जब तक निरपेक्ष त्याग नहीं होता है, तब तक साधक की चित्तशुद्धि नहीं होती है और जब तक चित्तशुद्धि (उपयोग की निर्मलता) नहीं होती है, तब तक कर्मक्षय वैसे हो सकता है ? लोभमूलानि पापानि, रसमूलानि व्याधय:। स्नेहमूलानि शोकानि, त्रीणि त्यक्त्वा सुखी भव।।
लोभ पापों का मूल है, रसासक्ति रोगों का मूल है और स्नेह, शोकों का मूल है। इन तीनों का त्याग कर सुखी बनो। विरज्य संपद: सन्त:, त्यजन्ति किमिहाद्भुतम्। नावमीत िंक जुगुप्सावान् सुभुक्तमपि भोजनम्।।
सम्पदाओं से विरक्त होकर यदि संत उन्हें छोड़ते हैं तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि ग्लानि होने पर सुभुक्त—भोजन का वमन हर एक ने किया है। णिव्वेदतियं भावइ, मोहं चइऊण सव्वदव्वेसु। जो तस्स हवे चागो, इदि भणिदं जिणवरिदेहिं।।
सब द्रव्यों में होने वाले मोह को त्यागकर जो त्रिविध निर्वेद से अर्थात् संसार, शरीर और भोगों के प्रति वैराग्य से अपनी आत्मा को भावित करता है, उसके त्याग धर्म होता है, ऐसा जिनेवश्वर ने कहा है।