-मालिनी-
जडजनकृतबाधाक्रोधहासप्रियादावपि सति न विकारं यन्मनो याति साधो:।
अमलविपुलचित्तैरुत्तमा सा क्षमादौ शिवपथपथिकानां सत्सहायत्वमेति।।८२।।
अर्थ—मूर्खजनों कर किये हुवे बंधन, हास्य आदि के होने पर तथा कठोर वचनों के बोलने पर जो साधु अपने निर्मल धीर-वीर चित्त से विकृत नहीं होता, उसी का नाम उत्तम क्षमा है तथा वह उत्तमक्षमा मोक्षमार्ग को जाने वाले मुनियों को सबसे प्रथम सहायता करने वाली है।।८२।।
-वसंततिलका-
श्रामण्यपुण्यतरुरत्र गुणौघशाखापत्रप्रसूननिचितोऽपि फलान्यदत्वा।
याति क्षयं क्षणत एव घनोग्रकोपदावानलात् त्यजत तं यतयोऽत्र दूरम्।।८३।।
अर्थ—आचार्य कहते हैं कि गुणरूपी जो शाखा-पत्र-फूल, उन करके सहित ऐसा यह यतिरूपी वृक्ष है यदि इसमें भयंकर क्रोधरूपी दावानल प्रवेश कर जावे तो यह किसी प्रकार फल न देकर ही बात की बात में नष्ट हो जाता है इसलिये यतीश्वरों को चाहिये कि क्रोध आदि को वे दूर से ही छोड़ देवें।
भावार्थ—जिस वृक्ष पर नाना प्रकार की मनोहर शाखा मौजूद हैं तथा पत्र-फूलों से भी जो शोभित हो रहा है और अल्पकाल में जिस पर फल आने वाले हैं, ऐसे वृक्ष में यदि अग्नि प्रवेश कर जावे तो वह शीघ्र ही जल जाता है तथा उस पर किसी प्रकार का फल नहीं आता उसी प्रकार जो मुनि सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र आदि गुणों कर सहित हैं किन्तु अभी तक उसके क्रोध मानादिक शान्त नहीं हुवे हैं ऐसे मुनि को कदापि स्वर्ग-मोक्षादि की प्राप्ति नहीं हो सकती, इसलिये मुनियों को चाहिये कि वे क्रोधादि को अपने पास भी न फटकने देवें।।८३।।
उत्तमक्षमाधारी इस प्रकार विचार करते हैं-
तिष्ठामो वयमुज्वलेन मनसा रागादिदोषोज्झिता लोक: किञ्चिदपि स्वकीयहृदये स्वच्छाचरो मन्यताम्।
साध्या शुद्धिरिहात्मन: शमवतामत्रापरेण द्विषा मित्रेणापि किमु स्वचेष्टितफलं स्वार्थ: स्वयं लप्स्यते।।८४।।
अर्थ—रागद्वेषादि से रहित होकर हम तो अपने उज्जवल चित्त से रहेंगे, स्वेच्छाचारी यह लोक अपने हृदय में चाहे हमको भला-बुरा वैâसा भी मानो ? क्योंकि सभी पुरूषों को अपने आत्मा की शुद्धि करनी चाहिये और इस लोक में बैरी अथवा मित्रों से हमको क्या है ? अर्थात् वे हमारा कुछ भी नहीं कर सकते क्योंकि जो हमारे साथ द्वेषरूप तथा प्रीतिरूप परिणाम करेगा, उसका फल उसको अपने आप मिल जावेगा।।८४।।
और भी उत्तम क्षमा वाला क्या चिन्तवन करता है, इस बात को आचार्य दिखाते हैं-
-स्रग्धरा-
दोषानाघुष्य लोके मम भवतु सुखी दुर्जनश्चेद्धनार्थी मत्सर्वस्वं गृहीत्वा रिपुरथ सहसा जीवितं स्थानमन्य:।
