श्रीमनारगुडी क्षेत्र—श्रीमनारगुडी क्षेत्र तंजौर जिले में है। यह निडमंगलम् दक्षिण रेलवे स्टेशन से लगभग १४ किमी. दूर है। यह स्थान श्री जीवंधर स्वामी का जन्मस्थान बताया जाता है। कहते हैं सन् १८०० में यहाँ एक मुनि पर्ण कुटी में तपस्या किया करते थे। उन्होंने ही यहाँ भगवान पाश्र्वनाथ की प्रतिमा विराजमान की थीं। जब इसका पता कुंभकोनम के जैनों को चला तो उन्होंने यहाँ आकर मंदिर का निर्माण कराया। तब से अद्यतन यहाँ वैशाख मास में १० दिन तक यात्रोत्सव सम्पन्न होता है। मंदिर में श्री मल्लिनाथ स्वामी की भव्य प्रतिमा विराजमान है।
मदुरै— मदुरै नगर पांड्या वंश की राजधानी रहा है। यह तमिल संस्कृति-साहित्य का प्रमुख केन्द्र रहा है। मदुरै के आसपास की प्राय: सभी पहाड़ियों पर जैन साधुओं के वास के लक्षण-शैय्याएँ, शिलालेख आदि अब भी हैं। आवेमलै, तीरुपरनकुंद्रम्, कोंकरपुलिनकुलम्, मुथुपती, विक्रममंगलम्, अन्नामलै, करुणकलनगुडी, कीज्हाकुडी, मेत्तुपत्ती आदि अनेक स्थानों में ऐसे लक्षण हैं। कई स्थानों पर तीर्थंकर मूर्तियाँ भी हैं। मदुरै एक प्रसिद्ध धार्मिक और पर्यटन स्थल है। शिलालेखों आदि से प्रतीत होता है कि कभी इस क्षेत्र में बहुत महत्त्व का जैन मठ रहा होगा। इस क्षेत्र का संबंध जैन आचार्यों से रहा है। अरिष्टनेमि, माघनंदि, गुणसेन, वर्धमान, कनकनंदी आदि आचार्यों का उल्लेख मिलता है। महान आचार्या अज्जनंदी (आर्यनंदी) द्वारा जैनधर्म के उन्नयन के प्रयास महत्वपूर्ण रहे हैं।
तिरूनेलवेली-कजहगुमलै— तिरूनेलवेली जिले में कोबिलपट्टी तालुक में कलगुमलै (कजहगुमलै) ग्राम के पास पहाड़ी गुफाएँ हैं। चट्टानों पर ६० से अधिक तीर्थंकर मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से ही नहीं, कला की दृष्टि से भी यह स्थान महत्वपूर्ण और दर्शनीय है। यहाँ कई शिलालेख और मूर्तियाँ भी हैं। इतना ही नहीं, यहाँ की प्राकृतिक रम्यता और नैसर्गिक छटा अत्यन्त हृदयहारी है।
विजयमंगलम्-मेत्तपुथूर— ऐरोडे के किट, विजयमंगलम् रेलवे स्टेशन से ५ किमी. पर मेत्तपुथूर नामक समृद्ध गांव में एक महत्वपूर्ण मंदिर है। यह स्थान कोयंबटूर से चेन्नई जाने वाली सड़क पर कोयंबटूर से ६७ किमी. है। कोयंबटूर-एरोडे का क्षेत्र, जो कभी कोंगुनडू (कोगु क्षेत्र) कहलाता था, जैनों का प्रभावशाली स्थान रहा है। यह अनेक प्रख्यात जैन कवियों और संतों की जन्मभूमि है। इनमें कोंगुवेलर, कारमेख पुलावार, मुनिवर भावनंदी, अतीयरकुन्नालर, विल्लीपुथुर, महामुनिवर गुणवीर के नाम उल्लेखनीय हैं। परम्परानुसार कोंगु क्षेत्र में ७५ जैन मंदिर थे जिनमें विजयमंगलम् बड़ा मंदिर कहलाता था। कालगति में प्राय: सभी मंदिर नष्ट हो गए।
कर्नाटक-स्तवनिधि (तावंदी)–कोल्हापुर से ४० किमी. पर निपानी नामक कस्बा है, जहाँ पर २०० घर जैनों के हैं और २ मंदिर हैं। वहाँ से तावंदी ५ किमी. है। बस स्टैण्ड से कोई १०० मीटर पर ही पाश्र्वनाथ जैन गुरुकुल है। वहीं पर ठहरने को जगह मिल जाती है। गुरुकुल में जैन मंदिर है, जिसमें भगवान पाश्र्वनाथ की पौने दो मीटर अवगाहन वाली मनोज्ञ प्रतिमा है। गुरुकुल से सवा किमी. पर स्तवनिधि क्षेत्र है। वहाँ पर एक धर्मशाला और चार मंदिर हैं। ब्रह्मदेव की एक विशाल मूर्ति है। इसकी काफी मान्यता है।
बेलगांव- तावंदी से ६६ किमी. पर बेलगांव है। इस नगर में ९ जिनमंदिर हैं। कर्नाटक क्षेत्र में मंदिर को वसदि और धर्मशाला को बोर्डिंग हाउस, छोटे को चिक और बड़े को दौड़ कहते हैं। यहाँ नौ मंदिर हैं। (१) किले के अंदर भाग में कमलवसदि, (२) रोही गली में, (३) दौड़ बस्ती में नेमिनाथ मंदिर, (४) शोरी गली में चंद्रप्रभ मंदिर, (५) चिक वसदि, (६) हसूर में, (७) शाहपुर में, (८) तड़कबाडी में और (९) गोम्मट्टनगर में। यहाँ मंदिरों पर शिखर नहीं है।
हुबली- धारवाड़ से २० किमी. पर हुबली है। बस स्टेशन से लगभग एक किमी. पर जैन बोर्डिंग है। उसमें एक छोटा सा जैन मंदिर भी है। बोगार गली में तीन जैन मंदिर हैं। चंद्रनाथ स्वामी, शांतिनाथ स्वामी और आदिनाथ स्वामी। वहाँ से कोई डेढ़ किमी. दूर अनंतानंत और पाश्र्वनाथ के दो और मंदिर हैं।
गोम्मटगिरि- यह मैसूर से १६ किमी. की दूरी पर स्थित है। एक बहुत छोटी पहाड़ी पर भगवान बाहुबली की साढ़े पाँच मीटर ऊँची मनोज्ञ मूर्ति है। भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव के समय यहाँ पर एक धर्मशाला बनवाई गई है। यदि कोई संघ चाहे तो एकाध दिन ठहरकर एकांतवास और भगवान बाहुबली के दर्शन-पूजन का सुयोग प्राप्त कर सकता है।
श्रवणबेलगोल (जैनबद्री)— श्रवणबेलगोल जैनों का अति प्राचीन और परमपावन तीर्थ है। जैन इतिहास में इसका विशिष्ट स्थान है। उत्तरवासी इसे ‘जैनबद्री’ कहते हैं। यह ‘जैन काशी’ और ‘गोमट्टतीर्थ’ नामों से भी प्रसिद्ध रहा है। यह कर्नाटक राज्य के हासन जिले में स्थित है और बंगलौर से १४० कि.मी. हासन से ५२ कि.मी. तथा मैसूर से ८३ कि.मी. है। यहां पर श्री बाहुबली स्वामी की लगभग १८ मीटर (५७ फीट) ऊंची अद्वितीय एवं अतिशय संपन्न विशाल प्रतिमा है। ऐसी प्रतिमा संसार में अन्यत्र नहीं है। लगभग १५—१६ कि.मी. दूर से ही यह दिव्य र्मूित दृष्टिगोचर होने लगती है। र्मूित पर दृष्टि पड़ते ही यात्री अपूर्व शांति का अनुभव करने लगता है। धन्य है वह व्यक्ति जिसे भगवान बाहुबली की इस भव्य प्रतिमा के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होता है। और धन्य हैं वह महाभाग चामुंडरायजी जिन्होंने दसवीं शताब्दी में इस मनोज्ञ र्मूित का निर्माण कराया था। इस र्मूित का निर्माण उन्होंने अपनी मातेश्वरी की इच्छानुसार कराया था। चामुंडराय जी कर्नाटक राज्य के सम्राट गंगराज श्री रच्चमल के महामात्य थे। अपने गुणों एवं पराक्रम के कारण वह महाबलाधिपति, समरधुरंधर, सत्य युधिष्ठिर आदि उपाधियों से अलंकृत थे। उन्होंने भगवान बाहुबली की उपर्युक्त प्रतिमा बनवाकर इंद्रगिरि पर्वत पर प्रतिष्ठित कराई थी। यह उत्सव आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के सान्निध्य में सम्पन्न हुआ था। श्रवणबेलगोल गांव के दोनों ओर दो मनोहर पर्वत िंवध्यगिरि (इंद्रगिरि) और चंद्रगिरि हैं। गांव के बीच में कल्याणी सरोवर है। इसलिए यहां की प्राकृतिक छटा चित्ताकर्षक है। इंद्रागिरि को यहां के लोग दोड्ड—वेट्ट (बड़ा पहाड़) कहते हैं इस पर चढ़ने के लिए पांच सौ सीढ़ियां बनी हुई हैं। इस पर्वत पर चढ़ते ही पहले ब्रह्मदेव मंदिर पड़ता है जिसकी अटारी में पाश्र्वनाथ स्वामी की एक र्मूित है। पर्वत की चोटी पर पत्थर की प्राचीन दीवार का घेरा है जिसके अंदर बहुत से प्राचीन जिनमंदिर हैं। घुसते ही ‘चौबीस तीर्थंकर वसदि’ एक छोटा—सा मंदिर है। इसमें चौबीसी पट्ट विराजमान हैं। इसकी स्थापना सन् १६४८ में हुई थी। इस मंदिर के उत्तर—पश्चिम में एक कुंड है। उसके पास ‘चेन्नण्ण बसदि’ नामक एक दूसरा मंदिर है। इसमें भगवान चंद्रप्रभ की मनोज्ञ प्रतिमा है। मंदिर के सामने एक मानस्तंभ है। यह मंदिर लगभग १६७३ ई.