जैन समाज की वरिष्ठतम साध्वी परमपूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी आज कर्मठता एवं सफलता का पर्याय बन चुकी हैं, जिन-जिन कार्यों को पूज्य माताजी ने हाथ में लिया, उनसे जहाँ जैनधर्म की महत्वपूर्ण प्रभावना हुई, वहीं जैन संस्कृति के संरक्षण की दिशा में महान आधारभूत स्तंभ भी प्राप्त हुए। इसी शृंखला में एक प्राचीन अर्वाचीनता की कड़ी है-तेरहद्वीप।सन् १९६५ में एक दिन प्रात:काल ध्यान करते हुए पूज्य माताजी को अकृत्रिम चैत्यालयों की एक अद्भुत रचना का प्रतिभास हुआ, पुन: शास्त्रों को उठाकर देखने पर मध्यलोक के तेरहद्वीप के रूप में उसी रचना का वर्णन पढ़कर उनके मन में अपार हर्ष हुआ था, तभी से इस तेरहद्वीप रचना को पृथ्वी पर साकार करने की भावना उनके हृदय में बलवती थी। सन् १९७६ में उन्हीं चैत्यालयों के चिन्तनस्वरूप पूज्य माताजी ने ‘‘इन्द्रध्वज विधान’’ की रचना की, जो समस्त जैन समाज में अत्यंत लोकप्रिय हुआ। इसी प्रकार सन् १९७४ से लेकर १९८५ तक तेरहद्वीप के प्रथम द्वीप ‘जम्बूद्वीप’ की भौगोलिक रचना का सुन्दर निर्माण खुले आसमान के नीचे भगवान शांतिनाथ-कुंथुनाथ-अरहनाथ की जन्मभूमि पौराणिक तीर्थ हस्तिनापुर की पावनधरा पर पूज्य माताजी की प्रेरणा द्वारा सम्पन्न हुआ, जो आज राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय आकर्षण का केन्द्र बन चुका है।
सन् १९९३ में जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर के विशाल परिसर में तेरहद्वीप रचना बनाने हेतु ४००० वर्ग फीट के विशाल जिनालय का शिलान्यास किया गया परन्तु हजारों किमी. की पदयात्रा, अनेकानेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम, प्रयाग-कुण्डलपुर इत्यादि तीर्थों के नवनिर्माण, षड्खण्डागम ग्रंथ का टीका लेखन इत्यादि अनेकानेक कार्यों में व्यस्तता के कारण तेरहद्वीप रचना निर्माण का कार्य परिपूर्णता की ओर अग्रसर न हो सका।पुन: सन् २००६ से तिलोयपण्णत्ति-त्रिलोकसार आदि ग्रंथों के आधार से पूज्य माताजी ने इस रचना की बारीकियों के विषय में दिशा-निर्देश प्रदान करना प्रारंभ किया और मात्र एक वर्ष के भीतर यह रचना तैयार होकर अपने प्रतिभास के ४२ वर्ष बाद २७ अप्रैल से २ मई २००७ तक पंचकल्याणक प्रतिष्ठा से प्रतिष्ठित होकर जैन संस्कृति की एक अमूल्य धरोहर सिद्ध होने जा रही है।प्रस्तुत है पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के प्रवचनों के आधार पर तेरहद्वीप से सम्बंधित संक्षिप्त विवरण-
