जिनके द्वारा उत्तम रीति से चलने वाले श्रेष्ठ धर्म रूपी रथ के चाक के समान व्रत और दानरूप दो तीर्थ यहाँ आविभूर्त हुये हैं वे नाभिराज के पुत्र ऋषभदेव तथा कुरुवंश गृह के दीपक के समान राजा श्रेयांसकुमार भी जयवंत होवें। इस भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में षट्काल परिवर्तन होता रहता है। अवसर्पिणी काल के छह भेदों में से प्रथम, द्वितीय, एवं तृतीय कालों में यहाँ पर भोगभूमि की अवस्था रही है। उस समय आर्य कहे जाने वाले उन भोगभूमिया पुरुषों और स्त्रियों में न तो विवाह आदि संस्कार ही थे न व्रत संयम आदि। वे दश प्रकार के कल्पवृक्षों से प्राप्त हुई सामग्री के द्वारा इच्छानुसार भोग भोगते हुये अपना काल यापन करते थे। कालक्रम से जब तृतीय काल में पल्य का आठवां भाग (१/८) शेष रहा तब उन कल्पवृक्षों की दान—शक्ति क्रमश: घटने लगी। इससे जो समय—समय पर उन आर्यों को कष्ट अनुभव हुआ उसे यथा क्रम में जन्म लेने वाले प्रतिश्रुति आदि चौदह कुलकरों ने दूर किया था। उनमें अन्तिम कुलकर नाभिराज थे। प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ इन्हीं के पुत्र थे। तब तक जो व्रत ग्रहण करने का प्रचार नहीं था उसे भगवान् आदिनाथ ने स्वयं पांच महाव्रतों को ग्रहण करके प्रचलित किया था । इसी प्रकार तब तक किसी को भी मुनियों को आहारदान देने का परिज्ञान नहीं था। इसी कारण मुनि बनने के बाद छह मास के उपवास को पूर्ण करके भगवान् आदिजिनेंद्र को आहार के निमित्त और भी छह मास घूमना पड़ा। अन्त में हस्तिनापुर में पधारे भगवान् को देखकर राजा श्रेयांस को जातिस्मरण के द्वारा आहारदान की विधि का परिज्ञान हुआ। तदनुसार तब उन्होंने भक्तिपूर्वक भगवान् आदिनाथ को इक्षुरस का आहार दिया। बस तभी से यहाँ पर आहारदान की विधि का प्रचार प्रारंभ हो गया। इस प्रकार भगवान् आदिनाथ ने व्रतों का प्रचार करके तथा राजा श्रेयांस ने दानविधि का प्रचार करके जगत् का कल्याण किया है। इसलिये ग्रन्थकार श्रीपद्मनन्दि महामुनि ने यहाँ व्रततीर्थ के प्रवर्तकस्वरूप से भगवान् आदिजिनेंद्र का तथा दानतीर्थ के प्रवर्तकस्वरूप से राजा श्रेयांस का भी स्मरण किया है। जिस श्रेयांस राजा के घर पर तीनों लोकों से वंदित चरणों वाले भगवान् ऋषभ जिनेंद्र ने आहार ग्रहण किया, इसलिये जिनका शरदकालीन मेघों के समान धवल यश तीनों लोकों में पैâला उस श्रेयांस राजा का क्या वर्णन किया जाये ? और कितना वर्णन किया जाये ? और कितना वर्णन किया जाये ? उन्हीं राजा श्रेयांस के घर पर इन्द्रादि वंद्य प्रथम तीर्थंकर मुनिपुंगव के आहार करने पर उस समय लोक को अभूतपूर्व आश्चर्य में डालने वाली आकाश से वह रत्नवृद्धि हुई कि जिससे यह पृथ्वी वसुमती—धनवाली इस सार्थक संज्ञा को प्राप्त हुई थी, वह राजा श्रेयांस सदा जयशील होवें। यह आश्रम में प्रसिद्ध है कि जिसके यहाँ किसी तीर्थंकर देव की प्रथम देव की पारणा होती है उनके यहाँ देवों द्वारा पंचाश्चर्य वृष्टि की जाती है।
१. रत्नवर्षा,
२. दुंदुभी वादन,
३. जय—जय शब्द का प्रसार,
४. सुगंधित वायु का संचार और
५. पुष्पाों की वर्षा।
तदनुसार भगवान् आदिनाथ ने जब राजाश्रेयांस के घर पर प्रथम पारणा की थी तब उनके घर पर रत्नों की वर्षा हुई थी। यह मनुष्य पर्याय अतिशय दुर्लभ है, उसके प्राप्त हो जाने पर भी जीवन, यौवन, धन आदि स्वप्न और इन्द्र जाल के सदृश विनश्वर हैं। फिर भी जो प्राणी लोभरूपी अंधकार से व्याप्त ऐसे कुएँ में पड़े हैं उनके उद्धार के लिये दयालुबुद्धि से यहाँ कुछ दान का वर्णन किया जाता है। जो गृहस्थ जीवन स्त्री, पुत्र एवं धन आदि पदार्थों के समूह से उत्पन्न हुये अत्यन्त भयानक व विस्तृत मोह के विशाल समुद्र के समान है उस गृहस्थ जीवन में उत्तम सात्विक भाव से दिया गया उत्कृष्ट दान समस्त गुणों में श्रेष्ठ होने से नौका का काम करता है। तात्पर्य यह है कि गृहस्थ जीवन में प्रत्येक मनुष्य को स्त्री, पुत्र, परिजन, धन आदि से सदा मोह बना रहता है जिससे यह अपने कर्तव्य को भूलकर सतत् अनेक प्रकार के आरंभों में लगा रहता है। मोह और आरंभ से निरंतर पाप का संचय होता रहता है। इस पाप को क्षालन करने का यदि कोई उपाय है तो वह दान ही है ऐसा महर्षियों का कहना है। इसलिये यह दान संसार रूपी महासमुद्र को पार करने के लिये जहाज के समान है। इस विषय संसार में अनेक