लोक के बहुमध्य भाग में एक राजू चौड़ी, एक राजू मोटी और कुछ कम १३ राजू ऊँची त्रसनाली है, जो कि त्रस जीवों का निवास क्षेत्र है, अर्थात् इस त्रसनाली के भीतर ही त्रस जीव पाये जाते हैं बाहर नहीं। तेरह राजू में कुछ कम जो कहा है उस कमी का प्रमाण-
३२१६२२४१-२/३ धनुष कम १३ राजू।
इस त्रसनाली के बाहर भी उपपाद, मारणांतिकसमुद्घात और केवलीसमुद्घात इन तीन अपेक्षाओं से त्रस जीवों का अस्तित्व पाया जाता है।
उपपाद-किसी भी विवक्षित भव के प्रथम समय की पर्याय को उपपाद कहते हैं। लोक के अंतिम वातवलय में स्थित कोई जीव मरण करके विग्रहगति द्वारा त्रसनाली में त्रस पर्याय से उत्पन्न होने वाला है, वह जीव जिस समय मरण करके प्रथम मोड़ा लेता है, उस समय त्रस नाम कर्म का उदय आ जाने से त्रस पर्याय को धारण करने पर भी त्रसनाली के बाहर है। इसलिये उपपाद की अपेक्षा त्रस जीव त्रसनाली के बाहर रहता है।
मारणांतिक समुद्घात-त्रसनाली में स्थित किसी जीव ने अंतर्मुहूर्त पहले मारणांतिक समुद्घात के द्वारा त्रसनाली के बाहर के प्रदेशों का स्पर्श किया क्योंकि उसको मरण करके वहीं स्थावर में उत्पन्न होना है तो उस समय में भी त्रस जीव का अस्तित्व त्रस नाली के बाहर पाया जाता है।
केवली समुद्घात-जब आयु कर्म की स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र ही बाकी हो परन्तु नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म की स्थिति अधिक हो तब सयोग केवली भगवान् के दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात होता है और ऐसा होने से तीनों कर्मों की स्थिति भी आयु कर्म के बराबर हो जाती है। इन तीनों अवस्थाओं में त्रस जीव त्रसनाली के बाहर भी पाये जाते हैं।