अतिशय क्षेत्र—श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र थूवौन मध्यप्रदेश के ग्वालियर संभाग में गुना जिले के अंतर्गत तहसील मुंगावली में पार्वत्य प्रदेश में अवस्थित है। यह अतिशय क्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध है। यहाँ पर देवकृत अतिशयों की घटनाएँ किंवदंती के रूप में प्रसिद्ध हैं। कहा जाता है कि सेठ पाड़ाशाह का राँगा यहाँ आकर चाँदी हो गया था। पाड़ाशाह को लेकर इस प्रकार की न जाने कितनी किंवदंतियाँ विभिन्न क्षेत्रों पर प्रचलित हैं। बजरंगगढ़ में उन्हें एक पारसमणि मिली थी, जिससे वे सोना बनाकर मंदिर बनवाया करते थे। आहारजी में एक शिला पर राँगा उतारने पर वह सारा राँगा चाँदी हो गया। थूवौन में भी उनका राँगा चाँदी हो गया और भी न जाने किन-किन क्षेत्रों पर उनका राँगा चाँदी हुआ हो। आधुनिक समीक्षकों का विचार है कि पाड़ाशाह राँगा के बहुत बड़े व्यापारी थे। उनके पास राँगा का बहुत बड़ा स्टाक था। परिस्थितिवश राँगा महँगा हो गया। इससे सेठ पाड़ाशाह की चाँदी हो गयी और उस मुनापे के धन से उन्होंने खलारा, बल्हारपुर, सुखाहा, भामौन, सुमेका पहाड़, शेषई, राई, पनवाड़ा, आमेट, दूवकुण्ड, थूवौन, आरा (अगरा), पचराई, गोलाकोट, सोनागिर, अहार, बजरंगगढ़ आदि अनेक स्थानों पर जैन मंदिर बनवाये और उनकी धर्मपत्नी ने-जो वैष्णव धर्म की अनुयायी थी-वैष्णव मंदिर बनवाये। वास्तव में इस क्षेत्र का अतिशय यह नहीं है कि यहाँ किसी व्यक्तिविशेष का राँगा चाँदी हो गया, वरन् क्षेत्र का अतिशय यह है कि यहाँ जो व्यक्ति भक्तिवश दर्शनार्थ आता है, उसके मानस पर यहाँ की एकान्त शांति, पवित्र वातावरण और भगवान जिनेन्द्रदेव की वीतराग मूर्तियोें का ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वह कुछ काल के लिए सांसारिक चिन्ताओं से मुक्त होकर आत्मिक शांति और आह्लाद का अनुभव करने लगता है। इस शांति और आह्लाद को पाने के लिए यहाँ देवगण भी आते हैं और यहाँ आकर वे भाव-भक्ति से वीतराग प्रभु का दर्शन, वंदन और पूजन करते हैं। किन्तु साधारणजनों के मन में चमत्कारों और अतिशयों के माध्यम से भगवान की भक्ति का अंकुरारोपण होता है। वे ऐसे चमत्कारों और अतिशयों से ही अतिशय प्रभावित होते हैं। इसलिए उनकी सन्तुष्टि के लिए यहाँ ऐसी कुछ घटनाओं का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा जो िंकवदन्तियों के रूप में इस प्रदेश में बहुप्रचलित हैं, उनमें से यहाँ एक का वर्णन है- एक बार आततायियों ने इस क्षेत्र पर आक्रमण किया। वे जब मूर्तिभंजन करने के लिए आगे बढ़े तो उन्हें मूर्ति ही दिखाई नहीं दी। तब वे लोग मंदिर को ही क्षति पहुँचाकर वापस चले गये।
