सांख्य का कहना है कि अज्ञान से ही बंध होता है और ज्ञान से ही मोक्ष होता है। इस पर जैनाचार्य का कहना है कि यदि आप अज्ञान से बंध अवश्यंभावी मानोगे तो ज्ञेय पदार्थ तो अनंत हैं। पुन: उनको जानने वाला कोई नहीं हो सकेगा और यदि अल्पज्ञान से ही मोक्ष मानो तो बचे हुए अवशिष्ट अज्ञान से मोक्ष हो जावेगा। अथवा सभी प्राणियों में कुछ न कुछ ज्ञान संभव ही है अत: सभी जीव मुक्त हो जावेंगे।
नैयायिक का कहना है कि दु:ख, जन्म, प्रवृत्ति, दोष और मिथ्याज्ञान का उत्तरोत्तर अभाव हो जाने से मोक्ष हो जाती है क्योंकि दु:खादिकों का अभाव तत्त्वज्ञानपूर्वक ही होता है। मिथ्याज्ञान से दोषों की उद्भूति अवश्य होती है। इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि मिथ्याज्ञान का संपूर्णतया अभाव वैâसे होगा ? पुन: मिथ्याज्ञान से दोष आदि परम्परा चलती ही रहेगी।
स्याद्वाद का आश्रय लेने वाले जैनाचार्यों का कहना है कि जो एकांत से यह कहा जाता है कि अज्ञान से बंध और ज्ञान से मोक्ष होता है सो असंभव है क्योंकि सभी को किसी न किसी विषय में अज्ञान तो है ही है पुन: किसी न किसी को मोक्ष नहीं हो सकेगा इसलिए वास्तविक चीज तो यह है कि मोहसहित अज्ञान से बंध होता है किन्तु मोहरहित रागद्वेषादि कषायों से रहित अज्ञान अर्थात् अल्प ज्ञान से मोक्ष होता है क्योंकि मोहकर्मरहित उपशांत कषाय और क्षीण कषाय वाले ऐसे ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में यद्यपि अज्ञान है फिर भी उनके बंध नहीं होता है इन दोनों गुणस्थानों में केवलज्ञान न होने से अज्ञान है ही है। वस्तुत: केवलज्ञान की अपेक्षा श्रुतज्ञान आदि क्षायोपशमिक ज्ञान अल्प ही हैं। वह अल्पज्ञान मोहरहित छद्मस्थ वीतरागी के चरम समय में मौजूद है, उसी से ही उत्तर क्षण में तेरहवें गुणस्थान में केवलज्ञान प्रगट हो जाता है, जिसे कि आर्हंत्य लक्षण को अपर मोक्ष कहते हैं किन्तु मिथ्यादृष्टि से लेकर दशवें गुणस्थान तक मोहसहित ज्ञान कर्मबंध का ही कारण है अत: स्याद्वाद प्रक्रिया से समझना चाहिए।
(१) कथंचित् अज्ञान से बंध होता है, क्योंकि वह मिथ्यात्व कषायादि से सहित है।
(२) कथंचित् अज्ञान से बंध नहीं होता है, क्योंकि वह मिथ्यात्व कषायादि से रहित है।
(३) कथंचित् अज्ञान से बंध होता है और नहीं होता है, क्योंकि क्रम से मिथ्यात्वादि सहित और रहित दोनों की विवक्षा है।
(४) कथंचित् अवक्तव्य है क्योंकि दोनों अपेक्षाओं को एक साथ कह नहीं सकते हैं।
(५) कथंचित् अज्ञान से बंध और अवक्तव्य है, क्योंकि क्रम से मोहसहित की तथा युगपत् दोनों की विवक्षा है।
(६) कथंचित् अज्ञान से अबंध और अवक्तव्य है, क्योंकि क्रम से मोहरहित और युगपत् दोनों की अपेक्षा है।
(७) कथंचित् अज्ञान से बंध और अबंध तथा अवक्तव्य है, क्योंकि क्रम से मोहसहित और रहित की तथा युगपत् दोनों की अपेक्षा है।
इसी प्रकार से मोहसहित अल्पज्ञान से मोक्ष नहीं होता है तथा मोह रहित अल्पज्ञान से भी मोक्ष होता है, इसमें भी सप्तभंगी प्रक्रिया घटित करना चाहिए।