मध्यस्थस्त्वेवमेवाखिलमिह हि जगज्जायतां सौख्यराशिर्मत्तो मा भूदसौख्यं कथमपि भविन: कस्यचित्पूत्करोमि।।८५।।
अर्थ—मेरे दोषों को सबके सामने प्रकट कर संसार में दुर्जन सुखी होवे तथा धन का अर्थी मेरे समस्त धन आदि को ग्रहण कर सुखी होवे तथा बैरी मेरे जीवन को लेकर सुखी होवे और जिनको मेरे स्थान के लेने की अभिलाषा है, वे स्थान लेकर आनन्द से रहें तथा जो रागद्वेष रहित मध्यस्थ होकर रहना चाहें वे मध्यस्थ रहकर ही सुख से रहें, इस प्रकार समस्त जगत सुख से रहो किन्तु किसी भी संसारी को मुझसे दु:ख न पहुंचे, ऐसा मैं सबके सामने पुकार—पुकार कर कहता हूँ।।८५।।
-शार्दूलविक्रीडित-
किं जानासि न वीतरागमखिलं त्रैलोक्यचूडामणिं किंतद्धर्ममुपाश्रितं न भवता िंकवा न लोकोजड:।
मिथ्यादृग्भिरसज्जनै रपटुभि: किञ्चित्कृतोपद्रवाद्यत्कर्मार्जनहेतुमस्थिरतया बाधां मनोमन्यसे।।८६।।
अर्थ—मिथ्यादृष्टि, दुर्जन, मूर्खजनों से किये हुवे उपद्रव से चंचल होकर कर्मों के पैदा करने में कारणभूत ऐसी वेदना का तू अनुभव करता है सो क्या ? हे मन! तीन लोक के पूजनीक वीतरागपने को तू नहीं जानता है अथवा जिस धर्म को तूने आश्रयण किया है उस धर्म को तू नहीं जानता है अथवा यह समस्त लोक अज्ञानी जड़ है, इस बात का तुझे ज्ञान नहीं है।
भावार्थ—तीन लोक के पूजनीक वीतराग भाव को जानता हुआ भी तथा सच्चे धर्म का अनुयायी होकर भी तथा समस्त लोक को जड़ समझता हुवा भी ‘‘हे मन!’’ मिथ्यादृष्टियों से दिये हुवे दु:ख से दु:खित होता है, यह बड़ा आश्चर्य है।।८६।।
मार्दव धर्म का वर्णन
-वसंततिलका-
धर्माङ्गमेतदिह मार्दवनामधेयं जात्यादिगर्वपरिहारमुषन्ति सन्त:।
तद्धार्यते किमु न बोधदृशा समस्तं स्वप्नेन्द्रजालसदृशं जगदीक्षमाणै:।।८७।।
अर्थ—उत्तम पुरुष जाति, बल, ज्ञान, कुल आदि गर्वों के त्याग को मार्दव धर्म कहते हैं तथा यह धर्मों का अंगभूत है इसलिये जो मनुष्य अपनी सम्यग्ज्ञानरूपी दृष्टि से समस्त जगत को स्वप्न तथा इन्द्रजाल के तुल्य देखते हैं, वे अवश्य ही इस मार्दवनामक धर्म को धारण करते हैं।।८७।।
-शार्दूलविक्रीडित-
कास्था,सद्मनि, सुन्दरेऽपि, परितो,दंदह्यमानेऽग्निभि: कायादौतुजरादिभि:प्रतिदिनं गच्छत्यवस्थान्तरम्।
इत्यालोचयतो, हृदि, प्रशमिन: १भास्वद्विवेकोज्वले गर्वस्यावसर: कुतोऽत्र घटते भावेषु सर्वेष्वपि।।८८।।
