—दोहा—
महावीर जिनराज के, ग्यारह गणधर मान्य।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले स्वात्मसुखसाम्य।।१।।
अथ तृतीयवलये मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
—दोहा—
‘इन्द्रभूति’ गणधर प्रथम, गौतम नाम प्रसिद्ध।
जिनकी कृपा प्रसाद से, मोक्षमार्ग है सिद्ध।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन: इन्द्रभूतिनामगौतमगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वायुभूति’ गणधर दुतिय, सर्वऋद्धिपरिपूर्ण।
जो जन पूजें भक्ति से, करें मोह अरि चूर्ण।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन: वायुभूतिगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अग्निभूति’ गणधर तृतिय, नमूं सर्वसुख कंद।
ध्यान अग्नि से कर्म दह, बने सिद्ध भगवंत।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन: अग्निभूतिगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गणी ‘सुधर्माचार्य’ गुरु, महावीर के नंद।
पूजूं अर्घ्य चढ़ाय के, पाऊं परमानंद।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन: सुधर्माचार्यगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्री मौर्य’ गणधर गुरु, भविजन के शिर ताज।
पूजूं अर्घ्य चढ़ाय के, मिले सौख्य साम्राज्य।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन: मौर्यगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गणी ‘मौन्द्र्य’ गुरु के चरण, जजूं सर्व सुखकार।
पाऊं निज सुखसंपदा, मिले भवोदधि पार।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन: मौन्द्र्यगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गणधर ‘पुत्र’ सुनाम है, सन्मति प्रभु के नंद।
जजूं अर्घ्य ले भक्ति से, पाऊं सौख्य अनिंद्य।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन: पुत्रनामगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीमैत्रेय’ गणीन्द्र को, नमूं नमूं शत बार।
अर्घ्य चढ़ाकर पूजते, भरे सौख्य भंडार।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन: श्रीमैत्रेयगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गणी ‘अकंपन’ को नमूं, सर्व ऋद्धि के ईश।
ऋद्धि सिद्धि को पाय के, बसूं भुवन के शीश।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन: श्रीअंकपनगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अंधवेल’ गणधर गुरू, मोहध्वांत से दूर।
जजूं चरण अरविंद मैं, पाऊं सुख भरपूर।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन: अंधवेलगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरु ‘प्रभास’ गणधर चरण, पूजत हो आनंद।
पाऊं ज्ञान प्रकाश मैं, हरूं जगत के द्वंद्व।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन: प्रभासगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य—्नारेन्द्र छंद—
महावीर प्रभू के गणधर हैं, ग्यारह१ सब गुण पूरे।
इन्द्रभूति गौतम आदिक ये, यम की समरथ चूरें।।
ये भव्यों के रोग शोक दुख, दारिद कष्ट निवारें।
नव निधि ऋद्धी यश संपत्ती, देकर भव से तारें।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन: इन्द्रभूतिप्रमुखएकादशगणधरदेवेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—शंभु छंद—
चौबिस जिनके सब गणधर गुरु, चौंसठ ऋद्धी को धारे हैं।
ये चौदह सौ उनसठ२ मानें, भक्तों को भव से तारे हैं।।
सर्वौषधि आदिक ऋद्धी से, सब रोग शोक दु:ख हरण करें।
हम इनको पूजें भक्ती से, ये मुझमें समरस सुधा भरें।।२।।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरऋषभसेनादिएकोनषष्ट्यधिकचतुर्दशशतगणधर-चरणेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।