इस लोक में ऐसा एक भी प्राणी नहीं है जो दु:ख निवृत्ति और सुख प्राप्ति का इच्छुक न हो। यही कारण है कि धर्मतीर्थ के प्रवर्तक तीर्थंकर अनादिकाल से सुख प्राप्ति के प्रधान साधनभूत मोक्षमार्ग का उपदेश देते आ रहे हैं। जिस प्रकार आत्मस्वरूप परिज्ञान और परमात्म स्वरूप परिज्ञान का होना मोक्षमार्ग के लिए आवश्यक है, उसी प्रकार यथार्थ त्रिलोक-परिज्ञान का होना भी आवश्यक है।
सर्वज्ञ भगवान ने लोकालोक को प्रत्यक्ष देखकर उसके स्वरूप को अपनी दिव्यध्वनि में बताया है—अत: ये त्रिलोक-स्वरूप कल्पित या अनुमानित नहीं है।
‘लोक’ शब्द ‘लुक्’ धातु से बना है जिसका अर्थ है देखना। अत: जितने क्षेत्र में अनंतानंत जीव द्रव्य, जीवों से भी अनंतानंत गुणे पुद्गल द्रव्य, एक धर्म द्रव्य, एक अधर्म द्रव्य, एक आकाश द्रव्य और असंख्यात कालाणु द्रव्य देखे जाते हैं, उसे लोक कहते हैं। (धर्माधर्मादीनि द्रव्याणि यत्र लोक्यन्ते स लोक:’’)। ये सभी द्रव्य अनादि अनंत स्वत: सिद्ध और अखंड होने के साथ-साथ अपनी सहायता से ही प्रति समय परिणमन करते हैं। अत: यह लोक किसी के द्वारा बनाया हुआ नहीं है, अनादि अनंत है। (त्रिलोकसार में भी लिखा है-‘‘लोगो अकिट्टिमो खलु अणाइ णिहणो सहावणिव्वत्तो । जीवा जीवेहिं फुढो सव्वागासवयवो णिच्चो। अर्थ-लोक अकृत्रिम है, अनादि अनंत है, स्वभाव से निष्पन्न है, जीव-अजीव द्रव्यों से भरा हुआ है, समस्त आकाश का अंग है और नित्य है।)
आकाश अनंत प्रदेशी एक अखंड सर्वव्यापी द्रव्य है उसके बहु मध्यभाग में, कमरे में लटकते हुये बल्ब की भांति शेष पाँच प्रकार के द्रव्यों से पूरित असंख्यात प्रदेशों वाला लोक है और चारों तरफ पैâले हुये शेष अनंत प्रदेशी आकाश की अलोक संज्ञा है।
आज की इन्द्रियसाध्य प्रणाली में २४-२५ हजार मील के विस्तार वाली दुनियाँ मानी जा रही है। मानें, परंतु ये अन्वेषक भी मानी हुई दुनियाँ से अधिक-अधिक स्थल पाये जाने पर और-और मानते चले आये हैं इससे यह नहीं माना जा सकता है कि जहाँ तक हम लोग आ जा सकते हैं उतनी ही दुनियाँ है। जैसे-जब अमेरिका देश की स्थिति का पता नहीं था, तब हम ‘अमेरिका कोई देश होगा’ ऐसा स्वीकार नहीं करते थे, परन्तु आज प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता? तद्वत् यद्यपि आज स्वर्ग-नरक आदि लोक हमको दृष्टिगत नहीं, तो भी इसका यह अर्थ नहीं कि वे हैं ही नहीं, क्योंकि सर्वज्ञ भगवान को कोई स्वार्थ नहीं था जिससे वे असत्य भाषण करते। हमको उन लोकों का पता नहीं, तो यह हमारे ज्ञान की कमी है। हमें अपने ज्ञान को विशुद्ध बनाना चाहिये तथा भगवान के वचनों पर विश्वास करके उनको प्रत्यक्ष करने का प्रयत्न करना चाहिए।
जैन सिद्धांत के अनुसार पैर पैâलाये, कमर पर हाथ रखे, खड़े हुये मनुष्य का जैसा आकार होता है, वैसा लोक एक पुरुषाकार है। लोक की ऊँचाई चौदह राजू, मोटाई (उत्तर और दक्षिण दिशा में) सर्वत्र सात राजू है। पूर्व और पश्चिम दिशा में चौड़ाई मूल में सात राजू, सात राजू की ऊँचाई पर एक राजू, साढ़े दश राजू की ऊँचाई पर पाँच राजू और अंत में एक राजू है। गणित करने पर लोक का क्षेत्रफल ३४३ घन राजू होता है। राजू एक पैमाना है जो कि असंख्यात मीलों का होता है। यह लोक सब तरफ से तीन वात (पवन) वलयों से वेष्टित है अर्थात् लोक, घनोदधि वातवलय से, घनोदधि, घनवातवलय से और घनवातवलय तनुवातवलय से वेष्टित है। तनुवातवलय आकाश के आश्रय है और आकाश अपने ही आश्रय है। उसको दूसरे आश्रय की आवश्यकता नहीं है क्योंकि आकाश सर्वव्यापी है। इस लोक के बिलकुल बीच में १ राजू चौड़ी १ राजू लम्बी १४ राजू ऊॅँची त्रस नाली है, जिसमें त्रस और स्थावर जीव रहते हैं और उस त्रसनाली के बाहर शेष ३२९ राजू के स्थान में स्थावर जीव रहते। तथा उपपाद मारणान्तिक समुद्घात और लोक पूर्ण समुद्घात की अपेक्षा त्रस भी पाये जाते हैं।
इस लोक के तीन भाग हैं-१. अधोलोक, २. मध्यलोक, ३. ऊर्ध्वलोक, मूल से सात राजू की ऊँचाई तक अधोलोक है, सुमेरु पर्वत की ऊँचाई (१ लाख ४० योजन) के समान मध्यलोक है, और सुमेरु पर्वत के ऊपर अर्थात् १ लाख ४० योजन कम सात राजू प्रमाण ऊर्ध्वलोक है।
