आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने द्रव्य संग्रह में जीवद्रव्य के नौ अधिकारों का वर्णन करते हुए कहा है कि जीव संसारी है-
पुढविजलतेउवाऊ, वणफ्फदी विविहथावरेइंदी।
विगतिगचदुपंचक्खा, तसजीवाहोंतिसंखादी।।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये पाँच प्रकार के स्थावर एकेन्द्रिय जीव होते हैं। यहाँ स्थावर जीव का अर्थ स्थिर होना नहीं है। इन एकेन्द्रिय जीवों के केवल एक इन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण हैं जिनसे ये जीते हैं। दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ये त्रस जीव हैं इसमें दो इन्द्रिय में शंख आदि, तीन इन्द्रिय में चींटी आदि, चार इन्द्रिय में भौंरा, मक्खी आदि तथा पाँच इन्द्रिय में मनुष्य आदि आते हैं।
जैन भूगोल के अनुसार हमें यह जानना है कि ये जीव रहते कहाँ हैं, इनके स्थान कहाँ हैं? तो तीन लोक में अधोलोक में तो एकेन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय जीव हैं, ऊर्ध्वलोक में एकेन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय जीव हैं और मध्यलोक में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सभी जीव पाए जाते हैं। इस मध्यलोक में असंख्यात द्वीप समुद्र हैं जिसमें सबसे पहला द्वीप जम्बूद्वीप है जिसकी प्रतिकृति हस्तिनापुर में बनी है और इसी के साथ ही यहाँ तेरहद्वीप की रचना भी बन रही है।
ये तेरहद्वीप क्या हैं? कहाँ हैं? मैं आपको संक्षेप में बताऊँ-मध्यलोक के असंख्यात द्वीप समुद्रों में प्रथम द्वीप जम्बूद्वीप है, उसको घेरकर लवण समुद्र है, इसमें जम्बूद्वीप १ लाख योजन प्रमाण है तथा लवण समुद्र उससे दूना अर्थात् २ लाख योजन प्रमाण है। लवण समुद्र को घेरकर चार लाख योजन विस्तृत धातकीखण्ड द्वीप है इसे घेरकर आठ लाख योजन विस्तार वाला कालोदधि समुद्र है।
इसको घेरकर सोलह लाख योजन विस्तृत पुष्करवर द्वीप है और इसके बाद ३२ लाख योजन वाला पुष्करवर समुद्र है। पुष्करद्वीप के ठीक बीच में चूड़ी के समान आकार वाला एक मानुषोत्तर पर्वत है। इस पर्वत तक ही मनुष्य लोक की सीमा है। इसके आगे भी इसी प्रकार क्रम से एक द्वीप और एक समुद्र करके असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र हैं जिनका विस्तार क्रम से दूना-दूना होता चला गया है।
सर्वप्रथम हमें इन तेरह द्वीपों के नाम जानना है। सबसे पहला द्वीप है-जम्बूद्वीप, दूसरा है धातकीखण्ड द्वीप, तीसरा-पुष्करवरद्वीप, चौथा-वारुणीवर द्वीप है, पाँचवा द्वीप है-क्षीरवर द्वीप, इस द्वीप को घेरे हुए क्षीरवर नाम से समुद्र है जिसका जल क्षीर अर्थात् दूध के समान है, प्रत्येक तीर्थंकर भगवान के जन्म के समय इसी समुद्र का जल लाकर इन्द्र एवंं देवगण भगवान का जन्माभिषेक करते हैं।
वहाँ मनुष्य नहीं जा सकते हैं, कोई भी कितने भी शक्तिशाली ऋद्धिसम्पन्न मनुष्य या विद्याधर क्यों न हों वहाँ नहीं पहुँच सकते हैं। छठा द्वीप है-घृतवर द्वीप, सातवाँ द्वीप है-क्षौद्रवर द्वीप, आठवाँ द्वीप है-नंदीश्वर द्वीप, इस आठवें द्वीप में अकृत्रिम चैत्यालय हैं जिनकी हम और आप आष्टान्हिक पर्व में पूजन, जाप्यादि करते हैं।
नवमां द्वीप है-अरुणवर द्वीप, दशवाँ है-अरुणाभास द्वीप, ग्यारहवाँ-कुण्डलवर द्वीप, बारहवाँ-शंखवर द्वीप तथा तेरहवाँ-रुचकवर द्वीप है। इन सभी द्वीपों के बाद जो-जो समुद्र हैं उसमें प्रथम लवण समुद्र एवं दूसरे कालोदधि समुद्र को छोड़कर शेष सभी द्वीप के ही नाम वाले हैं जैसे पुष्करवर समुद्र, वारुणीवर समुद्र आदि।