अलोकाकाश के मध्य स्थित पुरुषाकार लोक तीन भागों में विभक्त है-अधोलोक, मध्यलोक एवं ऊर्ध्वलोक। इनमें से मध्यलोक के असंख्यात द्वीप समुद्रों में प्रथम द्वीप जम्बूद्वीप है, उसको घेरकर लवण समुद्र है, इसमें जम्बूद्वीप १ लाख योजन प्रमाण है तथा लवण समुद्र उससे दूना अर्थात् २ लाख योजन प्रमाण है। लवण समुद्र को घेरकर चार लाख योजन विस्तृत धातकीखण्ड द्वीप है इसे घेरकर आठ लाख योजन विस्तार वाला कालोदधि समुद्र है। इसको घेरकर सोलह लाख योजन विस्तृत पुष्करवर द्वीप है और इसके बाद ३२ लाख योजन वाला पुष्करवर समुद्र है। पुष्करद्वीप के ठीक बीच में चूड़ी के समान आकार वाला एक मानुषोत्तर पर्वत है। इस पर्वत तक ही मनुष्य लोक की सीमा है। इसके आगे भी इसी प्रकार क्रम से एक द्वीप और एक समुद्र करके असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र हैं जिनका विस्तार क्रम से दूना-दूना होता चला गया है।
सर्वप्रथम हमें इन तेरह द्वीपों के नाम जानना है। सबसे पहला द्वीप है-जम्बूद्वीप, दूसरा है धातकीखण्ड द्वीप, तीसरा-पुष्करवरद्वीप, चौथा-वारुणीवर द्वीप है, पाँचवा द्वीप है-क्षीरवर द्वीप, इस द्वीप को घेरे हुए क्षीरवर नाम से समुद्र है जिसका जल क्षीर अर्थात् दूध के समान है, प्रत्येक तीर्थंकर भगवान के जन्म के समय इसी समुद्र का जल लाकर इन्द्र एवंं देवगण भगवान का जन्माभिषेक करते हैं। वहाँ मनुष्य नहीं जा सकते हैं, कोई भी कितने भी शक्तिशाली ऋद्धिसम्पन्न मनुष्य या विद्याधर क्यों न हों वहाँ नहीं पहुँच सकते हैं। छठा द्वीप है-घृतवर द्वीप, सातवाँ द्वीप है-क्षौद्रवर द्वीप, आठवाँ द्वीप है-नंदीश्वर द्वीप, इस आठवें द्वीप में अकृत्रिम चैत्यालय हैं जिनकी हम और आप आष्टान्हिक पर्व में पूजन, जाप्यादि करते हैं। नवमां द्वीप है-अरुणवर द्वीप, दशवाँ है-अरुणाभास द्वीप, ग्यारहवाँ-कुण्डलवर द्वीप, बारहवाँ-शंखवर द्वीप तथा तेरहवाँ-रुचकवर द्वीप है। इन सभी द्वीपों के बाद जो-जो समुद्र हैं उसमें प्रथम लवण समुद्र एवं दूसरे कालोदधि समुद्र को छोड़कर शेष सभी द्वीप के ही नाम वाले हैं जैसे पुष्करवर समुद्र, वारुणीवर समुद्र आदि।
चूँकि पुष्करद्वीप में मानुषोत्तर पर्वत के निमित्त से दो भाग हो गये-इसीलिए मानुषोत्तर पर्वत से पहले का भाग पुष्करार्ध द्वीप कहलाता है, यह आधा द्वीप माना जाता है। पुन: इस पुष्करार्ध द्वीप के उत्तर-दक्षिण में दो इष्वाकार पर्वत होने से पुष्करार्ध द्वीप के दो भेद हो गये-पूर्व पुष्करार्ध और पश्चिम पुष्करार्ध। यहाँ तक ही मनुष्यों का अस्तित्व है इसके आगे नहीं। द्वीपों में भी वैसे तो असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं परन्तु जम्बूद्वीप से लेकर तेरहवें रुचकवर द्वीप तक ही अनादिनिधन अकृत्रिम जिनमंदिर हैं, उसके आगे नहीं हैं, इसीलिए मध्यलोक में तेरहद्वीप रचना को प्रधानता दी जाती है।इन तेरहद्वीपों की रचना में कुल ४५८ अकृत्रिम जिनमंदिर हैं, जिन्हें मध्यलोक के ४५८ अकृत्रिम जिनमंदिर कहा जाता है।
