सिद्धिप्रासादनि:श्रेणीपंक्तिवत् भव्यदेहिनाम्।
दशलक्षणधर्मोऽयं नित्यं चित्तं पुनातु न:।।१।।
भव्य जीवों के सिद्धिमहल पर चढ़ने के लिए सीढ़ियों की पंक्ति के समान यह दशलक्षणमय धर्म नित्य ही हम लोगों के चित्त को पवित्र करे।
इन दशधर्मों के उपासना के पर्व को दशलक्षण पर्व कहते हैं। चूूँकि इसमें उपवास आदि के द्वारा आत्मा को पवित्र बनाया जाता है। यह पर्व भाद्रपद में मुख्यरूप से मनाया जाता है। भाद्रपद मास सर्वमासों में श्रेष्ठ है। कहा भी है-
अहो भाद्रपदाख्योऽयं मासोऽनेकव्रताकर:।
धर्महेतुपरो मध्येऽन्यमासानां नरेन्द्रवत्१।।१।।
जिस प्रकार मनुष्यों में राजा श्रेष्ठ होता है, उसी प्रकार से सर्व महीनों में यह भाद्रपद नाम का महीना श्रेष्ठ है, क्योंकि यह अनेकों व्रतों की खान है और धर्म का प्रधान कारण है।इस महीने में सबसे अधिक व्रत आते हैं। षोडश कारण, श्रुतस्कंध, जिनमुखावलोकन और मेघमाला ये चार व्रत तो पूरे महीने भर किये जाते हैं तथा दशलक्षण, रत्नत्रय, पुष्पांजलि, आकाश पंचमी, सुगंधदशमी, अनंत-चतुर्दशी, चंदनषष्ठी, निर्दोषसप्तमी, तीस चौबीसी, रुक्मिणीव्रत, नि:शल्य-अष्टमी, दुग्धरसी, धनदकलश, शीलसप्तमी, कांजीबारस, लघु मुक्तावली, त्रिलोकतीज और श्रावणद्वादशी ये व्रत सम्पन्न किये जाते हैं।इन सभी कारणों से दशलक्षण पर्व अपने आप में बहुत ही महान है, यह बहुत ही उल्लासपूर्ण वातावरण में मनाया जाता है। इन दिनों में सर्वत्र ही धर्म का निर्झर बहने लगता है।
कुछ विद्वान्२ लोग इस पर्व के प्रारंभ में ऐसा कहते हैं कि इस पर्व का प्रारंभ भाद्रपद शुक्ला पंचमी से होता है। अत: इस पर्व का आरंभ दिन सृष्टि का आदि दिन है। क्योंकि छठे काल के अंत में भरत और ऐरावत क्षेत्र के आर्र्यखंड में प्रलय होती है। यथा-‘छठे काल के अंत में संवर्त नामक पवन, पर्वत, वृक्ष, पृथ्वी आदि को चूर्णकर समस्त दिशा और क्षेत्र में भ्रमण करता है। इस पवन के कारण समस्त जीव मूर्छित हो जाते हैं। देवों द्वारा ७२ युगल तथा अन्य कुछ जीवों के अतिरिक्त समस्त प्राणियों का संहार हो जाता है। इस काल के अंत में पवन, अत्यंत, शीत, क्षाररस, विष, कठोर अग्नि, धूलि और धुआँ की वर्षा एक-एक सप्ताह तक होती है। इसके बाद उत्सर्पिणी काल का प्रवेश होता है अर्थात् नवीन युग का आरंभ होता है।१
छठे काल का अन्त आषाढ़ी पूर्णिमा को होकर नवीन युग का आरंभ श्रावण कृष्णा प्रतिपदा को अभिजित नक्षत्र के होने पर होता है। अत: आषाढ़ी पूर्णिमा के बाद श्रावणी प्रतिपदा से ४९वाँ दिवस भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी है। इस क्रम से भाद्रपद शुक्ला पंचमी उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के आरंभ का दिन हो जाता है। इस निमित्त से सृष्टि की आदि का दिन भाद्रपद शुक्ला पंचमी हो गया। इसी दिन की स्मृति में यह पर्व आरंभ हुआ है।
कुछ लोग इसी दिन को सृष्टि की आदि समझ लेते हैं, सो बात नहीं है। यद्यपि उत्सर्पिणी की आदि में सृष्टि की आदि दिन भाद्रपद शुक्ला पंचमी है तो भी छठे काल के बाद पाँचवाँ काल आता है पुन: चौथा काल आता है। उस चतुर्थ काल की आदि में तीर्थंकर होते हैं तभी से धर्म की परम्परा चलती है। ऐसे ही अवसर्पिणी में प्रथम, द्वितीय, तृतीय काल के बाद चतुर्थ काल की आदि में तीर्थंकर के होने पर धर्म परम्परा चलती है। अत: उस सृष्टि के दिन की स्मृति मात्र को समझना।
वैसे यह बात युक्ति से कथंचित् संगत है फिर भी यह पर्व वर्ष में तीन बार आता है। माघ, चैत्र और भाद्रपद। दूसरी बात यह है कि इस दशलक्षण व्रत की कथा में धातकी खण्ड के पूर्व विदेह में विशाला नगरी में चार कन्याओं को मुनिराज ने यह व्रत दिया था, ऐसा कहा है। इससे यह व्रत विदेह में भी चलता है जहाँ कि प्रलय की कोई बात नहीं है अत: यह व्रत अनादि निधन है, ऐसा समझना।इस दशलक्षण पर्व में दश दिन क्रम से दश धर्मों की उपासना की जाती है।