दान
प्र. ५५१ : नवधाभक्ति में तीन प्रदक्षिणा नहीं बताई है, उसे किस आधार से आवश्यक क्रिया समझा जावे?
उत्तर: आचार्य शान्तिसागरजी ने उत्तर दिया देववन्दना एवं गुरुवन्दना के समय प्रदक्षिणा की जाती है। यह विनय का एक प्रकार है। इससे एक उपवास का फल प्राप्त होता है, ऐसा आचार्यों ने कहा है, अतः पड़गाहन करते समय तीन प्रदक्षिणा देना अनुचित नहीं है।
प्र.५५२ : जिन्होंने दान की अनुमोदना की उनको पुण्यबंध होने का क्या हेतु है?
.उत्तर: जीव के पुण्यबंध व पापबंध में उसके परिणाम है। बाह्यकारणों को जिनेन्द्रदेव ने कारण का कारण कहा है। जबकि पुण्य के साधन करने में जीव के शुभपरिणाम प्रधान कारण हैं। तथा शुभकार्यों की अनुमोदना करने वालों को भी उन सर्वफलों की प्राप्ति अवश्य होगी।
प्र. ५५३ : दान किसे कहते हैं?
उत्तर : अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गोदानं। (मो.शा.अ.सू.३८) अनुग्रह अर्थात् उपकारार्थ धन का त्याग करना दान हैं। यहाँ किसका उपकार होना? स्पष्ट उत्तर है जिससे दाता और पात्र दोनों का उपकार हो, वह दान है। यह परिभाषा श्रेष्ठ, उत्तम, मध्यम और जघन्य सम्यग्दृष्टि पात्रों ओर सम्यग्दृष्टि दाता को प्रति समय घटित होती है। वह किस प्रकार? दाता, लोभ कषाय से मुक्त होता है, उसमें संतोषवृत्ति आती है। भोगोपभोग की लिप्सा नष्ट होती है, श्रावकधर्म का पालन होता है। धर्म-प्रभाव के साथ सम्यक्त्व के आठ अंगों का भले प्रकार से पालन होता है। उदारता, वात्सल्य आदि गुणों का उद्भावन होता है। इस प्रकार पात्रों का धर्मध्यान बढ़ता है, तप-त्याग, संयम सिद्ध होता है। शरीर की स्थिति रहने पर ही उपसर्गों, परिषहों को सहनकर कर्म-कालिमा के नाश का उपाय होता है। ज्ञान-ध्यान और समाधि की सिद्धि होती है। इसलिये दाता को विवेकपूर्वक आहारादि चारों प्रकार का दान देना चाहिये, जो पात्र जिस श्रेणी का है, उसे उसी के अनुरूप दान देकर पुण्यार्जन करना योग्य है। देयवस्तु वहीं है जो पात्र ही साधना में, आत्मशुद्धि में सहायक हो।
प्र. ५५४ : नवधा भक्ति मुनिराज के अलावा आर्यिका माताजी की भी होती है क्या?
उत्तर: आर्यिका की भी नवधा भक्ति होनी चाहिये। वे भी उपचार से महाव्रती हैं। जब एक तीर्थकर के असंयमी माता-पिता की पूजा होती है तो क्या एक संयमी आर्यिका की पूजा नहीं हो सकती है? मूलाचार में स्पष्ट लिखा है कि जो समाचार विधि मुनियों को कही है, वही आर्यिका को है। आर्यिकाओं की आचार संहिता कोई अलग से नहीं हैं। दूसरी बात यह है कि जगह-जगह नवधाभक्ति का उल्लेख मिलता है। कहीं ऐसा नहीं लिखा है कि आर्यिका की सात भक्ति होना चाहिये। प्राचीन संघों में भी यही परम्परा चली आ रही है। आर्यिकाओं की नवधा भक्ति सभी श्रावकों को करना चाहिये।
प्र. ५५५ : क्या सद्गुरुओं को दिया गया आहार व्यर्थ जाता है?
