-दोहा-
दशलक्षणवृष कल्पतरु, सब कुछ देन समर्थ।
नमूँ नमूँ नित भक्ति से, फलें सर्व इष्टार्थ।।१।।
-शंभुछंद-
जय उत्तम क्षमा शांतिकरणी, निज आत्मसुधानिर्झरणी है।
जय उत्तम मार्दव स्वाभिमान, समरस परमामृत सरणी है।।
जय उत्तम आर्जव मन वच तन, एकाग्ररूप निजध्यानमयी।
जय उत्तम सत्य दिव्यध्वनि का, हेतू है भविजन सौख्यमयी।।२।।
जय उत्तम शौच निजात्मा को, शुचि पावन कर शिवधाम धरे।
जय उत्तम संयम गुणरत्नों, से पूर्ण परमनिजधाम करे।।
जय उत्तम तप आत्मा को नित्य, निरंजन अनुपम पद देता।
जय उत्तम त्याग रत्नत्रय निधि, से निज आत्मा को भर देता।।३।।
जय उत्तम आकिंचन आत्मा, को त्रिभुवनपति पद देता है।
जय उत्तम ब्रह्मचर्य निज में, निज को स्थिर कर देता है।।
जय जय दशलक्षण धर्म, निजात्मा के अनंतगुण देते हैं।
चौरासी लाख योनियों के, परिभ्रमण दूर कर देते हैं।।४।।
निश्चयनय से यह आत्मा तो, रस गंध वर्ण स्पर्श रहित।
नर नारक आदि गती विरहित, संस्थान गुणस्थानादि रहित।।
यद्यपि भव पंच परावर्तन यह, काल अनंतों से करता।
फिर भी निश्चय से यह आत्मा है, सिद्ध समान सौख्य भरता।।५।।
व्यवहार नयाश्रित आत्मा तो, कर्मों से युत संसारी है।
शारीरिक मानस आगंतुक, नाना दु:खों का धारी है।।
भव भव के जन्म मरण दु:खों, को व्याकुल होकर भोग रहा।
फिर भी यह चिच्चैतन्यमयी, आत्मा के गुण को खोज रहा।।६।।
हे नाथ! आपके चरणों में, हम यही प्रार्थना करते हैं।
समकित निधि संयमनिधी मिले, बस यही याचना करते हैं।।
व्यवहार नयाश्रित भक्ती से, दशधर्म कमल विकसित कीजे।
निश्चयनय से निज में तिष्ठूँ, ऐसी शक्ति मुझको दीजे।।७।।
–दोहा-
गुण अनंत मंडित प्रभो! करो हृदय में वास।
केवल ‘ज्ञानमती’ मिले, जो अनंतगुण राशि।।८।।