महानुभावों! धर्म का स्वरूप बताते हुए आचार्यों ने कहा है-‘‘उत्तमे सुखे धरति इति धर्म:’’ अर्थात् जो संसारी प्राणियों को दु:खों से निकालकर उत्तम सुख में पहुँचा दे उसे धर्म कहते हैं तथा प्रत्येक वर्ष भाद्रपद शुक्ला पंचमी से पूर्णिमा तक पालन किए जाने वाले धर्मों को ‘‘दशधर्म’’ या ‘‘दशलक्षण धर्म’’ यह संज्ञा दी गई है।
जिस प्रकार मनुष्यों में राजा श्रेष्ठ होता है उसी प्रकार सभी महीनों में यह भाद्रपद का महीना सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि यह अनेक व्रतों की खान है और धर्म का प्रधान कारण है। इन दश धर्मों के बारे में कहा है-
सिद्धि: प्रासादनि:श्रेणी पंक्तिवत् भव्यदेहिनाम्।
दशलक्षण धर्मोयं, नित्यं चित्तं पुनातु न:।।
अर्थात् भव्यजीवों के सिद्धिमहल पर चढ़ने के लिए सीढ़ियों की पंक्ति के समान यह दशलक्षण धर्म नित्य ही हम लोगों के चित्त को पवित्र करे। क्रम-क्रम से दश धर्मों के बारे में जानिए –
उत्तम क्षमा का अर्थ है –उत्तम क्षमा से युक्त मनुष्य, देव और विद्याधरों से नमस्कृत्य ऐसे अगणित उत्तम ऋषियों ने अविनश्वर केवलज्ञान को प्राप्त कर भव दु:ख भंजन, निरंजन ऐसे सिद्धपद को प्राप्त किया है। कहा भी है-
द्रव्यं भावं द्विधा क्रोधं भित्वाहं स्वात्मचिंतनात्।
उत्तमक्षांतियुक्स्वात्मज्ञानं लप्स्ये सुखं ध्रुवम।।
अर्थात् द्रव्य और भाव इन दो प्रकार के क्रोध को मैं अपने आत्मचिंतन के बल से भेदन करके उत्तम क्षमा से युक्त अपने ज्ञान और सौख्य को निश्चित रूप से प्राप्त करूँगा। प्रत्येक प्राणी को हमेशा ऐसी भावना भाते रहना चाहिए । इस व्रत की जाप्य है-ॐ ह्रीं उत्तम क्षमा धर्मांगाय नम: ।
उत्तम मार्दव धर्म का अर्थ है-‘‘मृदोर्भाव: मार्दव:’’ अर्थात् मृदुता का भाव मार्दव है, या मार्दव मान शत्रु का मर्दन करने वाला है, यह आठ प्रकार के मद से रहित है और चार प्रकार की विनय से सहित है। देखो! इन्द्र नाम का विद्याधर इन्द्र के समान वैभवशाली था फिर भी रावण के द्वारा पराजय को प्राप्त हुआ है और वह रावण भी एक दिन मान के वश में नष्ट हो गया अत: मान से क्या लाभ है? अर्थात् कोई लाभ नहीं है। इस व्रत की जाप्य है-
ॐ ह्रीं उत्तम मार्दव धर्मांगाय नम:।
उत्तम आर्जव धर्म का अर्थ है-
आर्जव: स्यादृजोर्भाव: त्रियोगं सरलं कुरू।।
तिर्यग्योनिर्भवेल्लोके माययानंतकष्टदा।।
ऋजु अर्थात् सरलता का भाव आर्जव है अर्थात् मन, वचन, काय को कुटिल नहीं करना। इस मायाचारी से अनंतों कष्टों को देने वाली तिर्यंचयोनि मिलती है। इस व्रत की जाप्य है-
ॐ ह्रीं उत्तम आर्जव धर्मांगाय नम:।
उत्तम शौच धर्म का अर्थ है-
शुचेर्भावो भवेत् शौचमन्तर्लोभो निवार्यताम्।
या निर्लोभवती देवी त्वया नित्यमुपास्यताम्।।
शुचि-पवित्रता का भाव शौच है अर्थात् अंतरंग के लोभ को दूर करिए और जो निर्लोभवती देवी है उसकी नित्य ही उपासना कीजिए। इस व्रत की जाप्य है-ॐ ह्रीं उत्तम शौच धर्मांगाय नम:।
उत्तम सत्य धर्म का अर्थ है-
सत् सम्यक् च प्रशस्तं स्यात् सत्यं पीयूषभृद् वच:।
मिथ्यापलापकं वाक्यं धर्मशून्यं सदा त्यज ।।
