागंज के विशाल प्रांगण में सम्पन्न हुईं। सन् १९७४ में ही पूज्य आर्यिका ज्ञानमती माताजी द्वारा अनुवादित अष्टसहस्री ग्रंथराज त्रिलोक शोध संस्थान ने प्रकाशित कराया जो कि वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला का प्रथम पुष्प था। वह विशाल जनसमूह के मध्य महापौर द्वारा विमोचन होकर पूज्य माताजी द्वारा दोनों गुरुओें (आचार्य धर्मसागर, आचार्य देशभूषण) के करकमलों में समर्पित किया गया था तथा सम्यग्ज्ञान हिन्दी मासिक का विमोचन भी आपके करकमलों से सम्पन्न हुआ था। जिसमें आपका पूर्ण शुभाशीर्वाद माताजी को व संस्थान को प्राप्त हुआ था।
दिल्ली महानगर में विविध कार्यक्रमों को सम्पन्न करके आपने गाजियाबाद, बड़ौत, मेरठ, सरधना, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर आदि उत्तरप्रदेश के नगरों में भ्रमण किया और हस्तिनापुर की पवित्र भूमि पर आपका ससंघ मंगल पदार्पण हुआ। भगवान शांति-कुंथु-अरहनाथ के चार-चार कल्याणक, महाभारत का युद्ध, सात सौ मुनियों पर उपसर्ग, दानतीर्थ का प्रवर्तक होने से इस तीर्थ को ऐतिहासिकता भी प्राप्त है। यहाँ पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान ने जम्बूद्वीप रचना के निर्माण हेतु भूमि का क्रय किया और सर्वप्रथम वहाँ पर १००८ भगवान महावीर स्वामी की अवगाहना प्रमाण ७ हाथ खड्गासन (सवा नौ फुट ऊँची) प्रतिमा को विराजमान करने हेतु एक छोटे से कमरे का निर्माण कराया गया। उसी समय प्राचीन तीर्थक्षेत्र पर नवनिर्मित बाहुबली मंदिर और जलमंदिर की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा का मुहूर्त निकला। पूज्य माताजी के निर्देशानुसार तीर्थक्षेत्र कमेटी के महामंत्री बाबू सुकुमारचंद जी ने सोलापुर निवासी पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री को आमंत्रित किया। प्रतिष्ठा मुहूर्त के अनुसार समस्त विधि विधान सम्पन्न हुए। पूज्य आचार्यश्री ससंघ व मुनि विद्यानंद जी वहीं पर विराजमान थे। जम्बूद्वीप स्थल पर भगवान महावीर की प्रतिमा जब खड़ी की गईं, उस समय आचार्यश्री ने अपने हाथों से उसके नीचे अचल यंत्र स्थापित किया और तीनों जगह की प्रतिमाओं पर आपने ही अपने करकमलों से सूरिमंत्र प्रदान किया।
पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सानंद सम्पन्न होने के पश्चात् संघस्थ वयोवृद्ध मुनि श्री वृषभसागर जी महाराज की सल्लेखना के निमित्त से संघ यहाँ ३-४ महीने ठहरा और शास्त्रोक्त विधि के अनुसार उनकी महामंत्र स्मरणपूर्वक हस्तिनापुर में समाधि हुई। उस समय हस्तिनापुर का दृश्य चतुर्थकाल का सा आनंद प्रदान कर रहा था। मुझे भी समस्त साधुओं के असीम वात्सल्य और आहारदान का सौभाग्य प्राप्त हुआ। १३-१३ साधुओं का भी एक साथ मेरे चौके में पड़गाहन हुआ जो मेरे जीवन के लिए चिरस्मरणीय बन गया।
त्रिलोक शोध संस्थान को आशीर्वाद-आचार्यश्री जब अपने संघ सहित हस्तिनापुर से विहार करने लगे, उस समय ज्ञानमती माताजी ने उनके समक्ष यहां रहने के बारे में ऊहापोह किया। तब आचार्यश्री ने बड़े प्रसन्नतापूर्वक शब्दों में माताजी से कहा कि-‘‘आपको जंबूद्वीप रचना पूर्ण होने तक यहीं रहना चाहिए। साधु को तीर्थक्षेत्र पर अधिक दिनों तक रहने में कोई बाधा नहीं है।’’ आपके आशीर्वाद का ही फल है कि पूज्य माताजी की मंगल प्रेरणा व निर्देशन में त्रिलोक शोध संस्थान चहुँमुखी प्रगति कर रहा है।
४ जून १९८२ को दिल्ली के ऐतिहासिक लालकिले के मैदान से प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा प्रवर्तित जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति ने भी आपके मंगल आशीर्वाद से देश के विभिन्न प्रान्तों में भ्रमण किया। राजस्थान प्राप्त में भ्रमण के समय २७ अक्टूबर १९८२ को लोहारिया ग्राम में आपके ससंघ सानिध्य में ज्ञानज्योति का भव्य आयोजन किया गया जिसमें विशिष्ट श्रीमान विद्वान् भी पधारे थे। वहाँ पर बोलियों के बाद आपने ज्योति को मंगल शुभाशीर्वाद प्रदान किया और बाद में अपने विशाल संघ सहित उसकी शोभायात्रा के साथ भ्रमण कर धर्मवात्सल्य और प्रभावना का परिचय दिया। जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति के भारत भ्रमण के पश्चात् हस्तिनापुर में होने वाली विशाल पैमाने की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के अवसर पर भी पूज्य माताजी की इच्छानुसार आपके विशाल संघ का सानिध्य प्राप्त हुआ।
उन महान आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज के करकमलों से आर्यिका दीक्षा लेकर पूज्य अभयमती माताजी आज निरन्तर अपने ज्ञान और चारित्र की वृद्धि कर रही हैं।
ऐसे आचार्यपरमेष्ठी के चरणों में शतश: नमोस्तु।
इनके पश्चात् चतुर्थ पट्टाधीश आचार्यश्री अजितसागर महाराज हुए, पंचम पट्टाचार्य श्री श्रेयांससागर महाराज हुए हैं। पुन: सन् १९९२ से श्रेयांससागर महाराज की समाधि के पश्चात् षष्ठम् पट्टाचार्य के रूप में आचार्यश्री अभिनंदनसागर महाराज चतुर्विध संघ का संचालन करते हुए जिनशासन की प्रभावना में तत्पर हैं।