—आर्यिका स्वर्णमती माताजी (संघस्थ गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी)
मार्ग और अवस्थिति-‘श्री दिगम्बर जैन अतिशय-क्षेत्र तेर’ महाराष्ट्र प्रान्त के उस्मानाबाद जिले में अवस्थित है। उस्मानाबाद से यह स्थान १९ किमी. है और वार्शी से ४९ किमी. है। पक्की सड़क है। उस्मानाबाद से तेर के लिए एस.टी. बस जाती है। यह क्षेत्र तेर गाँव से बाहर वाटर वक्र्स के ठीक सामने खेतों में वृक्षों की छाया में स्थित है। गाँव में दिगम्बर जैनों का कोई घर नहीं है। क्षेत्र का पुजारी गाँव में रहता है। वह प्रात:काल मंदिर में आकर पूजा-प्रक्षाल कर जाता है। दर्शनार्थियों को गाँव में जाकर पुजारी से मंदिर की चाबी लानी पड़ती है। रेल-मार्ग से कुडुँवाड़ी-लातूर शाखा लाइन (एस.सी.रेलवे) पर तेर स्टेशन है। स्टेशन से लगभग ३ किमी. गाँव है। किन्तु यहाँ ठहरने आदि की कोई व्यवस्था नहीं है। उस्मानाबाद में ठहरने की सुविधा है। इस क्षेत्र के निकट तेरणा नदी बहती है तथा यहाँ से ६ किमी. दूर नवनिर्मित हवाई अड्डा है।
अतिशय क्षेत्र- यह एक अतिशय क्षेत्र है। क्षेत्र पर अहाते के बाहर एक बावड़ी है। उसके संबंध में एक किंवदन्ती प्रचलित है कि प्राचीनकाल में इस क्षेत्र पर यात्री बहुसंख्या में आते थे। उन्हें भोजन पकाने या अन्य किसी काम के लिए बर्तनों की जब आवश्यकता होती थी तो वे एक कागज पर अपेक्षित बर्तनों के नाम लिखकर उस बावड़ी में डाल देते थे। थोड़ी देर के पश्चात् सूची वाले बर्तन बावड़ी के जल पर बहते हुए आ जाते थे। यात्री उन्हें निकाल लेते थे। काम हो जाने पर वे पुन: बर्तनोें को बावड़ी में डाल देते थे और बर्तन थोड़ी देर बाद जल में अदृश्य हो जाते थे। एक बार एक यात्री ने किसी बड़े बर्तन का नाम पर्ची पर लिखकर पर्ची बावड़ी में डाल दी। थोड़ी देर बाद वह बर्तन जल से बाहर आ गया। यात्री उसे निकालकर ले गया। किन्तु उसने काम हो जाने पर बर्तन बावड़ी को नहीं लौटाया। एक व्यक्ति की इस बदनीयती के कारण बावड़ी नाराज हो गयी। तब से उसने बर्तन देना बंद कर दिया। उत्तरप्रदेश के मदनपुर क्षेत्र पर भी वहाँ की बावड़ी के सम्बंध में बिल्कुल इसी प्रकार की किंवदन्ती प्रचलित है। तेर की बावड़ी के संबंध में एक अन्य महत्वपूर्ण सूचना मिली कि इस बावड़ी का जल पहले बड़ा स्वादिष्ट और आरोग्यप्रद था। दूर-दूर से रुग्ण व्यक्ति यहाँ आते थे और बावड़ी का जल तथा यहाँ की वायु का सेवन करके वे स्वस्थ हो जाते थे। क्षेत्र पर एक अद्भुत बात और सुनने में आयी है जिसका उल्लेख करना आवश्यक है। कहते हैं, इस मंदिर में ऐसी र्इंटों का उपयोग किया गया है जो जल में तैरती हैं। कुछ वर्ष पूर्व मंदिर की दीवार में खिड़कियाँ बनायी गयी थीं। दीवार तोड़ने से जो र्इंटे निकलीं वे जल में डालने पर डूबती नहीं हैं, बल्कि तैरती रहती हैं। इस आश्चर्यजनक बात की भनक अनेक लोगों के कानों तक पहुँची तो वे उन र्इंटों को उठा ले गये। किन्तु वहाँ पड़े हुए मलवे में अब भी कुछ र्इंटें या उनके खण्ड तलाश करने पर मिल जाते हैं। इस घटना में सच्चाई