सत् अर्थात् समीचीन और प्रशस्तवचन सत्य कहलाते हैं। ये वचन अमृत से भरे हुए हैं। मिथ्या आलाप करने वाले और धर्मशून्य वचन सदा छोड़ो। सत्य वचन बोलने वालों को वचनसिद्धि हो जाया करती है और क्रम से वे दिव्यध्वनि के स्वामी होकर असंख्य प्राणियों को धर्म का उपदेश देकर मोक्षमार्ग का प्रणयन करते हैं अत: हमेशा सत्य का आदर करना चाहिए। इस व्रत की जाप्य है-ॐ ह्रीं उत्तम सत्य धर्मांगाय नम:।
उत्तम संयम धर्म की परिभाषा है-
प्राणीन्द्रियैद्र्विधा प्रोक्त: संयम: संयतै: जनै:।
षट्काय जीव रक्षास्यात् पंचेन्द्रिय मनोजय:।।
अर्थात् समिति में प्रवृत्त हुए मुनि जो प्राणी हिंसा और इन्द्रिय विषयों का परिहार करते हैं वह संयम है। संयत मुनियों में प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम की अपेक्षा दो भेद हैं। पाँच स्थावर और त्रस ऐसे षट्कायजीवों की रक्षा करना प्राणी संयम है और पाँच इन्द्रिय तथा मन का जय करना इन्द्रिय संयम है। इस व्रत की जाप्य है-ॐ ह्रीं उत्तम संयम धर्मांगाय नम:।
अब नं. आता है उत्तम तपधर्म का, उसकी परिभाषा है-
तपो द्वादशधा प्रोत्तं, बाह्याभ्यंतर संयुतम्।
बाह्यमनशनादिस्यात्, प्रायश्चित्तादि चांतरम्।।
‘‘कर्मक्षयार्थं तप्यत इति तप:’’
अर्थात् कर्मक्षय के लिए जो तपा जाता है वह तप है। तप के बाह्य और अभ्यंतर से युक्त बारह भेद कहे गये हैं। अनशन, अवमौदर्य, वृत्तपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश ये छह बाह्य तप हैं और प्रायश्चित्त, विनय, वैय्यावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छह अंतरंग तप हैं। इस व्रत की जाप्य है-
ॐ ह्रीं उत्तम तपोधर्मांगाय नम:।
उत्तम त्यागधर्म का अर्थ है-
रत्नत्रयस्य दानं स प्रासुक त्याग उच्यते।
चतुर्धा दानमप्यार्षात् त्रिधा पात्राय दीयते।।
‘‘संयतस्य योग्यं ज्ञानादिदानं त्याग:’’
अर्थात् संयत के योग्य ज्ञान आदि को देना त्याग है। रत्नत्रय का दान देना वह प्रासुक त्याग कहलाता है और तीन प्रकार के पात्रों के लिए चार प्रकार का दान देना भी त्याग है, ऐसा आर्ष ग्रंथों में कहा है। इस व्रत की जाप्य है-ॐ ह्रीं उत्तम त्याग धर्मांगाय नम:।
उत्तम आकिंचन्य धर्म की परिभाषा भी बड़ी सुन्दर है-
अकिंचनो न मे किंचित् आत्मानंत गुणात्मक:।
पर द्रव्यात् सदा भिन्नस्त्रैलोक्याधिपतिर्महान्।।
‘‘उपात्तेष्वापि शरीरादिषु संस्कारापोहाय ममेदमित्यभिसंधिनिवृत्तिराकिञ्चन्यम्’’
अर्थात् जो शरीर आदि अपने द्वारा ग्रहण किए हुए हैं उनमें संस्कार को दूर करने के लिए यह मेरा है इस प्रकार के अभिप्राय का त्याग करना आकिंचन्य धर्म है। ‘‘न मे किंचन अकिञ्चन:’’ मेरा कुछ भी नहीं है अत: मैं अकिञ्चन हूँ। फिर भी मेरी आत्मा अनंतगुणों से परिपूर्ण है। मैं सदा परद्रव्य से भिन्न हूँ और तीन लोक का अधिपति महान हूँ ऐसा समझकर निर्ग्रंथ मुद्रा को ही मोक्षमार्ग मानना चाहिए और इस आकिञ्चन्य धर्म की उपासना करके अपने आत्मगुणों को विकसित करना चाहिए।
ॐ ह्रीं उत्तम आकिंचन्य धर्मांगाय नम: ।
उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म अन्तिम धर्म है इसका अर्थ है-
आत्मैव ब्रह्मा तस्मिन् स्यात् चर्येति ब्रह्मचर्यभाक्।
