कुशार्थ देश के शौरीपुर नगर में हरिवंशी महाराजा समुद्रविजय अपनी महारानी शिवादेवी के साथ सुखपूर्वक धर्मनीति से राज्य संचालन करते थे।
कार्तिक शुक्ला षष्ठी के दिन रानी ने उत्तराषाढ़ नक्षत्र में सोलह स्वप्न- दर्शनपूर्वक गर्भ धारण किया पुन: नवमास बीतने पर श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन चित्रानक्षत्र में तीन ज्ञान के धारक भगवान का जन्म हुआ।इन्द्रादि देवों ने जन्मोत्सव मनाकर तीर्थंकर शिशु का ‘नेमिनाथ’ नामकरण किया।भगवान नेमिनाथ की आयु एक हजार वर्ष एवं शरीर दस धनुष ऊँचा था। प्रभु के शरीर का वर्ण नीलकमल के समान होते हुए भी इतना सुन्दर था कि इन्द्र ने एक हजार नेत्र बना लिए, फिर भी रूप को देखते हुए तृप्त नहीं हुआ था।
युवावस्था में माता-पिता ने भगवान नेमिनाथ का विवाह करने की इच्छा से जूनागढ़ के राजा उग्रसेन की कन्या राजमती का चयन किया। देवों द्वारा लाए गए नाना प्रकार के वस्त्राभूषणों से सुसज्जित भगवान नेमिनाथ को अपने विवाह के समय पशुओं के समूह को बंधा हुआ देखकर वैराग्य उत्पन्न हो गया। तत्क्षण ही लौकांतिक देवों से पूजा को प्राप्त हुए प्रभु को देवों ने देवकुरु नामक पालकी पर बिठाया और गिरनार पर्वत के सहस्राम्र वन में ले गये। श्रावण कृष्णा षष्ठी के दिन सायंकाल में तेला का नियम लेकर भगवान एक हजार राजाओं के साथ जैनेश्वरी दीक्षा से विभूषित हो गए, उसी समय उन्हें मन:पर्ययज्ञान प्रगट हो गया।राजा वरदत्त ने प्रभु को प्रथम आहारदान देकर पंचाश्चर्यों को प्राप्त किया। इस प्रकार तपश्चर्या करते हुए आश्विन कृष्णा एकम् के दिन उन्हें लोकालोकप्रकाशी केवलज्ञान प्रगट हो गया। उनके समवसरण में वरदत्त आदि ग्यारह गणधर, अठारह हजार मुनि, राजीमती आदि चालीस हजार आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ थीं।
प्रभु नेमिनाथ ने छह सौ निन्यान्वे वर्ष, नौ महीना और चार दिन तक विहार करने के पश्चात् गिरनार पर्वत उसी सहस्राम्र वन में योग निरोध करके आषाढ़ शुक्ला सप्तमी के दिन अघातिया कर्मों का नाश करके मोक्षपद प्राप्त कर लिया। उसी समय इंद्रादि देवों ने आकर बड़ी भक्ति से प्रभु का निर्वाण कल्याणक महोत्सव मनाया।
वे श्री नेमिनाथ भगवान हमारे अंत:करण को पूर्ण शांति प्रदान करें।