-गणिनी ज्ञानमती
-दोहा-
स्वयंसिद्ध ये द्वीप हैं, तेरहद्वीप महान।
सब द्वीपों में जिनभवन, अनुपम रत्न निधान।।१।।
चउ शत अट्ठावन यहाँ, जिनमंदिर अभिराम। तीर्थंकर जिन केवली, साधु शील गुण खान।।२।।
इन सब की पूजा करूँ, आत्मशुद्धि के हेतु।
जिन पूजा चिंतामणी, मन चिंतित फल देत।।३।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमजिनालय-जिनबिम्ब-तीर्थंकरकेवलिसर्वसाधु समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं त्रयोदशद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमजिनालय-जिनबिम्ब-तीर्थंकरकेवलिसर्वसाधु समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं त्रयोदशद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमजिनालय-जिनबिम्ब-तीर्थंकरकेवलिसर्वसाधु समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथाष्टक-शंभु छंद
सुर सरिता का उज्ज्वल जल ले, कंचन झारी भर लाया हूँ।
भव भव की तृषा बुझाने को, त्रय धारा देने आया हूँ।।
तेरहद्वीपों में जिनमंदिर, कृत्रिम अकृत्रिम जितने हैं।
तीर्थंकर केवलि सर्वसाधु, उन सबको मेरा वंदन है।।१।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमजिनालय-जिनबिम्बतीर्थंकरकेवलिसर्वसाधुभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा।
वर अष्ट गंध सुरभित लेकर, तुम चरण चढ़ाने आया हूँ।
भव भव संताप मिटाने औ, समता रस पीने आया हूँ।।
तेरहद्वीपों में जिनमंदिर, कृत्रिम अकृत्रिम जितने हैं।
तीर्थंकर केवलि सर्वसाधु, उन सबको मेरा वंदन है।।२।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमजिनालय-जिनबिम्बतीर्थंकरकेवलिसर्वसाधुभ्यो चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शशि किरणों सम उज्ज्वल तंदुल, धोकर थाली भर लाया हूँ।
निज आतम गुण के पुंज हेतु, यह पुंज चढ़ाने आया हूँ।।
तेरहद्वीपों में जिनमंदिर, कृत्रिम अकृत्रिम जितने हैं।
तीर्थंकर केवलि सर्वसाधु, उन सबको मेरा वंदन है।।३।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमजिनालय-जिनबिम्बतीर्थंकरकेवलिसर्वसाधुभ्यो अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कुवलय बेला वर मौलसिरी, मचकुन्द कमल ले आया हूँ।
शृंगार हार कामारिजयी, जिनवर पद यजने आया हूँ।।
तेरहद्वीपों में जिनमंदिर, कृत्रिम अकृत्रिम जितने हैं।
तीर्थंकर केवलि सर्वसाधु, उन सबको मेरा वंदन है।।४।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमजिनालय-जिनबिम्बतीर्थंकरकेवलिसर्वसाधुभ्यो पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मोदक फेनी घेवर ताजे, पकवान बनाकर लाया हूँ।
निज आतम अनुभव चखने को, नैवेद्य चढ़ाने आया हूँ।।
तेरहद्वीपों में जिनमंदिर, कृत्रिम अकृत्रिम जितने हैं।
तीर्थंकर केवलि सर्वसाधु, उन सबको मेरा वंदन है।।५।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमजिनालय-जिनबिम्बतीर्थंकरकेवलिसर्वसाधुभ्यो नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक ज्योती के जलते ही, अज्ञान अंधेरा भगता है।
इस हेतू से दीपक पूजा, करते ही ज्ञान चमकता है।।