नीचे से लगाकर मेरु की जड़पर्यन्त सात राजू ऊँचा अधोलोक है। जिस पृथ्वी पर हम निवास करते हैं उस पृथ्वी का नाम चित्रा पृथ्वी है इसकी मोटाई एक हजार योजन है और यह पृथ्वी मध्य लोक में गिनी जाती है सुमेरु पर्वत की जड़ एक हजार योजन चित्रा पृथ्वी के भीतर है, तथा ९९ वें हजार योजन चित्रा पृथ्वी के ऊपर है और ४० योजन की चूलिका है। सब मिलकर १ लाख ४० योजन ऊँचा मध्य लोक है। मेरु की जड़ के नीचे से अधो लोक का प्रारंभ है सबसे प्रथम मेरु पर्वत की आधारभूत रत्नप्रभा नाम की पृथ्वी है इस पृथ्वी का व शेष ६ पृथ्वियों का पूर्व पश्चिम और उत्तर दक्षिण दिशा में लोक के अंत पर्यन्त विस्तार है। मोटाई का प्रमाण सबका भिन्न-भिन्न है। रत्नप्रभा पृथ्वी की मोटाई १ लाख ८० हजार योजन है, इसमें १६ हजार योजन मोटा खरभाग, ८४ हजार योजन मोटा पंकभाग और ८० हजार योजन मोटा अब्बहुल भाग, ये तीन भाग हैं जिनमें खरभाग में असुरकुमार देवों के निवास, नौ प्रकार के भवनवासी देवों के और राक्षसों के सिवाय सात प्रकार के व्यंतर देवों के निवास स्थान हैं। पंकभाग में असुरकुमार तथा राक्षसों का निवास है। भवनवासी देवों के भवनों में ७ करोड़ ३२ लाख अकृत्रिम जिन मंदिर हैं। नीचे के अब्बहुल भाग तथा शेष की छ: पृथ्वियों में नारकियों का निवास है। इससे नीचे कुछ कम एक राजू आकाश जाकर शर्करा प्रभा नाम की दूसरी पृथ्वी ३२ योजन मोटी है। इससे नीचे कम एक राजू आकाश जाकर बालुुका प्रभा की तीसरी २८ हजार योजन मोटी है। इससे नीचे कुछ कम एक राजू आकाश जाकर २४ हजार योजन मोटी पंक प्रभा नाम की चौथी पृथ्वी है। इसके नीचे कुछ १ राजू आकाश जाकर २० हजार योजन मोटी धूमप्रभा नाम की पाँचवीं पृथ्वी है। इसके नीचे कुछ कम १ राजू आकाश जाकर १६ हजार योजन मोटी तमप्रभा नाम की छठवीं पृथ्वी है। इसके नीचे कुछ कम एक राजू आकाश जाकर ८ हजार योजन मोटी महातम: नाम की सातवीं पृथ्वी है। इसके नीचे भूमि रहित १ राजू प्रमाण जो क्षेत्र है वह निगोदादि पञ्च स्थावरों से भरा हुआ है। घनोदधि, घनवात, और तनुवात नाम के जो तीन वालवलय हैं वे रत्नप्रभादि प्रत्येक पृथ्वी के आधार भूत हैं। इन सातों पृथ्वियों के क्रम से धम्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी ये सात रूढ़िगत नाम हैं।
नारकियों के निवासरूप सातों पृथ्वियों में अपनी—अपनी मोटाई में नीचे और ऊपर एक-एक हजार योजन छोड़कर भूमि में तलघरों की तरह ४९ पटल हैं। पहली पृथ्वी के अब्बहुल भाग में १३, दूसरी में ११, तीसरी में ९, चौथी में ७, पाँचवीं में ५, छठवीं में ३ और सातवीं पृथ्वी में १ पटल है। अब्बहुल भाग के १३ पटलों में से पहले पटल का नाम सीमन्तक पटल है। इस सीमन्तक पटल में सबके मध्य में मनुष्य लोक के समान ४५ लाख योजन प्रमाण चौड़ा गोल (कूपवत्) इन्द्रक बिल (नरक) है। चारों दिशाओं में असंख्यात योजन चौड़े ४९-४९ श्रेणीबद्ध बिल हैं और चारों विदिशाओं में ४८-४८ असंख्यात योजन चौड़े श्रेणीबद्ध बिल हैं तथा दिशा—विदिशाओं के बीच में प्रकीर्णक (फुटकर) बिल हैं जिनमें कोई असंख्या योजन चौड़े और कोई संख्यात योजन चौड़े हैं। इसी प्रकार पूर्वोक्त जो सातों पृथ्वियों में ४९ पटल हैं उनमें भी बिलों का ऐसा ही क्रम है, किन्तु प्रत्येक पटल में आठों दिशाओं के श्रेणीबद्ध बिलों में से एक—एक बिल घटता गया है, अत: सातवीं पृथ्वी के चारों दिशाओं में एक-एक बिल ही रह जाता है। प्रथम पृथ्वी के अब्बहुल भाग में ३० लाख बिल, दूसरी में २५ लाख, तीसरी में १५ लाख, चौथी में १० लाख, पाँचवीं में ३ लाख, छठवीं पृथ्वी में ५ कम १ लाख और सातवीं पृथ्वी में ५ ही नरक बिल हैं। सातों पृथ्वियों के इंद्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक नरकों का जोड़ ८४ लाख है। इन्हीं नरकों में नारकी जीवों का निवास है।
पहली पृथ्वी के पहले पटल में नारकियों के शरीर की ऊँचाई तीन हाथ है और यहाँ से क्रम से ऊँचाई बढ़ती हुई तेरहवें पटल में ७ धनुष ३ हाथ की ऊँचाई है। तदनन्तर दूसरी आदि पृथ्वियों के अंत में इंद्रक बिलों में दूनी—दूनी वृद्धि करने से सातवीं पृथ्वी में नारकियों के शरीर की ऊँचाई ५०० धनुष है। ऊपर के नरक में जो उत्कृष्ट ऊँचाई है उससे कुछ अधिक नीचे के नरक में जघन्य ऊँचाई है। पहली पृथ्वी में नारकियों की जघन्य आयु १० हजार वर्ष की है उत्कृष्ट आयु १ सागर है। प्रथमादि पृथ्वियों में जो उत्कृष्ट आयु है वही एक समय अधिक द्वितीयादि पृथ्वियों में जघन्य आयु है। द्वितीयादिक पृथ्वियों में क्रम से तीन, सात, दश, सत्रह, बाईस और तेतीस सागर की उत्कृष्ट आयु है।
