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23. दशलक्षण धर्म
July 7, 2017
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दशलक्षण धर्म
यह भादों मास सभी महीनों, में राजा है उत्तम जग में।
यह धर्म हेतु है और अनेक, व्रत रत्नों का सागर सच में।।
यह महापर्व है दशलक्षण, दशधर्म मय मंगलकारी।
रत्नत्रय निधि को देता है, सोलहकारणमय सुखकारी।।
उत्तम क्षमा
सब कुछ अपराध सहन करके, भावों से पूर्ण क्षमा करिये।
यह उत्तम क्षमा जगन्माता, इसकी नितप्रति अर्चा करिये।।
कमठासुर ने भव भव में भी, उपसर्ग अनेकों बार किया।
पर पाश्र्वप्रभू ने सहन किया, शान्ति का ही उपचार किया।।१।।
क्या बैर से बैर मिटा सकते, क्या रज से रज धुल सकता है?
क्या क्रोध से भी शान्ति मिलती, क्या क्रोध सुखी कर सकता है?
यदि अपकारी पर क्रोध करो, तो क्रोध महा अपकारी है।
इस क्रोध पे क्रोध करो बंधु, यह शत्रु महा दुखकारी है।।२।।
यह क्रोध महा अग्नि क्षण में, संयम उपवन को भस्म करे।
यह क्रोध महा चांडाल सदृश, आत्मा की शुचि अपहरण करे।।
पांडव आदि मुनियों ने भी, इस क्षमा को मन में धारा था।
मुनिगण ने सर्वंसह असि से, इस क्रोध शत्रु को मारा था।।३।।
यह क्रोध अनंत अनुबंधी, अगणित भव तक संस्कार रहे।
अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, छह महीने ऊपर नहीं रहे।।
यह प्रत्याख्यानावरण क्रोध, पन्द्रह दिन तक रह सकता है।
संज्वलन क्रोध अंतर्मुहूर्त, से अधिक नहीं टिक सकता है।।४।।
उदयागत क्रोध द्रव्य पुद्गल, इसको भी निज से भिन्न करूँ।
फिर निज में ही स्थिर होकर, सब भाव क्रोध को छिन्न करूँ।।
निज उत्तम क्षमा स्वभावमयी, निज को निज में पा जाऊँ मैं।
पर से सम्बन्ध पृथक् करके, निज पूर्ण सौख्य प्रगटाउँ मैं।।५।।
उत्तम मार्दव
मृदुता का भाव कहा मार्दव, यह मान शत्रु मर्दनकारी।
यह दर्शन ज्ञान चरित्र तथा, उपचार विनय से सुखकारी।।
मद आठ जाति, कुल आदि हैं, क्या उनसे सुखी हुआ कोई।
रावण का मान मिला रज में, यमनृप ने सब विद्या खोई।।१।।
था इन्द्र नाम का विद्याधर, वह इन्द्र सदृश वैभवशाली।
रावण ने उसका मान हरा, अपमान हृदय को दु:खकारी।।
जब चक्री गर्व सहित जाकर, वृषभाचल पूर्ण लिखा लखते।
हो मान शून्य इक नाम मिटा, निज नाम प्रशस्ति को लिखते।।२।।
बहु इन्द्र सदृश भी सुख भोगे, औ बार अनन्त निगोद गया।
बहु ऊँच नीच पर्याय धरी, निंह िंकचित् भी तब मान रहा।।
यह मान स्वयं निज आत्मा का, अपमान सदा करवाता है।
मार्दव गुण अपनी आत्मा को, सन्मान सदा दिलवाता है।।३।।
व्यवहार विनय सब सिद्ध करे, इसको सब शिव द्वार कहें।
गुणमणि साधुजन का नितप्रति, बहु विनय भक्ति सत्कार रहे।।
अपनी आत्मा है अनन्त गुणी, दुर्गति से उसे बचाऊँ मैं।
निज स्वाभिमान रक्षित करके, अपने को अपना पाऊँ मैं।।४।।