तेरहद्वीपों में जिनमंदिर, कृत्रिम अकृत्रिम जितने हैं।
तीर्थंकर केवलि सर्वसाधु, उन सबको मेरा वंदन है।।६।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमजिनालय-जिनबिम्बतीर्थंकरकेवलिसर्वसाधुभ्यो दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूपायन में वर धूप खेय, दशदिश में धूम उठे भारी।
बहु जनम जनम के संचित भी, दु:खकर सब कर्म जलें भारी।।
तेरहद्वीपों में जिनमंदिर, कृत्रिम अकृत्रिम जितने हैं।
तीर्थंकर केवलि सर्वसाधु, उन सबको मेरा वंदन है।।७।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमजिनालय-जिनबिम्बतीर्थंकरकेवलिसर्वसाधुभ्यो धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
वर आम्र बिजौरा नींबू औ, गन्ना मीठा ले आया हूँ।
शिव कांता सत्वर वरने की, बस आशा लेकर आया हूँ।।
तेरहद्वीपों में जिनमंदिर, कृत्रिम अकृत्रिम जितने हैं।
तीर्थंकर केवलि सर्वसाधु, उन सबको मेरा वंदन है।।८।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमजिनालय-जिनबिम्बतीर्थंकरकेवलिसर्वसाधुभ्यो फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत फूल चरू, वर दीप धूप फल लाया हूँ।
तुम चरणों अर्घ चढ़ा करके, भव संकट हरने आया हूँ।।
तेरहद्वीपों में जिनमंदिर, कृत्रिम अकृत्रिम जितने हैं।
तीर्थंकर केवलि सर्वसाधु, उन सबको मेरा वंदन है।।९।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमजिनालय-जिनबिम्बतीर्थंकरकेवलिसर्वसाधुभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
क्षीरोदधि समश्वेत, उज्ज्वल जल ले भृंग में।
श्री जिनचरण सरोज, धारा देते भव मिटे।।१०।।
शांतये शांतिधारा।।
सुरतरु के सुम लाय, प्रभु पद में अर्पण करूँ।
कामदेव मद नाश, पाऊँ आनन्द धाम मैं।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।।
तेरहद्वीप रचना के समुच्चय अर्घ्य
(२१२७ प्रतिमाओं के अर्घ्य)
-अनुष्टुप् छंद-
द्विसहस्राणि चैकानि, शतानि सप्तविंशति:।
जिनबिम्बानि वंदेऽत्र, त्रयोदशजिनालये।।१।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशद्वीपसंबंधि-द्विसहस्र-एकशतसप्त-विंशतिजिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
चउ सौ अट्ठावन कहे, अकृत्रिम जिनगेह।
तेरहद्वीप तक ये सभी, इन्हें नमूँ धर नेह।।२।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशद्वीपसंबंधि-चतु:शताष्टपंचाशज्जिनालय-जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आठ शतक इक्कीस ही, देवभवन जिनगेह।
उन जिनप्रतिमा को नमूँ, धार हृदय में नेह।।३।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशद्वीपसंबंधि-अष्टशत-एकविंशति-देवभवनचैत्यालयजिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शाश्वत प्रति जिनभवन में, प्रतिमा इक सौ आठ।
एक सिंहासन में यहाँ, नमूँ नमाकर माथ।।४।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशद्वीपमध्यविराजमान-अष्टोत्तरशतजिन-प्रतिम्ााभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इक सौ सत्तर कर्मभू, समवसरण सब मध्य।