क्षेत्र का प्राकृतिक सौन्दर्य— वेत्रवती (वेतवा) की एक सहायक नदी उर्वशी (उर) से एक कि.मी. दूर एक सपाट चट्टान पर मंदिर है। मंदिर के उत्तर की ओर एक छोटी सी नदी लीलावती (लीला) है। इस प्रकार इन युगल सरिताओं के मध्य स्थित क्षेत्र की प्राकृतिक सुषमा अवर्णनीय है। ये नदियाँ कलकल ध्वनि करती हुई पर्वत-शिलाओं से टकराती, उछलती, मचलती, बहती अत्यंत लुभावनी लगती हैं। एक ओर पर्वतमालाएँ, उन पर छितराये हुए सघन वन की हरीतिमा और उसके बीच सिर उठाकर झाँकते हुए जिनालयोें के उत्तुंग शिखर तथा उनके शीर्ष पर फहराती हुई धर्मध्वजाएँ-ये सब मिलकर इस सारे अंचल को, सारे वातावरण को एक स्वप्नलोक सा बना देते हैं और भक्त हृदय आध्यात्मिक साधना के लिए उपयुक्त इस प्रशान्त पावन लोक में आकर सारे भौतिक अवसादों को भूल जाता है। उसका मन अध्यात्म की रंगीनियों में डूब जाता है।
क्षेत्र के नाम की व्युत्पत्ति— जस प्रकार बौद्ध साहित्य में ‘तुम्बवन’ का नाम आता है जो अब ‘तूमैन’ कहलाता है, उसी प्रकार प्राचीन काल में इस क्षेत्र का नाम ‘तपोवन’ रहा होगा। तपोवन शब्द विकृत होकर ‘थोवन’ हो गया। कुछ लोग इसे थूवौन भी कहते हैं।
क्षेत्र दर्शन— क्षेत्र पर मंदिरों की कुल संख्या २५ है।
चंदेरी— अशोकनगर सड़क के किनारे ही क्षेत्र अवस्थित है। बस क्षेत्र के प्रवेश द्वार पर रुकती है। प्रवेशद्वार में प्रवेश करते ही क्षेत्र का कार्यालय है। यह धर्मशाला है। धर्मशाला में बिजली आदि की समुचित व्यवस्था है। धर्मशाला के पृष्ठभाग में मंदिरों तक जाने का मार्ग है। क्षेत्र पर स्थित २५ जिनमंदिरों में से भगवान पार्श्वनाथ के जिनालयों का यहाँ मुख्यत: वर्णन किया जा रहा है-
मंदिर नं.-१ पार्श्वनाथ जिनालय— इसमें भगवान पार्श्वनाथ की मूलनायक प्रतिमा लगभग १५ फुटऊँची खड्गासन है। निकटवर्ती थूवौन ग्राम के निवासी लछमन मोदी और पंचम सिंघई ने संवत् १८६४ में वैशाख शुक्ला पूर्णमासी के दिन इसकी प्रतिष्ठा करायी। मूलनायक के दोनों ओर दो खड्गासन और उनसे नीचे दो पद्मासन प्रतिमाएँ हैं तथा मंदिर के ऊपर तीन शिखर बने हुए हैं, जिनमें तीन मूर्तियाँ विराजमान हैं। मूलनायक के सिर के ऊपर सर्पफण मंडप बना है। इसमें फणावली पृथक्-पृथक् सर्पों के द्वारा अति कलापूर्ण ढंग से बनायी गयी है। ये सर्प प्रतिमा के कंधों के दोनों पाश्र्वों में स्पष्ट परिलक्षित होते हैं। प्रतिमा के चरणों के दोनों पाश्र्वों में चमरेन्द्र खड़े हैंं। गर्भगृह का आकार ११ फुट३ इंच ²१० फूट १० इंच है।
मंदिर नं.-२-पार्श्वनाथ जिनालय— इसमें भगवान पार्श्वनाथ की कायोत्सर्गासन में मूलनायक प्रतिमा है। इसकी अवगाहना १२ फुट है। इसके दोनों ओर दो खड्गासन और दो पद्मासन बिम्ब हैं। इस मंदिर का निर्माण थूवौन निवासी श्री खुशालराय मोदी ने कराया और संवत् १८६९ में माघ शुक्ला त्रयोदशी को प्रतिष्ठा करायी। गर्भगृह का आकार ११ फुट२ इंच ² १० फुट१० इंच है।
मंदिर नं.-६-पँचभाइयों का मंदिर— भगवान आदिनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा वाली ६ फुटऊँची मूर्ति है। इनकी जटाएँ अद्भुत हैं और पादचुम्बी हैं। ऐसी पादचुम्बी जटाएँ अन्यत्र दुर्लभ हैं। इनके दोनों ओर पार्श्वनाथ भगवान की ४ फुट७ इंच ऊँची खड्गासन मूर्तियाँ विराजमान हैं। पार्श्वनाथ के पाश्र्व में ंएक पद्मासन प्रतिमा पाँच फुट की है। द्वार पर ११ पंक्तियों का लेख है। इससे ज्ञात होता है कि मंदिर का निर्माण सन् १६८० में हुआ है।