चेन्नगण ने बनवाया था। इसके आगे चबूतरे पर बना हुआ ‘ओदेगल बसदि’ नामक मंदिर है। यह कड़े वंâकड़ का बना हुआ है और होयसल काल का है। इस मंदिर की छत के मध्य भाग में एक बहुत ही सुन्दर कमल लटका हुआ है। श्री आदिनाथ भगवान की जिन प्रतिमा दर्शनीय है। श्री शांतिनाथ और नेमिनाथ की भी सुंदर प्रतिमाएँ हैं। इस विंध्यगिरि पर्वत पर ही एक छोटे घेरे में श्री बाहुबली (गोम्मट) स्वामी की विशालकाय मूर्ति विराजमान है। इस घेरे के बाहर भव्य संगतराशी का त्यागद् ‘ब्रह्मदेव स्तंभ’ नामक सुंदर स्तंभ छत से अधर लटका हुआ है। इसे गंगवंश के राजमंत्री सेनापति चामुंडराय ने बनवाया था, जो ‘गोम्मटसार’ के रचयिता श्री नेमिचंद्राचार्य के शिष्य थे। गुरु और शिष्य की मूर्तियाँ भी उस पर अंकित हैं। इस स्तंभ के सामने ही गोम्मटेश की मूर्ति के प्राकार में घुसने का अखंड द्वार है। वह एक शिला का बना हुआ है। इस द्वार के दाहिनी ओर बाहुबली जी का छोटा सा मंदिर और बार्इं ओर भरत भगवान का मंदिर है। पास वाली चट्टान पर सिद्ध भगवान की मूर्तियाँ हैं। वहीं पर ‘सिद्धर वसदि’ है। पास ही दो सुंदर स्तंभ हैं। वहीं पर ‘ब्रह्मदेव स्तंभ’ है और गुल्लकायि जी की मूर्ति है। गुल्लकायिजी चामुंडराय के समय में ही हुई थीं। वह बड़ी धर्मवत्सला महिला थीं। लोकश्रुति है कि चामुंडराय ने बड़े धूमधाम से गोम्मट स्वामी के अभिषेक की तैयारी की थी। परन्तु अभिषिक्त दूध जांघों के नीचे नहीं उतरा। कारण यह था कि चामुंडराय जी को थोड़ा सा अभिमान हो गया था। एक वृद्धा भक्तिन गुल्लकायि नारियल में दूध भरकर लाई। उसने भक्तिपूर्वक अभिषेक किया तो वह सर्वांग सम्पन्न हुआ। चामुंडराय जी ने गुल्लकायिजी की मूर्ति बनवाकर उनकी भक्ति को चिरस्थाई बना दिया। बाहुबली जी प्रथम कामदेव थे। ‘गोम्मट’ शब्द काम का द्योतक है। इसलिए वह गोम्मटेश्वर कहलाते थे। उनका अभिषेकोत्सव १२ वर्षों में एक बार होता है। इस मूर्ति के चारों ओर प्राकार में छोटी-छोटी देवकुलिकाएँ हैं। इनमें तीर्थंकर भगवान की मूर्तियाँ विराजमान हैं। चंद्रगिरि पर्वत इंद्रगिरि से छोटा है। इसलिए कन्नड़ में उसे चिक्कवेट्ट कहते हैं। वह आसपास के मैदान से लगभग ५५ मीटर ऊँचा है। प्राचीन संस्कृत लेखों में इसे कटवप्र कहा जाता है। यहाँ प्रकार के भीतर कई सुंदर जिनमंदिर हैं। एक देवालय प्राकार के बाहर है। प्राय: सब ही मंदिर द्रविड़-शिल्पकला की शैली के हैं। सबसे प्राचीन मंदिर आठवीं शताब्दी का बताया जाता है। पहले ही पर्वत पर चढ़ते हुए भद्रबाहु गुफा मिलती है। जिसमें उनके चरणचिन्ह विराजमान हैं। भद्रबाहु गुफा से ऊपर पहाड़ की चोटी पर भी मुनियों के चरणचिन्ह हैं। उनकी वंदना करके यात्री दक्ष्ज्ञिण द्वार से प्राकार में प्रवेश करते हैंं प्रवेश करते ही एक सुंदरकाय मानस्तंभ मिलता है। इसे ‘वूâगेब्रह्मदेव स्तंभ’ कहते हैं। यह बहुत ऊँचा है और इसके सिरे पर ब्रह्मदेव की मूर्ति है। गंगवंशी राजा मारसिंह द्वितीय का स्मारक रूप् लेख भी इस पर खुदा हुआ है। इसी स्तंभ के पास कई प्राचीन शिलालेख चट्टान पर उत्कीर्ण हैं। शिलालेख करीब ६४० ई. में बना था। इसमें स्पष्ट उल्लेख है कि भद्रबाहु और चंद्रगुप्त दो महान मुनि हुए हैं। जिनकी कृपा दृष्टि से जैनमत उन्नत दशा को प्राप्त हुआ। मानस्तंभ से पश्चिम की ओर सोलहवें तीर्थंकर श्री शांतिनाथ का एक छोटा सा मंदिर है। उसमें शांतिनाथ भगवान की साढ़े तीन मीटर ऊँची एक महामनोज्ञ खड्गासन मूर्ति दर्शनीय है। इस मंदिर के खुले स्थान में भरत की अपूर्व मूर्ति खड़ी है। पूर्व दिशा में ‘महानवमी मंडप’ है जिसके बीस स्तंभ हैं। एक स्तंभ पर मंत्री नागदेव ने सन् ११७६ ई. में नयकीर्ति नामक मुनिराज की स्मृति में लेख खुदवाया है। यहाँ से पूर्व की ओर श्री पाश्र्वनाथ जी का बहुत बड़ा मंदिर है। इसके सामने एक मानस्तंभ है। मंदिर उत्कृष्ट शिल्पकला का सुंदर नमूना है। इसी के पास ‘कत्तले वसदि’ नामक विशााल मंदिर है। इसे विष्णुवद्र्धन के सेनापति गंगराज ने बनवाया था। इसमें आदिनाथ की मूर्ति विराजमान है। यहाँ एक मंदिर है, जिसमें प्रदक्षिणार्थ मार्ग बना हुआ है। चंद्रगिरि पर्वत पर सबसे छोटा मंदिर चंद्रगुप्त वसदि है। यहाँ एक पत्थर के सुंदर चौखटे में पाँच चित्रपट्टिकाएं अति भव्य हैं। इनमें श्रुतकेवली भद्रबाहु और सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन संबंधी चित्र बने हुए हैं और पाश्र्वनाथ स्वामी की मूर्ति विराजमान है। श्री भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त का यह सुंदर स्मारक है। फिर ‘शासन वसदि’ है जिसमें एक शिलालेख दूर से दिखाई पड़ता है। यहाँ आदिनाथ की मूर्ति विराजमान है। इस मंदिर को सन् ११५७ में सेनापति गंगराज ने बनवाया था। उन्होंने इसका नाम ‘इंद्रकुलगृह’ रखा था। यहीं ‘मज्जिगण वसदि’ नामक एक छोटा सा मंदिर है। इसमें चौदहवें तीर्थंकर श्री अनंतनाथ की पाषाणमूर्ति विराजमान है। दीवारों पर सुंदर फूल चित्रित हैं। ‘चंद्रप्रभ वसदि’ के खुले गर्भगृह में आठवें तीर्थंकर श्री चंद्रप्रभ की मनोज्ञ मूर्ति विद्यमान है। इसे गंगवंशी राजा शिवमार ने बनवाया था। ‘सुपार्वनाथ वसदि’ में भगवान सुपाश्र्वनाथ की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। ‘चामुंडराय वसदि’ पहाड़ के सबसे बड़े मंदिरों में से है। इसमें २२वें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ जी की भव्य प्रतिमा है। इस सुंदर मंदिर को सेनापति चामुंडराय ने ९८२ ई. में बनवाया था। बाहरी दीवारों में खंभे खुदे हुए हैं जिनमें मनोहर चित्रपट्टिकाएं हैं। छत की मुंडेरों और शिखरों का मनोहर शिल्प देखते ही बनता है। ऊपर छत पर चामुंडराय जी के सुपुुत्र जिनदेव ने एक अट्टालिका बनवाकर उसमें पाश्र्वनाथ जी का प्रतिबिम्ब विराजमान कराया था। नीचे गांव में निकट ही आदिनाथ देवालय है, जिसे ‘एरडुकट्टे वसदि’ कहते हैं। इसे होयसेल सेनापति गंगराज की धर्मपत्नी श्रीमती लक्ष्मी देवी ने १११८ ई. में बनवाया था। ‘सवतिगंधवारण वसदि’ भी काफी बड़ा मंदिर है। इसे होयसल नरेश विष्णुवद्र्धन की रानी शांतलदेवी ने बनवाया था। इसमें भगवान शांतिनाथ की प्रतिमा विराजमान है। इस मूर्ति का प्रभामंडल अति सुन्दर है। ‘बाहुबली वसदि’ रथाकार होने के कारण ‘तेरिन’ वसदि कहलाती है। कन्नड़ में रथ को तेरु कहते हैं। इसमें श्री बाहुबली की मूर्ति विराजमान है। ‘शांतीश्वर वसदि’ मंदिर भी होयसल काल का है। ‘इरुवेब्रह्मदेव मंदिर’ में केवल ब्रह्मदेव की मूर्ति है। यहाँ दो कुंड भी हैं। इस पर्वत के उत्तर द्वार से उतरने पर जिननाथपुर का पूर्ण दृश्य दिखाई पड़ता है। जिननाथपुर को होयसल सेनापति गंगराज ने १११७ ई. में बसाया था। सेनापति रेचिमय्या ने यहाँ पर ‘शांतिनाथ वसदि’ नामक एक अति सुंदर मंदिर बनवाया था। यह मंदिर होयसल शिल्पकारी का अद्वितीय नमूना है। इसके नक्काशीदार स्तंभों में माियों की पच्चीकारी का काम दर्शनीय है। स्तंभ भी कसौटी के पत्थर से निर्मित हैं। इसी गांव में दूसरे छोर पर तालाब के किनारे ‘ओगल वसदि’ नामक मंदिर है। इसकी प्राचीन प्रतिमा खंडित हो गई थी। इसलिए उसे तालाब में विसर्जित कर दिया गया। मंदिर में नई प्रतिमा विराजमान की गई है। इसके