छह सौ अस्सी बिम्ब जिन, नमत मिले भव अन्त्य।।५।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशद्वीपरचनामध्यविराजमान-सार्धद्वयद्वीप-संबंधि-एकशत-सप्तति-कर्मभूमिस्थित-एकशतसप्ततिसमव-सरणमध्यविराजमान-षट्शताशीतितीर्थंकरप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऋषभदेव से वीर तक, चौबीसों जिनदेव।
नमूँ सदा त्रयशुद्धि मैं, करूँ सर्वदुख छेव।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभादिवर्धमानान्त्यचतुर्विंशतितीर्थंकर-जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सीमंधर जिन आदि हैं, विहरमाण प्रभु बीस।
मन-वच-तन से नित्य मैं, नमूँ नमाकर शीश।।७।।
ॐ ह्रीं विदेहक्षेत्रसंबंधिविद्यमान-श्रीसीमंधर-आदि-अजितवीर्यपर्यन्तिंवशतितीर्थंकरजिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाँच भरत के पाँच भी, जिनवर के जिनबिम्ब।
इन्हें नमूँ नित भक्ति से, पाऊँ सौख्य अनिंद्य।।८।।
ॐ ह्रीं पंचभरतक्षेत्रसंबंधिश्रीशांतिनाथ-मुनिचंद्रनाथ-बाहुस्वामि-विमलेन्द्रनाथ-सुसंयतनाथजिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचैरावत क्षेत्र के, यहाँ पाँच जिनराज।
इन्हें नमूँ नित भक्ति से, सभी पूर्ण हों काज।।९।।
ॐ ह्रीं पंचैरावतक्षेत्रसंबंधि-अनंतवीर्यनाथ-सर्वरथनाथ-हरिवासवनाथ-मरुदेवनाथ-स्वच्छनाथतीर्थंकरजिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चार शिलायें मेरु की, उन पर जिन अभिषेक।
चार तीर्थकर को नमूँ, मिले स्वात्मगुण शेष।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेव-सीमंधरस्वामि-सुबाहुस्वामि-वीरसेनतीर्थंकरजिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अजितनाथ को नित नमूँ, जिनका समय महान।
इक सौ सत्तर तीर्थकर, हुए इक साथ प्रमाण।।११।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशद्वीपरचनामध्यविराजमान-अजितनाथ-जिनप्रतिमायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शासन जिनका चल रहा, महावीर भगवान।
नमूँ नमूँ शिर नमित कर, पाऊँ सिद्धिस्थान।।१२।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशद्वीपरचनामध्यविराजमानमहावीर-स्वामिजिनप्रतिमायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
तेरहद्वीप में इक्कीस सौ, सत्ताईस जिनबिम्ब१।
‘ज्ञानमती’ वैâवल्य हित, नमूँ मिटे जग द्वंद्व।।१३।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशद्वीपरचनामध्यविराजमानसर्वजिन-प्रतिमाभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं त्रयोदशद्वीपसंबंधिनवदेवताभ्यो नम:। (१०८ बार या ९ बार)
जयमाला
परम ज्योति परमात्मा, सकल विमल चिद्रूप। जिनवर गणधर साधुगण, नमूँ नमूँ निजरूप।।१।।
-शंभु छंद-
जय जय पाँचों मेरू के जिन-मंदिर हैं शाश्वत रत्नमयी।
जय जय जिनमंदिर बीसों ही, गजदंतगिरी के स्वर्णमयी।।
जय जय जंबूतरु शाल्मलि के, दश जिनमंदिर महिमाशाली।
जय जय वक्षारगिरी के भी, अस्सी जिनगृह गरिमाशाली।।२।।
जय इक सौ सत्तर विजयारध के, सब जिनमंदिर सुखकारी।
जय जय तीसों कुल पर्वत के, तीसों जिनगृह भव दु:खहारी।।
इष्वाकृति मनुजोत्तर पर्वत के, चार चार जिनमंदिर हैं।
नंदीश्वर के बावन अतिशय, शाश्वत जिनमंदिर मनहर हैं।।३।।
कुण्डलगिरि रुचकगिरी के भी, हैं चार-चार मंदिर सुंदर।