अर्थ—अत्यन्त मनोहर भी है किन्तु जिसके चारों तरफ अग्नि जल रही है, ऐसे घर के बचने में जिस प्रकार अंशमात्र भी आशा नहीं की जाती, उस ही प्रकार जो शरीर वृद्धावस्थाकर सहित है तथा प्रतिदिन एक अवस्था को छोड़कर दूसरी अवस्था को धारण करता रहता है, वह शरीर सदाकाल रहेगा, यह कब विश्वास हो सकता है ? इस प्रकार निरन्तर विवेक से अपने निर्मलहृदय म्ों विचार करने वाले मुनि के समस्त पदार्थों में अभिमान करने के लिये अवसर ही नहीं मिल सकता, इसलिये मुनियों को सदा ऐसा ही ध्यान करना चाहिये।।८८।।
आर्जव धर्म का वर्णन
हृदि यत्तद्वाचि वहि: फलति तदेवार्जवंभवत्येतत्।
धर्मो निकृतिरधर्मो द्वाविह ‘‘सुरसद्मनरकपथौ’’।।८९।।
अर्थ—मन में जो बात होवे उस ही को वचन से प्रकट करना (ना कि मन में कुछ दूसरा होवे तथा वचन से कुछ दूसरा ही बोले) इसको आचार्य आर्जव धर्म कहते है तथा मीठी बात लगाकर दूसरे को ठगना, इसको अधर्म कहते हैं और इसमें आर्जवधर्म से स्वर्ग की प्राप्ति होती है तथा अधर्म नरक को ले जाने वाला होता है इसलिये आर्जव धर्म के पालन करने वाले भव्यजीवों को किसी के साथ माया से बर्ताव नहीं करना चाहिये।
-शार्दूलविक्रीडित-
मायित्वं कुरुतेकृतं सकृदपिच्छायाविघातं गुणेष्वाजातेर्यमिनोऽर्जितेष्विह गुरुक्लेशै: १शमादिष्वलम ्।
सर्वे तत्र यदासते विनिभृता: क्रोधादयस्तत्वतस्तत्पापं वत येन दुर्गतिपथे जीवश्चिरंभ्राम्यति।।९०।।
अर्थ—आचार्य कहते हैं कि यदि एक बार भी किसी के साथ मायाचारी की जावे तो वह मायाचारी बड़ी कठिनता से संचय किये हुवे अहिंसा, सत्यादि मुनियों के गुणों को फीका बना देती है अर्थात् वे गुण आदरणीय नहीं रहने पाते और उस मायारूपी मकान में नाना प्रकार के क्रोधादि शत्रु छिपे हुवे बैठे रहते हैं और मायाचार से उत्पन्न हुवे पाप से जीव नाना प्रकार के दुर्गति मार्गों में भ्रमण करता फिरता है इसलिये मुनियों को माया अपने पास भी नहीं फटकने देना चाहिये।।९०।।
सत्यधर्म का वर्णन
-आर्या-
स्वपरहितमेव मुनिभिर्मितममृतसमं सदैव सत्यं च।
वक्तव्यं वचनमथ प्रविधेयं धीधनैर्मौनम्।।९१।।
अर्थ—उत्कृष्टज्ञान के धारण करने वाले मुनियों को प्रथम तो बोलना ही नहीं चाहिये, यदि बोले तो ऐसा वचन बोलना चाहिये जो समस्त प्राणियों के हित का करने वाला हो तथा परिमित हो और अमृत के समान प्रिय हो तथा सर्वथा सत्य हो किन्तु जो वचन जीवों को पीड़ा देने वाला हो तथा कड़वा हो, तो उस वचन की अपेक्षा मौन साधना ही अच्छा है।।९१।।
सति सन्ति व्रतान्येव सूनृते वचसि स्थिते।
भवत्याराधिता सद्भि:र्जगत्पूज्या च भारती।।९२।।
अर्थ—जो मनुष्य सत्य वचन बोलने वाला है अर्थात् सत्य व्रत का पालन करने वाला है, उसके समस्त व्रत विद्यमान रहते हैं अर्थात् सत्यव्रत के पालन करने से ही वह समस्त व्रतों का पालन करने वाला हो जाता है और वह सत्यवादी सज्जन पुरुष तीन लोक की पूजनीक सरस्वती को भी सिद्ध कर लेता है।