कुटुम्बी जनों के आश्रित परिग्रह से परिपूर्ण ऐसी गृहस्थ अवस्था के शुभ प्रवर्तन का उत्कृष्ट कारण एक मात्र सत्पात्रदान की विधि है, जैसे कि समद्र से पार होने के लिये चतुर खेवटिया से संचालित नाव कारण है। जो दान देने के लिये योग्य हैं उसे पात्र कहते हैं। पात्र के उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन भेद हैं। इनमें से मुनि उत्तम पात्र हैं, देशव्रती श्रावक मध्यम पात्र हैं और अविरतसम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र हैं। इनके अतिरिक्त जो मनुष्य सम्यग्दर्शन रहित होकर भी व्रतों का परिपालन करते हैं वे कुपात्र कहलाते हैं। जो मनुष्य न तो सम्यग्दृष्टि हैं और न व्रतों का ही पालन करते हैं वह अपात्र कहे जाते हैं। यदि उपर्युक्त उत्तम, मध्यम, जघन्य पात्रों को मिथ्यादृष्टि मनुष्य आहार दान आदि देते हैं तो वे यथाक्रम से उत्तम, मध्यम एवं जघन्य भोग भूमि के सुख भोगकर तत्पश्चात् यथासंभव देवपर्याय को प्राप्त कर लेते हैं। और यदि सम्यग्दृष्टि जीव इन सत्पात्रों को दान देते हैं तो वे नियम से उत्तम देवों में ही उत्पन्न होते हैं। कारण यह है कि सम्यग्दृष्टि मनुष्य के एक मात्र देवायु का ही बंध होता है। जो मनुष्य कुपात्र में दान देते हैं वे कुभोगभूमियों (अंतरद्वीपों)में कुमानुष हो जाते हैं। तथा जो मनुष्य अपात्र का दान देते हैं वह दान ऊसर भूमि में बोये गये बीज के समान व्यर्थ हो जाता है। इसके सिवाय जो अंधे, लंगड़े, लूले, बहरे, दीन, अनाथ आदि दु:खी प्राणियों को करुणा बुद्धि से भोजन दान देते हैं, वस्त्र आदि देते हैं, उन्हें भी पुण्य का बंध होता है क्योंकि यह दयादान भी यथायोग्य उत्तम फल को देने वाला कहा गया है।
१. तिलोयपण्णत्ति, गाथा ६७१ से ६७४।
धन का सदुपयोग
करोड़ों परिश्रमों से संचित किया हुआ जो धन है वह मनुष्यों को अपने पुत्रों और प्राणों से भी अधिक प्रिय प्रतीत होता है उसका सदुपयोग तो केवल दान में ही होता है। विरुद्ध दुव्र्यसनादि में उसका उपयोग करने से मनुष्य को अनेक कष्ट ही भोगने पड़ते हैं। ऐसा साधुओं का कथन है। इस लोक में गृहस्थों की जो संपत्ति प्रतिदिन खाने—पीने आदि में खर्च होती है वह नष्ट हुई ही समझो चूँकि वह यहाँ फिर से कभी वापस नहीं आती है। किंतु उत्तम पात्रों के लिये दिये गये दान में जो संपत्ति व्यय होती है वह संपत्ति नियम से फिर से प्राप्त हो जाती है। अर्थात् असंख्य गुणा होकर फलती है जैसे कि उत्तम भूमि में बोया हुआ बड़ का बीज करोड़ गुणा फल देता है। जिस श्रावक ने यहाँ मोक्षाभिलाषी मुनि को भक्तिपूर्वक आहार दिया है उसने केवल उस मुनि को ही मोक्षमार्ग में प्रवृत्त नहीं किया है, बल्कि अपने आप को भी उसने मोक्षमार्ग में लगा दिया है । सो ठीक ही है— मंदिर को बनाने वाला कारीगर भी निश्चय से उस मन्दिर के साथ ही ऊँचे स्थान को चला जाता है । अर्थात् जिस प्रकार मंदिर को बनाने वाला कारीगर जैसे—जैस मंदिर ऊँचा बनाता जाता है वैसे—वैसे वह भी पैंड़ बांधकर ऊँचे स्थान पर चढ़ता चला जाता है। ठीक उसी प्रकार से मुनि को भक्तिपूर्वक आहार देने वाला मनुष्य भी उन मुनि को मोक्षमार्ग में बढ़ाता हुआ स्वयं आप भी उनके ही साथ मोक्षमार्ग में बढ़ता चला जाता है। भक्ति रस में अनुरंजित बुद्धिवाला जो गृहस्थ श्रेष्ठ मुनि को शाक का भी आहार देता है वह अनन्त फल का भोगने वाला होता है। सो ठीक ही है। उत्तम खेत में बोया गया बीज क्या किसान को बहुत फल नहीं देता है ? अवश्य देता है। मन वचन काय की शुद्धि करके विशुद्ध हुआ जो मनुष्य साक्षात् पात्र— मुनि — आर्यिका आदि को केवल आहार ही देता है उसको भी संसार से पार उतारने वाला ऐसा पुण्य प्राप्त हो जाता है कि जिस पुण्य की इन्द्र भी अभिलाषा करते हैं। अभिप्राय यही है कि आहारदान का पुण्य इतना महान है जिसे इन्द्र भी चाहते हैं। लोक में मोक्ष के कारणी भूत जिस रत्नत्रय की स्तुति की जाती है वह रत्नत्रय मुनिगण शरीर की शक्ति से ही धारण करते हैं, वह शरीर की शक्ति भोजन से प्राप्त होती है, और वह भोजन अतिशय भक्ति से सहित गृहस्थ के द्वारा ही दिया जाता है। इसी कारण वास्तव में उस मोक्षमार्ग को गृहस्थजनों ने ही धारण किया है। लोक में अत्यंत विशुद्ध मन वाले गृहस्थ के द्वारा प्रीतिपूर्वक उत्तम पात्र को एक बार भी दिया गया दान जितने महान् उन्नत फल को देता है, उतने फल को गृह की अनेक झंझटों से उत्पन्न हुये पापसमूहों से शक्तिहीन किये गये गृहस्थ के व्रत नहीं फलते हैं। तात्पर्य यह है कि गृहस्थ अपने घर के अनेक आरंभ, व्यापार धंधे आदि से जो पाप कर्म संचित करता रहता है उससे उस द्वारा किये गये व्रत, जप, तप उतना फल नहीं दे पाते हैं कि जितना फल उसे मुनि को एक बार भी दिये गये आहारदान से मिल जाता है ये श्रीपद्मनंदि आचार्य के वाक्य हैं। नानागृहव्यत्तिकरर्जितपापपुञ्जै:, खञ्जीकृतानि गृहिणो न तथा व्रतानि । उच्चै: फलं विदधतीह यथैकदापि, प्रीत्याति शुद्धानसा कृतपात्रदानम् ।।