निज दर्शन ज्ञान चरित गुण का, सन्मान करूँ सब मान हरूँ।
निज आत्म सदृश सबको लखकर, निंह किस ही का अपमान करूँ।।
निज आत्मा के मार्दव गुण को, निज में परिणत कर सौख्य भरूँ।
निज स्वाभिमानमय परमामृत, पीकर निज को झट प्राप्त करूँ।।५।।
उत्तम आर्जव
ऋजु भाव कहा आर्जव उत्तम, मन वच औ काय सरल रखना।
इन कुटिल किये माया होती, तिर्यंचगति के दु:ख भरना।।
नृप सगर छद्म से ग्रन्थ रचा, मधुिंपगल का अपमान किया।
उसने भी कालासुर होकर, िंहसामय यज्ञ प्रधान किया।।१।।
मृदुमति मुनि ने ख्याति पूजा—हेतु माया को ग्रहण किया।
देखो हाथी का जन्म लिया, इस माया को धिक्कार दिया।।
यह कुटिल भाव गति कुटिल करे, औ अशुभ नाम का बंध करे।
ऋजु गती से मुक्ति गमन होता, ऋजु भावी सुख से प्राप्त करे।।२।।
जो मन में हो वह ही वच से, तन चेष्टा भी वैसी होवे।
दुर्गति स्त्री पशुयोनि छुटे, भव भव का भ्रमण तुरत खोवे।।
मैं अपने योग सरल करके, अपने में ही नितवास करूँ।
पर से विश्वास हटा करके, अपने में ही विश्वास करूँ।।३।।
माया कषाय से रहित स्वयं, आत्मा ऋजु गुण से मंडित है।
यह भाव विभाव कहा ऋषि ने, बहिरात्मा इसमें रंजित है।।
मैं अन्तर आत्मा र्नििवकार, शुद्धात्मा स्वयं का ध्यान करूँ।
पर से अपने को पृथक् समझ, निज परमात्मा को प्राप्त करूँ।।४।।
अपने त्रय योग अचल करके, रत्नत्रय निज गुण प्राप्त करूँ।
योगों की चंचलता छूटे, अपना भव भ्रमण समाप्त करूँ।।
मन वच काया आत्मा को, ध्यानाचल से मैं पृथक् करूँ।
निजदर्शन ज्ञान वीर्य सुखमय, अनुपम निज पद के विभव भरूँ।।५।।
उत्तम सत्य
सत् सम्यक् और प्रशस्त वचन, कहता है सत्यधर्म सुन्दर।
अस्ति को अस्ति रूप कहना, मिथ्या अपलाप रहित सुखकर।।
गर्हित निंदित पैशून्य वचन, अप्रिय कर्वश हिंसादि वचन।
क्रोधादि बैर अपमान करी, उत्सूत्र और आक्रोश वचन।।१।।
छेदनभेदन सावद्य वचन, आरोप अरति करने वाले।
मंत्री श्री वंदक सम झूठे, वच निज के दृग् हरने वाले।।
वसु नृपति असत् का पक्ष लिया, सिंहासन पृथ्वी में धसका।
मरकर वह सप्तम नरक गया, है झूठ वचन सबको दुखदा।।२।।
प्रिय वचनों से मन को हर ले, ऐसे मृदुभाषी बहु जन हैं।
जो अप्रिय पर हितकर होवे, ऐसे वक्ता श्रोता कम हैं।।
हितकर औ पथ्य सहित वाणी, जग में वच सिद्धि करती है।
सच भाषा सचमुच ही जग में, दिव्यध्वनि को भी वरती है।।३।।
प्रिय हित मित मधुर वचन सुन्दर, सबमें विश्वास प्रगट करते।
ये उत्तम सत्य वचन जग में, अप्रिय जन को भी वश करते।।
विश्वासघात है पाप महा, नहिं कभी भूलकर करना तुम।
जैसा तुम अपने प्रति चाहो वैसा सबके प्रति करना तुम।।४।।
आत्मा से भिन्न सभी पर हैं, उनको नहिं अपना मानो तुम।
सब से मन भाव हटा करके, अपने को ही पहचानों तुम।।
हे आत्मन् ! अपने में सम्यक् अपना अवलोक कर लो तुम।