भावार्थ—सरस्वती भी उसके आधीन हो जाती है।।९२।।
-शार्दूलविक्रिीडित-
आस्तामेतदमुत्र सूनृतवचा: कालेन यल्लप्स्यते सद् भूपत्वसुरत्वसंसृतिसरित्पाराप्तिमुख्यं फलम्।
यत्प्राप्नोति यश: शशांकविशदं शिष्टेषु यन्मान्यतां यत्साधुत्वमिहैव जन्मनि परं तत्केन संवर्ण्यते।।९३।।
अर्थ—तथा और भी आचार्य कहते हैं कि सत्यवादी मनुष्य परभव में जाकर श्रेष्ठ चक्रवर्ती राजा बनते हैं तथा इन्द्रादि फल को प्राप्त कर लेते हैं और सबसे उत्कृष्ट मोक्षरूपी फल को भी प्राप्त कर लेते हैं, यह बात तो दूर रही किेन्तु इसी भव में वे चन्द्रमा के समान उत्तमकीर्ति को पा लेते हैं तथा शिष्ट मनुष्य उनको बड़ी प्रतिष्ठा से देखते हैं और वे सज्जन कहे जाते हैं इत्यादि नाना प्रकार के उत्तम फल उनको मिलते हैं जो कि सर्वथा अवर्णनीय है इसलिये सज्जनों को अवश्य ही सत्य बोलना चाहिये।।९३।।
शौच धर्म का वर्णन
-आर्या-
यत्परदारार्थादिषु जन्तुषु निस्पृहमहिंसकं चेत:।
१दुर्भेद्यान्तमलहृत्तदेव शौचं परं नान्यत्।।९४।।
अर्थ—जो परस्त्री तथा पराये धन में इच्छारहित है तथा किसी भी जीव के मारने की जिसकी भावना नहीं है और जो अत्यन्त दुर्भेद्य लोभ, क्रोधादि मल का हरण करने वाला है ऐसा चित्त ही शौच धर्म है किन्तु उससे भिन्न कोई शौचधर्म नहीं है।
भावार्थ—गंगा आदि नदियों में स्नान भी किया तथा पुष्कर आदि तीर्थों में भी गये किन्तु मन लोभ आदि कर ही संयुक्त बना रहा तो कदापि शौचधर्म नहीं पल सकता, इसलिये मन को सबसे पहले शुद्ध करना चाहिये।।९४।।
-शार्दूलविक्रीडित-
गंगासागरपुष्करादिषु सदा तीर्थेषु सर्वेष्वपि स्नातस्यापि न जायते तनुभृत: प्रायो विशुद्धि: परा।
मिथ्यात्वादिमलीमसं यदि मनो बाह्येऽतिशुद्धोदवैâर्धौतं किं बहुशोऽपि शुद्ध्यति सुरापूरप्रपूर्णो घट:।।९५।।
अर्थ—आचार्य कहते हैं जिस प्रकार अत्यन्तघृणित मद्य से भरा हुआ घड़ा यदि बहुत बार शुद्ध जल से धोया भी जावे तो भी वह शुद्ध नहीं हो सकता, उस ही प्रकार जो मनुष्य बाह्य में गंगा-पुष्कर आदि तीर्थों में स्नान करने वाला है किन्तु उसका अंत:करण नानाप्रकार के क्रोधादि कषायों से मलीमस है तो वह कदापि उत्कृष्ट शुद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता इसलिये मनुष्य को सबसे प्रथम अपने अंत:करण को शुद्ध करना चाहिये क्योंकि जब तक अंत:करण शुद्ध न होगा, तब तक सर्व बाह्यक्रिया व्यर्थ हैं।।९५।।
संयमधर्म का वर्णन
-आर्या-