हे भगवान्! आपके सिद्धान्त में तत्त्वज्ञान ही प्रमाण है। उसमें युगपत् सभी पदार्थों का अवभासन-प्रकाशन करने वाला केवलज्ञान है और स्याद्वाद नय से संस्कृत मति, श्रुत आदि शेष ज्ञान क्रमभावी हैं। यहाँ पर तत्त्वज्ञान को प्रमाण कहने से अज्ञान, निराकार दर्शन, संशय आदि ज्ञान इन सबका निराकरण हो जाता है। इस प्रमाण से प्रत्यक्ष-परोक्ष ऐसे दो भेद होने से परोक्ष के अन्तर्गत स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ये ज्ञान भी प्रमाण रूप हैं।
केवलज्ञान का फल तो उपेक्षा है। शेष ज्ञानों का फल ग्रहण करना, त्याग करना तथा उपेक्षा करना इन तीनोंरूप है अथवा अपने-अपने विषय में अज्ञान का अभाव होना ही ज्ञान का फल है।
हे भगवन्! आपके यहाँ ‘स्यात्’ यह पद निपात से सिद्ध है। वाक्यों में अनेकांत उद्योतित करने वाला है एवं अपने अर्थ से सहित होने से अर्थ के प्रति समर्थ विशेषण है। सत्, असत्, नित्य, अनित्य आदि रूप सर्वथा एकांत का निराकरण करने वाला अनेकांत है। जैसे ‘स्याज्जीव:’ ऐसा कहने से उसका प्रतिपक्षी अजीव भी जान लिया जाता है। सर्वथा एकांत के त्याग से ही स्याद्वाद होता है। ‘कथंचित्’ आदि शब्द इसी के पर्यायवाची हैं, यह सप्त भंगों की अपेक्षा करके स्वभाव और परभाव के द्वारा वस्तु के सत्-असत् आदि धर्मों की व्यवस्था करता है।
विरोध रहित स्याद्वादरूप आगम प्रमाण के द्वारा विषय किये गये पदार्थ विशेष का जो व्यंजक है वह नय कहलाता है अर्थात् जिसके द्वारा जानने योग्य अर्थ का ज्ञान होता है, वह नय है।
अनेक रूप अर्थ को विषय करने वाला अनेकांतरूप ज्ञान प्रमाण है। अन्य धर्मों की अपेक्षा करते हुए वस्तु के एक अंश का ज्ञान नय है और अन्य धर्मों का निराकरण करके वस्तु के एक अंश को ग्रहण करने वाला दुर्नय है, क्योंकि यह विपक्ष का विरोधी होने से केवल स्वपक्ष मात्र का हठाग्रही है। यदि कोई कहे कि मिथ्या-एकांत का समुदाय मिथ्यारूप ही है तो हमने ऐसा नहीं माना है। हमारे यहाँ निरपेक्ष नय मिथ्या है और उनका समूह भी मिथ्या ही है। यदि वे ही नय सापेक्ष हैं, तो सम्यव्â हैं, वास्तविक हैं।
नय के मूल में दो भेद हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। इन दो के ही सात भेद हो जाते हैं। नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत। जो द्रव्य को ही विषय करे, जिसकी दृष्टि में पर्यायें गौण हों, वह द्रव्यार्थिक नय है तथा जो पर्याय मात्र को विषय करे, वह पर्यायार्थिक नय है। जैसे-द्रव्यार्थिक नय से जीव नित्य है। जन्म-मरण से रहित है तथा पर्यायार्थिक नय से जीव अनित्य है, उसकी पर्यायों का उत्पाद-विनाश होने से वह जीव से भिन्न नहीं है।
स्याद्वाद सप्तभंग और नयों की अपेक्षा रखने वाला है, देय और उपादेय के भेद को करने वाला है तथा सभी तत्त्वों को केवलज्ञान के समान प्रकाशित करता है।
स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने।
भेद: साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत्।।१०५।।