कहाँ तक है यह एक अलग विचारणीय बात है लेकिन इससे रामायण की उस घटना का समर्थन हो जाता है जब लंका पर आक्रमण करने के लिए रामचन्द्र जी की आज्ञा से उस काल के प्रसिद्ध वास्तुविद्या विशारद नल और नील ने समुद्र के ऊपर ऐसे सेतु का निर्माण किया, जिसमें स्तंभ या आधार नहीं थे। अवश्य ही उन्होंने तेर के इस मंदिर में प्रयुक्त इन र्इंटोें के समान ही किन्हीं विशेष प्रकार की ईटों या पत्थरों का प्रयोग किया होगा। सिरपुर (अन्तरिक्ष पाश्र्वनाथ) के निकटस्थ पवली ग्राम के प्राचीन जैन मंदिर में भी ऐसी ईटें मिलने का उल्लेख है।
इतिहास- तेर नगर का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। पौराणिक दृष्टि से इसका इतिहास नल और नील के काल तक जा पहुँचता है। उस समय तेर बहुत बड़ा नगर था। नल और नील इस नगर में आये थे। इस संबंध में हरिषेण कथाकोष, करकण्डुचरिउ आदि ग्रंथों में महत्वपूर्ण विवरण उपलब्ध होता है। इनमें बताया है कि विजयार्ध पर्वत पर रहने वाले रूप और यौवन से सम्पन्न नल और नील नामक दो भाई तेर नगर में आये। उन्होंने इस नगर के निकट पर्वत पर भगवान पाश्र्वनाथ की एक लयण (गुफा) का निर्माण किया। उसमें सहस्र स्तंभ बने थे। किन्तु निरन्तर जल की धारा पड़ने से वह लयण नष्ट हो गया। इसके पश्चात् उपर्युक्त ग्रंथों के अनुसार भगवान पाश्र्वनाथ के तीर्थ में हुआ करकण्डु नरेश दिग्विजय करता हुआ यहाँ आया था। इसके बाद अनेक शताब्दियों तक इस नगर का नाम अंधकार में डूबा रहा। किन्तु १०वीं शताब्दी में शिलाहार नरेशों के काल में इस नगर को विशेष महत्व प्राप्त हो गया। इन नरेशों की महाराष्ट्रीय शाखा का शासन कराड़, कोल्हापुर, मिरज आदि पर था और ये सभी नरेश ‘तगरपुर-वराधीश्वर’ विरुद धारण करते थे। तेर का नाम ही उस समय तगरपुर था। इस शाखा के राज्य का संस्थापक जतिग था। राष्ट्रकूट नरेशों के ह्रास काल में ये नरेश एक प्रकार से स्वतंत्र हो गये। इन्होंने ११वीं शताब्दी के पूर्वाद्र्ध में दक्षिण कोंकण को भी अपने राज्य में मिला लिया था। जतिग के पश्चात् इस वंश में गण्डरादित्य और विजयादित्य प्रसिद्ध नरेश हुए। इस वंश का ध्वज स्वर्ण गरुड़ ध्वज था। ये नरेश अपने आपको विद्याधर नरेश जीमूतकेतु (जिसने गरुड़ को अपने शरीर का सम्पूर्ण मांस खिला दिया था) के पुत्र जीमूतवाहन के वंशज कहते थे। इन नरेशों के शासनकाल में तेर (तगर) की श्रीसमृद्धि बहुत बढ़ी। शिलाहार नरेशों के शासनकाल के पश्चात् तेर का वैभव धीरे-धीरे समाप्त हो गया। शिलाहार वंशी नरेशों के शासन-काल में (संभवत: गण्डरादित्य के शासनकाल में) तेर में वर्तमान जैन मंदिर का निर्माण हुआ था और अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा हुई थी। स्वयं गण्डरादित्य ने मिरज जिले में गण्डर समुद्र नामक एक विशाल तालाब का निर्माण कराया था और उसके तट पर अनेक जैन, हिन्दू और बौद्ध मंदिर बनवाये थे। उन मंदिरों के रख-रखाव के लिए उसने अनेक गाँव भी दान में दिये थे। यह नरेश १२वीं शताब्दी के पूर्वाद्र्ध में हुआ था।