जन्तुकृपार्दितमनस: समितिषु साधो: प्रवर्तमानस्य।
प्राणेन्द्रियपरिहार: संयममाहुर्महामुनय:।।९६।।
अर्थ—जिसका चित्त जीवों की दया से भीगा हुवा है तथा जो ईर्या, भाषा, एषणा आदि पाँच समितियों का पालन करने वाला है, ऐसे साधु के जो षट्काय के जीवों की हिंसा का तथा इन्द्रियों के विषयों का त्याग है, उसी को गणधरादिदेव संयम धर्म कहते हैं।
भावार्थ—जब तक दया से चित्त भीगा न रहेगा तथा ईर्या-भाषा-एषणा आदि समितियों का पालन न किया जावेगा और समस्त जीवों की हिंसा का तथा इन्द्रियों के विषयों का त्याग न किया जावेगा, तब तक कदापि संयमधर्म नहीं पल सकता इसलिये संयमियों को उपर्युक्त बातों पर विशेषतया ध्यान देना चाहिये।।९६।।
-शार्दूलविक्रीडित-
मानुष्यं किल दुर्लभं भवभृतस्तत्रापि जात्यादयस्तेष्वेवाप्तवच: श्रुति: स्थितिरतस्तस्याश्च दृग्बोधने।
प्राप्ते ते १अपि निर्मले अपि परं स्यातां न येनोज्झिते स्वर्मोक्षैकफलप्रदे स च कथं न श्लाघ्यते संयम:।।९७।।
अर्थ—आचार्य कहते हैं कि प्रथम तो इस संसाररूपी गहनवन में भ्रमण करते हुए प्राणियों को मनुष्य होना ही अत्यन्त कठिन है किन्तु किसी कारण से मनुष्य जन्म प्राप्त भी हो जावे, तो उत्तम ब्राह्मणादि जाति मिलना अति दु:साध्य है यदि किसी प्रबलदैवयोग से उत्तमजाति भी मिल जावे तो अर्हन्त भगवान के वचनों का सुनना बड़ा दुुर्लभ है यदि उनके सुनने का भी सौभाग्य प्राप्त हो जावे, तो संसार में अधिक जीवन नहीं मिलता, यदि अधिक जीवन भी मिले तो सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होनी अतिकठिन है, यदि किसी पुण्य के उदय से अखण्ड तथा निर्मल सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति भी हो जावे, तो उस संयम धर्म के बिना वे स्वर्ग तथा मोक्षरूपी फल के देने वाले नहीं हो सकते इसलिए सबकी अपेक्षा संयम अति प्रशंसनीय है अत: ऐसे संयम की अवश्य संयमियों को रक्षा करना चाहिए।।९७।।
तपधर्म का वर्णन
-आर्या-
कर्ममलविलयहेतोर्बोधदृशा तप्यते तप: प्रोक्तम्।
तद्द्वेधा द्वादशधा जन्माम्बुधियानपात्रमिदम्।।९८।।
अर्थ—सम्यग्ज्ञानरूपी दृष्टि से भले प्रकार वस्तु के स्वरूप को जानकर ज्ञानावरणादि कर्ममल के नाश की बुद्धि से जो तप किया जाता है, वही तप कहा गया है तथा वह तप मूल में बाह्य-अभ्यन्तर भेद से दो प्रकार है और १.अनशन २. अवमौदर्य
३. वृत्तिपरिसंख्यान ४. रसपरित्याग. ५. विविक्तशय्यासन ६. कायक्लेश इस रीति से छ: प्रकार का बाह्य तथा १. प्रायश्चित्त