तेरहद्वीपों में से प्रथम ढाईद्वीपों में ३९८ अकृत्रिम जिनमंदिर हैं, प्ाुन: चौथे से तेरहवें द्वीप तक कुल मिलाकर ६० अकृत्रिम जिनमंदिर हैं, इस प्रकार कुल मिलाकर ३९८±६०·४५८ जिनमंदिर हुए। इन्द्रध्वज महामण्डल विधान में इन्हीं ४५८ अकृत्रिम जिनमंदिरों पर ध्वजा चढ़ाते हुए उनकी पूजा की जाती है। इन मंदिरों की गणना इस प्रकार है-प्रथम जम्बूद्वीप के बीचों-बीच में स्थित सुदर्शन मेरु (सुमेरु पर्वत) के चार वनों में ४-४ मंदिर, ऐसे १६ मंदिर हैं, पुन: मेरु की चारों विदिशाओं में स्थित गजदंत पर्वतों पर १-१ ऐसे ४ मंदिर, आगे मेरु के उत्तर-दक्षिण में उत्तरकुरु-देवकुरु में क्रमश: जम्बूवृक्ष-शाल्मलिवृक्ष पर १-१ ऐसे २ मंदिर, पुन: सुमेरु के पूर्व-पश्चिम में ८-८ वक्षार ऐसे १६ वक्षार पर्वत के १६ मंदिर, पुन: पूर्व-पश्चिम में ही १६-१६ विदेह क्षेत्रों के मध्य में ३२ विजयार्ध±भरत-ऐरावत के २ विजयार्ध पर्वत ऐसे कुल ३४ विजयार्धों पर ३४ मंदिर और मेरु के दक्षिण-उत्तर में छह कुलाचल पर्वतों पर ६ मंदिर, इस प्रकार १६±४±२±१६±३४±६·७८ अकृत्रिम जिनमंदिर जम्बूद्वीप में हैं।इसी प्रकार पूर्व धातकीखण्डद्वीप में विजयमेरु के साथ ७८ जिनमंदिर हैं, पश्चिम धातकीखण्डद्वीप में अचलमेरु के साथ ७८ मंदिर एवं २ इष्वाकार के ऐसे कुल १५८ मंदिर हैं।
पुन: पूर्व पुष्करार्ध द्वीप में मंदर मेरु सहित ७८ मंदिर, पश्चिम पुष्करार्ध में विद्युन्माली मेरु सहित ७८ एवं इष्वाकार के २ कुल ऐसे १५८ मंदिर हैं। पुन: मानुषोत्तर पर्वत पर ४ मंदिर हैं। इस प्रकार जम्बूद्वीप संंबंधी ७८, धातकीखण्ड संबंधी १५८, पुष्करार्ध द्वीप संंबंधी १५८ एवं मानुषोत्तर पर्वत के ४ कुल मिलाकर ७८±१५८±१५८±४·३९८ अकृत्रिम जिनमंदिर ढाई द्वीप के हुए।पुन: चौथे, पाँचवे, छठे एवं सातवें द्वीप में कोई भी जिनमंदिर नहीं है। आठवें नंदीश्वर द्वीप में ५२ जिनमंदिर हैं। पुन: नवमें तथा दशवें द्वीप में कोई भी जिनमंदिर नहीं है। पुन: ग्यारहवें कुण्डलवरद्वीप के मध्य में स्थित वलयाकार कुण्डलवर पर्वत पर ४ मंदिर हैं, बारहवें द्वीप में कोई जिनमंदिर नहीं है, पुन: तेरहवें रुचकवर द्वीप के मध्य में स्थित गोलाकार रुचकवर पर्वत पर ४ जिनमंदिर हैं।इस प्रकार ३९८±५२±४±४·४५८ कुल अकृत्रिम जिनमंदिर हुए।
जम्बूद्वीप स्थित नवनिर्मित तेरहद्वीप जिनालय में इन सभी अकृत्रिम जिनमंदिरों को अत्यंत सुंदर कलाकृतिपूर्ण स्वर्णिम वर्ण में स्थापित किया गया है। साथ ही तेरहद्वीपों में जो सैकड़ों देवभवन हैं और जिनमें देव-देवी रहते हैं, तथा उनके गृह चैत्यालयों में भगवान विराजमान रहते हैं, ऐसे लगभग ८०० देवभवन भी इस रचना में बने हैं, जो धातु से निर्मित रंग-बिरंगे हैं। इन सभी अकृत्रिम जिनमंदिरों एवं चैत्यालयों में सिद्ध भगवन्तों की प्रतिमाएं विराजमान की गई हैं।