नारकी मरण करके नरक और देवगति में नहीं उपजते किन्तु मनुष्य और तिर्यञ्च गति में ही उपजते हैं। इसी प्रकार मनुष्य और तिर्यञ्च ही मरकर नरकगति में उपजते हैं। देवगति में मरण करके कोई जीव नरक में उत्पन्न नहीं होते। असंज्ञी पंञ्चेन्द्री जीव (मन रहित) मरकर पहले नरक तक ही जाते हैं आगे नहीं जाते। सरीसृप जाति के जीव दूसरी पृथ्वी तक, पक्षी तीसरे नरक तक, सर्प चौथे नरक तक, सिंह पाँचवें नरक तक, स्त्री छठवें नरक तक और कर्मभूमि के मनुष्य और मत्स्य सातवें नरक तक ही जाते हैं। भोगभूमि के जीव नरक को नहीं जाते, किन्तु देव ही होते हैं। यदि कोई जीव निरंतर नरक जावे तो पहले नरक में ८ बार, दूसरे में ७ बार, तीसरे में ६ बार, चौथे में ५ बार, पाँचवें में ४ बार, छठे में ३ बार और सातवें नरक में २ बार तक निरंतर जा सकता है, अधिक बार नहीं जा सकता। यहाँ नरक से निकलकर प्राप्त होने वाले मनुष्य और तिर्यञ्च पर्याय की विवक्षा को गौण किया गया है क्योंकि नरक से निकलकर कोई नारकी नहीं होता है किन्तु जो जीव सातवें नरक से आया है उसे किसी नरक में अवश्य जाना पड़ता है ऐसा नियम है। सातवें नरक से निकलकर मनुष्यगति में नहीं जाता, किन्तु तिर्यञ्च गति में अव्रती ही होता है। छठवें नरक से निकले हुए जीव संयम (मुनिपद) धारण नहीं कर सकते। पाँचवें नरक से निकले हुए जीव मोक्ष नहीं जा सकते। चौथी पृथ्वी से निकले हुए तीर्थंकर नहीं होते, किन्तु पहले, दूसरे और तीसरे नरक से निकले हुये तीर्थंकर हो सकते हैं। नरक से निकले हुये जीव बलभद्र, नारायण, प्रतिनारायण और चक्रवर्ती नहीं होते।
जो जीव हिंसक, चुगल, दगाबाज, चोर, डाकू, व्यभिचारी और अधिक-तृष्णा वाले होते हैं वे मरकर पापोदय से नरकगति में जन्म लेते हैं जहाँ कि नाना प्रकार के भयानक तीव्र दु:खों को भोगते हैं। पहली ४ पृथ्वियों में तथा पाँचवीं पृथ्वी के २ लाख बिलों में उष्णता की तीव्र वेदना है तथा नीचे के नरकों में शीत की तीव्र वेदना है। तीसरी पृथ्वी पर्यन्त असुरकुमार जाति के देव आकर नारकियों को परस्पर में लड़ाते हैं, नारकियों का शरीर सदा अनेक रोगों से ग्रसित रहता है और परिणामों में नित्य क्रूरता बनी रहती है। नरकों की पृथ्वी महा दुर्गन्ध और अनेक उपद्रवों सहित होती है। नारकी जीवों में परस्पर जाति-विरोध होता है। परस्पर एक दूसरे को नाना प्रकार का घोर दु:ख देते हैं। छेदन, भेदन, ताड़न, मारण आदि नाना प्रकार की घोर वेदनाओं को भोगते हुए निरंतर दुस्सह घोर दु:ख का अनुभव करते रहते हैं। कोई किसी को कोल्हू में पेलता है, कोई गरम लोहे की पुतली से आलिंगन कराता है तथा वङ्कााग्नि में पकाता है तथा पीव के कुण्ड में पटकता है। बहुत कहने से क्या, नरक में एक समय के दु:ख को सहस्र जिह्वा वाला भी वर्णन नहीं कर सकता। जिसकी जितनी आयु है उसको उतने काल-पर्यन्त ये दु:ख भोगने ही पड़ते हैं। क्योंकि नरक में अकाल मृत्यु नहीं है। इस नरक की वेदनाओं से बचने वालों को जुआ, चोरी, मांस, वेश्या, पर स्त्री तथा शिकार आदिक महापापों की दूर से ही छोड़ देना चाहिये।
मध्य लोक एक राजू तिर्यग् विस्तार वाला है इसके ठीक बीच में सुदर्शन नामक मेरु पर्वत है। यह जम्बूद्वीप के ठीक बीच में है जिस द्वीप में हम और आप रहते हैंं यह वही जम्बूद्वीप है इसका विस्तार एक लाख योजन का है। जम्बूद्वीप को खाई की तरह बेढ़े हुये गोलाकार लवणसमुद्र है। इस लवणसमुद्र की चौड़ाई सर्वत्र दो लाख योजन है। पुन: लवणसमुद्र को चारों तरफ से बेढ़े हुए गोलाकार धातकीखण्ड द्वीप है जिसकी चौड़ाई सर्वत्र ४ लाख योजन है। धातकीखण्ड को चारों तरफ से घेरे हुए ८ लाख योजन चौड़ा कालोदधि समुद्र है तथा कालोदधि समुद्र को घेरे हुए १६ लाख योजन चौड़ा पुष्करवर द्वीप है। इसी प्रकार से दूने—दूने विस्तार को लिये असंख्यात द्वीप समुद्र हैं अन्त में स्यम्भूरमण समुद्र है चारों कोनों में पृथ्वी है। पुष्कवरद्वीप के बीचों—बीच मानुषोत्तर पर्वत है जिससे पुष्कर द्वीप के दो भाग हो गये हैं। जम्बूद्वीप, धातकीखंड और पुष्करार्द्ध इस प्रकार अढ़ाई द्वीप में मनुष्य रहते हैं। अढ़ाई द्वीप के बाहर मनुष्य नहीं हैं तथा तिर्यञ्च समस्त मध्य लोक में निवास करते है। स्थावर जीव समस्त लोक में भरे हुये हैं। जलचर जीव लवणोदधि, कालोदधि और स्वंभूरमण इन तीन समुद्रों में ही होते हैं, अन्य समुद्रों में नहीं ।
