-दोहा-
चिंतित फल देवें सदा, चिंतामणि चिद्रूप।
पुष्पांजलि से पूजते, भक्त बने शिवरूप।।१।।
अथ तृतीयवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्
-शेरछंद-
माया से वचन से स्वयं संरंभ जो करें।
जो कार्य को करने में भूमिका को विस्तरें।।
ये पापहेतु लाखों योनियों में भ्रमावें।
जो नाथ की पूजा करें निज संपदा पावें।।५५।।
ॐ ह्रीं मायाकृतवचनसंरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो छद्म से वच से सदा संरंभ कराते।
वे भी करम से सर्व जग में निज को भ्रमाते।।
तीर्थेश के गुणों की अर्चना प्रधान है।
जो पूजते वे भी बनें जग में महान हैं।।५६।।
ॐ ह्रीं मायाकारितवचनसंरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया सहित वचन से जो संरंभ को करें।
उनकी करें अनुमोदना वे पाप को भरें।।
जिनवर की वंदना से सर्व दु:ख दूर हों।
निज आत्म की अनुभूति से पीयूष पूर हो।।५७।।
ॐ ह्रीं मायानुमतवचनसंरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया से वचन से जो समारंभ को करें।
चौरासी लाख योनियों में जन्म वे धरें।।
यदि जन्मसिंधु से तुम्हें तिरने की है इच्छा।
जिनवर की अर्चना करो मानो गुरु शिक्षा।।५८।।
ॐ ह्रीं मायाकृतवचनसमारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया से वाक्य से जो समारंभ कराते।
चारों गती के दुख जलधि में निज को डुबाते।।
ये भूत प्रेत डाकिनी शाकिनि पिशाचिनी।
सब दूर हों जिनभक्ति से बाधाएं भी घनी।।५९।।
ॐ ह्रीं मायाकारितवचनसमारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया से वचन से जो समारंभ को करें।
अनुमोदते उन्हें वे पशू योनि को धरें।।
जो इनसे मुक्त हो चुके त्रिभुवन ललाम हैं।
उनको अनंत बार ही मेरा प्रणाम है।।६०।।
ॐ ह्रीं मायानुमतवचनसमारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो छद्म से वचन से आरंभ नित करें।
ये कार्य को प्रारंभ करते हर्ष मन धरें।।
इनके अशुभ प्रकृती बंधे दुर्गति में जा पड़ें।
जो इनसे मुक्त उन प्रभू के चरण हम पड़ें।।६१।।
ॐ ह्रीं मायाकृतवचनारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया से वचन से सदा आरंभ कराते।
वे निज को और पर को तीन जग में भ्रमाते।।
जो इनसे मुक्त हैं उन्हों की वंदना करूँ।
निर्मूल हो माया कषाय, प्रार्थना करूँ।।६२।।
ॐ ह्रीं मायाकारितवचनारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आरंभ में अनुमोदना माया से वचन से।
तब कर्मशत्रु आवते रोके नहीं रुकते।।
इनसे विमुक्त समवसरण कमल पे रहें।
माया को जो तजें स्वयं ऊरधगती लहें।।६३।।
ॐ ह्रीं मायानुमतवचनारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो लोभ से वच से सदा संरंभ को करें।
वे आत्मशुद्धि ना करें जग में भ्रमण करें।।
प्रभु आपने इसको तजा निजधाम पा लिया।
मैं दुख से ऊब के ही आपकी शरण लिया।।६४।।
ॐ ह्रीं लोभकृतवचनसंरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो लोभ से वच से सदा संरंभ कराते।
वे भावशुद्धि के बिना निर्धन सदा रहते।।
इसको तजे से तीन लोक संपदा मिली।
मैं भी तुम्हें पूजूँ समस्त आपदा टलीं।।६५।।
ॐ ह्रीं लोभकारितवचनसंरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संरंभ लोभ से वचन से उसमें अनुमती।
ये बुद्धि सबमें काल अनादी से ही रहती।।
प्रभु इनसे मुक्त आपके गुणों की अर्चना।
जो भक्त हैं वे कर सकेंगे यम की तर्जना।।६६।।
ॐ ह्रीं लोभानुमतवचनसंरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वच से व लोभ से जो समारंभ कर रहे।
वे मोहनीय कर्मबंध दृढ़ ही कर रहे।।
इनसे विमुक्त आप पाद वंदना भली।
प्रभु भक्त के मन कंज की कलियाँ तुरत खिलीं।।६७।।
ॐ ह्रीं लोभकृतवचनसमारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो लोभ से वचन से समारंभ कराते।
वे भेदज्ञान शून्य हैं निज शुद्धि न पाते।।
इनसे विमुक्त नाथ की जो वंदना करें।
वे सब कषाय शत्रुओं की खंडना करें।।६८।।
ॐ ह्रीं लोभकारितवचनसमारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वच लोभ से जो समारंभ उसमें अनुमती।
