सिद्धपद के इच्छुक जो महापुरुष पंंचेन्द्रिय के विषयों की इच्छा समाप्त करके सम्पूर्ण आरम्भ और परिग्रह का त्याग कर देते हैं तथा ज्ञान, ध्यान और तप में सदैव तत्पर रहते हैं, वे ही मुक्तिपथ के साधक होने से सच्चे साधु कहलाते हैं। वे महामना दिगम्बर अवस्था को धारण कर लेते हैं। उनकी चर्या स्वावलम्बी होती है। उनकी जितनी भी क्रियायें रहती हैं उनसे किसी भी मनुष्य को अथवा तिर्यंच को या किसी भी पशु-पक्षी आदि जन्तुओं को यहाँ तक कि क्षुद्र कीट आदिकों को भी बाधा नहीं पहुँचती है बल्कि सभी को सुख, शान्ति और अभय मिलता है। किसी संप्रदाय विशेष को भी इन दिगंबर मुनियों द्वारा बाधा नहीं पहुँचती है क्योंकि किसी न किसी रूप में सभी संप्रदायों में त्याग को और यथाजात प्रकृतिरूप (नग्नत्व) को महत्व दिया ही है इसीलिये ये दिगंबर मुनि सर्वत्र और सभी के द्वारा पूज्य होते हैं। विश्व के सभी संप्रदाय के मनुष्य ही क्या व्याघ्र, सर्प आदि क्रूर तिर्यंच पशु भी इनके आश्रय में शांति का अनुभव करते हैं। कहा भी है-
सारंगी सिंहशावं स्पृशति सुतधिया नंदनी व्याघ्रपोतं।
मार्जारी हंसवालं प्रणयपरवशा केकिकांता भुजंगीं।।
वैराण्याजन्मजातान्यपि गलितमदा जंतवोऽन्ये त्यजंति।
श्रित्वा साम्यैकरूढं प्रशमित कलुषं योगिनं क्षीणमोहम्।।
कलुषता को शांत कर देने वाले मोहरहित और एक साम्यभाव में आरूढ़ हुए ऐसे योगी का आश्रय लेकर हरिणी सिंह के बच्चे को पुत्र के भाव से स्पर्श करती है। गाय व्याघ्र के बच्चे को, बिल्ली हंस के शिशु को और मयूरनी सर्प के बालक को बड़े प्रेम से खिलाती है। यहाँ तक कि अन्य जन्तु भी मदरहित होते हुये भी जन्मजात वैर को भी छोड़ देते हैं अर्थात् योगी तीन प्रकार के होते हैं-निष्पन्न, घटमान और प्रारब्धमान। जो पूर्णतया योग में सफल हो चुके हैं उनमें उपर्युक्त विशेषताएँ आ जाती हैं, वे निष्पन्न कहलाते हैं। दूसरे योगसिद्धि की मध्यम स्थिति तक पहुंचे हुए घटमान हैं और तीसरे योग के अभ्यास में तत्पर होने से प्रारब्धमान हैं। वर्तमान में यद्यपि तृतीय श्रेणी वाले साधु होते हैं, फिर भी उनसे जनता का हित ही होता है अहित नहीं।
इन तीनों प्रकार के साधुओं को स्वर्ग के इन्द्र, देव और दानव भी नमस्कार करते हैं। यही कारण है कि इस धरती पर विचरण करते हुये ये ‘‘धरती के देवता’’ माने जाते हैं।
१. ज्ञानार्णव-चूंकि इस पृथ्वीतल पर विहार करते हुए ये मुनि पंचेंद्रिय से लेकर वनस्पति, वृक्ष, अग्नि आदि एकेंद्रिय जीवों तक की रक्षा करते हैं उन्हें अभयदान-जीवनदान देते हैं, ये परमकारुणिक मुनि विश्ववंद्य, जगद्गुरु भी कहलाते हैं क्योंकि इनका धर्म सभी जीवों का हित करने वाला होने से वह सार्वधर्म या विश्वधर्म कहलाता है। इन मुनियों की चर्या वैâसी होती है, देखिये-
जीवनचर्या- ये जिन गुणों का पालन करते हैं उन्हें मूलगुण कहते हैं। जैसे मूल के बिना वृक्ष की एवं नींव के बिना महल की स्थिति नहीं है उसी प्रकार से इन गुणों के बिना कोई भी व्यक्ति वेषमात्र से साधु नहीं हो सकता है। इन मूलगुणों के अट्ठाईस भेद होते हैं।
पांच महाव्रत, पांच समिति, पांच इन्द्रियनिरोध, केशलोंच, षट् आवश्यक, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदंतधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त।