प्रतिजिनगृह में जिन प्रतिमाएँ हैं, इक सौ आठ कही मनहर।।
सब रत्नमयी जिनप्रतिमाएं, जिनवर भक्ती सम फल देतीं।
भक्तों की इच्छा पूर्तीकर, अंतिम शिव में पहुँचा देतीं।।४।।
पांचों मेरू के पांडुक वन, विदिशा में चार शिलाएँ हैं।
तीर्थंकर के जन्माभिषेक से, पावन पूज्य शिलाएँ हैं।।
पण भरत पाँच ऐरावत में, होते हैं चौबिस तीर्थंकर।
केवलि श्रुतकेवलि गणधर मुनि, साधूगण होते क्षेमंकर।।५।।
उनके कल्याणक से पवित्र, पृथिवी पर्वत भी तीर्थ बने।
जो उनकी पूजा करते हैं, उनके मनवांछित कार्य बनें।।
सब इक सौ साठ विदेहों में, सीमंधर युगमंधर स्वामी।
बाहू सुबाहु आदिक विहरें, केवलज्ञानी अन्तर्यामी।।६।।
उन सर्व विदेहों में संतत, तीर्थंकर होते रहते हैं।
केवलज्ञानी चारणऋद्धी, मुनिगण वहाँ विचरण करते हैं।।
आकाशगमन करने वाले, ऋषिगण मेरू पर जाते हैं।
निज आत्म सुधारस स्वादी भी, जिनवंदन कर हर्षाते हैं।।७।।
तेरहद्वीपों के चार शतक, अट्ठावन मंदिर को वंदन।
जितने भी कृत्रिम जिनगृह हों, उन सबको भी शत-शत वंदन।।
जितने तीर्थंकर हुए यहाँ, हो रहे और भी होवेंगे।
उन सबको मेरा वंदन है, वे मेरा कलिमल धोवेंगे।।८।।
आचार्य उपाध्याय साधूगण, जो भी इन कर्मभूमियों में।
चिन्मय आत्मा को ध्याते हैं, सुस्थिर होकर निज आत्मा में।।
वे घाति चतुष्टय घात पुन:, अरिहंत अवस्था पाते हैं।
इन कर्मभूमि से ही फिर वे, भगवान सिद्ध बन जाते हैं।।९।।
-दोहा-
पंच परमगुरु जिनधरम, जिनवाणी जिन गेह।
जिन प्रतिमा को नित नमूँ, ‘ज्ञानमती’ धर नेह।।१०।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमजिनालय-जिनबिम्बतीर्थंकरकेवलिसर्वसाधुभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
तेरहद्वीपों का नमन, करे विघ्न घन चूर।
सर्व अमंगल दूर कर, भरे सौख्य भरपूर।।११।।
।। इत्याशीर्वाद: ।।
-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चंदनामती
आरति करो रे,
तेरहद्वीपों के जिनबिम्बों की आरति करो रे।। टेक.।।
तीन लोक में मध्यलोक के अंदर द्वीप असंख्य कहे।
उनमें से तेरहद्वीपों में अकृत्रिम जिनबिंब रहें।।
आरति करो, आरति करो, आरति करो रे,
चउ शत अट्ठावन जिनमंदिर की आरति करो रे।।१।।
इनमें ढाई द्वीपों तक ही मनुज क्षेत्र कहलाता है।
पंच भरत पंचैरावत क्षेत्रों का दृश्य सुहाता है।
आरति करो, आरति करो, आरति करो रे,
श्रीपंचमेरु के जिनबिम्बों की आरति करो रे।।२।।
पंचम क्षीर समुद्र के जल से प्रभु का जन्म न्हवन होता।
अष्टम द्वीप नंदीश्वर में इन्द्रों द्वारा अर्चन होता।।
आरति करो, आरति करो, आरति करो रे,
कुण्डलवर और रुचकवर द्वीप की आरति करो रे।।३।।
इन सबका वर्णन तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में मिलता है।
दर्शन कर साक्षात् पुण्य का कमल हृदय में खिलता है।।
आरति करो, आरति करो, आरति करो रे,
ढाई द्वीपों के समवसरण की आरति करो रे।।४।।
गणिनीप्रमुख ज्ञानमती माताजी ने हमें बताया है।
हस्तिनापुर में यह रचना जिनमंदिर में बनवाया है।।
आरति करो, आरति करो, आरति करो रे,
‘‘चन्दनामती’’ इस अद्भुत कृति की आरति करो रे।।५।।
-गणिनी ज्ञानमती
-शंभु छंद-