अतिरिक्त श्रवणबेलगोल गांव में भी कई दर्शनीय जिनमंदिर हैं। इनमें ‘भंडारी वसदि’ नामक मंदिर सबसे बड़ज्ञ है। इसके कई गर्भगृहों में एक लंबे अलंकृत पादपीठ पर चौबीस तीर्र्थंकरों की खड्गासन प्रतिमाएँ विराजमान हैं। इसके द्वार सुंदर हैं। फर्श बड़ी लम्बी-लम्बी शिलाओं का बना हुआ है। मंदिर के सामने एक अखंड शिला का बड़ज्ञ सा मानस्तंभ खड़ा है। होयसल नरेश नरसिंह प्रथम के भंडारी ने यह मंदिर बनवाया था। राजा नरसिंह ने इस मंदिर को सवणेरु गांव भेंट किया था और इसका नाम ‘भव्यचूड़ामणि’ रखा था। ‘अक्कन वसदि’ नामक मंदिर श्रवणबेलगोल में होयसल शिल्प शैली का एक ही मंदिर है। इसमें सप्तफणमंडित भगवान पाश्र्वनाथ की प्रतिमा विराजमान है। इसके स्तंभ, छत और दीवारें शिल्पकला के अपूर्व नमूने हैं। इस मंदिर को ब्राह्मण सचिव चन्द्रमौलि की पत्नी अचियवक देवी ने ११८१ में बनवाया था। इस मंदिर के प्राकार के पश्चिमी भाग में ‘सिद्धांत वसदि’ नामक मंदिर है, जिसमें सिद्धान्त ग्रंथ रखे गये थे। बाहर द्वार के पास ‘दानशाले वसदि’ है। जिसमें पंचपरमेष्ठी की मूर्ति विराजमान है। ‘नगर जिनालय’ बहुत छोटा मंदिर है। इसे ११९५ ई. में मंत्री नागदेव ने बनवाया था। ‘मंगाई वसदि’ शांतिनाथ स्वामी का मंदिर है। चारुकीर्ति पंडिताचार्य की शिष्या, राजमंदिर की नर्तकी चूड़ामणि और बेलुगुल की रहने वाली मंगाई देवी ने १३२५ ई. में इसे बनवाया था। धन्य था वह समय, जब जैनधर्म राजनर्तकियों के जीवन को पवित्र बना देता था। ‘जैनमठ’ में मैनेजिंग कमेटी का कार्यालय है और स्वस्तिश्री भट्टारक चारुकीर्ति जी कमेटी के अध्यक्ष हैं। इसके द्वार मंडप के स्तंभों पर कौशलपूर्ण खुदाई का काम है। मंदिर में तीन गर्भगृह हैं, जिनमें अनेक जिनबिम्ब विराजमान हैं। इसमें ‘नवदेवता’ की मूर्ति अनूठी है। पंचपरमेष्ठियों के अतिरिक्त इसमें जैनधर्म को एक वृक्ष के द्वज्ञरा सूचित किया गया है। व्यास पीठ (चौकी) जिनवाणी का प्रतीक है। चैत्य एक जिनमूर्ति द्वारा और जिनमंदिर एक देवमंडप द्वारा दर्शाए गए हैं। सबकी दीवारों पर सुंदर चित्र बने हुए हैं। पास ही बालक-बालिकाओं के लिए अलग-अलग जैन पाठशालाएँ हैं। यहाँ पर इंजीनियरिंग कॉलेज है। इस तीर्थ की मान्यता मैसूर के विगत शासनाधिकारी राजवंश में पुरातन काल से है। जैनधर्म का गौरव श्रवणबेलगोल के प्रत्येक कीर्तिस्थान से प्रकट होता है।
जिननाथपुर- श्रवणबेलगोल के समीपस्थ ही कुछ अन्य मंदिर हैं, जो दर्शनीय हैं। जिननाथपुर श्रवणबेलगोल से लगभग डेढ़ किमी. उत्तर में है। यहाँ की ‘शांतिनाथ वसदि’ होयसल शिल्प का एक बेजोड़ नमूना है। इसमें भगवान शांतिनाथ की लगभग डेढ़ मीटर ऊँची प्रतिमा है।
धर्मस्थल- धर्मस्थल बेलूर से १०५ किमी., हासन से ७० किमी. है। मंगलौर से चारमाडी जाने वाली सड़क पर ६४ किमी. पर उजरे पड़ता है, वहाँ से ९ किमी. पर धर्मस्थल है। उजरे से २ किमी. की दूरी पर नेत्रवती नदी है। यात्री इस नदी में स्नान करके धर्मस्थल को जाते हैं। यहाँ पर मंजुनाथ स्वामी (शिव का एक रूप) एक मुख्य मंदिर है और जैनों का चंद्रनाथ स्वामी (भगवान चन्द्रप्रभ) का मंदिर है। बड़ी संख्या में हिन्दू, जैन, मुसलमान और ईसाई उस स्थान पर आते हैं और धर्म का लाभ प्राप्त करते हैं। इस स्थान की बड़ी मान्यता है। क्षेत्र की ओर से विशाल धर्मशालाएँ, भोजनशाला निर्मित करायी गयी है। आसपास में क्षेत्र की ओर से कई कॉलेज, स्कूल, गुरुकुल चल रहे हैं। यहाँ के धर्माधिकारी डॉ. डी. वीरेन्द्र हेगड़े (जैन) हैं। यह क्षेत्र धार्मिक सद्भाव का स्थान है। इस सारे क्षेत्र में डॉ. हेगड़े जी का विशेष मान है। आसपास की जनता के आपसी विवाद में हेगड़े जी का निर्णय सर्वमान्य होता है, उसकी अपील नहीं की जा सकती। यहाँ भगवान बाहुबली की १२ मीटर ऊँची प्रतिमा एक पहाड़ी पर विराजमान है। इसका निर्माण कारकल में हुआ था।
वेणूर- मंगलौर से ५३ किमी. और धर्मस्थल से ३६ किमी. की दूरी पर वेणूर है। यह जैनों का प्राचीन केन्द्र है। यहाँ एक जैन धर्मशाला और कई जैन मंदिर हैं। यहाँ के राजा वीर निम्मराज ने सन् १६०४ में भगवान बाहुबली की प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई थी और शांतिनाथ मंदिर का निर्माण कराया था। यहाँ बड़ी संख्या में सुंदर मूर्तियाँ हैं। आवास व्यवस्था है।
मूडबद्री— यह मंगलौर से ३४ कि.मी. और वेणूर से २० कि.मी. दूर है। वेणूर से कारकल जाने वाली बसें जैन धर्मशाला के सामने से गुजरती हैं, इसलिए बस स्टैंड पर न उतरकर धर्मशाला के सामने ही उतर जाना चाहिए। होयसल काल में मूडबिद्री जैनों का प्रमुख केन्द्र था। कई राजा जैनधर्म के अनुयायी थे। यहां जैन व्यापारियों आदि का वास था। इस कस्बे में १८ जैन मंदिर हैं, जिनमें त्रिभुवन तिलक चूड़ामणि, जो भगवान चंद्रनाथ (चंद्रप्रभ) को सर्मिपत है, सबसे बड़ा है। यह सन् १४२९—३० में र्नििमत हुआ था। सन् १४४२ में यहां प्रसिद्ध यात्री अब्दुल रज्जाक का आगमन हुआ था। उसने इसे संसार का सबसे शानदार मंदिर लिखा है। यह मंदिर तीन मंजिला है। नीचे की मंजिल में मूलनायक की पंचधातु की प्रतिमा लगभग पौने तीन मीटर ऊंची है। कतिपय अन्य र्मूितयां भी इस मंदिर में हैं जो अति मनोज्ञ हैं। सामने साढ़े बारह मीटर ऊंचा मानस्तंभ है। यहां छोटे—बड़े तथा उत्कीर्ण कुल मिलाकर १००० खंभे हैं। गुरु वसदि में मूलनायक भगवान पाश्र्वनाथ की विशाल र्मूित है। सिद्धान्त वसदि में ‘षट्खंडागम’, धवला, जयधवला आदि की ताड़पत्र पर मूल प्रतियां हैं, जिसे सिद्धान्त दर्शन कहते हैं, तथा ३५ र्मूितयां हीरा पन्ना आदि रत्नों की है। इनके दर्शनों के लिए पहले कहना पड़ता है। अन्य मंदिरों में भी मनोज्ञ प्रतिमाएं हैं। संध्या को आरती के समय चित्ताकर्षक रोशनी की जाती है। मूडबिद्री में भट्टारक गद्दी भी है। वर्तमान भट्टारक स्वस्ति श्री चारूर्कीित जी महाराज क्षेत्र की उन्नति की ओर ध्यान दे रहे हैं। यहां साहू शान्तिप्रसाद जैन द्वारा स्थापित श्री रमारानी जैन रिसर्च इंस्टीट्यूट भी है। इस संस्था द्वारा साहित्यिक शोधकार्य को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। पांडुलिपियों का एक विशाल भंडार है। आवास और भोजन की समुचित व्यवस्था है।
कारकल- मंगलौर से ५३ किमी. और मूडबिद्री से १६ किमी. दूर कारकल अतिशयक्षेत्र है। यहाँ भट्टारक जी का मठ है। उसी में धर्मशाला है, जो बस स्टैण्ड से एक किलोमीटर के फासले पर है। सामने श्राविकाश्रम है। थोड़ी दूरी पहाड़ी पर बाहुबली स्वामी की १३ मीटर ऊँची प्रतिमा है। इस मूर्ति का निर्माण सन् १४३२ में कारकल नरेश वीर पांडव ने कराया था। यहाँ के भरव ओड़िया वंश के राजा जैन थे। सन् १३३४ में कुमुदचंद्र भट्टारक के द्वारा बनवाए शांतिनाथ मंदिर को महाराजाधिराज लोकनाथ रस की बहनों ने दान दिया था। शक सं. १५८८ में इम्मडिभैरवराज ने ‘चतुर्मुख वसदि’ नामक विशाल मंदिर बनवाया था। इस मंदिर में चारों ओर द्वार हैं। यहाँ लगभग साढ़े छ: मीटर ऊंची १२ प्रतिमाएँ विराजमान हैं। कारकल में कुल मिलाकर २३ जैन मंदिर हैं। आवास व भोजन की व्यवस्था है।