अर्थ-स्याद्वाद और केवलज्ञान दोनों ही सम्पूर्ण तत्त्वों को प्रकाशित करने वाले हैं। अंतर केवल इतना ही है कि केवलज्ञान साक्षात् सम्पूर्ण तत्त्वों को प्रकाशित करता है और स्याद्वाद असाक्षात् परोक्षरूप से प्रकाशित करता है। स्याद्वाद आगम परोक्षरूप से सभी पदार्थों का ज्ञान करा देता है। यहाँ पर ‘सर्व’ इस पद से उनकी सम्पूर्ण गुण, पर्यायों को नहीं लेना चाहिए क्योंकि ‘मतिश्रुतयोर्निबंधो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु’ मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान का विषय सभी द्रव्य और उनकी कुछ-कुछ पर्यायें हैं, ऐसा सूत्रकार का वचन है अत: प्रमाण का विषय धर्मांतरों को ग्रहण करना है, नयों का विषय धर्मांतरों का त्याग करना है क्योंकि प्रमाण से तत्-अतत् स्वभाव का ज्ञान होता है, नय से तत् एक अंश का ज्ञान होता है तथा दुर्नय से अन्य का निराकरण करके निरपेक्ष एक अंश का ज्ञान होता है। इसलिए-
हे भगवन्! जिन्हें हमने निर्दोषरूप से निश्चित किया है, वे निर्दोष आप ही हैं क्योंकि आपके वचन युक्ति और शास्त्र से अविरोधी हैं। आप ही मोक्षमार्ग के प्रणेता कर्मभूभृत् के भेत्ता एवं विश्व तत्त्वों के ज्ञाता सिद्ध हैं, इस कारण से आप ही भगवान् अर्हंत सर्वज्ञ सिद्ध हैं, स्याद्वाद के नायक हैं यह बात सिद्ध हो गई।
इस प्रकार से हित की इच्छा करने वालों के लिए मैंने यह आप्त की मीमांसा कही है, जो कि सम्यक् और मिथ्या उपदेश के अर्थ विशेष को समझने के लिए है।
विशेष-अष्टसहस्री ग्रंथराज के कुछ सरल और मधुर प्रकरणों को साररूप में समझाने का प्रयास किया गया है, जो विशेष जिज्ञासु हैं उन्हें हिन्दी अनुवाद सहित अष्टसहस्री का स्वाध्याय करना चाहिए। स्याद्वाद के रहस्य को समझने के लिए यह एक अनूठा ग्रंथ है।
श्रीमदुमास्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र की रचना की आदि में ‘‘मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृतां। ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वंदे तद्गुणलब्धये।।’’ इत्यादिरूप से मंगलाचरण किया है, उसी मंगलाचरण पर आचार्यवर्य श्री समंतभद्रस्वामी ने आप्तमीमांसा नाम के स्तोत्र की रचना की है, उसमें श्री समंतभद्राचार्य ने दश अध्यायों में मुख्यरूप से दश प्रकार के एकांत का निरसन करके स्याद्वाद की सप्तभंगी प्रक्रिया को घटित किया है। उन एक-एक परिच्छेद में मुख्य-मुख्य एकांतों के खण्डन में उभयैकात्म्य तथा अवाच्य का खण्डन करते हुए ‘विरोधान्नोभयैकात्म्यं’ इस कारिका को प्रत्येक स्वाध्याय में लिया है अत: यह कारिका दस बार आ गई है।