वे तनु की व्याधियों से दुखी जग में दुर्मती।।
इनसे विमुक्त नाथ के गुणों की अर्चना।
संसारवार्धि से तिरूँ हो दु:ख रंच ना।।६९।।
ॐ ह्रीं लोभानुमतवचनसमारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो लोभ से वचन से भी आरंभ कर रहे।
वे छह निकाय जीव की हिंसा ही कर रहे।।
इनसे विमुक्त तीर्थनाथ की महापूजा।
ये सर्वसौख्यकारिणी इस सम नहीं दूजा।।७०।।
ॐ ह्रीं लोभकृतवचन-आरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो लोभ में वचन से भी आरंभ कराते।
वे पापपुंज बांधते निज ज्ञान न पाते।।
इनसे विमुक्त तीर्थपती की उपासना।
जो कर रहे वे पायेंगे शिवपथ की साधना।।७१।।
ॐ ह्रीं लोभकारितवचनारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आरंभ लोभ से वचन से उसमें अनुमती।
परिग्रह से ही आरंभ उससे होवे दुर्गती।।
इनसे विमुक्त नाथ की मैं वंदना करूँ।
संपूर्ण दु:ख से बचूँ सिध्यंगना वरूँ।।७२।।
ॐ ह्रीं लोभानुमतवचनारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीत्िा स्वाहा।
-नरेन्द्र छंद-
क्रोध सहित तन से कार्यों की बने रूपरेखा जो।
सो संरंभ कहाता श्रुत में इनसे मुक्त हुये जो।।
उन सुपार्श्व प्रभु के चरणों में नित प्रति शीश नमाऊँ।
गर्भवास के दु:ख मिटाकर निज समरस सुख पाऊँ।।७३।।
ॐ ह्रीं क्रोधकृतकायसंरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध सहित तन से कार्यों को करवाने की रुचि से।
पाप कमाते सब संसारी पंच परावृत करते।।
इनसे मुक्त हुये जिनवर को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।७४।।
ॐ ह्रीं क्रोधकारितकायसंरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध सहित तन से कुछ करना करे भूमिका कोई।
अनुमति देकर पाप बढ़ाते महामूढ़ जन सो ही।।
इनसे मुक्त हुये जिनवर को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।७५।।
ॐ ह्रीं क्रोधानुमतकायसंरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध सहित तन से कार्यों की सामग्री को जोड़े।
समारंभ यह नरक निगोदों में ले जाकर छोड़े।।
इनसे मुक्त हुये जिनवर को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।७६।।
ॐ ह्रीं क्रोधकृतकायसमारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्य हेतु पर से सामग्री एकत्रित करवाता।
क्रोध करे तन से जो फिर भी नहीं किसी से नाता।।
इनसे मुक्त हुये जिनवर को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।७७।।
ॐ ह्रीं क्रोधकारितकायसमारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध सहित तन से जो करते समारंभ दे अनुमति।
बिना हेतु ये पाप उपार्जे नहीं मिली है सन्मति।।
इनसे मुक्त हुये जिनवर को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।७८।।
ॐ ह्रीं क्रोधानुमतकायसमारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध सहित तन से आरंभे पाँच पाप आदिक जो।
पाँच परावर्तन कर करके जग में भ्रमण करें वो।।
इनसे मुक्त हुये जिनवर को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।७९।।
ॐ ह्रीं क्रोधकृतकायारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध करावे काय क्रिया से बहु आरंभ कराता।
तन की व्याधि करोड़ों भोगे कभी न पावे साता।।
इनसे मुक्त हुये जिनवर को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।८०।।
ॐ ह्रीं क्रोधकारितकायारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध सहित काया से अनुमति देता आरंभी को।
नाना काय धरे मर मर कर भव भव में दु:खी हो।।
इनसे मुक्त हुये जिनवर को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।८१।।
ॐ ह्रीं क्रोधानुमतकायारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
समवसरणपति देव, अखिल अमंगल को हरें।
नित्य करूँ मैं सेव, नित नव नव मंगल भरें।।१।।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहिताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।