वारांग- वारांग कारकल से २५ किमी. दूर है। यह छोटा सा कस्बा है। इस क्षेत्र का प्रबंध हुमचा के भट्टारक जी के हाथ में है। बस स्टैण्ड से थोड़ी दूर पर जैन मठ और धर्मशाला है। धर्मशाला में केवल एक दालान है। यहाँ तीन मंदिर हैं। एक मंदिर और एक तालाब में है, जो जल मंदिर कहलाता है। इसमें लगभग एक मीटर ऊँची चौमुखी प्रतिमा है। इस मंदिर तक छोटी नाव द्वारा जाते हैं।
कुन्दकुन्दबेट्ट (कुंद्रादि पर्वत)- कहा जाता है कि यहीं से कुन्दकुन्दचार्य विदेह क्षेत्र में गए थे और वहाँ पर ८ दिन तक भगवान सीमंधर के समवसरण में धर्म का साक्षात् श्रवण किया था परन्तुु शास्त्रीय प्रमाण नहीं मिलते। वारांग से १६ किमी. पर सोमेश्वर नामक स्थान है। वहाँ से २४ किमी. लंबी ओगंबे घाटी शुरू होती है, इस घाटी में छोटी बसें (१४ सवारी वाली) ही जाती हैं। १० किमी. जाने पर ओगंबे पहुँचते हैं, जहाँ से बड़ी बसें चलती हैं। शिमोगा वाली सड़क पर १० किमी. जाने पर गुडडकेरी गांव पड़ता है (शिमोगा से आने वाले गुडडकेरी आते हैं) यहाँ पर ठहरने का कोई स्थान नहीं है।
हुमचा- हुमचा (हुंबुज पद्मावती) तीर्थक्षेत्र है। शिमोगा से यह स्थान कोई ६० किमी. पड़ता है। यहाँ का मठ प्राचीन है। वारांग आदि कई स्थान इसी मठ से निर्देश प्राप्त करते हैं। यहाँ के मठाधिपति कुंदकुदान्वय के नंदी संघ से संबंध रखते हैं। इस मठ का संबंध कई महान आचार्यों से रहा है। जिनमें आचार्य समंतभद्र विद्यानंदि, विशालकीर्ति, मुनि नेमिचंद्र प्रमुख हैं। यहाँ पर मुख्य मंदिर पद्मावती का है। इस इलाके में पद्मावती जी की बड़ी मान्यता है। बहुत से लोग उनका आशीर्वाद लेने यहाँ आते हैं। पहाड़ी के ऊपर बाहुबली मंदिर है तथा कई मंदिर और भी हैं। हुमचा अतिशययुक्त क्षेत्र माना जाता है। यहाँ के अतिशय हैं-१. लक्की का वृक्ष जो सदा हरा रहता है, २. मुतीन केरे तालाब (जिसमें सदा जल रहता है), ३. कुमुदवती नदी, जो सतुंगभद्रा में मिलती है एवं यहीं से निकलती है। पहाड़ी में एक छेद से जल निकलता है और गर्मी के गौसम में भी पानी बहता है। इस क्षेत्र द्वारा कई संस्थाएं संचालित हैं। यहाँ आवास और भोजन की समुचित व्यवस्था है।
हुबली- सागर से १६० किमी. की दूरी पर हुबली है। यहाँ ठहरने का उचित प्रबंध नहीं है। इसलिए अधिकांश लोग बागलकोट (बादामी से ४१ किमी.) में ठहरते हैं। इस इलाके में तीन स्थान-बादामी, ऐहोले और पट्टदकल प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान हैं।
बीजापुर- यहाँ राम गली में श्रीराम मंदिर के सामने दिगम्बर जैन मंदिर है। बाबानगर में भगवान पाश्र्वनाथ की सातिशय प्रतिमा लगभग पांचवीं शताब्दी की है। १००८ सर्पफणों से सुशोभित होने के कारण यह प्रतिमा सहस्रफणी कहलाती हैं। हर फण भीतर ऐसी कलाकारी से जुड़ा हुआ है कि अभिषेक का जल हर फण से उतरते हुए प्रतिमा का अभिषेक करता है। बीजापुर आदिलशाही वंश की राजधानी रहा है। (१५६५ में बीजापुर, अहमदनगर, गोलकुंडा और बीदर से मिलकर विजयनगर को परास्त किया था) यहाँ कई दर्शनीय स्थल हैं। सबसे प्रमुख ‘गोल गुंबज’ है, जो विश्व में अपना एकमात्र उदाहरण है। इस गुंबज का क्षेत्रफल १८,३७७ वर्ग फुट है और यह ४० मीटर ऊँचा (अंदर का नाप) है। इसमें एक ऐसा भाग है, जहाँ आवाज गूंजती है। यहाँ इब्राहीम रोजा, जामा मस्जिद, असर महल आदि दर्शनीय स्थल हैं। क्षेत्र पर आवास व भोजन की व्यवस्था है।
आंध्रप्रदेश- कुलपाक-यह अतिशय क्षेत्र हैदराबाद-काजीपेट रेल मार्ग पर है। हैदराबाद से ७९ किमी. पर आलेर स्टेशन है। वहाँ से लगभग ६ किमी. पर प्राचीन क्षेत्र है। यहाँ भगवान आदिनाथ की अतिशयसम्पन्न दिगम्बर मूर्ति विराजमान थी जो माणिक स्वामी के नाम से विख्यात थी। इस प्रतिमा की चोरी हो गई। अब यहाँ हरे रंग की एक प्रतिमा विराजमान है। इस समय इस क्षेत्र पर श्वेताम्बरों का अधिकार है।
वारंगल- हैदराबाद से १५२ किमी. काजीपेट से ११ किमी. और विजयवाड़ा से १११ किमी. की दूरी पर वारंगल है। स्टेशन से ८ किमी. पर वारंगल का विशाल दुर्ग है। दुर्ग में चार जैन मंदिर एवं कतिपय कलापूर्ण वस्तुएँ हैं। ऐसा लगता है कि राजधानी बनने से पहले वारंगल बड़ी जैन बस्ती थी।
गोलकुंडा- किले में कई खंडित जैन मूर्तियाँ हैं। आसपास अनेक स्थानों पर अवशेष मिलते हैं।
कुलचारम- यहाँ पर १९८४ में भूगर्भ से प्राप्त ११ फुट ३ इंची की विशाल खड्गासन भगवान पाश्र्वनाथ की प्रतिमा विराजमान है। यह स्थान मेदक जिले की जोगीपेठ जिले में स्थित है। हैदराबाद से ८० किमी. दूर है। बस द्वारा जाया जा सकता है। आवास एवं भोजन की व्यवस्था है।
तिरुपति (बालाजी)- चेन्नई से उत्तर-पश्चिम दिशा में १६० किमी. पर प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थस्थान है। यहाँ मनौती मनाने वालों की भीड़ लगी रहती है। प्रतिवर्ष करोड़ों रूपये के मूल्य का चढ़ावा आता है। कतिपय लोगों की मान्यता है कि यहाँ पर पहले जैन मंदिर था एवं काले पाषाण की मूर्ति भगवान नेमिनाथ की है।
महाराष्ट्र- रामटेक-नागपुर से रामटेक ४८ किमी. दूर है। यह श्री शांतिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र है। यहाँ एक अहाते में १५ जिनालय बने हैं। मुख्य मंदिर भगवान शांतिनाथ का है। इसमें भगवान शांतिनाथ की पीले पाषाण की लगभग ४ मीटर ऊंची खड्गासन प्रतिमा है। यह प्रतिमा अत्यन्त मनोज्ञ है। चरण चौकी जमीन के अंदर है। कहते हैं कि श्री अप्पा साहब भोसला के राज्यमंत्री वर्धमान सावजी जैन श्रावक थे। एक दिन राजा अप्पा साहब रामटेक आए। मंत्री जी उनके साथ थे। राजा ने श्रीराम मंदिर के दर्शन कर भोजन कर लिया परन्तु मंत्री वर्धमान ने भोजन नहीं किया। कारण यह था कि उन्होंने देवदर्शन नहीं किए थे। इस पर राजा ने जैन मंदिर का पता लगवाया। काफी खोजबीन के बाद जंगल में झाड़ियों से ढकी हुई एक तीर्थंकर मूर्ति का पता चला। मंत्री उसके दर्शन कर अति आनंदित हुए। फिर उन्होंने वहाँ कई मंदिर बनवाए। कहते हैं इस स्थान पर श्री रामचंद्र जी का आगमन हुआ था। एक किंवदंती के अनुसार यह वही स्थान है जिसके सुरम्य वनों का वर्णन महाकवि कालिदास ने अपने ‘मेघदूत’ में किया है। शासन ने यहाँ पर्वत पर कालिदास स्मारक बनवाया है।
मुक्तागिरि (मेंढागिरि)- अमरावती से मुक्तागिरि की दूरी ६५ किमी. है। खरपी से ६ किमी. दूर स्थित इस क्षेत्र को सड़क जाती है। यहाँ तलहटी में एक जैन धर्मशाला और एक मंदिर है। यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य अपूर्व है। तलहटी से डेढ़ किमी. की चढ़ाई है। पहाड़ पर सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। कहते हैं कि इस स्थान पर मेंढ देव ने बहुत से मोतियों की वर्षा की थी, इसलिए इसका नाम मुक्तागिरि पड़ा है। वंशस्थल ४०वें मंदिर के पास है। अधिक उपयुक्त यह जान पड़ता है कि निर्वाणक्षेत्र होने के कारण यह मुक्तागिरि कहलाया। इस पर्वत से साढ़े तीन करोड़ मुनि मुक्त हुए इसलिए यह सिद्धक्षेत्र माना जाता है। पर्वत पर ५२ अति मनोज्ञ मंदिर हैं। अधिकांश मंदिर प्राय: १५वीं शताब्दी के या बाद के बने हुए हैं। अचलपुरी के एक ताम्रपत्र में इस पवित्र स्थान पर सम्राट श्रेणिक बिंबसार द्वारा गुफा मंदिर बनवाने का उल्लेख है। अचलपुर (ऐलिचपुर) यहाँ से १३ किमी. है। यहाँ दसवें नम्बर का मंदिर ‘मेंढागिरि मंदिर’ नाम से प्रसिद्ध है। इसमें नक्काशी का काम बहुत अच्छा है। स्तंभों और छत की रचना अपूर्व है। भगवान शांतिनाथ की प्रतिमा दर्शनीय है। इस मंदिर के समीप ६०-६५ मीटर की ऊँचाई से पानी की धारा पड़ती है, जिससे एक रमणीय जलप्रपात बन गया है। मंदिर प्रपात के नाले के दोनों ओर बने हुए हैं। मंदिरों की पंक्ति बहुत ही भव्य लगती है। पाश्र्वनाथ भगवान का पहला मंदिर भी प्राचीन शिल्प का नूमना है। प्रतिमा सप्तफणमंडित एवं प्राचीन है। जनश्रुति के अनुसार यहाँ पर केशर की वर्षा होती थी। क्षेत्र पर आवास व भोजन व्यवस्था है।