जम्बूद्वीप में पूर्व, पश्चिम लम्बे दोनों तरफ पूर्व और पश्चिम समुद्रों को स्पर्श करते हुए दक्षिण दिशा की ओर से हिमवत, महाहिमवत, निषध, नील, रुक्मि और शिखरी नाम के ६ पर्वत हैं। इन पर्वतों के कारण जम्बूद्वीप में सात क्षेत्र हैं। दक्षिण दिशा में किनारे पर प्रथम भरतक्षेत्र है। इसी भरतक्षेत्र के आर्य खंड में हम और आप रहते हैं। इस आर्य खंड के उत्तर में विजयार्द्ध्र पर्वत है, दक्षिण में लवणसमुद्र, पूर्व में महागङ्गा और पश्चिम में महासिन्धु नदी है। भरतक्षेत्र की चौड़ाई ५२६-६/१९ योजन है जिसके बिलकुल बीच में विजयार्द्ध पर्वत पड़ा हुआ है जिससे भरतक्षेत्र के दो खण्ड हो गये हैं तथा महागङ्गा और महासिन्धु हिमवत् पर्वत से निकलकर विजयार्द्ध की गुफाओं में होती हुई पूर्व और पश्चिम समुद्र में जाकर मिलती है जिससे भरतक्षेत्र के ६ खंड हो गये है, जिनमें एक आर्य खण्ड और पाँच म्लेच्छ खण्ड हैं। ये सब अकृत्रिम रचना दो हजार कोश के बराबर १ योजन वाले नाप के प्रमाण से हैं, अत: आर्य खण्ड बहुत लम्बा चौड़ा है केवल हिन्दुस्तान को ही आर्य खण्ड नहीं समझना चाहिये परन्तु वर्तमान में एशिया, यूरोप, अप्रâीका, अमेरिका और आस्ट्रेलिया ये पांच महाद्वीप इस आर्य खंड में हैं। वर्तमान गंगा, सिन्धु नदियों को अकृत्रिम महागङ्गा और महासिन्धु नहीं समझना चाहिए। जम्बूद्वीप के १/१९० भाग बराबर इस प्रथम भरतक्षेत्र के बाद दूसरा हैमवतक्षेत्र, और तीसरा हरिक्षेत्र है। इसी प्रकार उत्तर दिशा के किनारे पर ऐरावत क्षेत्र, दूसरा हैरण्यवत क्षेत्र और तीसरा रम्यक्क्षेत्र है। मध्यभाग का नाम विदेह क्षेत्र है।
उक्त हिमवतादि पर्वतों के ऊपर क्रम से पद्म, महापद्म, तिगञ्च्छ, केशरिन्, महापुण्डरीक और पुण्डरीक ये अकृत्रिम ६ सरोवर हैं, इन पद्मादिक सब सरोवरों में एक-एक पार्थिव कमल है। उक्त भरतादि सात क्षेत्रों में एक-एक में दो-दो के क्रम से गंगा, सिन्धु, रोहित, रोहितास्या, हरित, हरिकांता, सीता, सीतोदा, नारी, नरकांता, सुवर्णाकूला, रुप्यकूला, रक्ता, रक्तोदा ये १४ नदी हैं। इन सात युगलों में से गंगादिक पहली-पहली नदियाँ पूर्व समुद्र में और सिन्धुवादिक पिछली-पिछली नदियाँ पश्चिम समुद्र में जाती हैं। गंगा, सिन्धु, रोहितास्या ये तीन नदी पद्म सरोवर में से निकली हैं, रक्ता, रक्तोदा और सुवर्णकूला पुण्डरीक सरोवर में से निकली हैं शेष चार सरोवर में से आठ नदियाँ निकली हैं। अर्थात् १-१ सरोवर में से १-१ पूर्वगामिनी और १-१ पश्चिमगामिनी इस प्रकार दो-दो नदियाँ निकली हैं। गंगा—सिन्धु इन दो महानदियाँ का परिवार १४-१४ हजार लघु नदियों का है। रोहित, रोहितास्या का प्रत्येक का परिवार २८-२८ हजार नदियों का है इसी प्रकार सीता, सीतोदा पर्यन्त दूना-दूना और आगे आधा-आधा परिवार नदियों का प्रमाण है।
विदेहक्षेत्र में बीचों—बीच जो सुमेरु पर्वत है वह गोलाकार भूमि पर १० हजार योजन चौड़ा तथा ऊपर १ हजार योजन चौड़ा है। सुमेरु पर्वत के चारों तरफ भूमि पर भद्रशाल वन है। ५०० योजन ऊँचा चलकर चारों तरफ नंदन वन है फिर नंदन वन से ६२५०० योजन ऊँचा चलकर सुमेरु के चारों तरफ सौमनस वन है सौमनस से ३६ हजार योजन ऊँचा चलकर चारों तरफ पाण्डुक वन है। पाण्डुक वन में चारों दिशाओं में ४ स्वर्णमय शिलायें हैं जिन पर उस-उस दिशा के क्षेत्रों में उत्पन्न हुये तीर्थंकरों का अभिषेक होता है।
मेरु की चारों विदिशाओं में ४ गजदंत पर्वत हैं। दक्षिण और उत्तर भद्रसाल तथा निषध और नील पर्वत के बीच में देवगुरु और उत्तरकुरु हैं। मेरु की पूर्व दिशा में पूर्व विदेह और पश्चिम दिशा में पश्चिम विदेह है। पूर्व विदेह के बीच से निकलकर सीता नदी और पश्चिम विदेह से निकलकर सीतोदा नदी पूर्व और पश्चिम समुद्र में जाती है। इस प्रकार दोनों नदियों के दक्षिण और उत्तर तट की अपेक्षा से विदेह के ४ भाग हो जाते हैं। इन चारों भागों में से प्रत्येक भाग में आठ-आठ देश हैं। इन आठ देशों का विभाग करने वाले वक्षार पर्वत तथा विभंगा नदी हैं। इस प्रकार विदेह क्षेत्र में ३२ देश हैं।
जम्बूद्वीप से दूनी रचना धातकीखण्ड की है और धातकीखंड के समान रचना पुष्करार्द्ध में है। धातकीखंड और पुष्कारार्द्ध इन दोनों द्वीपों की दक्षिण और उत्तर दिशा में दो-दो इष्वाकार पर्वत हैं, जिससे इन दोनों द्वीपों के दो-दो खण्ड हो गये हैं इन दोनों द्वीपों के पूर्व और पश्चिम दिशा में दो-दो मेरु हैं। अर्थात् दो मेरु धातकीखंड में और दो पुष्करार्द्ध में हैं। जिस प्रकार क्षेत्र, पर्वत, सरोवर, कमल और नदी आदि का कथन जम्बूद्वीप में है उतना ही उतना प्रत्येक मेरु का है।