प्रथम द्वीप जम्बूद्वीप है, उसको घेरकर लवण समुद्र है, पुन: लवण समुद्र को घेरकर धातकीखण्ड द्वीप है, इस धातकीखण्ड द्वीप में उत्तर एवं दक्षिण में एक-एक इष्वाकार पर्वत होने से धातकीखण्ड के पूर्व धातकीखण्ड एवं पश्चिम धातकीखण्ड ऐसे दो भाग हो गये हैं, पुन: धातकीखण्ड को घेरकर कालोदधि समुद्र है। इस कालोदधि समुद्र को घेरकर पुष्करवरद्वीप है, जिसकी परिधि के बीचों-बीच वलयाकार मानुषोत्तर पर्वत है, जिससे पुष्कवरद्वीप दो भागों में बंट गया है। जैसा कि पूर्व में बताया गया है इस मानुषोत्तर पर्वत तक ही मनुष्यों की सीमा है, इसके आगे नहीं। इस प्रकार जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड द्वीप और पुष्करार्ध (आधा पुष्करवर) द्वीप मिलकर ढाई द्वीप बनता है।
इन ढाई द्वीपों में पाँच मेरु हैं। जम्बूद्वीप के मध्य में सुदर्शन मेरु (सुमेरु), पूर्व धातकीखण्ड के मध्य में विजयमेरु, पश्चिम धातकीखण्ड के मध्य में अचल मेरु, पूर्व पुष्करार्ध द्वीप के बीचों-बीच में मंदरमेरु एवं पश्चिम पुष्करार्ध द्वीप के बीचों-बीच में विद्युन्माली मेरु।
ये पाँचों मेरु ढ़ाई द्वीप के अन्दर ही हैं बाहर नहीं। जम्बूद्वीप में षट् कुलाचल पर्वत हैं हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी, इन षट् कुलाचलों पर श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये छ: देवियाँ निवास करती हैं। इन जम्बूद्वीप के सरोवरों पर रहने वाली ये छहों देवियाँ सम्यग्दृष्टि होती हैं और भगवान के गर्भावतरण कल्याणक में तीर्थंकर माता की सेवा करने के लिए आती हैं। एक बात यहाँ विशेष ध्यान रखनी है कि जम्बूद्वीप में जन्में तीर्थंकरों का जन्माभिषेक सुमेरु पर्वत की पांडुक आदि शिलाओं पर होता है और यहीं के षट्कुलाचल की देवियाँ माता की सेवा करती हैं। धातकीखण्ड के दो भाग-पूर्व धातकीखण्ड और पश्चिम धातकीखण्ड हैं। इसमें पूर्व धातकीखण्ड में विजयमेरु है जिसके ऊपर वहाँ जन्में तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है। इस पूर्व धातकीखण्ड द्वीप में भी जम्बूद्वीप जैसी ही व्यवस्था है, षट्कुलाचल आदि हैं, वहाँ की श्री, ह्री आदि देवियाँ वहाँ के भरत क्षेत्र आदि में जन्मे तीर्थंकरों की माता की सेवा के लिए जाती हैं। अचल मेरु पश्चिम धातकीखण्ड में है, वहाँ के भरतक्षेत्र आदि में जन्म लेने वाले तीर्थंकरों का जन्माभिषेक अचलमेरु की पाण्डुक आदि शिलाओं पर होता है और वहाँ की देवियाँ माता की सेवा हेतु जाती हैं, ठीक इसी प्रकार पूर्व पुष्करार्ध में मंदरमेरु और पश्चिम पुष्करार्ध में विद्युन्माली मेरु हैं वहाँ-वहाँ के भरतक्षेत्र आदि में जन्में तीर्थंकरों का अभिषेक वहाँ-वहाँ के मेरु पर्वतों की पाण्डुक आदि शिलाओं पर होता है।इन षट्कुलाचलों पर जो श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी देवियाँ कमलों में निवास करती हैं, वे कमल पृथ्वीकायिक हैं, अकृत्रिम हैं। प्रत्येक देवियों के कमल में महल और महल में जिनमंदिर हैं। श्री देवी के परिवार कमल की संख्या १ लाख ४० हजार ११५ हैं। इन सबमें जिनमंदिर हैं और उन जिनमंदिरों में जिनप्रतिमाएं हैं।