कारंजा- मध्य रेलवे के मुर्तिजापुर-यवतमाल लाइन पर कारंजा मुर्तिजापुर से ३२ किमी. है। अमरावती यहाँ से ६२ किमी. है। अंतरिक्ष-पाश्र्वनाथ यहाँ से मंगलरूलपीर और मालेगांव होकर ९२ किमी. है। अकोला जिले में कारंजा व्यापारिक केन्द्र और समृद्ध नगर है। नगर में तीन प्रसिद्ध जैन मंदिर हैं। पहले यहाँ सेनगण, काष्ठा संघ और बलात्कारगण परम्पराओं की गद्दियाँ थीं और तीनों मंदिर उनसे संबंध थे। पहला मंदिर श्री पाश्र्वनाथ दिगम्बर जैन सेनगण मंदिर है। गर्भगृह में मूलनायक भगवान पाश्र्वनाथ की प्रतिमा है। इस मंदिर में पाषाण की ६२ और धातु की ४९ मूर्तियाँ हैं। यहाँ नेगण के अंतिम भट्टारक वीरसेन की समाधि भी है। इस मंदिर में ४९८ वर्ष पुरानी पंचकल्याणक चित्रावली है। यह स्वर्णांकित सुंदर और कलापूर्ण है। मंदिर के आगे मानस्तंभ है और भट्टारकों के सात चरण बने हैं। चैत्र कृष्णा प्रतिपदा को यहाँ रथयात्रा निकलती है और पद्मावती देवी का मेला लगता है। दूसरा मंदिर श्री चंद्रनाथ स्वामी काष्ठासंघ दिगम्बर जैन मंदिर है। यह मंदिर चवरे लाइन में है। मंडप में भगवान चन्द्रप्रभ की मूलनायक पद्मासन प्रतिमा है। वेदी पर ६ पाषाण और १० धातु की मूर्तियाँ हैं। पीछे की वेदी पर २९ धातु और ३१ पाषाण की मूर्तियाँ हैं। दार्इं ओर के प्रकोष्ठ में मूल्यवान मूर्तियाँ सुरक्षित हैं और बाईं ओर पद्मावती देवी की अतिशय-सम्पन्न मूर्ति है। इसवे चमत्कारों की बड़ी ख्याति है। चैत्र सुदी पूर्णिमा को इसकी यात्रा होती है। ४२ स्तंभ वाला दारु-मंडप (लकड़ी का बना) है जिसमें कलापूर्ण खुदाई है। तलप्रकोष्ठ में भी प्रतिमाएँ हैं। तीसरा मंदिर श्री मूलसंघ चंद्रनाथ स्वामी बलात्कारगण दिगम्बर जैन मंदिर है। गर्भगृह में मंडप के नीचे मूलनायक भगवान चंद्रप्रभु की मूर्ति है। वेदी पर ११ धातु और २ पाषाण की मूर्तियाँ हैं। पीछे की वेदी में २७ पाषाण और २७ धातु की प्रतिमाएँ हैं। शिखर में भगवान महावीर की पद्मासन प्रतिमा है। पीतल के दो सहस्रवूâट जिनालय हैं-एक में १००८ मूर्तियाँ हैं और दूसरे में १७२८ मूर्तियाँ हैं। भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति की चरण पादुकाएं हैं, इस मंदिर में हस्तलिखित शास्त्रों का अमूल्य भंडार है। १९८१ ग्रंथों में से २५ ताड़पत्र पर हैं। क्षुल्लक पाश्र्वसागर (बाद में आचार्य समंतभद्र जी) की योजनानुसार यहाँ पर श्री महावीर ब्रह्मचर्याश्रम स्थापित हुआ (इसकी शाखाएँ कई स्थानों में हो गई हैं) इस आश्रम में महावीर जिनालय है। मूलनायक भगवान महावीर की प्रतिमा के अलावा और भी मूर्तियाँ हैं। एक कक्ष में संग्रहालय है जहाँ पर बाहर से लाई गई मूर्तियाँ सुरक्षित हैं। कई कलापूर्ण शिलाफलक हैं। ऊपर एक कमरे में २९ प्राचीन मूर्तियाँ सुरक्षित हैं। सरोवर के तट पर लगभग डेढ़ किमी. का क्षेत्र हिन्दू मंदिरों से सुशोभित है। विश्वास किया जाता है कि इनके निर्माता यादववंशी देवगिरि के राजा रामचंद्र थे, नगर के मध्य में एक बावड़ी है, जो बहुत पवित्र मानी जाती है। कारंजा नृसिंह सरस्वती का जन्मस्थान है। उनकी स्मृति में बीसवीं शताब्दी में विशाल मंदिर का निर्माण हुआ, जो तीर्थस्थान माना जाता है। जैन यात्रियों के ठहरने की सुविधा श्री महावीर ब्रह्मचर्याश्रम में है।
अंतरिक्ष पार्श्र्वनाथ (सिरपुर)- कारंजा से मंगलरूलपीर मालेगांव (दूरी ८४ किमी.) होते हुए सिरपुर पहुँचा जा सकता है। सिरपुर, मालेगांव से ७ किमी. है। सिरपुर, अकोला से ७४ किमी. तथा अकोला जिले में सिरपुर ग्राम में स्थित है। वाशिम रेलवे स्टेशन (खण्डवा-पूर्णा लाइन) से ३१ किमी. है। अंतरिक्ष पार्श्र्वनाथ अतिशयक्षेत्र और उसके अधिष्ठाता अंतरिक्ष पार्श्र्वनाथ भारत भर में प्रसिद्ध हैं। क्षेत्र की ख्याति तो इस मूर्ति विशेष के विराजमान होने के पहले से थी। जैन कथा साहित्य के आधार पर रामचंद्र जी के समय में भी यह क्षेत्र था। सिरपुर के पार्श्र्वनाथ की ख्याति ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों से रही है। एक धारणा के अनुसार यहाँ के मंदिर का निर्माण चोलवंशी श्रीपाल नरेश ने कराया था। सिरपुर ग्राम के बाहर वह स्थान है, जहाँ पर राजा श्रीपाल को कुष्ट रोग से मुक्ति मिली। यहाँ के चमत्कारों की कई कथाएँ हैं। यहाँ उत्खनन में अनेक मूर्तियाँ आदि पुरातात्विक सामग्री प्राप्त हुई हैं। कहते हैं कि यहाँ की पुरानी र्इंट पानी में तैरती है। मूल मंदिर गांव के मध्य में एक गली में है। प्रवेश द्वार छोटा है। उसमें झुककर ही जाया जा सकता है। प्रवेश करने पर प्रांगण है। उसके तीन ओर बरामदे हैं। इस प्रांगण में ऊपर से ही झरोखे द्वारा अंतरिक्ष पार्श्र्वनाथ के दर्शन होते हैं। आंगन में से सीढ़ियों द्वारा तलघर का रास्ता है। वहाँ भगवान पार्श्र्वनाथ की सातिशय और मनोज्ञ लगभग सवा मीटर ऊंची अद्र्ध पद्मासन मूर्ति है। यह मूर्ति भूमि से कुछ ऊपर अधर में स्थित है। नीचे और पीछे कोई आधार नहीं है केवल बार्इं ओर मूर्ति का अंगुल भर भूमि से स्पर्श है। नीचे से रूमाल निकल जाता है पर उस कोने पर आकर अटक जाता है। यहाँ पर और भी मूर्तियाँ हैं। यहाँ भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति कारंजा, भट्टारक वीरसेन और भट्टारक विशालकीर्ति की पृथक्-पृथक् गद्दियाँ हैं। यहाँ आवास की व्यवस्था है।
पवली का दिगम्बर जैन मंदिर- सिरपुर गांव के बाहर पवली का दिगम्बर जैन मंदिर है। यह भी चोल नरेश श्रीपाल द्वारा बनाया गया था। यहीं पर उसका कुष्ट रोग ठीक हुआ था और यहीं के कुएं से उसको अंतरिक्ष पार्श्र्वनाथ की मूर्ति प्राप्त हुई। कहा जाता है कि इस मंदिर के शिखर में जो र्इंटें लगी हैं, वे पानी में तैरती थीं। गर्भगृह में भगवान पार्श्र्वनाथ की सवा मीटर ऊँची प्रतिमा विराजमान है और भी तीर्थंकर मूर्तियाँ, यक्ष, यक्षिणी प्रतिमाएँ आदि हैं। मंदिर अष्टकोण बना है और इसकी रचना शैली आकर्षक है। मंदिर के आगे भट्टारक शांतिसेन, भट्टारक जिनसेन आदि की समाधियाँ बनी हैं। सामने एक और जिनालय है जिसमें बहुत सी मूर्तियाँ हैं। यहाँ आवास व भोजन की व्यवस्था है।
आसेगांव (चिंतामणि पार्श्र्वनाथ)- आसेगांव श्री चिंतामणि पार्श्र्वनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र शिरड़ शहापुर से ३५ किमी. है। यह अति प्राचीन अतिशयक्षेत्र है। यहाँ पर भगवान पार्श्र्वनाथ की अतिमनोज्ञ प्राचीन प्रतिमा है। यह मूर्ति मनोवांछित फलदायी चमत्कारिक प्रतिमा है। मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ है। यहाँ आवास और भोजन की व्यवस्था है।