मनुष्य लोक के भीतर १५ कर्मभूमि और ३० भोगभूमि हैं। एक-एक मेरु संबंधी भरत, ऐरावत तथा देवकुरु और उत्तर कुरु को छोड़कर विदेह इस प्रकार तीन-तीन तो कर्मभूमि और हैमवत, हरि, देवकुरु, उत्तरकुरु, रम्यक और हैरण्यवत् ये ६-६ भोगभूमि हैं। पाँचों मेरु को मिलाकर १५ कर्मभूमि और ३० भोगभूमि हैं। जहाँ असि, मसि, कृष्यादि षट्कर्म की प्रवृत्ति हो उसको कर्म भूमि कहते हैं और जहाँ कल्पवृक्षों द्वारा भोगों की प्राप्ति हो उसको भोगभूमि कहते हैं। भोगभूमि के तीन भेद हैं—उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य। हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्रों में जघन्य भोगभूमि है, हरि और रम्यक क्षेत्रों में मध्यम भोगभूमि हैं और देवकुरâ तथा उत्तरकुरु में उत्कृष्ट भोगभूमि है। मनुष्य लोक से बाहर सर्वत्र जघन्य भोगभूमि की सी रचना है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव भोगभूमि में नहीं होते। अर्थात् १५ कर्मभूमि और उत्तरार्द्ध अंतिम द्वीप और अंतिम समुद्र में ही विकलत्रय जीव हैं। तथा समस्त द्वीप समुद्रों में भी भवनवासी और व्यंतर देव निवास करते हैं।
भरत और ऐरावत क्षेत्रों में उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी, संबंधी सुषमा-सुषमा आदि छहों कालचक्र संबंधी परिवर्तन होता है जिसका स्वरूप तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोक्यसार आदि ग्रंथों से जानना। इतना विशेष हे कि भरत, ऐरावत के म्लेच्छ खंडों में और विजयार्द्ध पर्वत में चतुर्थ काल की आदि तथा अंत के समान काल वर्तता है, अन्य काल नहीं वर्तता। भोगभूमियों में काल परिवर्तन नहीं होता। तथा विदेहक्षेत्र में सदा चौथा काल वर्तता है। समस्त विदेहक्षेत्र से सदा मुक्ति का मार्ग चलता रहता है, अनेक भव्य जीव मुक्त होते रहते हैंं। तीर्थंकर भी सदा पाये जाते हैं।
मनुष्य लोक में ३९८, नंदीश्वर द्वीप में ५२, कुण्डलगिरि पर ४, और रुचिक द्वीप में ४, अकृत्रिम चैत्यालय हैं। इस प्रकार मध्य लोक में अकृत्रिम चैत्यालय ४५८ हैं। ज्योतिषी देवों के विमानों में असंख्यात चैत्यालय हैं।
इस ही मध्य लोक में ज्योतिषी देवों का निवास है। चित्रा पृथ्वी से ७९० योजन ऊपर अंतरिक्ष में जाने पर ज्योतिष लोक है इसमें सूर्य, चंद्र, सितारे, ग्रह, उपग्रह आदि हैं। पृथ्वी से ७९० योजन ऊपर तारे हैं इनसे १० योजन ऊपर सूर्य, उससे ८० योजन ऊपर चंद्रमा, ४ योजन ऊपर नक्षत्र, ४ योजन ऊपर बुध, ३ योजन ऊपर शुक्र, ३ योजन ऊपर वृहस्पति, ३ योजन ऊपर मंगल, ३ योजन ऊपर शनि और ८३ ग्रह इन सबके बीच में हैं।
राहू और केतु का विमान क्रमश: सूर्य, चंद्रमा के नीचे गमन करता है। सूर्य मण्डल पहले है और चंद्र मण्डल उसके पश्चात्। चंद्र इन्द्र है, और सूर्य प्रतीन्द्र। एक सूर्य २८ नक्षत्र, ८८ ग्रह और ३३९७५ कोड़ाकोड़ी तारे मिलकर एक चंद्रमा का परिवार कहलाता है। जम्बूद्वीप में सूर्य चंद्रमा दो-दो, लवणसमुद्र में चार-चार, धातकीद्वीप में बारह-बारह, कालोदधि में ब्यालीस-ब्यालीस और पुष्करार्द्ध में बहत्तर-बहत्तर हैं। ढाई द्वीप व दो समुद्रों में चंद्र, सूर्य घूमते हैं इसीसे यहाँ रात्रि—दिन का विभाग होता है। इससे आगे के सूर्य, चंद्र अचल हैं। इस कारण वहाँ रात्रि-दिन का विभाग भी नहीं है। ये सब मण्डल पृथ्वियाँ हैं, इनमें ज्योतिष देव रहते हैं।
मेरु की चूलिका से ऊपर लोक के अंत तक ऊर्ध्व लोक कहलाता है सौधर्म-ऐशान, सानत्कुमार-माहेन्द्र, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लान्तव-कापिष्ठ, शुक्र-महाशुक्र, शतार-सहस्रार, आनत-प्राणत, आरण और अच्युत नामक १६ स्वर्ग हैं। ये कल्प कहलाते हैं। इसके ऊपर नौ ग्रेवेयक विमान हैं, उसके ऊपर नौ अनुदिश नामक विमानों का एक पटल है उसके ऊपर पाँच विमानों की संख्या वाला पंचानुत्तर नामक एक पटल हैं इस प्रकार ऊर्ध्व लोक में वैमानिक देवों का निवास है, ये कल्पातीत कहलाते हैं, क्योंकि यहाँ सब अहमिन्द्र हैं।
मेरु की चूलिका से एक बाल के अंतर पर ऋजु विमान है। यहीं से सौधर्म स्वर्ग का आरंभ है। मेरुतल से १ राजू की ऊँचाई पर सौधर्म-ऐशान युगल का अंत है इसके ऊपर १ राजू में सानत्कुमार-माहेन्द्र युगल है उससे ऊपर आधे-आधे राजू में ६ युगल हैं इस प्रकार ६ राजू में आठ युगल हैं। सौधर्म स्वर्ग में ३२ लाख विमान हैं, एशान स्वर्ग में २ लाख, सानत्कुमार में १२ लाख, माहेन्द्र स्वर्ग में ८ लाख, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर युगल में ४ लाख, लान्तव, कापिष्ट में ५० हजार, शुक्र— महाशुक्र युगल में ४० हजार, शतार-सहस्रार युगल में ६ हजार, आनत, प्रणत और आरण, अच्युत इन चारों स्वर्गों में सब मिलकर ७०० विमान है। तीन अधो ग्रैवेयक में १११, तीन मध्य ग्रैवेयक में १०६ और तीन ऊर्ध्व ग्रैवेयक में ९१ विमान हैं। अनुदिश में ९ और अनुत्तर में ५ विमान हैं। ये सब विमान ६३ पटलों में विभाजित है। प्रथम युगल में ३१ पटल दूसरे युगल में ७, तीसरे में ४, चौथे में २, पाँचवें में १, छठे में १, आनतादि चार-कल्पों में ६, नो ग्रैवेयक में ९, नो अनुदिश में १, और पंचानुत्तर में १ पटल है। इन पटलों में असंख्यात २ योजनों का अंतर है। पटल के मध्य विमान को इंद्रक विमान कहते हैं। अत: ६३ पटलों में ६३ इंद्रक विमान हैं। चारों दिशाओं में जो श्रेणीबद्ध विमान हैं उनको श्रेणीबद्ध विमान कहते हैं। प्रथम पटल में प्रत्येक श्रेणीबद्ध विमानों की संख्या ६२-६२ है। द्वितीयादिक पटलों के श्रेणीबद्ध विमानों की संख्या में क्रम से १-१ घटकर बासठवें अनुदिश पटल में १-१ श्रेणीबद्ध विमान है। और इसी प्रकार अंतिम अनुत्तर पटल में भी श्रेणीबद्धों की संख्या १-१ है। श्रेणियों के बीच में जो फुुटकर विमान हैं उनको प्रकीर्णक कहते हैं। सौधर्म स्वर्गादि संबंधी ये सब विमान ८४९६०२३ अकृत्रिम सुवर्णमय जिन चैत्यालयों से मण्डित हैं। १६ स्वर्गों में से दो-दो स्वर्गों में संयुक्त राज्य है। इस कारण दो-दो स्वर्गों का एक-एक युगल है। आदि के दो तथा अंत के दो इस प्रकार चार युगलों में ८ इंद्र हैं और मध्य के ४ युगलों के ४ ही इंद्र हैं अत: इंद्रों की अपेक्षा से स्वर्गों के १२ भेद हैं।
प्रथम युगल के प्रत्येक पटल में उत्तर दिशा के श्रेणीबद्ध तथा वायव्य और ईशान विदिशा के प्रकीर्णक विमानों में उत्तरेन्द्र ईशान की आज्ञा प्रवर्तती है शेष समस्त विमानों में दक्षिणेन्द्र सौधर्म की आज्ञा प्रवर्तती है। इसी प्रकार दूसरे तथा अंत के दो युगलों में जानना। मध्य के ४ युगलों में १-१ की ही आज्ञा प्रवर्तती है। पटलों के ऊर्ध्व अंतराल में तथा विमानों के तिर्यक््â अंतराल में आकाश है। नरक की तरह बीच में पृथ्वी नहीं है। समस्त इंद्रक विमान संख्यात योजन चौड़े हैं तथा सब श्रेणीबद्ध विमान असंख्यात योजन चौड़े हैं और प्रकीर्णक संख्यात असंख्यात योजनों के हैं। इन समस्त विमानों के ऊपर अनेक नगर बसते हैं ।
सर्वार्थसिद्धि विमान की चोटी से १२ योजन ऊपर सिद्ध शिला है यह मनुष्य लोक के सीध में ऊपर है और ४५ लाख योजन की विस्तार वाली है। इसकी मोटाई ८ योजन है, इसका आकार छत्र की तरह है। इस पर सिद्ध भगवान तो विराजमान नहीं है, किन्तु इसके कुछ ऊपर इस सिद्ध शिला के विस्तार प्रमाण क्षेत्र में सिद्ध भगवान तनुवातवलय में विराजमान है जो साधु मनुष्य लोक में जिस स्थान से कर्म मुक्त हुये हैं उसकी सीध में ऊपर एक समय में ही आकर लोक के अंत भाग में स्थित हैं, और अनंतकाल तक रहेंगे। बस यहीं लोक का अंत हो जाता है ।
उक्त त्रिलोक का स्वरूप संक्षेप में कहा गया। सविस्तार कथन तिलोयपण्णत्ति व त्रैलोक्यसार ग्रंथों से ज्ञात करना चाहिए।
लोक के आकार, रचनाओं के बोध रूप विशेष परिज्ञान से उत्कृष्ट वैराग्य होता है कि देखो तो अपने अंतर्लोक से भ्रष्ट होकर यह जीव मोह भाव वश अनंतबार उत्पन्न हुआ। अपने कर्म संस्कारों के कारण त्रिलोक में द्रव्य, क्षेत्र, काल भव और भाव रूप पंचपरावर्तन करता रहता है। परन्तु स्वभावत: अजन्मा एवं अनादिसिद्ध, चैतन्यस्वरूप निज निश्चय लोक को इसने नहीं जाना। इस त्रिलोक से पृथक मेरा ज्ञानालोक मात्र स्वरूपास्तित्व है इस प्रकार का अपने आत्मा के स्वतंत्र रूप का विश्वास होते ही पर पदार्थों से स्वयमेव विरक्ति प्राप्त हो जाती है और जीव उत्कृष्ट धर्म एवं शुक्ल ध्यान का पात्र होकर मोक्षमार्ग पा लेता है।
जैन मान्यता के अनुसार बीस कोड़ा—कोड़ी सागर का एक कल्पकाल होता है। इसके दो भेद हैं-एक उत्सर्पिणी और दूसरा अवसर्पिणी। जिसमें मनुष्यों के बल, आयु, शरीर का प्रमाण क्रम-क्रस से बढ़ता जावे उसे उत्सर्पिणी कहते हैं और जिसमें वे क्रम-क्रम से घटते जावें उसे अवसर्पिणी कहते हैं। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दोनों का प्रमाण दश-दश कोड़ाकोड़ी सागर है और प्रत्येक के छह-छह भेद हैं। अवसर्पिणी के छह भेद इस प्रकार हैं-१. सुषमा-सुषमा, २. सुषमा, ३. सुषमा—दु:षमा, ४. दु:षमा—सुषमा, ५. दु:षमा और ६. दु:षमा—दु:षमा। उत्सर्पिणी काल के भी ६ भेद होते हैं जो कि उपर्युक्त क्रम से विपरीत रूप हैं जैसे-१. दु:षमा—दु:षमा, २. दु:षमा, ३. दु:षमा—सुषमा, ४. सुषमा—दु:षमा, ५. सुषमा और ६. सुषमा—सुषमा। ‘‘समा’’ काल के विभाग को कहते हैं और सु तथा दुर उपसर्ग क्रम से अच्छे और बुरे अर्थ के वाचक हैं। व्याकरण के नियमानुसार ‘‘स’’ को ‘‘ष’’ हो जाने से सुषमा और दु:षमा शब्दों की सिद्धि होती है जिनका अर्थ होता है अच्छा समय और बुरा समय।