२. विनय ३. वैयावृत्य ४. स्वाध्याय ५. व्युत्सर्ग ६. ध्यान इस प्रकार छ: प्रकार का अभ्यन्तर इस रीति से उस तप के बारह भी भेद हैं तथा वह तप संसाररूपी समुद्र से पार करने के लिये जहाज के समान है अर्थात् मोक्ष का देने वाला है।।९८।।
-पृथ्वी-
कषायविषयोद्भटप्रचुरतस्करौघो हठात्तप: सुभटताडितो विघटते यतो दुर्जय:।
अतोहि निरुपद्रवश्चरति तेन धर्मश्रिया यति: समुपलक्षित: पथि विमुक्तिपुर्या: सुखम्।।९९।।
अर्थ—आचार्य कहते हैं यद्यपि क्रोधादिकषायरूपी उद्धत तथा प्रबल चौरों का समूह दुर्जय है अर्थात् साधारण रीति से जीतने में नहीं आ सकता तो भी जिस समय तपरूपी प्रबल योधा उसके सामने आता है, उस समय उसकी कुछ भी तीन—पाँच नहीं चलती अर्थात् बात की बात में वह जीत लिया जाता है इसलिये जो योगीश्वर तपरूपसुभट के साथ धर्मरूपी लक्ष्मीकर युक्त है, वह मोक्षरूपी नगर के मार्ग में निरुपद्रव तथा सुख से चला जाता है।
भावार्थ—जिस प्रकार कोई मनुष्य विदेश को निकले तथा उसके पास लक्ष्मी भी हो किन्तु उसके पास कोई सुभट न हो, तो वह बात की बात में भयंकर डाकुओं से लूट लिया जाता है परन्तु यदि उसके पास थोड़े से भी प्रबलयोधा होवें तो उसका डाकू कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते अर्थात् उन डाकुओं को योधा तत्काल में जीत लेते हैं, उस ही प्रकार संसार में कषाय तथा विषयरूपी योधा यद्यपि अत्यन्त दुर्जय हैं किन्तु जिस मुनि के पास तपरूपी प्रबल सुभट मौजूद हैं उसका वे कुछ भी नहीं कर सकते तथा वे मुनि उपद्रवरहित सुख से मोक्ष को चले जाते हैं इसलिये मोक्षाभिलाषी मुनियों को तप सबसे प्रिय समझना चाहिये।।९९।।
-मन्दाक्रान्ता-
मिथ्यात्वादेर्यदिह भविता दु:खमुग्रं तपोभ्यो जातं तस्मादुदककणिवैâकेव सर्वाब्धिनीरात्।
स्तोकं तेन प्रसभमखिलकृच्छ्रलब्धे नरत्वे यद्येतर्हि स्खलसि तदहो का क्षतिर्जीव ते स्यात्।।१००।।
अर्थ—आचार्य कहते हैं कि हे जीव! जिस प्रकार समस्त समुद्र की अपेक्षा जल कण अत्यन्त छोटा होता है, उस ही प्रकार तप के करने से बहुत थोड़े दु:ख का तुझे अनुभव करना पड़ता है किन्तु जिस समय मिथ्यात्व के उदय से तू नरक जावेगा, उस समय तुझको नाना प्रकार के छेदन-भेदन आदि असह्य दु:खों का सामना करना पड़ेगा, तो भी तू न जाने तप से क्यों भयभीत होता है ? तथा तेरी तप के करने में क्या हानि है ?।।१००।।
त्यागधर्म का वर्णन
व्याख्या या क्रियते श्रुतस्य यतये यद्दीयते पुस्तकं स्थानं संयमसाधनादिकमपि प्रीत्या सदाचारिणा।
स त्यागो वपुरादिनिर्ममतया नो किंचनास्ते यतेराकिंचन्यमिदं च संसृतिहरो धर्म:सतां सम्मत:।।१०१।।