उत्तर: नहीं! सुक्षेत्र में बोया गया बीज व्यर्थ नहीं जाता है। उसमें अंकुरोत्पादन होकर फल आदि अवश्य उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार मोक्षगाभी के हाथ में दिया गया आहार व्यर्थ नहीं जाता है, उसका इहलोक में ही प्रत्यक्ष फल मिलता है।
सीप में पड़ी हुई स्वाति नक्षत्र की बूंद व्यर्थ आती है? नहीं। यह तो उत्तम मोती बन जाती है। इसी प्रकार सद्गुरुओं को दिया हुआ आहारदान व्यर्थ नहीं जाता है। उससे मुक्ति की भी प्राप्ति होती हैं। चक्रवर्ती ने भक्ति से उन चार मुनियों को तृप्त किया। इतना ही नहीं भुक्ति और मुक्ति पथ की युक्ति को पा लिया। सप्तविध दातृगुण व नवविद्य भक्ति से युक्त होकर जब चक्रवतों ने उन योगियों को आहार दान किया तब उन्हें तृप्ति प्राप्त हुई।
प्र. ५५६ : अभयदान की श्रेष्ठता बतलाइये।
उत्तर : एक पुरुष सुमेरु पर्वत तुल्य – विपुल सुवर्ण राशि का या समस्त पृथ्वी का दान कर लेता है परन्तु यदि कोई दूसरा व्यक्ति एक प्राणी के जीवन की रक्षा करता है तो इस जीव रक्षा के सामने उस महादान की तुलना नहीं हो सकती। अर्थात् (जीवरक्षा) अभयदान करने वाले को विशेष फल मिलेगा।
प्र.५५७ : अपात्र दान की निष्फलता बतलाइये।
उत्तर : भस्मनि हुतमिवापात्रेषवर्थव्ययः ।
अर्थ: अर्थात् अपात्र (नीति देने योग्य) के ३ भेद (१) धर्मपात्र जो बहुश्रुत विद्वान प्रबल और निर्दोष युक्तियों के द्वारा समीचीन धर्म का व्याख्यान करते हैं और माता के समान कल्याण करने वाली शिक्षा का उपदेश देते हैं, उन्हें साधु पुरुषों ने धर्मपात्र कहा है। (२) कार्यपात्र स्वामी के अनुकूल चलने वाले प्रतिभाशाली, चतुर कर्तव्य में निपुण सेवकों को कार्यपात्र कहा गया है। (३) कामपात्र इन्द्रियजन्य सुख का अनुभव करने वाले मनुष्य का मन जिसके शरीर स्पर्श से सुख प्राप्त करता है ऐसी उपभोग के योग्य कमनीय कामिनी विद्वानों ने कामपात्र कहा है।
प्र. ५५८ : धर्म श्रुत व धन का प्रतिदिन संचय करने से क्या लाभ होता है?
उत्तर: धर्मश्रुतधनानां प्रतिदिन लवोऽपि संग्रह्यमाणों भवति समुद्रादप्यधिकः ।
अर्थ- धर्म, विद्या और धन का प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा भी संग्रह करने से समय पाकर ये समुद्र से भी अधिक हो जाते हैं।
प्र. ५५१: धनाढ्य होने का उपाय बतलाइये।
उत्तर : सोऽर्थस्यभाजनं योऽर्थनुबन्धेनार्थमनुभवति ।
अर्थ – जो मनुष्य सदा सम्पत्ति शास्त्र के सिद्धांतानुसार अर्थानुबंध (व्यापार आदि साधनों से अविद्यमान धन का संचय, संचित की रक्षा और रक्षित की वृद्धि करना) से धन का अनुभव करता है उसके संचय आदि में प्रवृत्ति करता है, वह उसका पात्र स्थान हो जाता है- धनाढ्य होता है।
प्र. ५६०: लोगों का प्यारा कौन होता हैं?
उत्तर: स प्रियो लोकानां योऽर्थ ददाति ।
अर्थ- जो धन या अभिलषित वस्तु देकर दूसरों की भलाई करता है, वही उदार पुरुष लोगों का प्यारा होता है।
प्र. ५६१: उत्तमदान का नाम बतलाओ।
उत्तर : भीतेष्वभयदानात्परं न दानमस्ति ।
अर्थ- भूख प्यास और शत्रु-प्यास और शत्रु कृत उपद्रव आदि से व्याकुल हुये प्राणियों को अभयदान (उनकी रक्षा) देने के सिवाय संसार में कोई उत्तम दान नहीं है।
प्र. ५६२ : भोजन बेला में आहारवान न देने वाले मनुष्य पशु के समान है क्यों?