जिंतूर नेमिगिरि- यह स्थान शिरड शहापुर से केवल ४५ किमी. है। पहले यह नगर जैनपुर कहलाता था। काचेगुडा-मनमाड रेल लाइन पर परभणी स्टेशन से ४२ किमी. जिंतूर नगर है। क्षेत्र, जिंतूर नगर से ४ किमी. की दूरी पर सहयाद्रि पर्वत पर है। यह श्री नेमिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र के रूप में जाना जाता है। क्षेत्र पर एक अहाते में गुफा मंदिर है। यहाँ कुल ६ गुफाएँ या तल प्रकोष्ठ हैं। भगवान नेमिनाथ की लगभग २ मीटर ऊॅँची पद्मासन प्रतिमा है। इनके अतिरिक्त यहाँ भगवान पाश्र्वनाथ, भगवान बाहुबली आदि की मूर्तियाँ भी विराजमान हैं। भगवान पाश्र्वनाथ की एक प्रतिमा पाषाण के एक जरा से टुकड़े पर टिकी है। इसलिए इसे अंतरिक्ष पाश्र्वनाथ कहते हैं। शिलालेख से पता चलता है कि इन मूर्तियों के प्रतिष्ठाचार्य आचार्य कुमुदचंद्र थे। यहाँ राजुलमती का प्राचीन मंदिर भी है। हिजरी सन् ६३१ में इस नगर पर कादरी नामक अफगान ने हमला किया था। उसी ने इसका नाम जिंतूर रखा। तब यहाँ अनेक जैन मंदिर थे। कादरी ने उनमें से अनेक को नष्ट भ्रष्ट किया और कुछ को मस्जिद बना दिया। संवत् १५३२ में वीर संघवी का यहाँ आगमन हुआ। उन्होंने मंदिरोें का जीर्णोद्धार किया। पहले गांव में १४ जैन मंदिर थे लेकिन अब दो हैं। दोनों मंदिरों में १०२४ मूर्तियाँ (१०००±२४) हैं। क्षेत्र पर आवास व भोजन की व्यवस्था है।
नवागढ़ (उखलद अतिशयक्षेत्र)- जिंतूर से परभणी व मीरखेल ५८ किमी. है। मीरखेल से नवागढ़ ५ किमी. है। यह श्री नेमिनाथ दिगम्बर जैन अतिशयक्षेत्र है, इसे उखलद अतिशयक्षेत्र भी कहा जाता है। पहले यह क्षेत्र पूर्णा नदी के तट पर उखलद में था। पूर्णा नदी नवागढ़ से डेढ़ किमी. की दूरी पर बहती है। यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य अपूर्व है। सन् १९०० के तीसरे दशक में बाढ़ के कारण मंदिर नष्ट हो गया था। तब १९३१ में नवागढ़ में मंदिर बनवाकर मूर्तियों को वहाँ प्रतिष्ठित किया गया। मंदिर में मूलनायक भगवान नेमिनाथ की लगभग डेढ़ मीटर (आसन सहित) ऊँची अद्र्ध-पद्मासन प्रतिमा है। एक जनश्रुति के अनुसार जब यह मूर्ति उखलद में विराजमान थी, इसके पैर के अंगूठे में पारसमणि लगी हुई थी। तत्कालीन मुसलमान शासक ने जब उसे लेना चाहा तो वह स्वयं छिटककर नदी में जा पड़ी। क्षेत्र पर आवास व भोजन की व्यवस्था है।
एलोरा (वेरूल)- ये जगत विख्यात गुफाएँ और गुहा मंदिर औरंगाबाद से ३० किमी. हैं। ऐलोरा ग्राम (वर्तमान नाम वेरुल) गुफाओं से डेढ़ किमी. दूर है। बस कैलाश नामक गुहा मंदिर के सामने रुकती है। यहाँ पर उप गुफाएँ, गुहा मंदिर हैं। जिनमें १२ (नं. १ से १२ तक) बौद्धधर्म की गुफाएँ हैं, १७ (नं. १३ से २९ तक) हिन्दू (शैव) धर्म की हैं और ५ (नं. ३० से ३४ तक) जैनधर्म की हैं। जैन गुहा मंदिरों में तीर्थंकरों के अलावा अन्य मूर्तियाँ भी बनी हुई हैं। कई गुफाएँ दो मंजिल हैं। छोटा वैलाश, इंद्रसभा और जगन्नाथ नाम की जैन गुफाओं में उत्कृष्ट कला देखने को मिलती है। गुफा नं. ३० अधबनी है। इसकी प्रतिमाएं खड्गासन हैं। इसी में से एक फर्लांग चलकर इसी गुफा का दूसरा भाग मिलता है जहाँ एक स्तंभ में एक विशाल खड्गासन मूर्ति है। दुंदभिवादक पुष्पवर्षा करते हुए देव दिखाई देते हैं। यहाँ बहुत सी मूर्तियाँ हैं। एक ढाई मीटर ऊँची अलंकार धारण किए हुए इंद्र की नृत्यमुद्रा में मूर्ति है। इस गुफा को छोटा कैलाश कहते हैं। गुफा नं. ३१ छ: स्तंभों पर आधारित मंडप है। यहाँ दो मीटर की भगवान पार्श्र्वनाथ की खड्गासन प्रतिमा है। देवी-देवताओं, यक्षों आदि की मूर्तियाँ भी हैं। एक प्रतिमा बाहुबली की है जो लगभग २ मीटर ऊँची है। गुफा नं. ३२ को इंद्रसभा कहते हैं। यह दो मंजिला है और यहां की जैन गुफाओं में सबसे बड़ी है। छतों में भी चित्रकारी है जो अपने वैशिष्ट्य के कारण प्रसिद्ध है। यहाँ अनेक मूर्तियाँ आदि हैं। भगवान पार्श्र्वनाथ की एक साढ़े तीन मीटर ऊँची प्रतिमा दीवार में है। एक कोष्ठक में साढ़े तीन मीटर ऊँची बाहुबली स्वामी की प्रतिमा है। यह स्थान कलाकृतियों से भरा पड़ा है। ऊपर की मंजिल का मंडप दो स्तंभों पर आधारित है। यहाँ अनेक मूर्तियाँ हैं। ढाई मीटर ऊँची अद्र्ध-पद्मासन प्रतिमाएँ हैं। गुफा नं.-३३ और गुफा नं. ३४ कलाकृतियों से भरी हैं। गुफा नं. ३३ में भगवान पार्श्र्वनाथ की साढ़े तीन मीटर ऊँची मूर्ति है। यह गुफा दो मंजिला है। इसी गुफा से गुफा नं. ३४ में जाते हैं। हिन्दू गुफाओं में वैलाश सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। शिल्प और वास्तुकला का यह एक उत्कृष्ट नमूना है। शायद इस प्रकार का इतना बड़ा गुहा मंदिर कहीं और नहीं है। सारी गुफाएँ ३ किमी. के क्षेत्र में है। पार्श्र्वनाथ मंदिर-गुफा नं. ३ से एक चौड़ा मार्ग पहाड़ी से ऊपर गया है। उससे आधा किमी. पर पार्श्र्वनाथ मंदिर है। मंदिर आधुनिक है, प्राचीन मंदिर के स्थान पर बनाया गया है। पाँच मीटर ऊँची भगवान पार्श्र्वनाथ की मूर्ति है। यह मंदिर गुफाओं से अलग एकांत में बना है। इस पर्वत को चारणाद्रि या कनकाद्रि कहते हैं। दर्शन के बाद लगभग ८ सीढ़ियाँ उतरकर एक गुफा है, जिसमें यक्ष-यक्षियों की मूर्तियाँ हैं। फिर एक खाली गुफा मिलती है। इसके आगे एक छोटी गुफा मिलती है जिसमें जलकुंड बना हुआ है। इसके दाएं-बाएं तीर्थंकर मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। फिर जल से भरी एक गुफा मिलती है। फिर एलोरा (वेरुल) ग्राम है। यह क्षेत्र कहलाता है। यहाँ पर श्री पार्श्र्वनाथ ब्रह्मचर्याश्रम गुरुकुल है। छात्रावास, विद्यालय-भवन, अतिथि-गृह एवं निर्माणाधीन जिनालय आदि हैं। यहाँ आवास व भोजन की व्यवस्था है।
अजंता— औरंगाबाद से १०३ किमी. की दूरी पर जगतप्रसिद्ध अजंता की गुफाएँ हैं। जलगांव से यह स्थान ५९ किमी. है। (जलगांव मनमाड़ से १६० किमी. और मुम्बई से ४२० किमी. है।) अद्र्ध-चंद्राकार पहाड़ी पर ३० गुफाएं हैं। इनमें से ५ (नं. ९, १०, १९, २६ और २९) को चैत्य की संज्ञा दी जाती है और बाकी को विहार की। यों तो सभी में कुछ न कुछ विशेषता है पर गुफा नं. १, २, ९, १०, १६, १७, १९ एवं २६ औरों से अधिक महत्वपूर्ण हैं। गुफा नं. १, २, १६, १७ एवं १९ में प्रसिद्ध चित्र हैं।
पैठण (प्रतिष्ठानपुर)- औरंगाबाद से दक्षिण की ओर से ५१ किमी. पर पैठण (प्राचीन नाम प्रतिष्ठान) है। यह भगवान मुनिसुव्रतनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र है। मूलनायक भगवान मुनिसुव्रतनाथ के नाम पर ही मंदिर का नामकरण हुआ है। क्षेत्र गोदावरी नदी के निकट ऊँचाई पर है। मंदिर दो मंजिला है यहाँ मूलनायक मुनिसुव्रतनाथ के अतिरिक्त ५० मूर्तियाँ हैं। यहाँ भगवान मुनिसुव्रत की बड़ी मान्यता है। जैन और जैनेतर भाई बड़ी संख्या में कल्याण लाभ के लिए यहाँ आते हैं। क्षेत्र पर आवास व भोजन की व्यवस्था है।