जैसा कि वर्णन किया गया है जम्बूद्वीप के ठीक बीचों-बीच में सुदर्शन मेरु (सुमेरु) स्थित है तथा दक्षिण से उत्तर की ओर छ: कुलाचल और उनके निमित्त से ७ क्षेत्र हैं। छह कुलाचल क्रम से इस प्रकार हैं-हिमवन, महाहिमवन, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी, इन कुलाचलों द्वारा विभक्त होकर जो सात क्षेत्र बने हैं, वे हैं-भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत एवं ऐरावत। इनमें से भरत क्षेत्र मध्य में स्थित विजयार्ध पर्वत एवं गंगा-सिंधु नदियों के कारण छह खण्डों में विभक्त हो गया है, जिनमें से पाँच म्लेच्छ खण्ड एवं मध्य का एक आर्यखण्ड है। इसी प्रकार ऐरावत क्षेत्र में भी पाँच म्लेच्छ खण्ड एवं मध्य का एक आर्यखण्ड है।
इन भरत एवं ऐरावत क्षेत्रों में कर्मभूमि की व्यवस्था रहती है अर्थात् असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प रूप षट्क्रियाओं के आधार पर मानवीय संस्कृति का संचालन होता है तथा यहाँ से मनुष्य तपश्चरणादि के द्वारा कर्मों का नाश करके मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।
हैमवत-हैरण्यवत क्षेत्रों में जघन्य भोगभूमि, हरि-रम्यक क्षेत्रों में मध्यम भोगभूमि एवं देवकुरु-उत्तरकुरु में उत्तम ऐसी छह भोगभूमियाँ जम्बूद्वीप में है। भोगभूमि में कल्पवृक्षों से प्राप्त सामग्री द्वारा मानवीय संस्कृति का संचालन होता है तथा संयम के अभाव में यहाँ से मोक्ष प्राप्ति संभव नहीं है।जम्बूद्वीप के बीच में सुमेरु पर्वत है, जिसके दक्षिण में निषध एवं उत्तर में नील पर्वत है, यह मेरु विदेह के ठीक बीच में है। निषध पर्वत से सीतोदा और नील पर्वत से सीता नदी निकलकर सीता नदी पूर्व समुद्र में एवं सीतोदा नदी पश्चिम समुद्र में प्रवेश करती हैं। इसलिए इनसे विदेह के ४ भाग हो गये हैं। दो भाग मेरु के पूर्व की ओर और दो भाग मेरु के पश्चिम की ओर। एक-एक विदेह में ४-४ वक्षार पर्वत और ३-३ विभंगा नदियाँ होने से एक-एक विदेह के ८-८ भाग हो गये हैं। इस प्रकार इन चार विदेहों के ४²८·३२ भाग अर्थात् ३२ विदेह क्षेत्र बन गये हैं, इन ३२ विदेहों में भरत-ऐरावत क्षेत्र के समान ६-६ खण्ड हैं, जिनमे से मध्य के आर्यखण्डों में भी कर्मभूमि की व्यवस्था रहती है। इस प्रकार एक जम्बूद्वीप में भरत-ऐरावत संबंधी १-१ एवं ३२ विदेह संबंधी ३२ कुल १±१±३२·३४ कर्मभूमि हैं।इसी प्रकार पूर्व धातकीखण्ड, पश्चिम धातकीखण्ड, पूर्व पुष्करार्ध द्वीप एवं पश्चिम पुष्करार्ध द्वीप में भी जम्बूद्वीप के समान ही व्यवस्था होने से ३४-३४ कर्मभूमियाँ हुईं। अत: ढाई द्वीप में कुल मिलाकर ३४±३४±३४± ३४±३४ या ३४²५·१७० कर्मभूमि हुईं। ढाई द्वीप के आगे कोई भी कर्मभूमि नहीं है क्योंकि आगे असंख्यात द्वीप समुद्रों में जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था रहती है, मात्र अंतिम स्वयंभूरमण द्वीप के अंतिम आधे भाग तथा स्वयंभूरमण समुद्र में कर्मभूमि की व्यवस्था है, जहाँ मात्र पंचेन्द्रिय तिर्यंच एवं विकलत्रय जीव रहते हैं, मनुष्य नहीं।