सिद्धों का वंदन भव्यों को, जग में सब सिद्धिप्रदाता है।
अर्हंतदेव आचार्य उपाध्याय, सर्वसाधु सुखदाता हैं।।
जिनधर्म जिनागम जिनप्रतिमा, जिनमंदिर भविजन हितकारी।
इनकी भक्ती सब भव्यों को, संसार जलधि तारणहारी।।१।।
इस मध्यलोक में असंख्यात भी, द्वीप-समुद्र बखाने हैं।
इनमें तेरहद्वीपों तक ही, शाश्वत जिनमंदिर माने हैं।।
ये चार शतक अट्ठावन हैं, इनमें जिनप्रतिमा रत्नमयी।
प्रतिमंदिर इक सौ आठ कहीं, इन वंदत आत्मा सौख्यमयी।।२।।
यहाँ कृत्रिम रचना एक-एक, जिन प्रतिमाएँ इन मंदिर में।
सब अकृत्रिम कृत्रिम निर्मित, प्रतिमाओं को वंदूँ नित मैं।।
अर्हंत, सिद्ध की प्रतिमाएँ, यद्यपी अचेतन हैं सच में।
फिर भी भक्तों को तीर्थंकर, चेतन सम ही फल दें जग में।।३।।
ढाईद्वीपों में पाँच मेरु, अस्सी जिनगृह त्रैलोक्य तिलक।
इक सौ सत्तर हैं कर्मभूमि, इनमें हैं आर्यखण्ड सुखप्रद।।
हैं इक सौ साठ विदेहक्षेत्र, सब शाश्वत कर्मभूमि उनमें।
भरतैरावत हैं पाँच-पाँच, नहिं शाश्वत कर्मभूमि इनमें।।४।।
यदि एक साथ तीर्थंकर हों, या चक्रवर्ति आदिक होवें।
तो इक सौ सत्तर हो सकते, उनका वंदन अघमल धोवे।।
हैं बने यहाँ सब समवसरण, इक सौ सत्तर को कोटि नमन।
जो अजितनाथ के समय हुए, उन तीर्थंकर को कोटि नमन।।५।।
इन समवसरण में चार-चार, जिनप्रतिमाएँ उनको वंदन।
प्रभु भक्ती से प्रभु समवसरण का, हो साक्षात् मुझे दर्शन।।
इन ढाईद्वीप में तीर्थंकर, आदिक नवदेव हुए होते।
होवेंगे उन सबको वंदन, ये भविगण मोक्ष हेतु होते।।६।।
तेरहद्वीपों में देवभवन, अगणित माने हैं शास्त्रों में।
हैं आठ शतक इक्कीस भवन, इस रचना में प्रतिमा उनमें।।
यहाँ तेरहद्वीप जिनालय में, इक्किस सौ सत्ताइस प्रतिमा।
इन तीर्थंकर भगवन्तों की, सिद्धों की प्रतिमा की महिमा।।७।।
तेरहद्वीपों में अकृत्रिम, जिनमंदिर उन सबको वंदन।
ढाईद्वीपों में कृत्रिम भी, जिनमंदिर उनको कोटि नमन।।
तीर्थंकर समवसरण अर्हंत, आदिक नव देवों को वंदन।
जिन पंचकल्याणक भू निर्वाण-क्षेत्र अतिशय तीर्थों को नमन।।८।।
-दोहा-
जो इक्कीस दिन तक पढ़े, इक्कीस-इक्कीस बार।
तेरहद्वीप की वन्दना, भरे स्वगुण भण्डार।।९।।
समवसरण भगवन्त के, शिर ऊपर त्रयछत्र।
जो चढ़ावें भक्ति से, पावें सौख्य समग्र।।१०।।
तेरहद्वीप जिनभवन में, इक्कीस शत जिनबिंब।
वन्दत ज्ञानमती अमल, मिले सिद्धि अविलम्ब।।११।।
विशेष-जो प्रतिदिन २१ बार यह वन्दना पढ़कर छत्र चढ़ायेंगे, वे सर्व मनोकामना सिद्ध करेंगे।
४५८ जिनमंदिर-इस मध्यलोक में तेरहद्वीप तक ४५८ अकृत्रिम जिनमंदिर हैं। उन्हीं में पाँच मेरु पर्वत हैं। इनके नम्बर क्रम से १ से लेकर ४५८ तक हैं।
८२१ देवभवनों के गृह चैत्यालय-पुन: ४५९ से देवभवनों के नंबर प्रारंभ किये गये हैं। ये अंत में १२७९ तक हैं। इन सभी देवभवन या देवी भवनों में ऊपर के खण्ड में या बाजू में गृहचैत्यालय हैं उनमें जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं। ये सब देवभवन ८२१ हैं अत: इनमें ८२१ जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं।