अर्थ—शास्त्रों का भलीभांति व्याख्यान करना तथा मुनियों को पुस्तकें तथा स्थान और संयम के साधन पीछी-कमण्डलु आदि का देना सदाचारियों का उत्कृष्ट त्याग धर्म है और मेरा कुछ भी नहीं है, ऐसा विचार कर अत्यन्त निकट शरीर में भी ममता छोड़ देना आिंकचन्य नामक धर्म है तथा वह यति के होता है और वह समस्त संसार का नाश करने वाला है तथा समस्त श्रेष्ठ पुरूषों के द्वारा वह आदरणीय है।।१०१।।
आिंकचन्य धर्म का स्वरूप वर्णन
-शिखरिणी-
विमोहा मोक्षाय स्वहितनिरताश्चारुचरिता गृहादि त्यत्यक्त्वा ये विदघति तपस्तेऽपि विरला:।
तपस्यंतोन्यस्मिन्नपि यमिनि शास्त्रादि ददतो सहाया: स्युर्ये ते जगति यमिनो दुर्लभतरा:।।१०२।।
अर्थ—जिनका सर्वथा मोह गल गया है तथा जो अपने आत्मा के हित में ही निरन्तर लगे रहते हैं और सुन्दर चारित्र के धारण करने वाले हैं तथा घर-स्त्री पुत्रादि को छोड़कर मोक्ष के लिये तप करते हैं वे मुनि संसार में बिरले ही हैं तथा जो स्वत: अपने हित के लिये तप करने वाले हैं तथा दूसरे तपस्वियों के लिये जो शास्त्रादि का दान करते हैं और उनके सहायी भी हैं, ऐसे योगीश्वर तो संसार के बीच में अत्यन्त ही दुर्लभ हैं अर्थात् बड़ी कठिनाई से मिलते हैं।।१०२।।
परंमत्वा सर्वं परिहृतमशेषं श्रुतविदा वपु: पुस्ताद्यास्ते तदपि निकटं चेदिति मति:।
ममत्वाभावे तत्सदपि न सदन्यत्र घटते जिनेन्द्राज्ञाभंगो भवति च हठात कल्मषमृषे:।।१०३।।
अर्थ—समस्त शास्त्र के जानने वाले वीतराग ने अपनी आत्मा से समस्तवस्तु को भिन्न जानकर सबका त्याग कर दिया, यदि कहोगे कि सबको छोड़ते समय शरीर पुस्तकादि का क्यों नहीं त्याग किया? तो उसका समाधान यही है कि उनकी शरीरादि में भी किसी प्रकार की ममता नहीं रही है इसलिये वे मौजूद भी नहीं मौजूद की तरह ही हैं अर्थात् मुनियों का शरीरादि बिना आयुकर्म के नाश हुवे छूट नहीं सकता, यदि वे बीच में ही छोड़ देवें तो उनको प्राणघात करने के कारण हिंसा का भागी होना पड़ेगा इसलिये शरीरादि तो रहता है किन्तु वे शरीरादि में किसी प्रकार का ममत्व नहीं रखते परन्तु यदि वे शरीरादि में किसी प्रकार का ममत्व करे तो उनको जिनेन्द्र की आज्ञाभंगरूप महान दोष का भागी होना पड़े अर्थात् जब तक ममत्व रहेगा, तब तक वे मुनि ही नहीं कहलाये जा सकते।।१०३।।
ब्रह्मचर्य धर्म का वर्णन
-स्त्रग्धरा-
यत्संगाधारमेतच्चलति लघु च यत्तीक्ष्णदु:खौघधारं मृत्पिण्डीभूतभूतं कृतबहुविकृतिभ्रान्ति संसारचक्रम्।
ता नित्यं यन्मुमुक्षुर्यतिरमलमति: शान्तमोह: प्रपश्मेज्जामी: पुत्री: सवित्रीरिवहरिणदृशस्तत्परं ब्रह्मचर्यम्।।१०४।।