जैसे प्रथम अध्याय में मुख्यता से भावैकांत-अभावैकांत का खंडन है पुन: उभयैकात्म्य का खंडन एवं अवाच्य का खण्डन करते हुए विरोधान्नोभयैकात्म्यं’’ इत्यादि कारिका की गई है। पुन: कथंचित् भाव-कथंचित् अभाव को सिद्ध करके सप्तभंगी प्रक्रिया घटित की है तथा इस भाव-अभाव के खण्डन में अनेक अन्य विषय भी स्पष्ट किये हैं। द्वितीय में एकत्व पृथक्त्व को एकांत से न मानकर प्रत्येक वस्तु कथंचित् एकत्व पृथक्त्व रूप ही है यह प्रगट किया है। तृतीय परिच्छेद में नित्यानित्य को दिखाया है, चतुर्थ में भेदाभेदात्मक वस्तु को बताया है, पाँचवें में कथंचित् आपेक्षिक-अनापेक्षिक रूप वस्तु को सिद्ध किया है, पुन: छठे में हेतुवाद आगम को स्याद्वाद से सिद्ध करके सातवें में अंतस्तत्त्व-बहिस्तत्त्व का अनेकांत बताया है, आठवें में दैव पुरुषार्थ को स्याद्वाद से प्रगट करके नवमें में पुण्य-पाप का अनेकांत उद्योतित किया है, दशवें में ज्ञान-अज्ञान से मोक्षबंध की व्यवस्था को प्रकाशित किया है। स्याद्वाद और नयों का उत्तम रीति से वर्णन किया है। तात्पर्य यही है कि इस अष्टसहस्री ग्रंथ में जिस रीति से स्याद्वाद का वर्णन प्रत्येक स्थान पर किया गया है वैसा वर्णन अन्यत्र न्यायग्रंथों में कहीं पर भी नहीं है, प्रत्येक अध्याय में सप्तभंगी प्रक्रिया बहुत ही अच्छी मालूम पड़ती है। अंत में आचार्य ने यह बताया है कि मोक्षाभिलाषी भव्य जीवों के लिए यह आप्त- मीमांसा-सर्वज्ञ विशेष की परीक्षा की गई है क्योंकि मुख्यरूप से मोक्ष ही हित रूप है और उसकी प्राप्ति के कारणभूत रत्नत्रय भी हित रूप माना गया है अत: सम्यक्त्व और मिथ्यात्व विशेष का ज्ञान कराने के लिए यह आप्तमीमांसा प्रधान ग्रंथ है क्योंकि सत्य-असत्य तत्त्व का एवं आप्त का पूर्णतया निर्णय हो जाने के बाद ही यह जीव असत्य को छोड़कर सत्य मार्ग का या सत्य आप्त का आश्रय लेता है। अत: यह अष्टसहस्री ग्रंथ आर्हंत्य लक्ष्मी को परिसमाप्ति-प्राप्ति पर्यंत स्वार्थसंपत्ति को सिद्ध करने वाला है इसलिए शास्त्र की आदि में स्तुति किये गये आप्त ही मोक्षमार्ग के प्रणेता कर्मभूभृद्भेत्ता और विश्वतत्त्वों के ज्ञाता सिद्ध हुए अर्हंत भगवान् ही निर्दोष आप्त हैं उन्हीं के गुणों को प्राप्त करने के लिए उन्हें हाr नमस्कार करना उचित है अन्य को नहीं।
श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतै: किमन्यै: सहस्रसंख्यानै:।
विज्ञायेत् ययैव स्वसमय परसमय सद्भाव:।।
स्वयं विद्यानंदि आचार्यवर्य ऐसा कहते हैं कि एक अष्टसहस्री ग्रंथ को ही सुनना चाहिए, अन्य हजारों ग्रंथों के सुनने से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि इस एक ग्रंथ के द्वारा ही स्वसमय-अपने स्याद्वाद जैन सिद्धांत और परसमय-पर परिकल्पित अनेक एकांत तत्त्वों को समझ नहीं लेंगे तब तक हम अपना सिद्धांत भी अत्यंत सूक्ष्मतया स्याद्वाद की कसौटी पर कस नहीं सकेंगे और जब तक सप्तभंगी स्याद्वाद प्रक्रिया से हम अपने तत्त्वों को नहीं समझ लेंगे, तब तक एकांतवाद के किसी प्रवाह में बहने का डर बना ही रहेगा।
