।।ॐ नम: सिद्धेभ्य:।।
मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र पर १०८ फुट भगवान ऋषभदेव की अंतर्राष्ट्रीय पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं महामस्तकाभिषेक महोत्सव के अवसर पर माघ शु. १३, वीर नि. सं. २५४२, दिनाँक-२०-२-२०१६
-सान्निध्य-
प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी
परम्परा के सप्तम पट्टाचार्य
श्री अनेकांतसागर जी महाराज ससंघ
-सान्निध्य-
१०८ फुट श्री ऋषभदेव मूर्ति निर्माण
एवं महामहोत्सव प्रेरणा
गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ससंघ
उपस्थिति – १२५ साधु-साध्वीगण
विश्व में सबसे ऊँची अखण्ड पाषाण की १०८ फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव प्रतिमा पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र (नासिक) महा. में निर्मित की गई है तथा इस प्रतिमा का अंतर्राष्ट्रीय पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं महामस्तकाभिषेक महोत्सव दिनाँक ११ फरवरी से ६ मार्च २०१६, माघ शु तृतीया से फाल्गुन कृ. द्वादशी तक आयोजित किया गया। आयोजन के मध्य अनेक आचार्य संघ, आर्यिका संघ एवं क्षुल्लक–क्षुल्लिका तथा भट्टारकों का पावन सान्निध्य प्राप्त हुआ।
इस शुभ अवसर पर २० फरवरी, माघ शु. द्वादशी को दिगम्बर जैन साधु सम्मेलन एवं चतुर्विध संघ सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें समस्त संतों के सान्निध्य में निम्न प्रस्ताव समाज हित में पारित किये गये।
(१) सम्मेलन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि अब से ५०० साल पहले के आचार्यों द्वारा लिखे हुए किसी भी ग्रंथ में कोई परिवर्तन अथवा संशोधन किसी के द्वारा भी नहीं किया जाये
। जैसे गौतम स्वामी के शब्दों में ‘‘देवा वि तस्स पणमंति’’ मूलपाठ के स्थान पर परिवर्तन कर दिया गया। इसी प्रकार से अन्य प्रतिक्रमण आदि पाठों में व्याकरण अथवा स्वयं की तर्कणा लगाकर परिवर्तन किया जा रहा है, जो कि उपयुक्त नहीं है।
इससे अनवस्था दोष आयेगा। आगे चलकर कोई भी विद्वान अथवा कोई भी साधु किसी भी ग्रंथ में कुछ भी परिवर्तन करके अपने मनमुताबिक कर देंगे, जिससे आचार्यों के द्वारा लिखित ग्रन्थों का मूल स्वरूप नष्ट हो जायेगा।
(२) सम्मेलन में यह भी तय किया गया कि वर्ष १९५० से पहले के बने हुए मंदिरों का आवश्यकतानुसार जीर्णोद्धार करना तो ठीक है लेकिन उसके पुरातत्त्व को समाप्त नहीं करना चाहिए अर्थात् पुरातात्त्विक दृष्टि से प्राचीन मंदिरों को तोड़ना प्रतिबंधित होना चाहिए।
(३) वर्तमान में दि. जैन समाज में दो पंथ प्रचलित हैं। बीसपंथ एवं तेरहपंथ। सम्मेलन में यह तय किया गया कि जहाँ जिस तीर्थ पर जो आम्नाय शताब्दियों से चली आ रही है, वहाँ उसी आम्नाय अनुसार पूजा-पद्धति कायम रखना चाहिए। कुण्डलपुर, सोनागिर, बावनगजा एवं चांदखेड़ी आदि अनेक मंदिरों में बीस पंथ परम्परा से पंचामृत आदि होता आया है।
वहाँ पर नई कमेटी बनाकर प्राचीन आर्षपरम्परा अर्थात् बीसपंथ परम्परा को बंद करके तेरहपंथ परम्परा लागू किया जा रहा है ऐसा नहीं होना चाहिए। भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी द्वारा सभी तीर्थों को चिन्हित कर देना चाहिए कि पूर्व में कौन से क्षेत्र बीसपंथी रहे हैं तथा कौन से तेरहपंथी रहे हैं तथा जिन क्षेत्रों पर वर्तमान में बीसपंथ की जगह तेरहपंथ किया गया है, उसे वापस अपने मूल स्वरूप में लाना चाहिए।
कोई भी तीर्थ या मंदिर बीसपंथी हो या तेरहपंथी, जहाँ शासन देव-देवी, पद्मावती, धरणेन्द्र, क्षेत्रपाल, अम्बिका देवी, चक्रेश्वरी आदि विराजमान हों, उन्हें यथावत रहना चाहिए। इनमें किसी के द्वारा हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। इसी प्रकार से जिस मंदिर में या जिस तीर्थ पर हरे फल, पूâल चढ़ाने की परम्परा है, पंचामृत अभिषेक की एवं महिलाओं द्वारा अभिषेक की परम्परा है, उसमें महिलाओं को अभिषेक करने का निषेध नहीं करना चाहिए। कहीं-कहीं पर महिलाओं के गर्भगृह में जाने का निषेध करते हैं। जबकि महिलाएं साधुओं को आहार देती हैं, पूजन-अभिषेक करती हैं।