१३।। भी तत्पश्चात् मुनिराज को दिये गये दान से उत्पन्न हुये पुण्य के प्रभाव से कीर्ति के साथ निरंतर दिन पर दिन वृद्धि को प्राप्त होती हुई मोक्ष पर्यंत साथ जाती है। जैसे नदी मूल में कृश होकर भी अतिशय दीप्त पेन के साथ उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होकर समुद्र पर्यंत जाती है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार नदी के उद्गम स्थान में उसका विस्तार बहुत ही थोड़ा रहता है फिर भी वह समुद्र पर्यंत पहुँचने तक उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है। इसके साथ—साथ नदी का पेâन भी उसी क्रम में बढ़ता जाता है। उदाहरण के लिये गंगा नदी हिमवान् पर्वत् के पद्म सरोवर के पूर्वद्वार से निकलते समय मात्र ६—१/४ योजन विस्तार वाली है आगे बढ़ते—बढ़ते समुद्र के प्रवेशस्थान पर ६२—१/२ योजन प्रमाण विस्तृत हो जाती है। उसी प्रकार से सम्यग्दृष्टि पुरुष की धन—संपत्ति भी यद्यपि मूल में बहुत थोड़ी रहती है तो भी वह आगे उसके द्वारा भक्तिपूर्वक दिये गये पात्रदान के पुण्य के प्रभाव से दिन पर दिन बढ़ती ही जाती है। उसके साथ ही उस दाता की कीर्ति भी बढ़ती चली जाती है। जगत् में जिस उत्कृष्ट आत्मस्वरूप के ज्ञान से शुद्ध आत्मा के पुरुषार्थ की सिद्धि होती है वह आत्मज्ञान घर में रहने वाले गृहस्थ के प्राय: कहाँ से हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता । किंतु वह पुरुषार्थ की सिद्धि पात्रजनों में किये गये चार प्रकार के दान से अनायास ही हस्तगत हो जाती है। जो मनुष्य मोक्षमार्ग में चलने वाले मुनियों को केवल नाम मात्र भी स्मरण करता है उसके समस्त पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। पुन: जो मनुष्य मुनि को आहार, औषधि और मठ—उपाश्रय अर्थात् वसतिका आदि प्रदान कर उपकार करते हैं। वे यदि संसार से पार हो जाते हैं तो भला इसमें आश्चर्य ही क्या है ? मतलब स्पष्ट है कि मुनि का नाम मात्र लेने से भी तमाम पाप नष्ट हो जाते हैं तो उन्हें आहार , औषधि, शास्त्र और वसतिका दान देने से संसार से छुटकारा मिलता ही मिलता है जो मुनिजन साक्षात् अपने पादोदक से गृहगत पृथिवी के अग्रभाग को सदा पवित्र किया करते हैं ऐसे मुनिजन जिन गृहों के भीतर साक्षात् संचार नहीं करते हैं वे गृह क्या हैं ? अर्थात् ऐसे गृहों का कुछ भी महत्व नहीं है। इसी प्रकार स्मरण के वश से अपने चरणजल के द्वारा श्रावकों के शिर के प्रदेशों को पवित्र करने वाले वे मुनिगण जिन श्रावकों के मन में संचार नहीं करते हैं वे श्रावक भी क्या हैं ? अर्थात् उनका भी जीवन सफल नहीं है ।नामापि य: स्मरति मोक्षपथस्य साधोराशु क्षयं व्रजति तदुरितं समस्तम् । यो भक्तभेषजमठादिकृतोपकार: संसारमुत्तरति सोऽत्र नरो न चित्रम् ।।१६।। किं ते गृहा: किमिह ते गृहिणों नु येषामन्तर्मनस्सु मुनयो न हि संचरन्ति । अभिप्राय यह है कि— जन घरों में मुनियों का आहार आदि के निमित्त आवागमन होता रहता है वे ही घर सफल हैं। क्योंकि उनके चरण प्रक्षालन का गंधोदक घर में पड़ता है अर्थात् वे मुनिगण अपने कमंडलु के जल से अपने पैर धोते हैं उस चरणप्रक्षालित जल से घर भी पवित्र हो जाते हैं और जिन घरों में मुनियों का आवागमन नहीं है वे घर पवित्र नहीं होते हैं। ऐसे ही जब मुनियों का पड़गाहन कर श्रावक उनकी नवधाभक्ति करते हैं तब मुनियों के चरणप्रक्षालन कर उस गंधोदक को अपने—अपने मस्तक पर लगाते हैं उन श्रावक—श्राविकाओं का मस्तक तो पवित्र हो ही जाता है साथ ही उनका जीवन भी सफल हो जाता है। ऐसा समझना चाहिये। यहाँ मुनियों के चरणप्रक्षालित गंधोदक का महत्तव दिखाया गया है।
यो भक्तभेषजमठादिकृतोपकार: संसारमुत्तरति सोऽत्र नरो न चित्रम् ।।१६।।