ढाई द्वीप की १७० कर्मभूमियों में से प्रत्येक में तीर्थंकरों के जन्म होते हैं, अत: यदि मध्यलोक में एक साथ इन सभी कर्मभूमियों में तीर्थंकर जन्म लेवें तो अधिक से अधिक १७० तीर्थंकर एक समय में हो सकते हैं। यहाँ यह ध्यान देना आवश्यक है कि जब सभी भरत और ऐरावत क्षेत्रों में चतुर्थकाल का वर्तन होगा, तभी १७० तीर्थंकरों का होना संभव है अन्यथा नहीं।जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में निर्मित तेरहद्वीप रचना में आपको इन १७० तीर्थंकरों के समवसरण के दर्शन भी एक साथ प्राप्त हो सकेंगे। इन समवसरणों के साथ ही कर्मभूमियों में यथास्थान मंंदिर, मुनियों के दर्शन, श्रावकों की षट्क्रियाएँ, मुनियों को आहारदान, नंदीश्वर द्वीप में इन्द्रों का आगमन एवं उनके द्वारा की गई पूजा आदि के दृश्य भी आपको देखने को मिलेंगे।तेरहद्वीप पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव में ढाई द्वीप के पाँच भरतक्षेत्रों में जन्में पाँच तीर्थंकर भगवन्तों को विधिनायक बनाकर पाँच मेरुओं की पाण्डुकशिलाओं पर उनका जन्माभिषेक किया जायेगा। वे पाँच तीर्थंकर इस प्रकार हैं-
इन सबका वर्णन सुनने मात्र से महान पुण्य का संचय होता है और वही पुण्य वास्तविक अकृत्रिम जिनमंदिरों के दर्शन में काम आयेगा, इसीलिए इसे रुचिपूर्वक सुनकर, पढ़कर और हस्तिनापुर में पधारकर इस रचना के दर्शन करके अपनी आत्मा को समुन्नत बनावें, यही मंगलकामना है।
-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चंदनामती
आरति करो रे,
तेरहद्वीपों के जिनबिम्बों की आरति करो रे।। टेक.।।
तीन लोक में मध्यलोक के अंदर द्वीप असंख्य कहे।
उनमें से तेरहद्वीपों में अकृत्रिम जिनबिंब रहें।।
आरति करो, आरति करो, आरति करो रे,
चउ सौ अट्ठावन जिनमंदिर की आरति करो रे।।१।।
इनमें ढाई द्वीपों तक ही मनुज क्षेत्र कहलाता है।
पंच भरत पंचैरावत क्षेत्रों का दृश्य सुहाता है।
आरति करो, आरति करो, आरति करो रे,
श्रीपंचमेरु के जिनबिम्बों की आरति करो रे।।२।।
पंचम क्षीर समुद्र के जल से प्रभु का जन्म न्हवन होता।
अष्टम द्वीप नंदीश्वर में इन्द्रों द्वारा अर्चन होता।।
आरति करो, आरति करो, आरति करो रे,
कुण्डलवर और रुचकवर द्वीप की आरति करो रे।।३।।
इन सबका वर्णन तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में मिलता है।
दर्शन कर साक्षात् पुण्य का कमल हृदय में खिलता है।।
आरति करो, आरति करो, आरति करो रे,
ढाई द्वीपों के समवसरण की आरति करो रे।।४।।
गणिनीप्रमुख ज्ञानमती माताजी ने हमें बताया है।
हस्तिनापुर में यह रचना जिनमंदिर में बनवाया है।।
आरति करो, आरति करो, आरति करो रे,
‘‘चन्दनामती’’ इस अद्भुत कृति की आरति करो रे।।५।।
-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चंदनामती
तर्ज-मेरे देश की धरती………
हस्तिनापुरी में तेरहद्वीप की रचना स्वर्णमयी है….