तो गर्भगृह में जाने का निषेध नहीं करना चाहिए। मासिक धर्म के अतिरिक्त समय में महिलाओं को शुद्ध मानना चाहिए। मंदिर जाना, पूजन-अभिषेक करना, साधुओं को आहार देने के समान गर्भगृह में जाना आगम सम्मत है। प्राचीन मंदिरों में जहाँ-जहाँ भगवान की प्रतिमाओं के आजू-बाजू अथवा पिलर आदि में शासन देव-देवी आदि की प्रतिमाएँ बनी हुई हैं, उन्हें हटाना या खंडित करना उपयुक्त नहीं है। श्रावकजन जनेऊ पहनकर ही भगवान का अभिषेक करें और आहार दान देवें। अन्तर्जातीय, विजातीय, विधवा विवाह वालों से आहार नहीं लेना तथा उन्हें भगवान के अभिषेक का अधिकार नहीं देना।
(४) महाराष्ट्र एवं कर्नाटक आदि प्रदेशों में गृहचैत्यालय बनाने की परम्परा शताब्दियों से चली आ रही है। इस परम्परा को भी आगम के परिप्रेक्ष्य में मान्यता होने से हस्तक्षेप करके गृह चैत्यालय नहीं हटवाना चाहिए।
(५) अभी पिछले २-४ वर्ष में ‘‘जैनं जयतु शासनम्’’ के स्थान पर ‘‘नमोस्तु शासनं’’ लिखने का कुछ उपक्रम चल रहा है यह उपयुक्त नहीं है। ‘‘जैनं जयतु शासनम्’’ ही आगम सम्मत है अत: नमोस्तु शासन अथवा नया कोई शब्द परिवर्तन करना उपयुक्त नहीं है।
(६) मुनियों के समान आर्यिकाओं की नवधाभक्ति चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज, आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी, आचार्य श्री देशभूषण जी, आचार्य श्री विमलसागर आदि समस्त आचार्यों की परम्परा में आगमानुसार चली आ रही है। जिन संघों के द्वारा नवधाभक्ति का निषेध किया जा रहा है। वह ठीक नहीं है। सभी को आगम एवं आचार्य श्री शांतिसागर महाराज के प्रति श्रद्धा करते हुए आर्यिकाओं की नवधाभक्ति करना चाहिए। इसी प्रकार से नवधाभक्ति में आर्यिकाओं अथवा मुनियों के पादप्रक्षाल के समय महिला हो या पुरुष सभी को चरण स्पर्श करना चाहिए।
(७) कहीं-कहीं मंदिरों से अथवा स्वाध्याय भवन से चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज अथवा आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज आदि के फोटो हटाकर किसी अन्य आचार्य का फोटो लगा देते हैं। ऐसा समाचार मिलता रहता है। अत: फोटो हटाने का पाप समाज के किसी व्यक्ति को नहीं लेना चाहिए।
(८) कहीं-कहीं पर प्राचीन प्रतिमाओं की प्रशस्ति मिटाकर नई प्रशस्तियाँ लिखने की सूचनाएँ मिलती हैं अत: प्राचीन प्रतिष्ठित प्रतिमा पर प्रशस्तियों को हटाना तथा नई प्रशस्ति दुबारा लिखना उपयुक्त नहीं है।
(९) वर्तमान में एक मुनि एवं एक आर्यिका एक साथ रहकर या एकल विहार करना लोकापवाद के भय से उपयुक्त नहीं है। आर्यिका संघ एवं मुनि संघ अलग-अलग रहकर भी आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं अथवा चतुर्विध मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक–क्षुल्लिका, ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणी आदि का संघ बनाकर रहना उपयुक्त है।
नोट – समाज में समन्वय, सामंजस्य, अखण्डता एवं संगठन बनाये रखने के लिए उपरोक्त नियम पारित किये जा रहे हैं, इसके लिए भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा, भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, दक्षिण भारत जैन सभा, दि. जैन महासमिति, दि. जैन परिषद एवं दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान आदि राष्ट्रीय स्तर की कमेटियाँ मिलकर एक कमेटी का गठन करे, जो उपरोक्त नियमों को समाज में विनयपूर्वक परिपालन कराने का प्रयास करे।