कुछ समय चर्चा के उपरान्त महाराज (मुनि श्री वर्धमानसागर जी, जो आचार्य शांतिसागर महाराज के गृहस्थावस्था के ज्येष्ठ बंधु थे) भगवान के जन्मकल्याणक महोत्सव के लिए चले। वे साधुराज वृद्ध पितामह सदृश ईर्यापथशुद्धिपूर्वक बहुत धीरे-धीरे बड़ी सावधानी से पैर उठाते हुए दो सौ गज की दूरी पर स्थित विशाल पाण्डाल में पहुँचे। जन्मकल्याणक का पावन दृश्य देखकर भिन्न-भिन्न प्रान्तोें से आगत जनता हर्षित हो रही थी। चार दिगम्बर मुनिराज वहाँ थे। क्षुल्लक एवं आर्यिका आदि उच्च त्यागी समुदाय पचास से अधिक संख्या में उस पावन प्रसंग पर विद्यमान था। कोल्हापुर मठ के स्वामी क्षुल्लक जिनसेन महाराज तथा श्री भट्टारक लक्ष्मीसेन महाराज भी थे, जिनके तत्त्वावधान में पंचकल्याणक का कार्य हो रहा था। मैं भी शास्त्र में वर्णित जिनेन्द्र पंचकल्याणक और मेरु पर किये गये प्रभु के अभिषेक आदि के पावन प्रसंग को अपने स्मृति पटल में लाकर देखता था। मैं वर्धमानसागर महाराज के चरणों के पास ही बैठा था। बार-बार आँखें उनके मनोज्ञ वीतराग मुखमण्डल पर जाती थीं। एक प्रश्न मन में आया। कुछ देर तक तो मैंने उसे दबाया किन्तु तीव्र इच्छा होने पर मैंने वर्धमानसागर महाराज से निवेदन किया।
प्रश्न-‘‘भगवान के जन्मकल्याणक का वैभव गृहस्थ आदि लौकिक जनों को स्वभावत: अच्छा लगेगा। आप परम तपस्वी हैं, इसलिए तपकल्याणक आपको प्रिय होना था, जन्मकल्याणक में आने से आपको क्या लाभ हुआ?’’पहले तो मैं सोचता था कि मेरा प्रश्न कहीं अर्थ का अनर्थ न कर दे; क्योंकि कभी-कभी कई विचित्र बुद्धिमान लोग ऐसा करके अमृत को विष बनाने में आनन्द लेते हैं; किन्तु यहाँ मुझे कोई भय नहीं था। कारण, मैं महाराज को जानता था कि वे शांति के सागर गुरुदेव के छोटे नहीं, बड़े भाई हैं। वे मुझे भी जानते थे, इसलिए मेरा प्रश्न महाराज ने बड़े प्रेम से सुना।
प्रश्न-‘‘उन्होंने मुझ से पूछा, यह बताओ हम जगत् में हैं या जगत् के बाहर हैं?’’
उत्तर-मैं गहरे विचार में पड़ गया कि महाराज क्या पूछ रहे हैं? मेरा प्रश्न कुछ और है और उस पर प्रतिप्रश्न कुछ विलक्षण है। क्या उत्तर दूँ ? सोचकर मैंने कहा-‘‘महाराज! आप जगत् में हैं।’’
तब उन्होंने कहा-‘‘ठीक बात है, हम जगत् में हैं। तब जिनेन्द्र भगवान के जन्म होने पर सुर, असुर, देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, नारकियों को भी सुख और शान्ति मिली; सभी जीवों को आनन्द मिला, तो बताओ हमको क्यों नहीं आनन्द मिलेगा?’’ उनके उत्तर को सुनकर मैं तो आनन्दविभोर हो गया और मैंने उनकी साधुत्व से प्रेरणाप्राप्त प्रतिमा को प्रणाम किया। औरों को भी यह उत्तर सुनाया। सुनते ही सब बड़े प्रसन्न हुए।
-स्व. पं. सुमेरचंद दिवाकर
(सिवनी-म.प्र.)