उत्तरकालीन साहित्य में तेर- शिलाहार वंश के बाद संभवत: तेर का वैभव क्षीण हो गया, किन्तु लगता है, इसका एक अतिशय क्षेत्र के रूप में महत्व कई शताब्दियों तक कायम रहा। भट्टारक युग के कई लेखकों ने इसका उल्लेख किया है। १६वीं शताब्दी के अंतिम चरण तथा १७वीं शताब्दी के प्रारंभ में हुए ब्रह्मज्ञानसागर ने ‘सर्वतीर्थ वंदना’ में तेर के संबंध में एक छप्पय लिखा है जो इस प्रकार है-
‘तेरनपुर सुप्रसिद्ध स्वर्गपुरी सम जाणो।
वर्धमान जिनदेव तास तिहाँ चैत्य बखाणो।
पाप हरत सुख करत अतिशय श्रीजिनकेरो।
भविक लोक भयहरत दूर करत भवपेरो।
समवसरण जिनवीर को तेर थकी पाछ्यो वल्यो।
ब्रह्मज्ञान जग उद्धरण पावापुर सर शिव मल्यो।।३४।।’
ब्रह्मज्ञानसागर के इस छप्पय से लगता है कि उनके काल में तेरनगर वैभव सम्पन्न था, यहाँ की मूर्ति अतिशय सम्पन्न थी और उनके काल में भी यह धारणा प्रचलित थी कि तेर में भगवान महावीर का समवसरण आया था। काष्ठासंघी भट्टारक रत्नभूषण के शिष्य जयसागर ने ‘तीर्थ जयमाला’ में ‘सुतेरनयर वन्दौं वर्धमान’ इस पद्यांश द्वारा तेरनगर के वर्धमान स्वामी की वंदना की है। जयसागर जी का समय १७वीं शताब्दी का पूर्वार्ध निश्चित किया गया है। उपर्युक्त अवतरणों से यह तो सुनिश्चित है ही कि तेर क्षेत्र की ख्याति १७वीं शताब्दी के पूर्वाद्र्ध तक तो निश्चित रूप से थी।
क्षेत्र-दर्शन- इस क्षेत्र पर दोहरा परकोटा बना हुआ है। बाहरी परकोटे से अंदर प्रवेश करने पर मंदिर के चारों ओर काफी बड़ा मैदान मिलता है। पुन: दूसरे परकोटे के प्रवेश-द्वार से प्रवेश करते हैं। दायीं ओर हेमाड़पन्थी महावीर मंदिर है। उसके गर्भगृह में वेदी पर भगवान महावीर की ५ फुट ३ इंच ऊँची और ५ फुट चौड़ी कृष्ण पाषाण की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। वक्ष पर श्रीवत्स है। स्कंध पर जटाएँ हैं। चार वर्ष पूर्व इस प्रतिमा पर लेप किया गया था, जिससे मूर्ति लेख और लांछन दब गये हैं। मूलनायक के आगे पाषाण और धातु की १-१ प्रतिमा आसीन है। वेदी के आगे एक छोटा चबूतरा है। परिक्रमा-पथ में पृष्ठ-भित्ति में तीन आले बने हुए हैं। मध्य आले में श्यामवर्ण २ फुट ७ इंच ऊँचे पद्मासन मुद्रा में ऋषभदेव विराजमान हैं। सिर के ऊपर पाषाणफलक में छत्रत्रयी है। वक्ष पर श्रीवत्स अंकित है। कंधे पर जटाएँ हैं। शेष दोनों आलों में बलुए वर्ण की २ फुट ७ इंच उन्नत पाश्र्वनाथ की सप्तफणमण्डित खड्गासन मूर्तियाँ हैं। दोनों मूर्तियों के पृष्ठभाग में सर्प वलय बना है। दायीं ओर की मूर्ति के आगे ८ इंच लम्बे चरण बने हुए हैं। यहाँ पाश्र्वनाथ की ३ फुट ऊँची मूर्ति है। गर्भगृह से निकलने पर बायीं ओर पाश्र्वनाथ की ३ फुट ऊँची बलुए पाषाण की खड्गासन मूर्ति है। उसके आगे चरण हैं। पादपीठ पर बायीं ओर स्पष्ट लेख अंकित है। इसके पाश्र्व में एक फलक में २ फुट ३ इंच ऊँची खड्गासन मूर्ति है। बाहर बरामदे में आने पर बायीं ओर ३ फुट ३ इंच ऊँची खण्डित खड्गासन मूर्ति रखी है। आगे चरण हैं। दायीं ओर ५ मूर्तियाँ रखी हुई हैं-३ फुट १० इंच ऊँचे पाषाणफलक में खड्गासन, ५ फुट ४ इंच