इस प्रकार पूर्व दिशा के सदृश ही तीनों दिशाओं में ‘अंजन’ पर्वत हैं उनके चारों दिशाओें की वापियों के नाम भिन्न-भिन्न हैं। दक्षिण अंजन गिरि की पूर्वादि दिशाओं में क्रम से अरजा, विरजा, अशोका, वीतशोका, वापियाँ हैं। पश्चिम अंजनगिरि की चारों दिशाओं में विरजा, वैजयन्ती, जयंती और अपराजिता वापियाँ हैंं। उत्तर अंजनगिरि की चारों दिशाओं में रम्या, रमणीया, सुप्रभा और सर्वतोभद्रा वापियाँ हैं। प्रत्येक वापी के चारों तरफ एक-एक वन होने से १६ वापी के चौंसठ वन हो गये हैं।
इन अंजनगिरियों के चौंसठ वनों में फहराती हुई वन ध्वज-पताकाओं से संयुक्त उत्तमरत्न, सुवर्णमय एक-एक प्रासाद हैं ये प्रासाद ६२ योजन ऊँचे, ३१ योजन लम्बे चौड़े उत्तम वेदिका, तोरण द्वारों से सुशोभित हैं। इन प्रासादों में बहुत प्रकार के व्यंतर देव क्रीड़ा करते हैं। चारों प्रकार के देव नंदीश्वर द्वीप में प्रतिवर्ष आषाढ़, कार्तिक, फाल्गुन के आष्टान्हिक पर्व में आते हैं। दिव्य विभूति से रहित सौधर्म इंद्र हाथ में नारियल को लेकर ऐरावत हाथी पर चढ़कर आता है। ईशान इंद्र हाथी पर बैठकर सुपाड़ी के गुच्छों को हाथों में लेकर आता है। सनत्कुमार इंद्र सिंह पर चढ़कर आम्र फलों के गुुच्छों को लेकर आता है, माहेन्द्र इंद्र घोड़े पर चढ़कर केलों को लेकर आता है, आगे के देव कोई केतकी कोई कमल, सेवंती, पुष्पमाल, नीमकमल, अनार फल आदि को लेकर आते हैं। ये चार प्रकार के देव नंदीश्वर द्वीप के दिव्य जिनेन्द्र भवनों में आकर नाना प्रकार की स्तुतियों से वाचालमुख होते हुये प्रदक्षिणायें करते हैं।
नंदीश्वरद्वीपस्थ जिन मंदिरों की पूजा में बहुत भक्ति से युक्त कल्पवासी देव पूर्वदिशा में, भवनवासी दक्षिण में, व्यंतरवासी देव पश्चिम में और ज्योतिषीदेव उत्तर में अनेक स्तुतियों से युक्त होकर अपने-अपने वैभव के अनुसार दिव्य महापूजा करते हैं अर्थात् दिन रात के चौबीस घंटे में ६-६ घंटे तक पूजा करते हैं पुन: वे देव आगे-आगे के ६-६ घंटों में आगे-आगे की दिशाओं में बढ़ते जाते हैं अत: २४ घंटों में वे देव चारों दिशाओं की पूजा कर लेते हैं वहाँ नदीश्वर द्वीप में दिन-रात का भेद नहीं है यह घंटे के काल का हिसाब यहीं के अनुसार है। उसी बात को स्पष्ट करते हैं ये देव भक्ति युक्त होकर अष्टमी से पूर्णिमा तक पूर्वान्ह, अपराह्र, पूर्वरात्रि, अपररात्रि में दो-दो प्रहर तक उत्तम भक्तियुत प्रदक्षिण क्रम से जिनेन्द्र भगवान की विविध प्रकार से पूजा करते हैं। सुगंधित जल आदि से उन दिव्य प्रतिमाओं का अभिषेक आदि करते हैं। अष्टद्रव्य, वाद्य, नृत्य प्रकारों से जिन भगवान की उपासना करते हैं।
इस प्रकार से पूर्वादि चार दिशा सम्बंधी १-१ अंजनगिरि, ४-४ दधिमुख, ८-८ रतिकर ऐसे १३-१३ पर्वतों के १३-१३ जिन भवनों के जोड़ से यहाँ ५२ चैत्यालय शोभित हैंं। उनमें स्थित सभी जिन प्रतिमाओं को मेरा नमस्कार होव