भरत और ऐरावत क्षेत्र में कालचक्र परिवर्तित होता है, जिस प्रकार एक माह में कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष होते हैं उसी प्रकार एक कल्पकाल में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी इस प्रकार दो काल होते हैं। इस समय भरतक्षेत्र में अवसर्पिणी का युग चल रहा है। इसके सुषमा-सुषमा आदि छह भेद हैं। सुषमा—सुषमा चार कोड़ाकोड़ी सागर का, सुषमा तीन कोड़ाकोड़ी सागर का, सुषमा—दु:षमा दो कोड़ाकोड़ी सागर का, दु:षमा सुषमा ब्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर का और दु:षमा तथा दु:षमा—दुषमा प्रत्येक इक्कीस हजार वर्ष के होते हैं। जब यहाँ सुषमा—सुषमा नामक पहला काल चल रहा था तब मनुष्यों की आयु तीन पल्य की और शरीर की ऊँचाई छह हजार धनुष की थी। तीन दिन के अंतर से बदरी फल बराबर उनका आहार होता था। दश प्रकार के कल्पवृक्षों से सबको मनोवाच्छित भोगोपभोग की प्राप्ति होती थी। स्त्री-पुरुष अनुरक्त रहते थे। जीवन के अंतिम नौ माहों में उनके संतान उत्पन्न होती थी। एक पुत्र और एक पुत्री का युगल जन्म होता था। जन्म होते ही पुरुष की जमुहाई से और स्त्री की छींक से मृत्यु हो जाती थी। युगल संतान हाथ का अंगूठा चूसते—चूसते सात सप्ताह में पूर्ण वयस्क हो जाते थे। वयस्क होने पर दोनों ही स्त्री—पुरुष के रूप में परिणत हो जाते थे। इस काल में उत्तम भोगभूमि की रचना होती थी।
भोगभूमिया जीव संयम ग्रहण न करने के कारण मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकते हैं।
क्रम-क्रम से चार कोड़ाकोड़ी सागर का विशाल काल व्यतीत होने पर दूसरा सुषमा नामका काल प्रकट होता है। इसके प्रारंभ में मनुष्य के शरीर की ऊँचाई चार हजार धनुष की तथा आयु दो पल्य की होती थी। सभी को भोगोपभोगों की प्राप्ति कल्पवृक्षों से ही होती थी। यह काल तीन कोड़ाकोड़ी सागर का होता है। इस काल में यहाँ मध्यम भोगभूमि की रचना होती थी। इसके व्यतीत होने पर सुषमा—दु:षमा नाम का तीसरा काल प्रकट होता है। यह दो कोड़ाकोड़ी सागर का होता है। इसके प्रारंभ में मनुष्यों की ऊँचाई दो हजार धनुष की और आयु एक पल्य की रहती थी। इस समय यहाँ जघन्य भोगभूमि की रचना होती थी। इस तृतीय काल में जब पल्य का आठवां भाग बाकी रह जाता है तब क्रम-क्रम से प्रतिश्रुति, सन्मति, श्रेमंकर, सीमंकर, सीमंधर, विमलवाहन, चक्षुष्मान, यशस्वान्, अभिचंद्र, चंद्राभ, मरुद्दवे, प्रसेनजिन और नाभिराज ये चौदह कुलकर उत्पन्न हुये थे। धीरे-धीरे कल्पवृक्ष नष्ट होते गये और नाभिराज के समय पूर्णरूप से कल्पवृक्ष नष्ट हो गये। तथा कर्मभूमि का प्रारंभ हो गया नाभिराज और उनकी रानी मरुदेवी के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का जन्म हुआ। उन्होंने अषि, मषि, कृषि, शिल्प, वाणिज्य और विद्या इन छह उपायों का प्रचार कर लोगों को आजीविका चलाने का उपदेश दिया। इस काल का प्रारंभिक भाग भोगभूमि का काल होने से सुषमा कहलाता है परन्तु पीछे का काल कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने से दु:खमय बीतता है इसलिये दु:षमा कहलाता है प्रारंभ और अंत की परिस्थिति को लेकर इसका नाम सुषमा—दु:षमा कहा गया है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव, इसी काल में हुए और इसी में मोक्ष गये।
तृतीय काल समाप्त होने के बाद दु:षमा—सुषमा नाम का चौथा काल प्रकट हुआ। इसका प्रमाण ब्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर का था, इसमें अजितनाथ को आदि लेकर तेईस तीर्थंकर, चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र आदि शलाका पुरुषों की उत्पत्ति हुई। अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी जब मोक्ष गये तब इस काल के तीन वर्ष साढ़े आठ माह बाकी थे। चतुर्थ काल के प्रारंभ में मनुष्यों का शरीर पाँच सौ धनुष ऊँचा होता था और उनकी आयु एक करोड़ वर्ष पूर्व की होती थी। फिर आगे ह्रास होता जाता था।