हस्तिनापुरी में……..।।
जहाँ खुले गगन में जम्बूद्वीप की, रचना जनमनहारी है।
वहीं जिनमंदिर में तेरहद्वीप की, रचना लगती प्यारी है।।
चउशत अट्ठावन चैत्यालय…….
चउशत अट्ठावन चैत्यालय में जिनवर बिम्ब विराज रहे।
उस गोलाकार विशाल जिनालय में स्वर्णिम जिनधाम रहे……
हस्तिनापुरी में……..।।१।।
जहाँ ध्यान का मंदिर और कमल मंदिर रचनाएं प्यारी हैं।
वहीं तेरहद्वीप जिनालय में पर्वत नदियां भी न्यारी है।।
इक सौ सत्तर हैं समवसरण………..
इक सौ सत्तर हैं समवसरण, प्रतिमाएं चतुर्मुखी राजें।
बीचों बिच देखो पंचमेरु पर्वतों की स्वर्ण छवी भासे…….
हस्तिनापुरी में……..।।२।।
इस मानव निर्मित स्वर्ग का सुख, सब सुख से ज्यादा सुखकर है।
गणिनी माता श्री ज्ञानमती की, तप किरणों से मनहर है।।
हरशीश जहाँ झुक जाता है…..
हरशीश जहाँ झुक जाता है, दर्शन से अन्तर ज्योति जगे।
‘‘चन्दनामती’’ इस तीर्थ की महिमा हर तीरथ से अलग लगे।
हस्तिनापुरी में……..।।३।।
तर्ज-मेरे देश की धरती……… -प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चंदनामती
हस्तिनापुरी में तेरहद्वीप की रचना स्वर्णमयी है….
हस्तिनापुरी में……..।।
जहाँ खुले गगन में जम्बूद्वीप की, रचना जनमनहारी है।
वहीं जिनमंदिर में तेरहद्वीप की, रचना बनी सुहानी है।।
उस गोलाकार विशाल जिनालय की सुन्दर सी छवी है……
हस्तिनापुरी में……..।।१।।
जहाँ ध्यान का मंदिर और कमल मंदिर रचनाएं प्यारी हैं।
वहीं तेरहद्वीप जिनालय में पर्वत नदियां भी न्यारी है।।
बीचों बिच देखो पंचमेरु पर्वतों की स्वर्ण छवी है…….
हस्तिनापुरी में……..।।२।।
इस मानव निर्मित स्वर्ग का सुख, सब सुख से ज्यादा सुखप्रद है।
गणिनी माता श्री ज्ञानमती की तप किरणों से मनहर है।।
‘‘चन्दनामती’’ इस तीर्थ की सचमुच जग में अलग छवी है
हस्तिनापुरी में……..।।३।।
-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चंदनामती
तर्ज-तुम करो प्रभु से प्यार………..
तुम करो पंचकल्याण, अवसर आया है।
बना तेरहद्वीप महान, अवसर आया है।।टेक.।।
पहला अवसर आया जग में, पांच विधीनायक जिनवर के।
हो रहे पंचकल्याण, अवसर आया है।।तुम करो.।।२।।
पाँच भरत क्षेत्रोें के जिनवर, जन्मे हैं ये पाँच जगह पर।
यहाँ मात-पिता भी पाँच, अवसर आया है।।तुम करो.।।३।।
रोम-रोम पुलकित हो जाता, प्रभू जनम जब देखा जाता।
यहाँ सौधर्मेन्द्र भी पाँच, अवसर आया है।।तुम करो.।।३।।
धरती-अम्बर सारे खुश हैं, धनकुबेर करें रत्नवृष्टि हैं।
यहाँ धनकुबेर भी पाँच, अवसर आया है।।तुम करो.।।४।।
पंचमेरु की पाँच शिला पर, पाँच तीर्थंकर जन्म न्हवन कर।
करो जय जयकार महान, अवसर आया है।।तुम करो.।।५।।
ज्ञानमती माता ने बताया, तब हमने यह अवसर पाया।
‘‘चन्दना’’ करे गुणगान, अवसर आया है।।तुम करो.।।६।