सब ही संकल्प विकल्पों को, तजकर अपने को भज लो तुम।।५।।
उत्तम शौच
शुचि का जो भाव शौच वो ही, मन से सब लोभ दूर करना।
निर्लोभ भावना से नित ही, सब जग को स्वप्न सदृश गिनना।।
जमदग्नि ऋषि की कामधेनु, हर ली वह कार्तवीर्य लोभी।
बस परशुराम ने नष्ट किया, क्षत्रिय कुल सात बार क्रोधी।।१।।
तनु इन्द्रिय जीवन औ निरोग, के लोभ महादुखदायी हैं।
इनको तज निज गुण का लोभी, मैं बनूँ यही सुखदायी है।।
निर्लोभवती भगवती कही, उसको मैं वन्दन करता हूँ।
जिसके प्रसाद से सभी जगत्, को इन्द्रजाल सम गिनता हूॅूं।।२।।
‘देहि’ यह शब्द उचरते ही, जन परमाणु सम लघु होते।
आकाश समान विशाल वही, जो जन देकर दानी होते।।
जल मंत्र और व्रत से त्रयविध, स्नान सदा जो करते हैं।
शुचि धौत वसन धरकर पूजन, दानादि क्रिया जो करते हैं।।३।।
व्यवहार शुद्धि करके श्रावक, मुनि निश्चय शुद्धि करते हैं।
वे ब्रह्मचारी हैं नित्य शुचि, रत्नत्रय से शुचि रहते हैं।।
यद्यपि रज स्वेद सहित मुनिवर, अति शुष्क मलिन तन होते हैं।
पर वे अन्त:शुचि गुणधारी, नितकर्म मैल को धोते हैं।।४।।
यह आत्मा कर्म मलीमस है, बस प्राणों का धर धर मरता।
जब तन से लोभ सम्मत हरता, तब बाह्याभ्यंतर मल हरता।।
मैं ज्ञानामृत का लुब्धक बन, पर में सब लोभ समाप्त करूँ।
तब स्वयं शौचगुण से पवित्र, अपने में परमाह्लाद भरूँ।।५।।
उत्तम संयम
व्रत धारण समिति का पालन, क्रोधादि कषाय विनिग्रह है।
मन वच तन की चेष्टा त्यागे, इन्द्रिय जप संयम पाँच कहे।।
अथवा त्रसथावर षट्कायों की, रक्षा पंचेन्द्रिय मन जय।
द्वादशविध संयम को पालें, वे मुनिवर संतत व्रतगुणमय।।१।।
इस जीव लोक में हे स्वामिन् ! कैसे आचरण करें मुनिगण ?
कैसे ठहरें, कैसे बैठें, कैसे सोयें, कैसे भोजन ?
कैसे बोले जिस विध पापों, से बंध नहीं फिर हो सकता ?
बस यत्नाचार प्रवृत्ति हो, तब बंध स्वयं ही रुक सकता।।२।।
जितना भी संयम पालो, थोड़ा भी संयम गुणकारी।
श्रावक भी एक देश पालें, त्रस हिंसा के नित परिहारी।।
रावण के एक नियम से ही, सीतेन्द्र नरक में जा करके।
सम्यक् निधि देकर तृप्त किया, लक्ष्मण से बैर मिटा करके।।३।।
यह संयम है व्यवहार धर्म, निश्चय संयम को प्रगट करे।
आत्मा में ही निश्चित होकर, रागादि विभाव अभाव करे।।
निश्चय संयम ही इन्द्रिय के, मन के व्यापार खत्म करके।
अपनी ही रक्षा करता है, षट् जीव काय का वध हरके।।४।।
इन्द्रिय व्यापार नियन्त्रण कर, मन का भी निग्रह कर पाऊँ।
उस क्षण में अन्तर में स्थिर हो, स्वात्म सुधारस को पाऊँ।।
सम्यक् पूर्वक यम के बल से, यमराज शत्रु को वश्य करूँ।
निज उत्तम संयम धर्म सहित, मैं सिद्धि वधू को शीघ्र वरूँ।।५।।
उत्तम तप
उत्तम तप द्वादश विध माना, बाह्याभ्यंतर के भेदों से।
अनशन ऊनोदर वृत्तपरीसंख्या, रस त्याग प्रभेदों से।।