आष्टा (कासार)- आष्टा नाम के कई गाँव हैं। यह अतिशयक्षेत्र ‘कासार आष्टा’ के नाम से जाना जाता है। इसका पूरा नाम ‘श्री दिगम्बर जैन विघ्नहर पाश्र्वनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र कासार आष्टा है। यह क्षेत्र सोलापुर-हैदराबाद नेशनल हाइवे पर स्थित ओसगा-गांव से ५ किमी. है। अतिशय के कारण यहाँ बहुत से भक्त आते हैं। पद्मासन प्रतिमा के सिर पर सर्प का लांछन न होकर दोनों पैरों के बीच सर्प लांछन है। संकट आने पर भक्तिभाव से घी का अभिषेक करने से विघ्न दूर हो जाते हैं। क्षेत्र पर आवास व भोजन की व्यवस्था है।
सावरगांव (काटी)- सोलापुर से सूरतगढ़ २५ किमी. होते हुए सावरगांव पहुँचा जा सकता है। सूरतगढ़ से सावरगांव ५ किमी. है। सावरगांव के मध्य में श्री पाश्र्वनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र है। यह आठवीं शताब्दी का क्षेत्र है। मंदिर में तीन वेदियाँ, खेला मंडप और दो मानस्तंभ हैं। भगवान पाश्र्वनाथ की मूर्ति अतिशयसम्पन्न है। यहाँ आवास व भोजन की व्यवस्था है।
तेर- उस्मानाबाद से १९ किमी. की दूरी पर श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र तेर है। यह वार्शी टाउन से ४९ किमी. है। यह क्षेत्र तेर गांव से बाहर वाटर वक्र्स के सामने है। यहाँ के अतिशय की अनेक कहानियाँ हैं। यह भी कहा जाता है कि यहाँ के मंदिर में जिन र्इंटों को प्रयोग में लाया गया है वे पानी में तैर जाती हैं। यहाँ एक अहाते के अंदर दूसरा अहाता है। उसमें प्रवेश करने पर एक ओर हेमाड़पंथी महावीर मंदिर है, दूसरी ओर हेमाड़पंथी पाश्र्वनाथ का मंदिर है। पहले मंदिर में अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर की लगभग पौने दो मीटर ऊँची पद्मासन प्रतिमा है। दोनों ही मंदिरों की दशा खराब है। कहते हैं कि यहाँ भगवान महावीर का समवसरण आया था। पौराणिक आख्यानों के अनुसार यहाँ नल और नील का आगमन हुआ था। राजा करकुंड भी यहाँ आया था। क्षेत्र पर आवास व भोजन की व्यवस्था है।
कुंथलगिरि- कुंथलगिरि उस्मानाबाद से सड़क मार्ग द्वारा ५२ किमी. है। यहाँ येडशी या वार्शी टाउन से भी पहुँचा जा सकता है। येडशी से यह ४० किमी. तथा वार्शी टाउन से ५८ किमी. पड़ता है। मोड़ से यह स्थान तीन किमी. है। कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र है। यहाँ से कुलभूषण एवं देशभूषण मुनि मुक्त हुए थे। यहाँ एक पहाड़ी पर सात मंदिर हैं- (१) कुलभूषण-देशभूषण का मंदिर (२) शांतिनाथ मंदिर (३) बाहुबली मंदिर (लगभग साढ़े पाँच मीटर ऊँची खड्गासन प्रतिमा) (४) आदिनाथ मंदिर (५) अजितनाथ मंदिर (६) चैत्य (७) नंदीश्वर जिनालय। शांतिनाथ मंदिर के पास ही आचार्य शांतिसागर जी के चरणचिन्ह स्थापित हैं। यहीं उनका समाधिमरण हुआ था। तलहटी में चार मंदिर हैं-(१) नेमिनाथ मंदिर, (२) महावीर मंदिर (३) रत्नत्रय मंदिर, (४) समवसरण मंदिर। यहाँ आवास व भोजन की व्यवस्था है।
बाहुबली (कुंभोज)— यह दिगम्बर जैन अतिशयक्षेत्र है। यह दक्षिण मध्य रेलवे की मीरज—कोल्हापुर लाइन पर हातकलंगणे स्टेशन से ६ कि.मी. है। क्षेत्र का नाम बाहुबली है। (वहां से २ कि.मी. पर कुंभोज नामक नगर है)। मीरज से सड़क द्वारा भी जा सकते हैं। कोल्हापुर से यह २७ कि.मी. पड़ता है। अनुश्रुति है कि कई शताब्दी पूर्व मुनि बाहुबली विहार करते हुए पधारे और एकांत देखकर एक गुफा में तपस्या के लिए ठहर गए। कई—कई दिन के बाद वे आहार के लिए उठते थे। इस इलाके में जैन कृषक काफी संख्या में थे और उनकी स्त्रियां उनका भोजन लेकर खेत पर जातीं; वे ही मुनिवर को आहार दे देती थीं। उनके नग्न रूप को देखकर कुछ शरारती युवक मुनिवर को परेशान करने लगे। मुनिराज पहाड़ी पर लौट गए। एक व्याघ्र आकर चुपचाप उनके सामने बैठ गया। शरारती युवक जब वहां पहुचे तो समझ गए कि वह तो पहुंचे हुए संत हैं। मुनिराज बाहुबली के चमत्कारों की और भी कथाएं हैं। उनकी स्मृति स्वरूप उनके चरण चिन्ह यहां अंकित हैं। प्रवेशद्वार में घुसने पर एक ओर दो धर्मशालाएं, यांत्रिक विद्यालय, अतिथि निवास और विद्यापीठ के गुरुजनों के निवास हैं और दूसरी ओर प्रतीक्षागृह, छात्रावास, विद्यालय भवन और क्रीड़ाक्षेत्र हैं। ५० सीढ़ियों के बाद मार्बल का चबूतरा है जहां भगवान बाहुबली की ९ मीटर ऊंची श्वेत संगमरमर की भव्य प्रतिमा है (इसकी प्रतिष्ठा सन् १९६३ में हुई थी)। इसके अतिरिक्त अन्य अनेक प्रतिमाएं एवं मंदिर भी हैं। मंदिरों के पास से पहाड़ी पर रास्ता जाता है। ३८६ सीढ़ियां चढ़कर ऊपर पहुंचते हैं। क्षुल्लिका पाश्र्वमती, मुनि वर्धमान सागर और एक अन्य मुनि के चरण बने हुए हैं। यहां पहले चार दिगम्बर जैन मंदिर थे। वे गिरा दिए गए हैं और उनके स्थान पर नए मंदिरों का निर्माण हो गया है। इन मंदिरों के उत्तर की ओर श्वेतांबर मंदिर बना हुआ है। इस क्षेत्र पर बाहुबली स्वामी की ढ़ाई मीटर ऊंची खंडित प्रतिमा है। तलहटी के मंदिरों से पौन कि.मी. दूर प्राचीन दिगम्बर जैन मंदिर है। जिसमें भगवान आदिनाथ, नेमिनाथ और महावीर की अत्यंत मनोज्ञ प्रतिमाएं हैं। एक मुनि गुफा भी है, जहां आचार्य शांतिसागर और अन्य मुनियों ने तपस्या की थी। यहां श्री बाहुबली ब्रह्मचर्याश्रम चल रहा है (यह कारंजा ब्रह्मचर्याश्रम के बाद स्थापित हुआ है) क्षेत्र के मंदिरों की संख्या ६६ है। आवास और भोजन की व्यवस्था हैं।
कुंडल (कलिकुण्ड पाश्र्वनाथ)- यह पूना-सतारा-मिरज रेल मार्ग पर किर्लोस्कर वाड़ी से ५ किमी. दूर है। सड़क मार्ग से सांगली से ५१ किमी., कराड़ से २० किमी. और तास गांव से २९ किमी. है। इस स्थान का प्राचीन नाम कौंडिन्यपुर था। कहते हैं कि यहाँ के राजा को असाध्य रोग हो गया था। उनकी रानी ने भगवान पाश्र्वनाथ की मूर्ति तैयार कराकर पूजा की। इस पर उनका रोग दूर हो गया। तब से यह मूर्ति अतिशययुक्त मानी जाती हैं। इस मूर्ति के अभिषेक के लिए जिस गांव से दही आता था उसका नाम दहयारी पड़ा। जिस गांव से दूध आता था उसका नाम दुधारी, जिस गांव से कुंभ (नारियल) आता था कुंभार और जिस गांव से फल आते थे, उसका फलस। ये गांव अब भी इस क्षेत्र के निकट हैं। यहाँ पर बहुत से विद्वानों का वास रहा है। बहुत से विद्वानों का यहाँ निरंतर आना-जाना होता रहा है। आचार्य समंतभद्र भी यहाँ पधारे थे। कुछ वर्ष पूर्व घर की खुदाई में दसलाद नामक सज्जन को तीन ताम्रशासन पत्र प्राप्त हुए थे। एक राजपूत नरेश गोविन्द द्वितीय द्वारा दान से संबंधित है। दूसरे में पुलकेसिन विजयादित्य द्वारा दिए गए दान का उल्लेख है। तीसरे में कदंववंशी मयूरवर्मन द्वारा दिए गए दान का जिक्र है। इस ताम्रपत्र में यापनीय संघ की उत्पत्ति के संबंध में विस्तृत जानकारी मिलती है। इस नगर में कलिकुंड पाश्र्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर है। इसमें भगवान पाश्र्वनाथ की लगभग डेढ़ मीटर ऊँची प्रतिमा है। इसके अतिरिक्त अन्य मूर्तियाँ भी हैं। अंतिम श्रुतकेवली श्रीधर मुनि की यह निर्वाणभूमि है। इसलिए यह सिद्धक्षेत्र भी माना जाता है। क्षेत्र पर कुल तीन मंदिर हैं। आवास की व्यवस्था है।