किं ते गृहा: किमिह ते गृहिणों नु येषामन्तर्मनस्सु मुनयो न हि संचरन्ति ।
दान की महिमा
जसके क्रोधादि विकार भाव विद्यमान हैं वह क्या देव हो सकता है ? जिस धर्म में प्राणियों की दया प्रधान नहीं है वह क्या धर्म कहा जा सकता है ? जिसमें सम्यग्ज्ञान नहीं है क्या वह तप और गुरु हो सकता है ? तथा जिस संपत्ति में से पात्रों के लिये दान नहीं दिया जाता है वह संपत्ति क्या सफल हो सकती है ? अर्थात् नहीं। अभिप्राय यह है कि जिसमें राग, द्वेष, क्रोध, मान आदि मौजूद है वह देव नहीं माना जा सकता है। जिस धर्म में दयाधर्म प्रमुख नहीं है वह धर्म भी सच्चा धर्म नहीं है। जो तपश्चर्या सम्यग्ज्ञान सहित होकर की जाती है वही कर्मनिर्जरा को कराने वाली है और जो गुरु सम्यग्ज्ञान से सहित हैं वे ही निग्र्रंथ दिगंबर साधु गुरु हैं। उसी प्रकार जिस संपत्ति के कुछ भाग को मुनियों के आहार दान आदि में लगाया जाता है वही संपत्ति सफल है। यदि मनुष्य के पास तीनों लोकों को वशीभूत करने के लिये अद्वितीय वशीकरण मंत्र के समान दान है, और व्रत आदि से उत्पन्न हुआ धर्म विद्यमान है तो ऐसे कौन से गुण हैं जो उसके वश में न हो सवें, वह कौन सा सुख है जो उसको प्राप्त नहीं हो सके, तथा वह कौन सी विभूति है जो उसके अधीन न हो जाये ? तात्पर्य यही है कि ‘दान’ यह तीनों लोकों को अपने वश में करने के लिये उत्तम वशीकरण मंत्र है। जिसको दान दिया जाता है वह प्रसन्न हो जाता है और भव—भव में उसके उपकार को मानता रहता है। मुनिजनो को आहार देने से तो पुण्य के साथ—साथ विशेष कीर्ति फैलती है। सज्जन पुरुष उसे आदर देते हैं। दान देने से शत्रुता भी खत्म हो जाती है। वैसे ही व्रत आदि शुभ कार्य भी धर्म है उनसे भी लोग अपने अधीन बन जाते हैं। इसीलिये आचार्यदेव का कहना है कि दान और व्रत करने वाले सज्जन पुरुषों को इतना लाभ होता है कि सभी लोग उसके वश में हो जाते हैं, सभी प्रकार के सुख उसको मिलते हैं और सभी प्रकार की विभूतियाँ भी उसे प्राप्त हो जाती हैं। अब आचार्य देव तुलना करते हुये बतलाते हैं— एक मनुष्य के पास उत्तम पात्र को दिये गये आहारदान से उत्तम हुआ पुण्य समुदाय विद्यमान है, तथा दूसरे मनुष्य के पास राज्यलक्ष्मी विद्यमान है। फिर भी प्रथम मनुष्य की अपेक्षा द्वितीय मनुष्य दरिद्र ही है, क्योंकि उसके पास आगामी काल में फल देने वाला कुछ भी शेष नहीं है। अभिप्राय यही है कि सुख का कारण एकमात्र पुण्य ही है अत: जिसने दान दिया है। उसने इतना अधिक पुण्य संचय कर लिया है कि वह आगामी काल में नवनिधि आदि तमाम धनसंपत्ति का स्वामी होगा। तथा जिस व्यक्ति के पास राज्यलक्ष्मी तो है वह वर्तमान में धनी है किन्तु वह निर्धन ही रहेगा। जिसके धन दान देने के लिये नहीं है, शरीर व्रत के लिये नहीं है, और शास्त्राभ्यास कषायों की उपशांति के लिये नहीं है। उसका जन्म केवल संसार के दु:खों के लिये मूलभूत ऐसे जन्म—मरण के लिये ही है। तात्पर्य यही है कि धन पाकर दान देना चाहिये। मनुष्य का शरीर पाकर व्रत करना चाहिये, और शास्त्रों को पढ़कर कषायों को मंद करनी चाहिये। यदि धन से दान नहीं दिया, शरीर से व्रत नहीं किया और शास्त्र पढ़कर भी क्रोध, मान, माया, लोभ, को बढ़ाते रहे तो समझ लीजिये उस व्यक्ति ने अपने संसार के दु:खों को ही बढ़ावा दिया है। मनुष्य जन्म को प्राप्त कर प्रत्येक व्यक्ति को तप करना चाहिये। क्योंकि यह तप संसाररूपी समुद्र से पार होने के लिये अपूर्व पुल के समान है। जो मनुष्य देव, गुरु एवं मुनि की पूजा करता है, दान देता है तो उसका वैभव पाना सफल है क्योंकि यदि वैभव पाकर भी दान, पूजन नहीं किया तो वह वैभव मात्र बंध का ही कारण है। पाप को उत्पन्न करने वाले समस्त कार्यों से रहित ऐसी चित्तवृत्ति का आश्रय करने वाली भिक्षा कहीं श्रेष्ठ है किन्तु सत्पात्र दान से रहित होकर विपुल एवं तीव्र दु:खों से परिपूर्णा दुर्लध्य नरक आदि गतिरूप दुर्गति को करने वाली विभूति श्रेष्ठ नहीं है। जिस गृहस्थ अवस्था में जिनेंद्र भगवान् के चरणकमलों की पूजा नहीं की जाती है तथा भक्तिपूर्वक मुनियों को दान नहीं दिया जाता है उस गृहस्थ अवस्था के लिये अगाध जल में प्रविष्ट होकर क्या शीघ्र ही जलांजलि नहीं दे देना चाहिये ? अर्थात् अवश्य दे देना चाहिये। यहाँ पर आचार्य श्रीपद्मनंदि देव ऐसा कह रहे हैं कि जो गृहस्थ भगवान् के चरण कमलों की पूजा नहीं करता है और संयमी साधुओं को दान नहीं देता है उसे गहरे जल में डुबो देना चाहिये।