एकान्त शयन आसन करना, तनु क्लेश यथाशक्ति तप है।
तपने से स्वर्ण शुद्ध होता, आत्मा भी तप से शुद्धि लहे।।१।।
प्रायश्चित विनय सुवैयावृत, स्वाध्याय उपाधि का त्याग कहे।
शुचि ध्यान छहों अन्तर तप ये, इनसे ही कर्म कलंक दहे।।
आगम विधि से सम्यक् तप ये, आत्मा की पूर्ण शुद्धि करते।
जो तप से मन को कृश करते, वे आत्मबली सिद्धि वरते।।२।।
व्रत कर्म दहन चारित्र शुद्धि, जिनगुण संपति कहे उत्तम।
कनकावली रत्नावली आदिक, सर्वतोभद्र जग में उत्तम।।
व्रत श्रेष्ठ िंसहनिष्क्रीड़ितादि, नन्दन मुनि ने भी व्रत पाला।
सोलहकारण भावित करके, महावीर बने सब अघ टाला।।३।।
‘मय’ मुनि को कर स्पर्श सती, सिंहेंदु का स्पर्श किया।
पति भी र्नििवष हो खड़ा हुआ, मय मुनि की पूजा भक्ति किया।।
तप बल से ऋद्धि तभी प्रगटें, भविजन के बहुविध त्रास हरें।
ऋषि स्वयं तपोधन होकर भी, निस्पृह हो निज सुख चाह करें।।४।।
सब इच्छाओं का रोध करूँ, बस स्वात्म सुखामृत को चाहूँ।
निज आत्मा में ही लीन हुआ, निश्चय सम्यक्तप को पाऊँ।।
बहिरंतर तप तपते तपते, मैं स्वयं तपोधन बन जाऊँ।
अपने में ही रमते—रमते, मैं स्वयं स्वयंभू बन जाऊँ।।५।।
उत्तम त्याग
उत्तम त्याग कहा जग में, जो त्यागे विषय कषायों को।
शुभ दान चार विध के देवें, उत्तम आदि त्रय पात्रों को।।
आहार सुऔषधि ज्ञान दान, और अभय दान उत्तम सबमें।
नृप वङ्काजंघ और श्रीमती, आहार दान से पूज्य बने।।१।।
नृप वृषभ हुए श्रीमती तभी श्रेयांस हुए जग में वंदित।
श्रीकृष्ण मुनि को औषधि दे, तीर्थंकर होंगे पुण्य सहित।।
ग्वाला भी शास्त्र दान फल से, कौंडेस मुनि श्रुतपूर्ण हुआ।
मुनि को दे सूकर अभयदान, लड़कर मरकर सुर शीघ्र हुआ।।२।।
रत्नों की वर्षा पुष्प वृष्टि, अनहद बाजे वायु सुरभित।
जयजयकारा ये पाँच कहें, आश्चर्य वृष्टि सुरगण निर्मित।।
पंचाश्चर्यों की वर्षा बस, आहार दान में ही होती।
भद्रों को मिलती भोगभूमि, समकित को सुर शिव गति होती।।३।।
पात्रों का दान सुफल देता, कुपात्रों का कुत्सित फल है।
हो दान अपात्रों का निष्फल, ये चारों दान महा फल हैं।।
थोड़े में भी थोड़ा दीजे, बहु धन की इच्छा मत करिये।
इच्छा की पूर्ति नहीं होगी, सागर में कितना जल भरिये।।४।।
यह सब व्यवहार त्याग माना, निश्चय से आत्मा सिद्ध सदृश।
सब त्याग ग्रहण से रहित सदा, टाँकी से उकेरी र्मूित सदृश।।
सम्पूर्ण विभावों को तजकर, गुणपुँज अमल निज को ध्याऊँ।
बस ज्ञायक भाव हमारा है, उसमें ही तन्मय हो जाऊँ।।५।।
उत्तम आकिंचन्य
निंह किंचित भी तेरा जग में, यह ही आकिंचन भाव कहा।
बस एक अकेला आत्मा ही, यह गुण अनन्त का पुँज अहा।।
अणुमात्र वस्तु को निज समझें, वे नरक निगोद निवास करें।
जो तन से भी ममता टारें, वे लोक शिखर पर वास करें।।१।।