मंदिर नं.-७-पार्श्वनाथ मंदिर— यह मंदिर बड़े पँचभाइयों का मंदिर कहलाता है। मूलनायक प्रतिमा भगवान पार्श्वनाथ की है। यह खड्गासन है और इसकी अवगाहना १५ फुट है। इस प्रतिमा के दोनों ओर दो खड्गासन और दो पद्मासन मूर्तियाँ हैं। मूलनायक के हाथों से अधोभाग में गज पर चमरेन्द्र खड़े हैं। सबसे नीचे के भाग में दोनों ओर दो-दो भक्त हाथ जोड़े बैठे हैं।
मंदिर नं.-१२-पार्श्वनाथ मंदिर— इसमें भगवान पार्श्वनाथ की १६ फुटअवगाहना वाली मूलनायक खड्गासन प्रतिमा है। कन्धों से ऊपर दोनों ओर दो पद्मासन मूर्तियाँ हैं। हाथी पर चमरवाहक खड़े हैं। यह मंदिर रावतों का कहलाता है। परवार जाति में ईडरीमूर को रावत कहते हैं किन्तु लेख न होने से निर्माता का नाम और निर्माण का काल ज्ञात नहीं हो पाया।
मंदिर नं.-१३-पार्श्वनाथ मंदिर— इसमें भगवान पार्श्वनाथ की मूलनायक प्रतिमा १६ फुट(आसन सहित) है। प्रतिमा के सिर के ऊपर नौ फणावली वाला सर्प फण-मंडप बना हुआ है। इस फणावली में नौ सर्प पृथक्-पृथक् बने हुए हैं। फणावली के दोनों ओर दो पद्मासन मूर्तियाँ हैं। गजारूढ़ चमरेन्द्र भगवान की सेवा में संलग्न हैं। चरणों के दोनों ओर दो भक्त महिलाएँ भगवान के आगे हाथ जोड़े हुए खड़ी हैं। इस मंदिर के शिखर में पूर्व, दक्षिण और उत्तर तीनों ओर तीन बिम्ब हैं। इसका प्रतिष्ठाकाल शकाब्द १६४५ (विक्रम संवत् १७८०) है। लगता है, यह काल आनुमानिक है। प्रतिष्ठाचार्य भट्टारक महेन्द्रकीर्ति जी थे।
मंदिर नं.-२३-पार्श्वनाथ मंदिर— भगवान पार्श्वनाथ की मूलनायक प्रतिमा कायोत्सर्गासन में विराजमान है। अवगाहना ६ फुट ३ इंच है। ऊपर दो पद्मासन प्रतिमाएँ हैं। नीचे चमरवाहक हैं। मंदिर के निर्माता प्रानपुरा निवासी कोई मोदी हैं। नाम अस्पष्ट है। इस मंदिर की प्रतिष्ठा मंदिर नं.१८ के साथ हुई थी। इस प्रकार मंदिर नं. १८ से २३ तक ६ मंदिरों की प्रतिष्ठा एक साथ हुई थी। ये मंदिर एक पंक्ति में हैं। ये मूर्तियाँ विशेष मनोज्ञ नहीं हैं। सम्भवत: सब मूर्तियों का शिल्पकार एक ही व्यक्ति था।
मार्ग— सेन्ट्रल रेलवे के ललितपुर स्टेशन पर उतरकर वहाँ से सड़क मार्ग से ३४ कि.मी. चंदेरी है। चंदेरी-अशोकनगर सड़क मार्ग पर चंदेरी से १४ कि.मी. और अशोकनगर से लगभग ५० कि.मी. दूर पिपरौल ग्राम है। वहाँ से ८ कि.मी. थूवौन क्षेत्र है। दूसरा मार्ग अशोकनगर से सीधा २६ कि.मी. है। इस मार्ग पर आठ महीने मोटर का आवागमन रहता है। पश्चिमी रेलवे की कोटा-बीना लाइन पर मुंगावली स्टेशन उतरकर वहाँ से चंदेरी जा सकते हैं। इस प्रकार ललितपुर, अशोकनगर, मुंगावली तीनों ही स्थानों से क्षेत्र पर जा सकते हैं और मार्ग की दूरी भी लगभग समान पड़ती है। इसका जिला गुना है। क्षेत्र पर यात्रियों के आवास हेतु उचित सुविधाएँ हैं।