जो महान-सर्वोत्तम व्रत हैं अथवा जो तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि महापुरुषों के द्वारा भी पाले जाते हैं अथवा जो महान पुरुषार्थ अर्थात् अन्तिम मोक्ष पुरुषार्थ के लिये कारण हैं वे महाव्रत कहलाते हैं। पूर्णरूप से पांचों पापों का त्याग कर देना ही महाव्रत है।
सम-सम्यक् प्रकार से इति-प्रवृत्ति समिति कहलाती है अर्थात् चलने, बोलने, भोजन करने आदि प्रवृत्तियों में प्रमाद छोड़कर सावधानी से प्रवृत्ति करना ही समिति है।
स्पर्शन, रसना आदि इन्द्रियों को अपने वश में रखना, उनके इष्ट-अनिष्ट विषयों में राग, द्वेष नहीं करना ही इन्द्रियनिरोध व्रत है।
अवश्य करने योग्य क्रियायें आवश्यक कहलाती हैं। इसके समता-सामायिक, वंदना आदि छह भेद हैं। अन्य शेष जो सात गुण हैं उनके नाम के अनुसार ही उनका अर्थ है। प्रत्येक का स्पष्टीकरण देखिये-
(१) अहिंसा महाव्रत-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस इन षट्कायिक जीवों की हिंसा का मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से पूर्णतया त्याग कर देना अहिंसा महाव्रत है। इस महाव्रत में सम्पूर्ण आरम्भ और परिग्रह का त्याग हो जाता है।
(२) सत्य महाव्रत-राग, द्वेष, क्रोध आदि से युक्त असत्य वचनों का त्याग करना और अन्य को संतापकारी ऐसे सत्य वचन भी नहीं बोलना सत्य महाव्रत है।
(३) अचौर्य महाव्रत-बिना दिये हुए किसी की किसी भी वस्तु को ग्रहण नहीं करना अचौर्य महाव्रत है।
(४) ब्रह्मचर्य महाव्रत-कामसेवन का त्याग कर पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहना, बालिका, युवती और वृद्धा में पुत्री, बहन और माता के समान भाव रखना यह त्रैलोक्यपूज्य महाव्रत है।
(५) अपरिग्रह महाव्रत-धन-धान्य आदि बहिरंग और मिथ्यात्व आदि अंतरंग परिग्रह का त्याग करना अपरिग्रह महाव्रत है।
(६) ईर्या समिति-निर्जंतुक मार्ग से सूर्योदय के प्रकाश में चार हाथ आगे जमीन देखकर चलना ईर्या समिति है।
(७) भाषा समिति-चुगली, हंसी, कर्कश, परनिंदा आदि से रहित हित-मित-प्रिय और संदेह रहित वचन बोलना भाषा समिति है।
(८) एषणा समिति-छ्यालीस दोष और बत्तीस अंतराय से रहित, नवकोटि से शुद्ध श्रावक के द्वारा दिया गया ऐसा प्रासुक निर्दोष पवित्र आहार लेना एषणा समिति है।
(९) आदाननिक्षेपण समिति-पुस्तक, कमंडलु, पाटा, चटाई आदि को रखते या उठाते समय कोमल पिच्छिका से परिमार्जन करके रखना, उठाना आदाननिक्षेपण समिति है।
(१०) उत्सर्ग समिति-हरी घास, चींटी आदि या उनके बिलों से रहित निर्जंतुक एकांत स्थान में मलमूत्रादि विसर्जित करना उत्सर्ग समिति है।
(११) स्पर्शनेन्द्रियनिरोध-कोमल स्पर्शादि या कंकरीली भूमि आदि में हर्ष-विषाद नहीं करना स्पर्शन इन्द्रिय निरोधव्रत है।
(१२) रसनेन्द्रियनिरोध-सरस-मधुर भोजन में या नीरस-शुष्क भोजन में आनंद या खेद नहीं करना रसना इन्द्रिय निरोधव्रत है।
(१३) घ्राणेन्द्रियनिरोध-सुगन्धित या दुर्गन्धित वस्तु में राग-द्वेष नहीं करना घ्राणेन्द्रिय विजय व्रत है।
(१४) चक्षुइंद्रिय निरोध-स्त्री आदि के सुन्दर रूप या विकृत वेष आदि में रागभाव और द्वेषभाव नहीं करना चक्षुइन्द्रिय निरोध है।