चूँकि पुष्करद्वीप के मानुषोत्तर पर्वत से दो भाग हो गये-इसीलिए मानुषोत्तर पर्वत से पहले का भाग पुष्करार्ध द्वीप कहलाता है, यह आधा द्वीप माना जाता है। पुन: इस पुष्करार्ध द्वीप के उत्तर-दक्षिण में दो इष्वाकार पर्वत होने से पुष्करार्ध द्वीप के दो भेद हो गये-पूर्व पुष्करार्ध और पश्चिम पुष्करार्ध। यहाँ तक ही मनुष्यों का अस्तित्व है इसके आगे नहीं। द्वीपों में भी वैसे तो असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं परन्तु जम्बूद्वीप से लेकर तेरहवें रुचकवर द्वीप तक ही अकृत्रिम, अनादिनिधन अकृत्रिम जिनमंदिर हैं, उसके आगे नहीं हैं। इन सब मंदिरों की संख्या ४५८ है।
अब जानना है कि तेरहद्वीप रचना में वे अकृत्रिम जिनमंदिर कहाँ-कहाँ हैं? मध्यलोक के
४५८ जिनमंदिरों की पूजा की जाती है? ये अकृत्रिम, शाश्वत, अनादिनिधन जिनमंदिर हैं इसमें जम्बूद्वीप में
७८ जिनमंदिर हैं, धातकीखण्ड में इनके दूने १५६, पुन: ४ इष्वाकार एवं ४ मानुषोत्तर के मिलाकर ७८+१५६+ १५६+४+४=३९८। पुष्करार्ध द्वीप में १५६, ऐसे ३९८ जिनमंदिर हुए, चौथे, पाँचवे, छठें, सातवें द्वीप में जिनमंदिर नहीं हैं यद्यपि इसमें देवों के भवन हैं और उन देवभवनों में जिनमंदिर हैं, परन्तु उनकी गणना यहाँ नहीं ली गई है।
आठवें नंदीश्वर द्वीप में ५२ जिनमंदिर हैं, नवमें, दशमें एवं बारहवें द्वीप में भी अकृत्रिम जिनमंदिर नहीं हैं, ग्यारहवें एवं तेरहवें द्वीप में ४-४ जिनमंदिर हैं। इस प्रकार कुल ४५८ जिनमंदिर हैं। उन्हीं तेरहद्वीपों को यहाँ जम्बूद्वीप स्थल के परिसर में एक बड़े हॉल के अंदर (तेरहद्वीप जिनालय) में दर्शाया गया है, यह रचना अद्वितीय और बहुत सुन्दर बन रही है, उसमें जो विशेष जिनमंदिर हैं वही यहाँ दिखाए जा रहे हैं। इसमें ढ़ाई द्वीपों में पाँच मेरू हैं-सुदर्शन मेरु, विजयमेरु, अचल मेरु, मंदर मेरु और विद्युन्माली मेरु।
ये पाँचों मेरु ढ़ाई द्वीप के अन्दर ही हैं बाहर नहीं। जम्बूद्वीप में षट् कुलाचल पर्वत हैं हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी, इन षट् कुलाचलों पर श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये छ: देवियाँ निवास करती हैं। इन जम्बूद्वीप के सरोवरों पर रहने वाली ये छहों देवियाँ सम्यग्दृष्टि होती हैं और भगवान के गर्भावतरण कल्याणक में तीर्थंकर माता की सेवा करने के लिए यह मध्यलोक में आती हैं। एक बात यहाँ विशेष ध्यान रखनी है कि जम्बूद्वीप में जन्में तीर्थंकरों का जन्माभिषेक सुमेरु पर्वत की पांडुक आदि शिलाओं पर होता है और यहीं के षट्कुलाचल की देवियाँ माता की सेवा करती हैं।
धातकीखण्ड के दो भाग-पूर्व धातकीखण्ड और पश्चिम धातकीखण्ड हैं। इसमें पूर्व धातकीखण्ड में विजयमेरु है जिसके ऊपर वहाँ जन्में तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है। इस पूर्व धातकीखण्ड द्वीप में भी जम्बूद्वीप जैसी ही व्यवस्था है, षट्कुलाचल आदि हैं, वहाँ की श्री, ह्री आदि देवियाँ वहाँ जन्मे तीर्थंकरों की माता की सेवा के लिए जाती हैं। अचल मेरु पश्चिम धातकीखण्ड में है, वहाँ जन्म लेने वाले तीर्थंकरों का जन्माभिषेक अचलमेरु की पाण्डुक आदि शिलाओं पर होता है और वहाँ की देवियाँ माता की सेवा हेतु जाती हैं, ठीक इसी प्रकार पूर्व पुष्करार्ध में मंदरमेरु और पश्चिम पुष्करार्ध में विद्युन्माली मेरु हैं वहाँ-वहाँ जन्में तीर्थंकरों का अभिषेक वहाँ-वहाँ के मेरु पर्वतों की पाण्डुक आदि शिलाओं पर होता है।
इन षट्कुलाचलों पर जो श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी देवियाँ कमलों में निवास करती हैं। ये कमल पृथ्वीकायिक हैं, अकृत्रिम हैं। प्रत्येक देवियों के कमल में महल और महल में जिनमंदिर हैं। श्री देवी के परिवार कमल की संख्या १ लाख ४० हजार ११५ हैं। इन सबमें जिनमंदिर हैं और उन जिनमंदिरों में जिनप्रतिमाएं हैं। इन सबका वर्णन सुनने मात्र से महान पुण्य का संचय होता है और वही पुण्य अकृत्रिम जिनमंदिरों के दर्शन में काम आयेगा।