अर्थ—जिस प्रकार कुम्भकार का चाक जमीन के आधार से चलता है तथा उस चाक की तीक्ष्ण धारा रहती है और उसके ऊपर मिट्टी का पिण्ड भी रहता है तथा वह चाक नाना प्रकार के कुसूल, स्थास आदि घट के विकारों को करता है उस ही प्रकार संसाररूपी चाक की आधार यह स्त्री है अर्थात् यह स्त्री न होती तो कदापि संसार में भटकना न फिरता तथा इस संसाररूपी चाक में अत्यंत तीक्ष्णदु:खों का समूह ही धार है अर्थात् संसार में नानाप्रकार के नरकादि दु:खों का सामना करना पड़ता है और इस संसाररूपी चाक के ऊपर नाना प्रकार के जीव जो हैं, वे ही पिण्ड हैं तथा वह संसाररूपी चाक देव, मनुष्यादि नानाप्रकार के विकार कराकर जीवों को भ्रमण कराने वाला है अत: स्त्री ही संसारचक्र की कारण है इसलिये जो मोक्ष का अभिलाषी मनुष्य उन स्त्रियों को माता, बहिन, पुत्री के समान मानता है, उस ही के उत्कृष्ट धर्म का भलीभांति पालन होता है अत: ब्रह्मचारी मनुष्यों को चाहिये कि वे कदापि स्त्रियों के साथ सम्बन्ध न रक्खें।।१०४।।
अविरतमिह तावत्पुण्यभाजो मनुष्या हृदिविरचितरागा: कामिनीनां वसन्ति ।
कथमपि न पुनस्ता जातु येषां तदंघ्री: प्रतिदिनमतिनम्रास्तेऽपि नित्यं स्तुवन्ति।।१०५।।
अर्थ—जो पुरुष निरन्तर स्त्रियों के हृदय में प्रीति उपजावने वाले हैं अर्थात् जिनको स्त्रियाँ चाहती हैं यद्यपि वे भी संसार में धन्य हैं परन्तु जिन मनुष्यों के हृदय में स्त्रियां स्वप्न में भी निवास नहीं करतीं, वे उनसे भी अधिक धन्य हैं तथा उन वीतरागी पुरुषों के चरण-कमलों को स्त्रियों के प्रियपात्र बड़े—बड़े चक्रवर्ती आदि भी शिर झुकाकर नमस्कार करते हैं इसलिये जिनपुरुषों को संसार में अपनी कीर्ति फैलाने की इच्छा है उनको कदापि स्त्रियों के जाल में नहीं फसना चाहिये।।१०५।।
-स्रग्धरा-
वैराग्यत्यागदारुकृतरुचिरचना चारु निश्रेणिका यै: पादस्थानैरुदारैर्दशभिरनुगता निश्चलैर्ज्ञानदृष्टे:।
योग्या स्यादारुरुक्षो: शिवपदसदनं गन्तुमित्येषु केषां नो धर्मेषु त्रिलोकीपतिभिरपि सदा स्तूयमानेषु हृष्टि:।।१०६।।
अर्थ—आचार्य कहते हैं कि जिसके इधर-उधर वैराग्य तथा त्यागरूपी मनोहर काष्ट लगे हुवे हैं तथा जिसमें बड़े—बड़े मजबूत दशधर्मरूपी पादस्थान (दण्डे) मौजूद हैं ऐसी सीढ़ी मोक्षरूपी महल पर चढ़ने की इच्छा करने वाले मनुष्य के चढ़ने के लिये योग्य है क्योंकि जो तीन लोक के पति इन्द्रादिकों से वन्दनीक हैं उन दशधर्मों के धारण करने में किसको हर्ष नहीं हो सकता है ? अर्थात् समस्त मोक्षाभिलाषी उनको हर्ष के साथ पाल सकते हैं।।१०६।।
।।इस प्रकार दशधर्म का निरूपण हो चुका।।