ाूजा न चेज्जिनपते: पदपंकजेषु, दानं न संयतजनाय च भक्तिपूर्वम् । नो दीयते किमु तत: सदनस्थिताया: शीघ्र जलांजलिरगाधजले प्रविश्य।।२४।। (पद् मनंदिपंचविंशतिका अधिकार दूसरा) इसका अभिप्राय यही है कि दान और पूजा क्रिया से रहित गृहस्थ स्वयं ही गृहस्थाश्रम के पाप के भार से अगाध संसार समुद्र में डूब जाता है। इसलिये श्रावक का कर्तव्य है कि वह प्रतिदिन दान—पूजा अवश्य करे इसी से गृहस्थाश्रम सफल है। संसाररूप समुद्र में परिभ्रमण करते हुये यदि चिरकाल में बड़े दु:ख से मनुष्य पर्याय प्राप्त हो गई है तो उसे पाकर उत्कृष्ट तप करना चाहिये अर्थात् मुनि दीक्षा ले लेना चाहिये। और कदाचित् वह तप नहीं किया जा सकता है तो अणुव्रती ही हो जाना चाहिये। जिससे कि प्रतिदिन पात्रदान हो सके। इससे यही अभिप्राय निकलता है कि अणुव्रत लिये वगैर श्रावक नहीं कहला सकता है और श्रावक हुये वगैर मुनियों का आहार देने का सौभाग्य नहीं मिलता है। यदि कोई मनुष्य अपने घर से बहुत सा नाशता (मार्ग में — खाने योग्य पक्वान) लेकर दूसरे गांव जाता है तो वह जिस प्रकार सुखी रहता है, उसी प्रकार दूसरे जन्म में जाने के लिये व्यक्ति को व्रत एवं दान से कमाया हुआ एक मात्र पुण्य ही सुख का कारण होता है। आचार्य कहते हैं कि—यहाँ— इसलोक में काम, अर्थ (धन) और यश के लिये किया गया प्रयत्न भाग्यवश कदाचित् निष्फल भी हो जाता है। किन्तु मुनि—आर्यिका आदि पात्रों के नहीं मिलने पर भी हर्षपूर्वक उनके लिये किया गया दान का संकल्प भी पुण्य को प्रदान करता ही करता है। अपने मकान में शत्रुजन के भी उपर जाने पर सज्जन मनुष्य प्रिय वचन एवं आसन देना आदि के द्वारा उसका अनुपम आदर—सत्कार करते हैं। फिर भला उत्तम गुणों रूप रत्नों के आश्रयभूत उत्कृष्ट पात्र के अपने घर पर आ जाने पर सज्जन पुरुष क्या हर्ष से आदर—सत्कार नहीं करते हैं ? अर्थात् अवश्य ही वे दान आदि के द्वारा उनका यथायोग्य सम्मान करते हैं। तात्पर्य यही है कि गृहस्थ के घर में यदि कदाचित् शत्रु भी आ जाये तो उसको भी बिठाना चाहिये, मधुर वचन से उसे संतुष्ट करना चाहिये और यदि कदाचित् उत्तमपात्र मुनि—आर्यिका आदि का घर में आगमन हो जाये तो उनकी विधिवत नवधाभक्ति आदि करके उन्हें आहार दान देकर महान् पुण्य संचय कर लेना चाहिये। सज्जन पुरुष के लिये अपने पुत्र की मृत्यु का दिन भी उतना बाधक नहीं होता जितना कि मुनिदान से रहित दिन उसको बाधक दिखता । ठीक है— दुर्निवार दैव के द्वारा कुस्सित कार्य के किये जाने पर बुद्धिमान मनुष्य उसे अनिष्ठ मानता, विंâतु पुरुष के द्वारा ऐसे किसी कार्य के किये जाने पर विवेकी मनुष्य उसे अनिष्ट मानता है। तात्पर्य यही है कि— ाqकसी विवेकी मनुष्य के घर पर यदि पुत्र का मरण हो जाता है तो वह विशेष शोकाकुल नहीं होता है क्योंकि वह जानता है कि यह पुत्रवियोग अपने पूर्वोपार्जित कर्मो के उदय से हुआ है जो कि किसी प्रकार से टाला नहीं जा सकता था। परन्तु यहाँ यदि किसी दिन साधुजन को आहार नहीं दिया जाता है तो वह इसके लिये पश्चात्ताप करता है कारण कि वह अपनी असावधानी से हुआ है। वह सोचता है कि यदि हम सावधान होकर द्वारापेक्षण आदि करते तो पात्र का लाभ अवश्य मिल जाता। तथा पात्रदान के अभाव में जो पूण्य लाभ की हानि हुई है और अपनी आवश्यक क्रिया की पूर्र्ति नहीं हुई है इसलिये वह पुत्रवियोग से अधिक भी दु:ख महसूस करता है। यह है सच्चे श्रावक की भावना, सच है आज भी यत्र—तत्र मुनि. आर्यिकायें और क्षुल्लक, क्षुल्लिकायें दिख रहे हैं। जो भक्तजन उनकी भक्ति करते हैं, उन्हें आहार दान देते हैं, उनकी वैयावृत्ति करते हैं, उनके उपदेश आदि का लाभ लेते हैं वे ही श्रावक अपनी मनुष्य पर्याय को सफल कर लेते हैं। इसके विपरीत जो उनकी निन्दा में अपने समय को बिता रहे हैं वे बेचारे व्यर्थ ही पाप की पोट बांधकर अपने संसार को बढ़ा रहे हैं, यह निश्चित बात है। धर्म के साधन हेतु जो विकल्प उत्पन्न होते हैं, वे धनवान् मनुष्य के दान के द्वारा सत्य होते हैं । सो ठीक ही है— चन्द्रकान्त मणि चन्द्रकिरणों से स्पर्शित होकर अमृत को बहाते हुये ही यहाँ प्रतिष्ठा को प्राप्त होती है। इसका विशेषार्थ यह है कि पात्र को दान देने वाला श्रावक इस भव