वासो वा गुरुसंघेपि ब्रह्मचारी स उत्तम:।।
अर्थात् आत्मा ही ब्रह्म है उस ब्रह्मस्वरूप आत्मा में चर्या करना सो ब्रह्मचर्य है अथवा गुरु के संघ में रहना भी ब्रह्मचर्य है। इस विधचर्या को करने वाला ब्रह्मचारी कहलाता है। इस व्रत की जाप्य है-
ॐ ह्रीं उत्तम ब्रह्मचर्य धर्मांगाय नम:।
यह दशधर्म एक कल्पवृक्ष है जिसके बारे में आचार्य कहते हैं कि-
क्षमामूलं मृदुत्वं स्यात्, स्वंध शाखा: सदार्जवम्।
शौचं वं सत्यपत्राणि, पुष्पाणि संयमस्तप:।।१।।
त्यागश्चाकिञ्चनो ब्रह्म मंजरी सुमनोहरा।
धर्मकल्पद्रुमश्चैष दत्ते स्वश्च शिवं फलम्।।२।।
धर्मकल्पतरो! त्वाहं समुपास्य पुन: पुन:।
ज्ञानवत्या श्रिया युत्तं, याचे मुक्त्यैकसत्फलम्।।३।।
अर्थात् क्षमा जिसकी जड़ है, मृदुता स्कंध है, आर्जव शाखाएं हैं, उसको सिंचित करने वाला शौचधर्म जल है, सत्यधर्म पत्ते हैं, संयम, तप और त्याग रूप पुष्प खिल रहे हैंं, आकिंचन और ब्रह्मचर्य धर्मरूप सुंदर मंजरियाँ निकल आई हैं। ऐसा यह धर्मरूप कल्पवृक्ष स्वर्ग और मोक्षरूप फल को देता है। हे धर्मकल्पतरो! मैं तुम्हारी पुन:-पुन: उपासना करके तुमसे ज्ञानवती लक्ष्मी से युक्त मुक्तिरूप एक सर्वोत्कृष्ट फल की ही याचना करता हूँ।
इस दश धर्मों के पश्चात् आती है क्षमावाणी, इस पर्व की यह विशेषता है कि इस पर्व का प्रारंभ भी क्षमाधर्म से होता है और समापन भी क्षमावाणी पर्व से किया जाता है। दश दिन धर्मों की पूजा करके, जाप्य करके जो परिणाम निर्मल किये जाते हैं और दश धर्मों का उपदेश श्रवण कर जो आत्म शोधन होता है उसी के फलस्वरूप सभी श्रावक-श्राविकाएं किसी भी निमित्त परस्पर में होने वाली मनोमलिनता को दूर कर आपस में क्षमा कराते हैं।
क्योंकि यह क्रोध कषाय प्रत्यक्ष में ही अग्नि के समान भयंकर है। ओंठ काँपने लगते हैं, मुखमुद्रा विकृत और भयंकर हो जाती है। किन्तु प्रसन्नता में मुख मुद्रा सौम्य, सुंदर दिखती है। चेहरे पर शांति दिखती है। वास्तव में शांत भाव का आश्रय लेने वाले महामुनियों को देखकर जन्मजात बैरी ऐसे क्रूर पशुगण भी क्रूरता छोड़ देते हैं। यथा-
सारंगी सिंहशावं स्पृशति सुतधिया नंदिनी व्याघ्र पोतं।
मार्जारी हंसबालं प्रणयपरवशा केकिकांता भुजंगीम्।।
वैराण्याजन्मजातान्यपि गलितमदा जंतवोऽन्ये त्यजंति।
श्रित्वा साम्यैकरूढं प्रशमितकलुषं योगिनं क्षीणमोहम्।।।
अर्थात् हरिणी सिंह के बच्चे का पुत्र की बुद्धि से स्पर्श करती है, गाय व्याघ्र के बच्चे को दूध पिलाती है, बिल्ली हंसों के बच्चों को प्रीति से लालन करती है एवं मयूरी सर्पों को प्यार करने लगती है। इस प्रकार से जन्मजात भी बैर को क्रूर जंतुगण छोड़ देते हैं।
कब? जबकि वे पापों को शान्त करने वाले मोहरहित और समताभाव में परिणत ऐसे योगियों का आश्रय पा लेते हैं अर्थात् ऐसे महामुनियों के प्रभाव से हिंसक पशु अपनी द्वेष भावना छोड़कर आपस में प्रीति करने लगते हैं। ऐसी शांत भावना का अभ्यास इस क्षमा के अवलंबन से ही होता है। इसलिए इन दश धर्मों को अपने में अवतरित करने का प्रयास अवश्य करें और मनुष्य पर्याय को सार्थक करें यही मंगल आशीर्वाद है।