जिनदेवदेव का दर्शन यह, सब पाप नाश करता क्षण में।
यह स्वर्गगमन की सीढ़ी है, मुक्ती का साधन है सच में।।१।।
श्री जिनवर के दर्शन से, साधूगण के भी वन्दन से ।
छिद्र सहित अञ्जुिल जल सम, चिरकाल पाप निंह ठहर सकें।।२।।
श्री वीतराग मुख पद्मरागमणि, प्रभसम अवलोकन करके।
जन्म-जन्म कृत पाप सभी, नश जाते हैं प्रभु दर्शन से।।३।।
जिनदेव सूर्य का दर्शन ही, संसार महातम नाश करे।
भविजन मन कमल विकासी है, औ सकल अर्थ परकाश करे।।४।।
जिनराज चन्द्र का दर्शन यह, सद्धर्मामृत की वृष्टि करे।
जन्म दाह का नाश करे, सुख सागर की नित वृद्धि करे।।५।।
जीवादि तत्त्व के प्रतिपादक, सम्यक्त्वादि अठगुण संयुत।
दैगम्बर अतिशय शांतरूप, देवाधिदेव जिन नमूँ सतत।।६।।
जिनराज चिदानंदैक रूप, परमात्म प्रकाशक परमात्मन्।
परमात्म प्रकाशन हेतू मैं, नित नमूँ तुम्हें हे सिद्धात्मन्।।७।।
निंह अन्य प्रकार शरण कोई, तुम ही हो मुझको नाथ! शरण।
अतएव परम करुणा करके, रक्षा करिये मेरी भगवन्।।८।।
त्रिभुवन में अन्य नहीं त्राता, निंह त्राता मम निंह त्राता है।
श्री वीतराग सा अन्य देव, निंह हुआ कभी ना होता है।।९।।
जिन में भक्ती जिन में भक्ती, जिनवर में ही भक्ती प्रतिदिन।
नित रहे मेरी नित रहे मेरी, नित रहे मेरी भव-भव में जिन।।१०।।
जिनधर्म छोड़कर हे भगवन्! मैं चक्रीपद भी निंह चाहूँ।
जिनधर्म सहित चाहे कींकर, या दारिद्री भी हो जाऊँ।।११।।
जन्म-जन्म कृत पाप सभी, बहु कोटि जन्म में संचित भी।
जो जन्म-जरा-मृत्यू कारण हैं, जिनवंदन से नशते सब ही।।१२।।
प्रभु! आज नयन युग सफल हुए, तव चरणांबुज अवलोकन से।
भव वारिधि चुल्लूभर जल सम, मम त्रिभुवन तिलक! आज भासे।।१३।।