सेठ माणिकचन्द जी का जन्म १८५१ में धनतेरस के दिन सूरत में हीराचन्दजी के यहाँ हुआ था। बचपन से ही माणिकचन्दजी की धर्म में गहरी आस्था थी । आपमें एक बहुत बड़ा गुण था कि जिस काम में दिल लगाते तो उसमें बिल्कुल लवलीन हो जाते थे ।
माणिकचन्दजी ने बचपन में ही पद्मपुराण, रत्नकरण्डक श्रावकाचार का स्वाध्याय कर लिया। वे सत्यवादी, न्यायप्रिय, उद्योगशील थे। कठिन परिश्रम से उन्होंने अपने भाईयों के सहयोग से बम्बई में जवाहरात का व्यापार प्रारम्भ किया । सत्यवादिता के कारण व्यापार में कुछ ही समय में अधिक प्रसिद्धि फैल गई।
अपने समय के महान् संस्कृति संरक्षक, समाज सुधारक, विद्या-प्रचारक, उदार, दानवीर और धर्मिष्ठ थे। उन्होंने समाज में जागृति उत्पन्न करने के लिए पूरे देश का भ्रमण किया। स्थान-स्थान में स्वयं आर्थिक सहयोग और प्रेरणा देकर जैन छात्रावास स्थापित कराए। अनेक छात्रवृत्तियाँ भी प्रदान कीं।
बम्बई प्रान्तिक महासभा, माणिकचन्द्र परीक्षालय, माणिकचन्द्र जैन -ग्रन्थमाला, साप्ताहिक जैनमित्र आदि की स्थापना की। सेठजी के प्रयासों से २२ अक्टूबर, १९०२ में भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी की स्थापना हुई और आपने महामंत्री का पद संभाला।
आपने तीर्थों के उद्धार एवं संरक्षण में भी योगदान दिया, मंदिर और धर्मशालाएँ भी बनवाईं, समाज की कुरीतियों को दूर करने के लिए अभियान चलवाए, जिनवाणी के उद्धार के प्रयत्न किए, अनेक विद्वानों को प्रश्रय दिया। तीर्थराज सम्मेदशिखर की सुरक्षा के लिए महत्त्वपूर्ण योगदान दिया ।
सेठजी को अंग्रेज सरकार ने जस्टिस ऑफ दी पीस (जे. पी.) अर्थात् शांति के न्यायाधीश की पदवी दी। इस पद से नगर में मजिस्ट्रेट जैसा हक हो जाता है । जिस कागज पर हस्ताक्षर कर दें तो फिर अन्य मजिस्ट्रेट या रजिस्ट्रार से हस्ताक्षर कराने की आवश्यकता नहीं होती है।
सेठजी का जीवन भारतवर्ष के धनपात्रों के लिए अतिशय अनुकरणीय है। सेठजी सार्वजनिक संस्थाओं में दान करते रहते थे । स्व. पण्डित नाथूराम प्रेमी के शब्दों में भारत के आकाश से चमकता हुआ तारा टूट पड़ा । जैनियों के हाथ से चिन्तामणि रत्न खो गया। समाज मंदिर का एक सुदृढ़ स्तम्भ गिर गया। यह वास्तव में उस काल के युग प्रवर्तक जैन महापुरुष थे।