(१५) कर्णेन्द्रिय निरोध-सुन्दर-सुन्दर गीत, वाद्य तथा असुन्दर निंदा, गाली आदि के वचनों में हर्ष, विषाद नहीं करना कर्णेन्द्रिय निरोध व्रत है।
(१६) समता-जीवन, मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख आदि में हर्ष नहीं करना-समान भाव रखना समता है। इसे ही सामायिक आवश्यक कहते हैं। त्रिकाल में देववंदना करना भी सामायिक है यह कम से कम ४८ मिनट तक की जाती है।
(१७) स्तव-वृषभदेव आदि तीर्थंकरों की स्तुति करना स्तुति आवश्यक है।
(१८) वंदना-अर्हंत, सिद्ध एवं उनकी प्रतिमा, जिनवाणी और गुरू को कृतिकर्म (विधिवत् भक्ति पाठ) पूर्वक नमस्कार करना वंदना है।
(१९) प्रतिक्रमण-व्रतों में अतिचार आदि लगने पर उनका शोधन करना प्रतिक्रमण है। इसके दैवसिक आदि सात भेद हैं।
(२०) प्रत्याख्यान-भविष्य के दोषों का त्याग करना प्रत्याख्यान है। आहार के अनंतर गुरू के पास पुन: आहार करने तक जो चतुराहार का त्याग किया जाता है अथवा किसी भी वस्तु का जो त्याग किया जाता है वह भी प्रत्याख्यान है।
(२१) कायोत्सर्ग-काय-शरीर से ममत्व का उत्सर्ग-त्याग करना कायोत्सर्ग है। यह सत्ताईस आदि उच्छ्वासों में णमोकार मंत्र के स्मरणरूप होता है।
(२२) लोच-हाथों से सिर, दाढ़ी और मूंछों के केशों का उखाड़ना केशलोंच है।
(२३) अचेलकत्व-सूती, रेशमी आदि वस्त्रों का त्याग करना अचेलकत्व है।
(२४) अस्नानव्रत-स्नान, उबटन आदि का त्याग करना अस्नान व्रत है।
(२५) क्षितिशयन-निर्जंतुक भूमि में या शिला पर या घास, पाटा अथवा चटाई पर शयन करना क्षितिशयनव्रत है।
(२६) अदंतधावन-दंत, मंजन आदि नहीं करना अदंतधावन व्रत है।
(२७) स्थितिभोजन-पावों में चार अंगुल का अंतराल रखकर खड़े होकर हाथ की अंजुली में आहार ग्रहण करना स्थितिभोजन व्रत है।
(२८) एकभक्त-सूर्योदय से तीन घड़ी बाद से सूर्यास्त के तीन घड़ी पहले तक के काल में से दिन में एक बार आहार लेना एकभक्त व्रत है।
जब कोई भी व्यक्ति मुनिपद में दीक्षित होना चाहता है तब गुरुदेव उसे जनमानस के समक्ष विधिवत् दीक्षा देते हुए अट्ठाईस मूलगुणों को पालन करने का नियम देते हैं। जीवदया हेतु मयूर पंख से निर्मित पिच्छी, शुद्धि के लिए काठ (लकड़ी या नारियल) का कमंडलु और सच्चे ज्ञानवर्धन के लिए शास्त्र देते हैं।
महाभारत में कहा है कि युद्ध के लिये प्रस्थान के समय श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-
‘‘आरोरूह रथं पार्थ ! गांडीवं चापि धारय।
निर्जितां मेदिनीं मन्ये निर्ग्रंथो गुरुरग्रत:।’’
हे अर्जुन ! तुम रथ पर चढ़ जाओ और गांडीव-धनुष को भी धारण करो । मैं इस पृथ्वी को जीती हुई ही समझ रहा हूँ चूंकि निर्ग्रंथ मुनि सामने दिख रहे हैं।
ज्योतिष शास्त्र में भी कहा है-
पद्मिनी राजहंसाश्च निर्ग्रन्थाश्च तपोधना:।
यद्देशमभिगच्छंति तद्देशे शुभमादिशेत्।।
पद्मिनी स्त्रियाँ, राजहंस और निर्ग्रंथ तपोधन जिस देश में पहुंचते हैं उस देश में शुभ-मंगल हो जाता है।
१ईस्वी सन् ९-१० शताब्दी में जब अरब का सुलेमान नामक यात्री भारत में आया तो उसने भी यहाँ नग्न साधुओं को एक बड़ी संख्या में देखा था। सारांशत: मध्यकालीन हिन्दू काल में दिगम्बर मुनियों का भारत में बाहुल्य था।