में उस दान के द्वारा लोक में प्रतिष्ठा को प्राप्त करता है। जैसे चन्द्रकांत मणि से निर्मित भवन को देखते हुये भी साधारण मनुष्य उस चंद्रकांत मणि का परिचय नहीं पाता है। किन्तु चंद्रमा का उदय होने पर जब उस भवन से पानी का प्रवाह बहने लगता है तब साधारण से साधारण मनुष्य भी यह समझ लेता है कि यह भवन चंद्रकांत मणियों से बना हुआ है। तब वह उसकी प्रशंसा करने लगता है । ठीक इसी प्रकार से विवेकी दाता जिनमंदिर आदि बनवाकर मुनियों को आहार आदि देकर अपनी संपत्ति का सदुपयोग करता है। वह यद्यपि अपनी प्रतिष्ठा की कामना नहीं करता है फिर भी उस जिनमंदिर या दान आदि के देखने वाले मनुष्य उसकी प्रशंसा करते ही हैं। यह तो हुई इस जन्म की बात, इसके साथ पात्र दान आदि शुभ कार्यों से उसको जो महान् पुण्य लाभ होता है उसके फल से वह अगले भव में भी इंद्र, चक्रवर्ती आदि के वैभव प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य धन के रहने पर भी दान देने में उत्सुक नहीं होता है, परन्तु अपने आप धर्मात्मा कहलाना चाहता है। उसके हृदय में जो कुटिलता रहती है वह परलोक में उसके सुख को समाप्त कर देती है। जैसे कि बिजली के गिरने से पर्वत चूर हो जाते है। यहाँ पर जैनाचार्यों का आदेश है कि — ह्े भव्यों ! तुम अणुव्रती होकर निरंतर अपनी संपत्ति के अनुसार एक ग्रास, आधा ग्रास अथवा चौथाई ग्रास ही क्यों न हो दान में देते ही रहो, क्योंकि यहाँ लोक में अपनी इच्छानुसार द्रव्य कब किसको प्राप्त होगा जो कि उत्तम पात्र को दान दे सके, यह कुछ कहा नहीं जा सकता है। अभिप्राय यही है कि यदि किसी के पास धन कम है तो उसमें से ही कुछ अंश दान में निकालते रहना चाहिये क्योंकि इच्छानुसार संपत्ति कभी किसी को नहीं मिलती है। लखपति, करोड़पति बनना चाहता है, करोड़पति अरबों की आशा करता है और अरब हो जाने पर खरबों की इच्छा हो जाती है उसमें भी किसी को संतोष नहीं होता है अत: जितना भी धन अपने पास है उसमें ही मुनि को आहार दान आदि देते रहना चाहिये। इस दान से ही संपत्ति बढ़ती है। प्राय: देखा जाता है कि लोग सोचा करते हैं जब मेरे पास धन अधिक हो जायेगा तब दान कर देंगे चूँकि अभि तो परिवार पोषण से ही नहीं बचता है। किंतु बात यह है कि जितना भी धन बढ़ेगा उतनी ही आवश्यकतायें, उतने ही ऐश—आराम और इच्छायें बढ़ती जायेंगी । अत: प्रत्येक मनुष्य को प्रतिदिन कुछ न कुछ दान देते ही रहना चाहिये। दान की रुचि का भी फल मिलता है— मिथ्यादृष्टि पशु की भी मुनिराज के दान में जो केवल रुचि होती है उस रुचि अथवा दान की अनुमोदन से ही वह उत्तम भोगभूमि को प्राप्त कर लेता है। जहाँ पर दश प्रकार के कल्पवृक्ष सदा उसे सभी प्रकार से अभीष्ट पदार्थ देते रहते हैं। फिर भला यदि सम्यग्दृष्टि उस पात्रदान में रुचि रखे तो उसे कौन ऐसी चीज है जो नहीं मिलेगी ? अर्थात् उसे निश्चित ही सर्ववाञ्छित फल प्राप्त हो जाते हैं। दान के योग्य संपत्ति के होने पर तथा पात्र के भी मिल जाने पर जिस मनुष्य की बुद्धि दान के लिये उत्साहित नहीं होती है वह दुर्बुद्धि खान में प्राप्त हुये भी अतिशय मूल्यवान रत्नों को छोड़कर पृथ्वी के तलभाग को व्यर्थ ही खोदता है। अर्थात् जैसे कोई मनुष्य हीरे के लिये उसकी खान को खोदे, उत्तम हीरा मिल जाये फिर भी उसे छोड़कर आगे और नीचे—नीचे खोदता ही चला जाये तो वह मूर्ख ही है। हीरे को प्राप्त कर भी छोड़ दिया और व्यर्थ ही भूमि खोदने का श्रम करता रहा है। यदि किसी के हाथ से मणि समुद्र में गिर जाये और बहुत काल के बाद उसे वह ढूँढे तो जैसे उसका मिलना कठिन है। ऐसे ही मनुष्य पर्याय, धन और जिनवाणी को पाकर भी जो दान नहीं करता है वह मूर्ख मनुष्य रत्नों को ग्रहण कर छेदवाली नाव में बैठकर समुद्र पार करना चाहता है। अर्थात् छिद्रवाली नाव में बैठने वाला नियम से समुद्र में डूब जायेगा। वैसे अतिदुर्लभ मनुष्य पर्याय, धनसंपत्ति और जैनधर्म को पाकर भी जो दान नहीं देता है तो दुर्लभ मनुष्य भव आदि को व्यर्थ ही गंवाकर दुर्गति में चला जाता है। जो पात्रदान इस भव में यश का कारण तथा पर भव में सुख का कारण है उसे जो मनुष्य धन पाकर भी नहीं करता है। उसे ऐसा समझना चाहिये कि मानो किसी पुण्यशाली मनुष्य ने अपने धन की रक्षा के लिये उसे अपना सेवक बनाकर ही नियुक्त किया है। तात्पर्य यही है कि भाग्यवश यदि संपत्ति मिली है तो उसको दानादि उत्तम कार्यों में लगाना चाहिये और आवश्यकतानुससार उसका उपभोग भी करना चाहिये। किन्तु जो स्वयं अपनी संपत्ति को दान और भोग में नहीं लगाते हैं। तो पता नहीं उस संपत्ति को आगे कौन भोगेगा ? इसीलिये आचार्यदेव का ऐसा कहना है कि मानों वह धन का स्वामी न होकर रक्षक—सेवक ही है क्योंकि धन को भोगने वाला और दान में लगाने वाला ही उसका स्वामी माना जाता है।