उत्तर: भोजन की बेला में अतिथियों को आहारदान न देने वाले व्यक्ति आहार निंद्य है, पशु की चेष्टा मात्र है। अर्थात् जिस प्रकार पशु, जीवन रक्षार्थ तृणादि भक्षण करके मल-मूत्रादि क्षेपण करता है। उसी प्रकार वह मनुष्य भी जीवन रक्षार्थ भोजन करके मल मूत्रादि क्षेपण करता है, जो दानधर्म नहीं जानता है। अतः मनुष्य को अतिथियों को आहार दान के पश्चात् भोजन करना चाहिये।
प्र. ५६३ : आहारदान में चारों दान कैसे गर्भित होते हैं?
उत्तर: आहारदान देने से शरीर की स्थिति रहती है। संसार अवस्था में सबसे बड़ा रोग तो क्षुधा है, यह सबसे भयंकर राग है। आहारदान देने से क्षुधारूपी रोग शांत हो जाता है इसलिये आहारदान ही औषध दान है। जब शरीर स्वस्थ होगा तभी स्वाध्याय बन सकेगा और ज्ञानाभ्यास किया जा सकेगा। इसलिये आहारदान ही ज्ञानदान है। यदि आहारदान नहीं दिया गया और ज्ञानोपकरण व साधन एकत्र कर दिये जायें तो भी ज्ञानोपार्जन नहीं किया जा सकता। जब पेट भरा होगा तभी पठन-पाठन में मन लगेगा और पठन-पाठन किया जा सकेगा। इस प्रकार आहारदान में ज्ञानदान भी आ जाता है। जब यह देखा जाता है कि माँ भी भूख के आवेश में अपने पेट से उत्पन्न हुये बच्चों को खा जाती है तो अन्य की बात ही क्या? आहारदान देने से यह शंका नष्ट हो जाती है कि जब मुझको आहार मिल गया अब मेरा शरीर नष्ट नहीं होगा अथवा मेरा मरण नहीं होगा ओर प्रमाद से रहित होकर अपनी छहकर्म क्रियाओं में लवलीन होता है। अतः आहारदान ही अभयदान है।
प्र. ५६४ : पात्र के भेद बताते हुये उनके स्वामी बतलाओ।
उत्तर: पात्र के ३ भेद हैं उत्तम, मध्यम व जघन्यपात्र। उत्तमपात्र जिनलिंगधारी मुनिराज हैं। मध्यम पात्र उद्दिष्टत्यागी श्रावक ऐलक तथा क्षुल्लक एवं क्षुल्लिकाएँ आर्यिकाएँ हैं। श्रावक जघन्यपात्र हैं।
प्र. ५६५ : श्रावक के ३ भेद व उनके स्वामी बतलाओ।
उत्तर : श्रावक की अपेक्षा अनुमति त्यागी व उद्दिष्ट भोजन के त्यागी श्रावक उत्तमपात्र हैं। छठवीं, सातवीं, आठवीं, नवमीं प्रतिमा के धारक मध्यमपात्र हैं। दर्शन प्रतिमा से लेकर पाँचवीं प्रतिमा के धारक श्रावक मध्यमपात्र हैं, अव्रती सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र हैं।
प्र. ५६६ : अपात्र कौन हैं, बतलाओ।
उत्तर: बहिर्लिंग के धारी, मद्यपायी, भाँग, धतूरा, खाने वाले आरम्भ परिग्रही में आसक्त मिथ्यादृष्टि अपात्र हैं।
प्र. ५६७ : वस्त्रदान का फल क्या हैं?
