भारतीय संस्कृति का मूलतः अध्ययन करने वाले उच्चकोटि के चिन्तक एवं मनीषी लेखकों ने श्रमण संस्कृति को प्राथमिक स्थान दिया है और दे भी रहे हैं। ऋग्देव से लेकर उपनिषद्, आगमनिगम एवं पुराण एक स्वर से यही घोषणा करते आ रहे हैं कि भारतीय संस्कृति के मूल में श्रमण धर्म या श्रमण-संस्कृति है।
देश-विदेशों में हजारों दिगम्बर महात्मा यत्र-तत्र भ्रमण करते थे। उन तपस्वियों के चरणों में सहज ही सबका माथा झुक जाता था।
एक समय वह भी आया कि मांडवी जिला सूरत में सरकार ने दिगम्बर मुनियों के स्वतंत्र विहार में बाधा उत्पन्न की और उसके फलस्वरूप ऐतिहासिक सत्य को उजागर करने एवं दिगम्बरत्व की सुरक्षा हेतु श्रीयुत बाबू कामताप्रसादजी जैन (एम० आर० ए० एल०) ने ‘दिगम्बरत्व और दिगम्बर’ मुनि नामक एक पुस्तक लिखकर तैयार की। जिसका प्रथम प्रकाशन सन् १९३२ में श्री भा० दिग० जैन शास्त्रार्थ संघ द्वारा करवाया गया ।
पुस्तक की उपयोगिता के बारे में लेखक लिखते हैं कि मैंने तो मात्र धर्म भाव से प्रेरित होकर सत्य के प्रचार के लिए उसको लिख दिया है। हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, यहूदी सब ही प्रकार के लोग इसे पढ़ें और अपनी बुद्धि की तर्क (तराजू) पर उसे तोलें और फिर देखें दिगम्बरत्व मनुष्य समाज की भलाई के लिए कितनी जरूरी और उपयोगी चीज है।
प्रस्तुत पुस्तक में प्रामाणिक इतिहास को संजोया गया है संक्षिप्त में यह पुस्तक प्रत्येक जैन बन्धु एवं अन्य धर्मावलम्बी के लिए अवश्य पठनीय है।
इस कृति में लेखक ने १०६ ग्रन्थों/पुस्तकों के संदर्भ देकर प्रामाणिक दस्तावेज प्रस्तुत कर दिया है |