जमदग्नि मिथ्या तापस ने, निज ब्याह रचा था आश्रम में।
परिग्रह का पोट धरा शिर पर, बस डूब गया भवसागर में।।
जिनमत के मुनिगण सब परिग्रह, तज दिग अम्बर को धरते हैं।
बस पिच्छी और कमंडल लेकर, भवसागर से तिरते हैं।।२।।
धन्य—धन्य महामुनि वे जग में, गिरि शिखरों पर तप करते हैं।
वे जग में रहते हुए सदा निज, में ही विचरण करते हैं।।
ग्रीष्म में पर्वत चोटी पर, सर्दी में सरिता तट तिष्ठें।
वर्षा में तरुतल ध्यान धरें, निश्चलतन से परिषह सहते।।३।।
मैं काल अनादि से अब तक, एकाकी जन्म मरण करता।
एकाकी नरक निगोदों के, चारों गतियों के दुख सहता।।
इस जग में जितने भी भव हैं, मैं उन्हें अनन्तों बार धरा।
बस मेरा निर्मम एक शुद्ध पद, उसे न अब तक प्राप्त करा।।४।।
भगवन् ! ऐसी शक्ति दीजे, मैं निर्मम हो वनवास करूँ।
आतापन आदि योग धरूँ, भवभव का त्रास विनाश करूँ।।
उपसर्ग परीषह आ जावें, मुझको निंह किंचित् भान रहे।
हो जाय अवस्था ऐसी ही, बस मेरा ही इक ध्यान रहे।।५।।
उत्तम ब्रह्मचर्य
यह ब्रह्मस्वरूप कही आत्मा, इसमें चर्या ब्रह्मचर्य कहा।
गुरुकुल में वास रहे नित ही, वह भी है ब्रह्मचर्य दुखहा।।
सब नारी को माता भगिनी, पुत्रीवत् समझें पुरुष सही।
महिलायें पुरुषों को भाई, पितु, पुत्र सदृश समझें नित ही।।१।।
इक अंक लिखे बिन अगणित भी, बिन्दु की संख्या क्या होगी?
इक ब्रह्मचर्य व्रत के बिन ही, धर्मादि क्रिया फल क्या देगी ?
भोगों को जिनने बिन भोगे, उच्छिष्ट समझकर छोड़ दिया।
उन बालयती को मैं नितप्रति, वंदूँ प्रणमूँ निज खोल हिया।।२।।
इक देश ब्रह्मव्रत जो पाले, वे शीलव्रती नर नारी भी।
सीता सम अग्नि नीर करें, सुर वंदित मंगलकारी भी।।
शूली से सिंहासन देखा, वह सेठ सुदर्शन यश मंडित।
रावण से नरक गति पहुँचे, वह चन्द्रनखा भी यश खंडित।।३।।
मेरी आत्मा है परम ब्रह्म, भगवान् अमल चिदरूपी है।
यह है शरीर अपवित्र अथिर, आत्मा शाश्वत चिन्र्मूित है।।
यह द्रव्यकर्म मल भावकर्म, मल आत्म स्वरूप मलिन करते।
जब मैं इन सबसे पृथक् रहूँ, तब सब कर्म स्वयं भगते।।४।।
निज आत्मा में ही रमण करूँ, निज सौख्य सुधा को पाऊँ मैं।
पर के संकल्प विकल्पों को, इक क्षण में ही ठुकराऊँ मैं।।
पर का किंचित् भी भान न हो, निज में तन्मयता पाऊँ मैं।
निज ‘ज्ञानमती’ लक्ष्मी पाकर त्रैलोक्यपती बन जाऊँ मैं।।५।।
है उत्तम क्षमा मूल जिसमें, मृदुता सुतना, आर्जव शाखा।
पत्ते सच हैं शुचि भाव नीर, संयम तप त्याग कुसुम भाषा।।
आकिंचन ब्रह्मचर्य कोंपल, से सुन्दर वृक्ष सघन छाया।
फल स्वर्ग मोक्ष का देता है, दश धर्म कल्पद्रुम मन भाया।।१।।
—दोहा—
धर्म कल्पद्रुम के निकट, माँगू शिवफल आज।
‘‘ज्ञानमती’’ लक्ष्मी सहित, पाऊँ सुख साम्राज्य।।२।।
Tags:
Gyanamrat Part - 1
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