ऊँचे स्तंभ में सर्वतोभद्रिका, २ फुट ५ इंच ऊँचे स्तंभ में सर्वतोभद्रिका, १ फुट ५ इंच के फलक में खड्गासन प्रतिमा और ३ फुट १० इंच उन्नत पाश्र्वनाथ की खड्गासन प्रतिमा। एक पाषाण में चरण बने हैं। ये सभी प्रतिमाएँ बलुए पाषाण की हैं, प्राचीन हैं और पर्याप्त घिस गई हैं। इस मंदिर के आगे खुला सहन है। बायीं ओर (परकोटे के प्रवेश-द्वार के ठीक सामने) हेमाड़पन्थी पाश्र्वनाथ मंदिर है। मंदिर के द्वार के बाहर दायीं ओर ३ फुट १० इंच लम्बी और २ फुट २ इंच चौड़ी शिला पर २४ तीर्थंकरों के चरण चिन्ह बने हुए हैं। इसके आगे एक पाषाण पर १० इंच लम्बे चरण चिन्ह हैं। कहा जाता है कि इस नगर में भगवान महावीर का समवसरण आया था। उनकी स्मृति में ये चरण-चिन्ह अंकित किये गये हैं। पाश्र्वनाथ मंदिर में केवल गर्भगृह बना हुआ है। पाश्र्वनाथ भगवान की ५ फुट ९ इंच ऊँची कृष्ण वर्ण खड्गासन प्रतिमा है। पृष्ठ भाग में सर्पवलय है। इसके अतिरिक्त वेदी पर ११ पाषाण प्रतिमाएँ और हैं जिनमें ४ सर्वतोभद्रिका हैं। पाश्र्वनाथ मंदिर के बगल में एक कमरे का फर्श तथा एक कमरा बना हुआ है। वर्तमान में इन दोनों मंदिरों की दशा बहुत खराब है। भित्तियों में बड़े-बड़े वृक्ष उग आये हैं। इन मंदिरों के परकोटे के आगे एक लघु पाश्र्वनाथ मंदिर है। इसकी दशा भी बहुत ही शोचनीय है। मंदिर में संभवत: कभी झाड़ू भी नहीं लगती है। इसमें प्रवेश करने पर दुर्गन्ध आती है। दीवारों पर मकड़ियों के जाले लगे हुए हैं। इस मंदिर में सामने दीवार में २ फुट १० इंच ऊँचे एक शिलाफलक में पाश्र्वनाथ की एक खड्गासन मूर्ति है। बायीं ओर एक पद्मासन मूर्ति है। उसके नीचे पक्षी बने हुए हैं। दायीं ओर एक खड्गासन मूर्ति है। बगल में भक्त हाथ जोड़े हुए खड़े हैं। पाश्र्वनाथ की प्रतिमाएँ अतिप्राचीन हैं एवं पुरा वास्तु संग्रहालय है। इसके दोनों पाश्र्वों में सर्प-मूर्तियाँ बनी हुई हैं। दायीं ओर पाँच सर्प कुण्डली मारे और फण पैâलाये दिखाई पड़ते हैं। बायीं ओर वृक्षाकार आकृति में अधोभाग में ५ सर्पफण तथा ऊपर के गुच्छक में २५ सर्पफण बने हुए हैं। बायीं ओर की दीवार में ५ फुट ९ इंच ऊँचे स्तंभ में सर्वतोभद्रिका प्रतिमा है। दायीं ओर दीवार में ३ फुट ७ इंच ऊँचे फलक में पाश्र्वनाथ की खड्गासन प्रतिमा है तथा अधोभाग में दो खड्गासन प्रतिमाएँ हैं। इस मंदिर के ऊपर भी अन्य मंदिरों के समान शिखर हैं। इसके निकट ही वह बावड़ी है, जिसके चमत्कारों का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। बावड़ी के ऊपर चार पाषाण-सर्प बने हुए हैं। पास ही एक ऊँची गुमटी में चरण विराजमान हैं। उसके निकट एक देवड़ी में भी चरण हैं। ये दोनों किन्हीं मुनियों की समाधियाँ हैं।
वार्षिक मेला- यहाँ प्रतिवर्ष माघ शुक्ला ५ और ६ को वार्षिक मेला लगता था। इस अवसर पर भगवान की पालकी निकलती थी। लगभग ४-५ सौ यात्री इसमें सम्मिलित होते थे। अब प्रत्येक अमावस्या को मेला लगता है। क्षेत्र पर उपलब्ध सुविधाएँ- यहाँ १५ कमरे हैं तथा २ हाल हैं। एक शासकीय गेस्ट हाउस है। भोजनशाला आदि नहीं है।