चतुर्थकाल के अनंतर दु:षमा नामका पाँचवां काल प्रकट हुआ। इसका प्रमाण इक्कीस हजार वर्ष का है प्रारंभ में केवली, श्रुतकेवली तथा अंग पूर्व के पाठी होते रहे, पीछे उनका अभाव हो गया। दु:खमय जीवन होने से इस काल का नाम दु:षमा रखा गया। उत्तरपुराण में श्री गुणभद्राचार्य ने लिखा है इस पंचम काल में मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु सौ वर्ष की होगी, उनका शरीर अधिक से अधिक सात हाथ ऊँचा होगा, उनकी कांति रूक्ष हो जावेगी, रूप भद्दा होगा, वे तीनों समय भोजन में लीन रहेंगे और काम सेवन में आसक्त रहेंगे। शास्त्रोक लक्षण वाले राजाओं का अभाव हो जायेगा, लोग वर्णसंकर हो जावेंगे। दु:षमा काल में एक हजार वर्ष बीतने पर पाटलीपुत्र नगर में राजा शिवपाल की रानी पृथ्वीसुंदरी के चतुर्मुख नाम का पापी पुत्र होगा, जो कल्कि कहलावेगा। इसकी आयु ७० वर्ष की होगी तथा ४० वर्ष तक इसका राज्य चलेगा। यह सबसे कर वसूल करेगा यहाँ तक कि दिगम्बर साधुओं के हाथ में से प्रथम ग्रास को कर रूप में छीन लेगा। शक्तिशाली सम्यग्दृष्टि असुर राजा चतुर्मुख को मारेगा, मरकर वह प्रथम नरक में जावेगा।
राजा चतुर्मुख का पुत्र अजितंजय अपनी पत्नि के साथ उस असुर की शरण लेगा तथा जैनधर्म धारण कर उसकी प्रभावना करेगा। इस प्रकार पंचमकाल में एक—एक हजार वर्ष के अनंतर जब बीस कल्कि हो चुकेंगे तब अंत में जल मंथन नामका कल्कि होगा। वह अंतिम राजा होगा। इसके बाद कोई राजा नहीं होगा। उस समय श्री चन्द्राचार्य के शिष्य वीरांगज नामके मुनि सबसे अंतिम मुनि होंगे, सर्वश्री सबसे अंतिम आर्यिका होंगी, अग्निल अंतिम श्रावक और फल्गुसेना अंतिम श्राविका होगी। ये सब अयोध्या के रहने वाले होंगे। जब पंचम काल में तीन वर्ष साढ़े आठ माह बाकी रह जावेंगे तब कार्तिक वदी अमावस्या के दिन प्रात:काल वीरांगज मुनि, सर्वश्री आर्यिका, अग्निल श्रावक और फल्गुसेना श्राविका ये चारों ही जीव समता भाव से शरीर का परित्याग कर प्रथम स्वर्ग में उत्पन्न होंगे। मध्यान्ह के समय राजा का नाश होगा और सांयकाल के समय अग्नि का नाश होगा। असि, मषि आदि षट् कर्मों की प्रवृत्ति तथा राजा प्रजा आदि का सब व्यवहार नष्ट हो जावेगा।
इसके पश्चात् अति दु:षमा अथवा दु:षमा—दु:षमा नाम के छठवें काल का प्रारंभ होगा इस काल का प्रमाण इक्कीस हजार वर्ष होगा। उस समय मनुष्यों की आयु बीस वर्ष की होगी, साढ़े तीन हाथ ऊँचा उनका शरीर होगा, निरंतर आहार करेंगे अर्थात् खाने—पीने का कोई नियम नहीं रहेगा। नरक अथवा तिर्यंच गति से आने वाले जीव ही यहाँ उत्पन्न होंगे और मरकर इन्हीं दो गतियों में जावेंगे। कपास तथा वस्त्रों का अभाव हो जाने से प्रारंभ में मनुष्य पत्ते आदि पहिनेंगे फिर नग्न रहने लगेंगे। इस काल के अंतिम समय में मनुष्यों की आयु १६ वर्ष की होगी और शरीर की ऊँचाई एक हाथ की रह जावेगी। लोगों की विकृत आकृति होगी। पृथ्वी अत्यंत रूक्ष हो जावेगी। षष्ठ काल का अंत आने पर पानी का अभाव हो जायेगा। जब इस काल में ४९ दिन शेष रहेंगे तब प्रलय पड़ेगा। आचार्य श्री नेमिचंद ने त्रिलोकसार में प्रलय का वर्णन इस प्रकार किया है-
छठवें काल के अंत समय संवर्तक नाम का पवन चलता है, जो पर्वत, वृक्ष तथा पृथ्वी आदि को चूर-चूर कर देता है उस पवन के आघात से वहाँ रहने वाले जीव मूर्च्छित होकर मर जाते हैं। विजयार्ध पर्वत, गंगा, सिन्धु नदी, इनकी वेदिका और क्षुद्र बिल आदि में वहाँ के निकटवर्ती प्राणी घुस जाते हैं तथा कितने ही दयालु विद्याधर और देव, मनुष्य युगल को आदि लेकर बहुत से जीवों को निर्बाध स्थान में ले जाते हैं। छठवें काल के अंत में पवन आदि सात वर्षायें सात-सात दिन तक होती हैं, वे ये हैं-१. पवन, २. अत्यंत शीत, ३. क्षार रस, ४. विष, ५. कठोर अग्नि, ६. धूल और ७. धूम। इन सात रूप परिणत पुद्गलों की वर्षा ४९ दिन तक होती है।
इस प्रलय काल में आर्य खंड की समस्त भूमि अस्त—व्यस्त हो जायेगी। चित्रा पृथ्वी निकल आयेगी अर्थात् इस प्रलय का प्रभाव एक हजार योजन नीचे तक होता है। छठवां काल समाप्त हाेने पर उत्सर्पिणी काल का प्रारंभ होता है। उसके प्रथम काल का नाम अतिदु:षमा अथवा दु:षमा—दु:षमा होता है। वह भी इक्कीस हजार वर्ष का होता है। प्रथम ही क्षीर जाति के मेघ सात दिन तक दूध की वर्षा करते हैं तदनंतर अमृत जाति के मेघ सात दिन तक अमृत की वर्षा करते हैं तत्पश्वात् सात दिन रसाधिक जाति के देव रस की वर्षा करते हैं। शनै: शनै: पृथ्वी रसमय होने लगती है, वृक्ष, लताएँ आदि उत्पन्न होती हैं। इसी क्रम से पाँचवां, चौथा, तीसरा, दूसरा और पहला काल आता है।
यह कालचक्र का परिवर्तन भरत और ऐरावत क्षेत्र में ही होता है। विदेह क्षेत्र में शाश्वत चौथा काल रहता है। विदेह के अंतर्गत देवकुरु और उत्तर कुरु में पहला काल रहता है। हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र में तृतीय काल रहता है तथा हरि और रम्यक क्षेत्र में द्वितीय काल रहता है। भरत और ऐरावत क्षेत्र के पाँच म्लेच्छ खंडों की विजयार्ध पवर्त पर चतुर्थ काल के आदि अंत जैसी परिणति रहती है।