आगम और तर्क दोनों की कसौटी पर कसा गया तत्त्व ही शुद्ध, सत्य सिद्ध होता है अन्यथा नहीं। केवल सिद्धांत अथवा केवल अध्यात्म रूप आगम से जाना गया तत्त्व कदाचित् बेमालूम ही एकांत के गड्ढे में डाल सकता है किन्तु आगम और तर्क दोनों के द्वारा समझा गया तत्त्व सम्यक् श्रद्धान से कथमपि च्युत् नहीं कर सकता। श्रीसमंतभद्राचार्यवर्य ने अपनी रचनाओं को भगवान की स्तुति का रूप देते हुए प्रौढ़तया न्याय के ग्रंथ रूप बना दिया है यह विशेषता केवल एक समंतभद्रस्वामी में ही थी कि न्यायपूर्ण शब्दों के द्वारा निर्भीकतया भगवान के साथ भी वार्तालाप करते हुए उन्हीं सर्वज्ञ भगवान की भी परीक्षा करने का साहस कर डाला है। सो ठीक ही है क्योंकि जब उन्होंने स्वयंभूस्तोत्र की रचना के द्वारा भगवान चन्द्रप्रभु को ही प्रगट कर लिया था, तब उनका इस पद्धति से भगवान को ही न्याय की कसौटी पर कस देना कोई बड़ी बात नहीं है। सचमुच में यह कोई साधारण व्यक्ति का काम नहीं कि भगवान की परीक्षा शुरू कर देवे। श्रीसमंतभद्र जैसे महान मुनिपुंगवों का ही यह काम है। इस ग्रंथ में भगवान को ही निर्दोष आप्त सिद्ध करके अंत में यह बतलाया है कि-
इतीयमाप्तमीमांसा विहिताहितमिच्छता।
सम्यग्मिथ्योपदेशार्थ – विशेषप्रतिपत्तये।।११४।।
अर्थात् यह आप्त की मीमांसा-परीक्षा हित-मोक्षसुख की इच्छा करने वाले भव्य पुरुषों के लिए ही की गई है क्योंकि सम्यक् और मिथ्या उपदेश विशेष की जानकारी होने से मिथ्यात्व का त्याग और सम्यक्त्व का ग्रहण शक्य है अन्यथा नहीं।
अपने जैनसिद्धांत के ही एक-एक कणरूप एक-एक अंश को लेकर मिथ्यावादी जन हठाग्रही बन जाते हैं, वे अपेक्षावाद कथंचित्वादरूप सिद्धांत को नहीं समझ पाते हैं। एक-एक के आग्रह से ही नित्यैकांतवादी, क्षणिवैâकांतवादी आदि बन जाते हैं। जैसे सूक्ष्मऋजुसूत्र नय से हमारे यहाँ प्रत्येक वस्तु अर्थपर्याय रूप से प्रतिक्षण होने वाली अर्थ-पर्याय एक समयवर्ती क्षणिक है किन्तु यह नय अन्य नयों से सापेक्ष होने से ही सम्यग्नय है। यदि वह अन्य नयों की अपेक्षा न करे तो मिथ्या नय है इसी एक नय के हठाग्रही बौद्धजन हैं जिन्होंने अपना क्षणिकसिद्धांत ही बना लिया है इत्यादि। इन सब एकांतों का खण्डन करके यह अष्टसहस्री ग्रंथ अपने स्याद्वाद को पद-पद पर पुष्ट करता है अतएव आचार्य विद्यानंदि महोदय ने यह श्लोक सार्थक ही दिया है कि-इसी एक ग्रंथ से ही सभी स्वसमय और परसमय का ज्ञान हो जाता है। अत: इसका अष्टसहस्री महान ग्रंथ सार्थक ही नाम है। इसमें ११४ कारिकाओं से श्री समंतभद्राचार्यवर्य ने देवागम स्तोत्र रचना की है उस स्तोत्र के ऊपर श्रीभट्टाकलंकदेव ने अष्टशती नाम से ८०० श्लोक प्रमाण में टीका की हैै पुन: उस अष्टशती सहित देवागम स्तोत्र की श्री विद्यानंदि स्वामी ने ८००० (आठ हजार) श्लोक प्रमाण से अष्टसहस्री नाम की टीका की है इसका नाम आपने कष्टसहस्री भी दिया है, क्योंकि न्याय के प्रत्येक प्रकरण इसमें बहुत ही क्लिष्ट और जटिल हैं, बड़े ही कष्टसाध्य हैं तथा आपने इसे ‘अभीष्टसहस्रीं पुष्यात्’ कहा है कि यह ग्रंथ नित्य ही हजारों मनोरथों को पुष्ट करे। अत: इस अष्टसहस्री ग्रंथराज का नित्य ही मनन करना चाहिए तथा देवागम स्तोत्र को भी नित्य ही पढ़ना चाहिए। इस स्तुति के प्रसाद से ही इसका अर्थ समझ सकेंगे।