पुरातत्त्व में भी दिगंबर मुनियों का अस्तित्व अंकित है।
मथुरा का पुरातत्व ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी तक का है। वहाँ पर प्राय: सभी मूर्तियां नग्न दिगम्बर हैं। एक स्तूप के चित्र में जैनमुनि नग्न, पिच्छी व कमंडलु लिए हुए दिखाये गये हैं। उन पर के लेख दिगम्बर मुनियों के द्योतक हैं।
राजगृह (बिहार) आदि के पुरातत्त्वों में भी दिगंबर मुनियों की मूर्तियां और लेख उपलब्ध हैं। महाराष्ट्र, दक्षिण, केरल, गुजरात आदि में दिगम्बरों का अस्तित्व अतिप्राचीन सिद्ध है।
अजंता और एलोरा की गुफाओं में दिगंबर मूर्तियां अगणित हैं। श्रवणबेलगोल के प्राय: सभी शिलालेख दिगम्बर मुनियों की ही कीर्ति गा रहे हैं।
‘‘लंका में२ ईस्वी पूर्व चौथी शताब्दी में हिंसल नरेश पांडु ने वहाँ के राजनगर अनिरुद्धपुर में एक जैनमन्दिर और जैन मठ बनवाया था। इक्कीस राजाओं के राज्य तक वह मन्दिर और मठ मौजूद रहा किन्तु ईस्वी पूर्व ३८ में राजा वट्टमामिनी ने उन्हें नष्ट कराकर उनके स्थान पर बौद्ध विहार बनवाया था।’’
मुसलमानी बादशाहत में भी दिगंबर मुनियों का विहार निर्बाध था। बादशाह अलाउद्दीन३ के दरबार में दिगम्बर जैनाचार्य ने षट्दर्शनवादियों से शास्त्रार्थ करके विजय प्राप्त की थी।
बादशाह ४औरंगजेब ने भी दिगंबर मुनियों का सम्मान किया था।
ब्रिटिश ५शासनकाल में दिगंबरों का विहार बेरोक-टोक था। महारानी विक्टोरिया ने अपनी नवम्बर सन् १८५८ की घोषणा में यह बात स्पष्ट कह दी थी कि ब्रिटिश की छत्रछाया में प्रत्येक जाति और धर्म के अनुयायी को अपनी परंपरागत धार्मिक और सामाजिक मान्यताओं को पालन करने में पूर्ण स्वाधीनता होगी और कोई भी सरकारी कर्मचारी किसी के धर्म में हस्तक्षेप नहीं करेगा।
आज भी दिगम्बर मुनियों का विहार भारत के कोने-कोने में निराबाध रूप से हो रहा है। सन् १९३४ में दिगम्बर आचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर महाराज ने दिल्ली में चातुर्मास किया था। आज भी दिल्ली, कलकत्ता, बम्बई, मद्रास, इन्दौर, जयपुर आदि शहरों में दिगंबर साधुओं के चातुर्मास होते रहते हैं।
निष्कर्ष यही निकलता है कि सभी संप्रदायों में दिगम्बरत्व-नग्नत्व को निराकुलता का और आत्म शांति का साधन स्वीकार किया है और इस वेष को महत्व दिया है।
इसीलिये तो गुणभद्रस्वामी लिखते हैं कि-
अर्थिनो धनसंप्राप्य धनिनोप्यवितृप्तित:।
कष्टं सर्वेऽपि सीदंति परमेको मुनि: सुखी।।
धन के इच्छुक (निर्धन) धन को नहीं प्राप्त करके दुखी होते हैं और धनी भी तृप्ति के न होने से दुखी हैं। हा ! बड़े खेद की बात है कि संसार में सभी दुखी हो रहे हैं किन्तु उनमें एक मुनि ही सुखी हैं।
क्योंकि इनकी चर्याएँ स्वावलम्बी होने से वर्तमान में भी इनको सुख देने वाली हैं और परलोक में तो वे सुखी होते ही हैं तथा परम्परा से सर्वकर्म बन्धन से छूटकर पूर्ण स्वातंत्र्य सुख प्राप्त करके सदा-सदा के लिये पूर्ण सुखी हो जाते हैं।
अभी ये धरती पर पूज्य होने से ‘‘धरती के देवता’’ हैं, कालांतर में तीनों जगत् के गुरू भगवान् बनकर त्रिभुवन के देव परमपिता परमात्मा हो जाते हैं और उनका आश्रय लेने वाले भक्तगण भी कभी न कभी उन्हीं के सदृश पूर्ण सुखी हो जाते हैं।