उत्तर: आर्येभ्यः आर्यिकाभ्यश्ववस्त्रदानेन धीधनः ।
अरजोम्बरधारी स्याच् छुक्ल ध्यानीभवान्तरे।।
अर्थ – ऐलक, क्षुल्लक तथा आर्यिकाओं के लिये वस्त्र देने से बुद्धिमान मनुष्य इस भव से उज्ज्वल वस्त्रों का धारी और भवान्तर में शुक्लध्यान का धारक होता है।
प्र. ५६८ : पिच्छी, कमण्डलु के दान का फल बतलाओ।
उत्तर : मयुरवर्हदानेन सपुत्रश्चिजीवितः । दानात् कमण्डलोः पात्रे निर्मलाङशुचिव्रत।।
अर्थ – पात्र के लिये मयूरपिच्छ से निर्मित पिच्छी के देने से वह मनुष्य पुत्र सहित चिरकाल तक जीवित रहता हैं और कमण्डलु के देने से निर्मल शरीर और निरतिचार व्रत का धारक होता हैं।
प्र. ५६९ : वे कौनसे कार्य हैं, जिन्हें अपने हाथों से ही करना चाहिये?
उत्तर :धर्मकार्य में, स्वामी की सेवा करने में, पुत्रोत्पन्न करने में, शास्त्रों का अभ्यास करने में, दान देने में और अपने शरीर को पुष्ट बनाने में दूसरों के लिये आज्ञा नहीं देनी चाहिये।
प्र. ५७०: सबसे बड़ा लाभ किसे समझना चाहिये?
उत्तर: अकृत्वा परसन्ताप, अगत्वा खलनम्रताम्। अनुत्युज्य सतां वर्मसत् स्वल्पमपिबहु। अर्थ- दूसरों को बिना दुःख दिये और दुर्जन पुरुषों के सामने बिना झुक्के एवं सत्पुरुषों के मार्ग पर चलते हुये यदि धन आदि का थोड़ा लाभ होता है तो उसे बड़ा लाभ समझना चाहिये।
प्र. ५७१ : पात्र अपात्र की परिभाषा बतलाओ।
उत्तर : जघन्य पात्र द्रव्य जिनलिंग, मध्यम अविरत सम्यग्दृष्टि, उत्तम द्रव्यभाव जिनलिंग जो व्रत सम्यक्त्त्व रहित है वह पात्र नहीं है, वह अपात्र है, उसको दान देने का फल कुमानुष में जन्म होना है।
प्र. ५७२ : सब दानों में कौनसा दान सर्वोत्तम माना गया है?
उत्तर: यदि किसी को तीन लोक की संपदा और जीवन में किसी एक को चुनने को कहा जाये तो वह अपने रोगी शरीर को ही चुनेगा न कि संसार की समस्त संपदा को, क्योंकि वह जानता है कि मरने पर तीन लोक की संपदा किस काम आयेगी? (आप मरा जग सूना) निश्चय ही यह जीवन समस्त व्रतों व उत्तम गुणों का आधारभूत है। इसलिये प्राणियों को जीवन दान देना सर्वोत्तम दान माना गया है।
प्र. ५७३ : दान में विघ्न करने का फल क्या है?
उत्तर : दोनों आँखों से अंधा, दोनों पावों और हाथों की उंगलियाँ तथा शरीर का गलना, दुःखों से जर्जरित होना। यह सब दान में विघ्न करने का फल है।
प्र. ५७४: चार दानों में उत्तम दान कौनसा है?
उत्तर : (१) आहार दान, (२) औषध दान, (३) अभय दान और (४) ज्ञान दान, चार प्रकार का दान कहा गया है। दान तो सब उत्तम ही हैं तो भी सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने से मालूम होता है कि आहार दान देने से पात्र जीव एक दिन को क्षुधा के रोग से मुक्त हो सकते हैं। वहीं क्षुधा संताप करती है। औषध दान से पात्र जीव पक्ष, मास या वर्ष के रोग से मुक्त हो सकता है। बाद में रोग हो जाना संभव है। अभय दान देने से वर्तमान आयु की रक्षा हो सकती है तो भी अनंत जन्म-मरण से मुक्त नहीं हो सकता है। ज्ञानदान देने से अनंत भव का जन्म-मरण काटकर जीव मोक्ष पर्याय प्रकट हो सकता है। इसलिये ज्ञान दान श्रेष्ठ है।
प्र. ५७५ : अभयदान का महत्व बताओ।
उत्तर: कोई अगर मेरु पर्वत के बराबर सुवर्ण अथवा सम्पूर्ण पृथ्वी दान देता है और जो किसी जीव को जीवन दान (अभयदान) देता है तो अभयदान का फल अधिक होता है।