१७० समवसरण-ढाई द्वीप में १७० कर्मभूमि हैं। इनमें श्री अजितनाथ तीर्थंकर के समय एक साथ १७० तीर्थंकर भगवान हुए हैं। उन्हीं के प्रतीक में यहाँ पर १७० समवसरण बनाये गये हैं। इनमें से ४ समवसरण ८ भूमियों सहित हैं तथा शेष १६६ समवसरण केवल गंधकुटी के रूप में हैं। ये यथास्थान विराजमान हैं। इन सभी में चतुर्मुखी भगवान के प्रतीक में ४-४ जिनप्रतिमा हैं अत: १७० को ४ से गुणा करने पर १७०²४·६८० जिनप्रतिमाएँ हैं।
१०८ जिनप्रतिमाएँ-प्रत्येक अकृत्रिम जिनमंदिर में १०८-१०८ प्रतिमाएँ होती हैं। उनके प्रतीक में यहाँ एक सिंहासन पर १०८ जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं।
२४ तीर्थंकर प्रतिमा-ऋषभदेव आदि चौबीस तीर्थंकरों की २४ जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं।
२० तीर्थंकर प्रतिमा-विदेह क्षेत्रों में आज भी विद्यमान- विहरमाण श्री सीमंधर आदि २० तीर्थंकर हैं। इन २० तीर्थंकरों की २० प्रतिमाएँ विराजमान हैं।
१६ जिनप्रतिमा-पाँच भरत क्षेत्र की ५ (विधिनायक), पाँच ऐरावत क्षेत्र की ५ एवं सुमेरु पर्वत की विदिशाओं में पांडुक शिला आदि चार शिलाओं पर अभिषेक हेतु ४ तथा श्री अजितनाथ एवं महावीर स्वामी की २, ऐसी १६ जिनप्रतिमाएँ यहाँ विराजमान हैं। इस प्रकार सर्व जिनप्रतिमाएँ-४५८±८२१±६८०±१०८±२४±२०±१६·२१२७ जिनप्रतिमाओं को मेरा मन, वचन, कायपूर्वक अनंत-अनंतबार नमस्कार होवे।
-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चंदनामती
तर्ज-श्याम तेरी बंशी……….
तेरहद्वीप रचना का देखो चमत्कार,
हस्तिनापुरी में हुई जो साकार।
ज्ञानमती माताजी का है ये उपकार,
छाया चमत्कार देखो छाया चमत्कार।।
ग्रंथों में इसका वर्णन है आता।
धरा पर बना है तो कितना सुहाता।।
चार सौ अट्ठावन हैं प्रतिमा सुखकार,
छाया चमत्कार देखो छाया चमत्कार।।२।।
देखो ठीक से तो सारा समझ में है आता।
ढाई द्वीप तक है मात्र मनुष्यों का नाता।।
वहीं पाँच मेरू बने हैं सुखकार,
छाया चमत्कार देखो छाया चमत्कार।।२।।
सिद्ध मंदिरों के साथ देवभवन राजें।
समवसरण एक शतक सत्तर विराजें।।
ज्ञानमती माातजी के ज्ञान का है सार,
छाया चमत्कार देखो छाया चमत्कार।।३।।
सोने जैसे चमक रहे मंदिर ये सारे।
वंदना करेंगे इनकी सूर्य चांद तारे।।
‘चंदनामती’ का नमन होगा स्वीकार,
छाया चमत्कार देखो छाया चमत्कार।।४।।
-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चंदनामती
देखो तेरहद्वीप के अन्दर,
अतिशय वैâसा छाया रे।।टेक.।।
कोई यहाँ मांगे धन सम्पत्ती, कोई मांगे बेटा रे।
इक्कीस सौ प्रतिमा के सम्मुख, इच्छित फल को पाया रे।।देखो.।।१।।
कोई यहाँ मांगे स्वास्थ्य संतती, स्वस्थ निरोगी रहने को।
यहाँ कल्पवृक्षों के सम्मुख, इच्छित फल को पाया रे।।देखो.।।२।।
कोई यहाँ आता केस जीतने हेतु प्रार्थना करने को।
इक सौ सत्तर समवसरण से, इच्छित फल को पाया रे।।देखो.।।३।।
कोई यहाँ आता पुत्र-पुत्रियों का सौभाग्य जगाने को,
नौ सौ देवभवन को जजकर, इच्छित फल को पाया रे।।देखो.।।४।।
कोई यहाँ आता यश कीर्ती के लिए मनौती करने को।
प्रभु की पूजा भक्ती करके, इच्छित फल को पाया रे।।देखो.।।५।।
जो भि ‘चन्दनामती’ भक्त यहाँ मनोकामना करता है।
तेरहद्वीप के दर्शन करके इच्छित फल को पाया रे।।देखो.।।६।।