, लोक में जो धन जिनालय के निर्माण कराने में, जिनदेव की पूजा में, आचार्य और उपाध्याय की पूजा में, संयमीजनों को दान देने में, अतिशय दु:खी प्राणियों को भी दयापूर्वक दान करने में तथा अपने उपभोग में भी काम आता है वही धन अपना धन है, यह बात निश्चित है। किन्तु इससे विपरीत जो धन इन कार्यों में नहीं लगाया जाता है वह धन किसी दूसरे का ही है ऐसा समझो। संपत्ति पुण्य के क्षय से नष्ट होती है या घटती है न कि दान करने से। अतएव हे श्रावकों ! आप निरंतर पात्रदान करते रहें। क्या आप यह नहीं जानते हैं कि कुएँ से जितना—जतना जल निकाला जाता है उतना—उतना जल बढ़ता ही चला जाता है। पूज्यजनों की पूजा में बाधा पहुँचाने वाला लोभ इस लोक और परलोक में भी सब के सर्वगुणों को नष्ट कर देता है। और वह लोभ यदि केवल गृहस्थी के विवाह आदि कार्यों में किया जाता है तो केवल एक जन्म में ही लोग उसे लोभी कहते हैं। अर्थात् जिनपूजन, पात्रदान आदि में किया गया लोभ इस भव और परभव में सर्वथा दु:खदायी है, सर्वगुणों को नष्ट कर देने वाला है क्योंकि दान पूजन से होने वाला पुण्य और कीर्ति आदि कुछ भी नहीं मिलते हैं। किन्तु जो घर कार्यों में लोभ करते हैं उसे मात्र यहीं लोग कंजूस आदि कह देते हैं किन्तु उसका परलोक नहीं बिगड़ता है समझना चाहिये। किन्तु आज लोग इससे विपरीत करते हैं। अपने घर कार्य पुत्रादि के विवाह या अन्य लौकिक कार्यों में खूब धन खर्च कर दिया करते हैं। किन्तु दान पूजन आदि के समय कृपण बन जाते हैं— सोचते हैं— अपनी गाढ़ी कमाई का धन इन कार्यों में कैसे लगा दें ? सो यह मात्र मूर्खता ही है क्योंकि दान पूजन में खर्चा गया धन अपना बन गया है और वह आगे असंख्या गुणा होकर फलेगा किन्तु ‘खाय खोया बह गया’ इस सूक्ति के अनुसार अपने भोग में लगाया गया धन व्यर्थ ही चला गया है ऐसा निश्चित समझकर सदैव दानादि उत्तम कार्यों में धन का सदुपयोग करते रहना चाहिये।
धन का सच्चा सदुपयोग
मनुष्य धन को बहुत कठोर परिश्रम से कमाते हैं। इसलिये वह धन उन्हें प्राणों से भी अधिक प्रिय होता है। यदि वे उसका सदुपयोग पात्रदान आदि में करते हैं तब तो वह उन्हें फिर से भी प्राप्त हो जाता है, किन्तु इसके विपरीत यदि उसका दुरुपयोग दुव्र्यसनादि में किया जाता हैअथवा दान और भोग से रहित केवल उसका संचय ही किया जाता है, तो वह मनुष्यों को विपत्तिजनक ही होता है। इसका कारण यह है कि सुख का कारण जो पुण्य है उसका संचय उन्होंने पात्रदानादि रूप सत्कार्यों द्वारा कभी किया ही नहीं है। तुम्हारा धन अपने स्थान से एक कदम भी नहीं जाता, इसी प्रकार तुम्हारे बंधुजन श्मशान तक तुम्हारे साथ जाकर वहाँ से वापिस आ जाते हैं। लंबे मार्ग में प्रवास करते हुये तुम्हारे लिये एक पुण्य ही मित्र होगा। इसलिये हे भव्यजीव! तुम उसी पुण्य का उपार्जन करो। सौभाग्य, शूरवीरता, सुख, सुन्दरता,विवेकबुद्धि आदि, विद्या, शरीर, धन और महल तथा उत्तमकुल में जन्म होना, यह सब निश्चय में पात्रदान के द्वारा ही प्राप्त होता है। फिर हे भव्यजन! तुम उस पात्रदान के विषय में निरंतर प्रयत्न क्यों नहीं करते हो ? ‘प्रथमत: यहाँ धन से कुछ निक्षेप (भूमि में गाड़ देना), भवन का निर्माण और पुत्र का विवाह करना है, तत्पश्चात यदि अधिक धन हुआ तो धर्म के निमित्त दान करूँगा।’ इस प्रकार विचार करता हुआ यह अज्ञ गृहस्थ मरण को प्राप्त हो जाता है। लोक में जिस कंजूस मनुष्य का शरीर भोग और दान से रहित ऐसे धनरूपी बंधन से बंधा हुआ है उसके जीने का क्या प्रयोजन है ? अर्थात उसके जीने से कुछ भी लाभ नहीं है। उसकी अपेक्षा तो वह कौवा ही अच्छा है जो उन्नत बहुत से वचनों (कांव—कांव) द्वारा अन्य कौवों के समूह को बुलाकर ही बलि (श्राद्ध में अर्पित द्रव्य) को खाता है। मृत्यु को प्राप्त होने पर शंख के समान जिस पुरुष का नाम संसार में अतिशय प्रचलित नहीं होता वह मनुष्य जन्म लेकर भी अजन्मा के समान होता है। अर्थात् उसका मनुष्य जन्म लेना व्यर्थ होता है। कारण कि वह लक्ष्मी को प्राप्त करके भी दरिद्री ही है। तथा दोषों से रहित होकर भी यशस्वी नहीं हो पाता है। अपने कर्म के अनुसार कुत्ता भी उदर को भर लेता है। और राजा भी अपना उदर पूर्ण कर लेता है। किन्तु प्रशंसनीय मनुष्यभव, धन एवं विवेकबुद्धि को प्राप्त करने का यहाँ यही प्रयोजन है कि निरंतर पात्रदान दिया जावे। दानी पुरुषों के हाथों द्वारा परंपरा से प्राप्त हुये जाने—आने के विपुल खेद के भार से मानों अत्यंत व्याकुल होकर ही वह धन कंजूस मनुष्य के घर को पाकर अनंतसुख से परिपूर्ण होता हुआ निरंतर निर्बाधस्वरूप से सोता है। मतलब यह है कि दानी लोग अपने धन का उपयोग पात्रदान में किया करते हैं। इसीलिये उस दान के पुण्य से वह धन उन्हें बार—बार प्राप्त होता रहता है। इसके विपरीत कंजूस मनुष्य पूर्व पुण्य से प्राप्त हुये उस धन का उपयोग न तो पात्रदान में करता है और न निज के उपभोग में ही। मात्र वह उस धन का संरक्षण ही करता रहता है। इसी को आचार्यदेव ने उत्प्रेक्षालंकार शब्दों में वर्णित किया है कि वह धन यह सोचकर ही मानों कंजूस के घर में विश्राम करता है कि ‘‘मुझे दानी के घर में बार—बार जाने आने का असीम कष्ट सहना पड़ता है यहाँ मैं इस कंजूस के घर में अब शांति से नींद ले लूँ।’’ क्योंकि वह धन कंजूस के घर में गमनागमन के श्रम से बच जाता है। सत्पात्र के तीन भेद हैं— उत्तम, मध्यम और जघन्य। गृह से रहित मुनि उत्तम पात्र हैं। अणुव्रतों से युक्त श्रावक मध्यम पात्र हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र हैं। सम्यग्दर्शन से रहित होकर व्रतों का पालन करने वाले कुपात्र हैं और सम्यग्दर्शन तथा व्रत इन दोनों से रहित मनुष्य अपात्र हैं । इन उपर्युक्त पात्रों के लिये दिये गये दान का फल मनुष्यों को इन्हीं उत्तम, मध्यम, जघन्य, कुत्सित और अपात्र विशेषणों से विशिष्ट प्राप्त होता है। अथवा बहुत कहने से क्या ? अन्य प्रकार से दूषित हृदय में भी वह दान का फल स्वभाव से अनेक प्रकार का प्राप्त होता है। उत्तम, मध्यम, जघन्य पात्रों में दान देने वाले यदि मिथ्यादृष्टि हैं तो वे क्रम से उत्तम, मध्यम, और जघन्य भोगभूमि में जन्म ले लेते हैं। यदि दाता सम्यग्दृष्टि हैं तो स्वर्ग के सुख प्राप्त करते हैं। कुपात्रों को दान देने वाले कुभोगभूमि में चले जाते हैं और अपात्र में जो दान देते हैं उनका दान व्यर्थ चला जाता है। इससे अतिरिक्त जो अंधे, अपंग, बहिरे, आदि दु:खी जीवों को करुणाबुद्धि से दान देते हैं उन्हें भी यथायोग्य पुण्य बंध होता है। अभयदान ,औषधिदान, आहारदान और शास्त्रदान ये चार दान महान् फल को देने वाले हैं। इनसे भिन्न गाय, सुवर्ण, पृथ्वी, रथ और स्त्री आदि के दान महान् फल को देने वाले नहीं हैं। क्योंकि वे निश्चय से पाप के उत्पादक हैं। हाँ, जिनालय के निमित्त जो कुछ पृथ्वी आदि का दान किया जाता है वह यहाँ धार्मिक संस्कृति का कारण होकर अंकुरित होता हुआ अतिशय दीर्घ काल तक रहता है। इसलिये उस दाता के द्वारा जैनशासन ही किया गया है। जो निर्दोष दान का प्रकाश समस्त लोगों को सुख देने वाला है वह पाप कर्म की कार्यभूत कृपणता से परिपूर्ण हृदय वाले— कंजूस मनुष्य को कभी नहीं रुचता है। जिस प्रकार कि दोषा—रात्रि के संसर्ग से रहित सूर्य का तेज संपूर्ण प्राणियों को सुख देने वाला है।किन्तु उल्लू को अच्छा नहीं लगता है । अतएव यह दान का उपदेश आसन्न भव्य को तो आनंद करने वाला है किन्तु दूर भव्य अथवा अभव्य को नहीं। सो ठीक ही है क्योंकि भ्रमरों के संसर्ग से मालती पुष्प ही शोभित होता है, काष्ठ नहीं। तथा चन्द्रकिरणों के संसर्ग से श्वेत कमल प्रपुल्लित होता है किन्तु पत्थर प्रपूल्लित नहीं हो सकता। इस प्रकार से रत्नत्रय रूप आभरण से विभूषित श्रीवीरनंदी मुनिराज के उभय चरण कमलों के स्मरण से उत्पन्न हुये प्रभाव को धारण करने वाले श्रीपद्मनंदी मुनिराज ने ललितवर्णों से युक्त ५२ पद्यों में यह दान का प्रकरण कहा है। अर्थात् यह दान का सारा वर्णन पद्मनंदि आचार्य ने अपनेयद्दीयते जिनगृहाय धरादि विंâचित् तत्तत्र संस्कृतिनिमित्तमिह प्ररूढम् । आस्ते ततस्तदतिदीर्धतरं हि कालं जैनं हि शासनमत: कृतमस्ति दातु:।।५१।। ‘‘पद्मनंदिपंचविंशतिका’’ ग्रन्थ में कहा है उसी के आधार से यहाँ लिया गया है।