झरी पाश्र्वनाथ- कुंडल गांव से २ किमी. पहाड़ी पर प्राकृतिक गुफा है जिसमें भगवान पाश्र्वनाथ की मूर्ति है और भी कई मूर्तियाँ हैं। यहाँ जलकुंड भी है। कुछ ऊपर चढ़कर एक ओर गुफा है। उसमें एक हाल और छोटी गुफा है, जिसमें राम, सीता, हनुमान की मूर्तियाँ हैं।
गिरि पाश्र्वनाथ- झरी पाश्र्वनाथ के पहाड़ से ४ किमी. पहाड़ पर चलने पर दूसरा पहाड़ आता है। वहाँ सपाट स्थान में चरण चिन्ह बने हैं। इसमें सप्तफणी पाश्र्वनाथ विराजमान हैं। अनुश्रुति है कि भगवान महावीर का समवसरण यहाँ आया था। उसी की स्मृति स्वरूप चरणचिन्ह बने हैं। थोड़े आगे भगवान पाश्र्वनाथ का एक छोटा मंदिर भी है।
दही गांव- यह दिगम्बर जैन अतिशयक्षेत्र नातेपुते और बालचंद्र नगर के मध्य अवस्थित है। यह नातेपुते से ६ किमी. और बालचंद्र नगर से १३ किमी., बारामती रेलवे स्टेशन से ३५ किमी. और लोणंद से ६५ किमी. है। पंढरपुर-नीरा से भी ६५ किमी. है। इस नाम के कई स्थान हैं। इसलिए यह याद रखना जरूरी है कि तीर्थ दहीगांव वही है जो नातेपुते बालचंद नगर मार्ग पर है। लगभग सन् १८०० में यहाँ महतीसागर पधारे थे। उन्हीं की प्रेरणा पर यहाँ जिनमंदिर का निर्माण हुआ। इससे पूर्व यहाँ कोई मंदिर नहीं था। फिर ब्र. जी की समाधि के बाद उनकी चरण-पादुका विराजमान कराई गई। लोक विश्वास है कि इनके दर्शन से मनोकामना पूर्ण हो जाती हैं। इस मान्यता के आधार पर यह क्षेत्र कालांतर में अतिशयक्षेत्र बन गया। मंदिर की मुख्य वेदी में पौने दो मीटर ऊँची भगवान महावीर की पद्मासन प्रतिमा मूलनायक प्रतिमा के रूप में विराजमान है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९१० में हुई थी। इस वेदी पर धातु की ५० मूर्तियाँ भी विराजमान हैं। गर्भगृह, कमरों, प्रकोष्ठों और तलघर में बहुत सी प्रतिमाएँ हैं। सभामंडप के अतिरिक्त यहाँ शास्त्रभंडार भी हैं। एक गुरुकुल भी चल रहा है और आवास व भोजन की व्यवस्था है।
मांगीतुंगी— मांगीतुंगी एक प्रमुख पावन सिद्धक्षेत्र है। यह दक्षिण भारत का सम्मेद शिखर कहलाता है। यहां से राम, हनुमान, सुग्रीव, नील, महानील और असंख्य मुनियों ने निर्वाण प्राप्त किया। जैन मान्यतानुसार नारायण श्रीकृष्ण का अंतिम— संस्कार उनके बड़े भाई बलराम जी ने यहीं पर किया था। तदनंतर संन्यास लेकर यहीं पर उन्होंने तप किया। भीषण र्दुिभक्ष की आशंका से संघ सहित दक्षिण की ओर जाते समय आचार्य भद्रबाहु यहां पधारे थे। इस घटना की स्मृति में एक गुफा में यहां पर उनकी ध्यानस्थ र्मूित विराजमान है। एक पहाड़ के दो शिखर हैं : एक मांगी और दूसरा तुंगी। क्षेत्र तहाराबाद से १० कि.मी. दूर है। मुंबई की ओर से आने वाले नासिक से सटाणा (८० कि. मी.) और वहां से तहाराबाद (८० कि.मी.) पहुंचते हैं। मनमाड़ से सीधी बस—र्सिवस मांगीतुंगी के लिए है। क्षेत्र की तलहटी में तीन मंदिर हैं। दो के मूलनायक भगवान पाश्र्वनाथ हैं। और एक के भगवान आदिनाथ। इस स्थान से ३ कि.मी. पर मुल्हेड़ है। तलहटी के मंदिरों के पीछे एक किलोमीटर चलकर सीढ़ियां शुरू होती हैं। दोनों शिखरों पर जाने के लिए २५०० सीढ़ियां हैं। कुछ सीढ़ियां चढ़ने पर दो गुफाएं मिलती हैं, जो शुद्ध—बुद्ध जी की गुफाएं कहलाती हैं। इन दोनों में तीर्थंकर प्रतिमाएं विराजमान हैं। कई प्रतिमाएं दीवार में भी उत्कीर्ण हैं। आगे बढ़कर पाषाण द्वार है। दांई ओर का समतल मार्ग तुंगी को जाता है और बार्इं ओर का सीढ़ियों का मार्ग मांगी को। प्राय: यात्री पहले मांगी के दर्शन करते हैं। मांगी शिखर पर दो तथा तुंगी शिखर पर एक गुफा है। इनका पलस्तर कराकर या टाइल लगवाकर मंदिरों का रूप दे दिया गया है। इन दीवारों में मुनियों, महंतों एवं तीर्थंकरों की ६०० र्मूितयां हैं। कुछ आदिवासियों की सूचना के अनुसार मांगी—तुंगी शिखरों के पीछे जंगल में अनेक जैन र्मूितयां बिखरी पड़ी हैं। यहां सहस्रकूट मंदिर में १००८ प्रतिमाएं हैं। मांगी पर्वत पर ७ व तुंगी पर ४ मंदिर हैं। क्षेत्र पर आवास व भोजन की समुचित व्यवस्था है। यहाँ पहाड़ पर १०८ फीट ऊँची भगवान ऋषभदेव की र्मूित निर्माणाधीन है। यह भारत की विशालकाय खडगासन जैन र्मूित होगी। कार्य प्रगति पर है।
गजपंथा— चांदवाड़ से सटाणा पहुंचकर गजपंथा पहुंचा जा सकता है। गजपंथा क्षेत्र नासिक—िंडडोरी रोड पर म्हसरूल नामक गांव ही है। गजपंथा सिद्धक्षेत्र है। यहां से सात बलभद्र और असंख्य मुनि मुक्त हुए। नासिक से म्हसरूल गांव ६ कि.मी. है। नासिक रोड रेलवे स्टेशन से १६ कि.मी. है। म्हसरूल गांव में उत्तर की तरफ जैन मंदिर हैं। मंदिर के पास से ही पर्वत पर चढ़ने के लिए सीढ़ियां हैं। सीढ़ियां प्राय: ६० से.मी. ऊंची और खड़ी हैं। पर्वत पर चढ़कर एक फाटक आता है। उसमें घुसते ही बलभद्रों के चरणों के दर्शन होते हैं। एक नवर्नििमत जिनालय है जिसमें भगवान पाश्र्वनाथ की तीन मीटर ऊंची पद्मासन प्रतिमा है और पाश्र्वनाथ गुफा है। गुफाएं, मंदिर, पैनल, र्मूितयां हैं। इसके निकटस्थ लगभग २०—२५ कि.मी. क्षेत्र में जैन पुरातत्त्व की सामग्री बड़ी मात्रा में है। गुफाओं को इस क्षेत्र में लेनी कहते हैं। इसीलिए यह क्षेत्र ‘चाम्मार लेनी’ के नाम से प्रसिद्ध है। क्षेत्र में आवास व भोजन की व्यवस्था है।
पोदनपुर (बोरीवली)— यह मुंबई का उपनगर है। यह मुंबई सेंट्रल रेलवे स्टेशन से लोकल ट्रेन द्वारा ३० कि.मी. है। स्टेशन से नेशनल पार्वâ २ कि.मी. है। उसी पार्वâ में गांधी स्मारक से कुछ आगे चलकर भगवान आदिनाथ बाहुबली दिगम्बर जैन मंदिर, पोदनपुर है। इसे स्थानीय बोलचाल में तीनर्मूित मंदिर भी कहा जाता है। यहां भगवान आदिनाथ की र्मूित १० मीटर ऊंची और उसके दोनों तरफ भरत चक्रवर्ती और भगवान बाहुबली की र्मूितयां ५—५ मीटर ऊंची हैं। इन र्मूितयों के पृष्ठ भाग में २४ वेदियों में २४ तीर्थंकरों के दर्शन मिलते हैं। कई आचार्यों के चरण भी विराजमान हैं। अपनी भव्यता के कारण यह स्थान एक क्षेत्र ही हो गया है। आवास की व्यवस्था है।
प्रश्नावली
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न १-अंतिम केवली श्री जम्बूस्वामी किस पवित्र स्थल से मोक्ष पधारे ?
(क) मथुरा चौरासी (ख) महलका जी (ग) ललितपुर प्रश्न २-त्रिलोकपुर अतिशयक्षेत्र में कौन से तीर्थंकर की प्रतिमा विराजमान है ?
(क) पाश्र्वनाथ (ख) नेमिनाथ (ग) महावीर स्वामी प्रश्न ३-मुनि सुदर्शन कुमार ने कहाँ से निर्वाण पद प्राप्त किया ?
(क) गुणांवा जी (ख) कमलदह (पटना) (ग) मंदारगिरि
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न १-मूडबिद्री तीर्थ कहाँ अवस्थित है ? यहाँ की क्या-क्या विशेषताएँ हैं ?
प्रश्न २-आंध्रप्रदेश में स्थित तीर्थों के नाम बताते हुए किन्हीं दो का परिचय बताइए ?
प्रश्न ३-सिरपुर स्थित अंतरिक्ष पार्श्वनाथ का परिचय एवं कथानक का संक्षिप्त वर्णन कीजिए ?
प्रश्न ४-गिरनार सिद्धक्षेत्र किस प्रान्त में हैं, यहाँ से किन तीर्थंकर भगवान एवं मुनियों ने निर्वाण प्राप्त किया, संक्षिप्त परिचय बताइए ?
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न १-राजस्थान एवं मध्यप्रदेश में स्थित तीर्थों के नाम बताते हुए दोनों प्रांतों के तीर्थों में ५-५ का परिचय बताइए ?