भादों सुदी पंचमी से चतुर्दशी तक यह व्रत किया जाता है। यदि दश दिन के मध्य कोई तिथि क्षय होवे तो चतुर्थी से व्रत प्रारम्भ करें और यदि कोई तिथि अधिक होवे तो ग्यारह दिन का व्रत करना चाहिये। व्रत में दशों दिन उपवास करना चाहिये और यदि शक्ति न हो तो पंचमी और चतुर्दशी को उपवास करना चाहिये तथा मध्य के दिनों में एकाशन करना चाहिये। प्रतिदिन जिनप्रतिमा का पंचामृत या मात्र जल से अभिषेक करके चौबीसी पूजा और दशलक्षण की पूजा करना चाहिये। दश दिन ब्रह्मचर्य व्रत पालन करते हुए प्रतिदिन तीनों काल में पुष्पांजलि करना चाहिये। एक उपवास एक पारणा ऐसे एकांतर से भी व्रत किया जाता है।
इसी प्रकार से माघ और चैत्रमास की शुक्ला पंचमी से चतुर्दशी तक व्रत करना चाहिये। दश वर्ष तक विधिवत् व्रत करके शक्ति के अनुसार उद्यापन विधि करना चाहिये। दशलक्षण व्रत के उद्यापन का विधान करके यथाशक्ति छत्र, चामर आदि उपकरण मंदिर में चढ़ाने चाहिये। उद्यापन शक्ति न होने से व्रत दूना करना चाहिये। व्रत के दिन निम्नलिखित१ जाप्य करना चाहिये।
१.ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमक्षमाधर्माङ्गाय नम:।
२.ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तममार्दवधर्माङ्गाय नम:।
३.ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमआर्जवधर्माङ्गाय नम:।
४.ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमसत्यधर्माङ्गाय नम:।
५.ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमशौचधर्माङ्गाय नम:।
६.ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमसंयमधर्माङ्गाय नम:।
७.ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमतपोधर्माङ्गाय नम:।
८.ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमत्यागधर्माङ्गाय नम:।
९.ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमआिंकचनधर्माङ्गाय नम:।
१०.ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय नम:।
धातकीखंड के पूर्व विदेह में विशालाक्षा नाम की नगरी थी। यहाँ के राजा प्रियंकर की पुत्री मृगांकरेखा, मंत्री की पुत्री कामसेना, सेठ मतिसागर की पुत्री मदनवेगा और लक्षभद्र पुरोहित की पुत्री रोहिणी इन चारों कन्याओं ने एक साथ ही गुरु से विद्या प्राप्त की थी अत: इनमें परस्पर बहुत ही प्रेम था। एक दिन बसंत ऋतु में ये कन्यायें वन क्रीड़ा के लिये गईं, वहाँ मुनिराज के दर्शन करके बहुत ही प्रसन्न हुईं। पुन: प्रार्थना की—हे भगवन् ! हमें ऐसा कोई व्रत दीजिये कि जिससे िंनद्य स्त्रीपर्याय से छुटकारा मिल जाये। मुनिराज ने कहा—
बालिकाओं ! तुम दशलक्षण व्रत करो, विधिवत् अभिषेक, पूजा, जाप्य आदि करके दश दिन धर्म—ध्यान में व्यतीत करो। भादों सुदी पंचमी से चौदश तक पूर्वोक्त विधि का स्पष्टीकरण कर दिया। इन चारों कन्याओं ने दश वर्ष व्रत करके उद्यापन किया। अंत समय समाधिमरण से मरणकर दशवें स्वर्ग में चारों कन्याओं के जीव महर्द्धिक देव हो गये। वहाँ की सोलह सागर की आयु समाप्त कर इस जंबूद्वीप के मालव देश में उज्जयिनी नगरी के राजा स्थूलभद्र की रानी लक्ष्मीमती के गर्भ से क्रम से देवप्रभु, गुणचन्द्र, पद्मप्रभ और पद्मसारथि नाम के पुत्र हो गये। ब्याह योग्य होने पर निकलप्रभ राजा की ब्राह्मी, कुमारी, रूपवती और मृगनेत्रा इन कन्याओं के साथ क्रम से विवाह हो गया। पिता के दीक्षित हो जाने पर इन राजपुत्रों ने नीतिपूर्वक राज्य का संचालन किया। किसी समय विरक्त होकर चारों ने जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर घोर तपश्चरण किया और अंत में निर्वाणधाम को प्राप्त हो गये। इस प्रकार से इस व्रत के प्रभाव से कन्याओं ने स्त्रीिंलग छेदकर देवों के सुख का अनुभव किया पुन: मर्त्यलोक में राज्य सुख भोगकर अंत में शाश्वत सुख को प्राप्त कर लिया है।