जैनों की दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में गौतम स्वामी का महत्वपूर्ण स्थान है। ये भगवान महावीर के प्रथम गणधर थे। गौतम स्वामी वर्तमान जैन वाङ्मय के आद्य-प्रणेता थे। दिगम्बर आर्ष ग्रंथों में भगवान् महावीर को भाव की अपेक्षा समस्त वाङ्मय का अर्थकर्ता अथवा मूलतंत्र कर्ता अथवा द्रव्य श्रुत का कर्ता बतलाया है और गौतम गणधर को उपतन्त्र कर्ता अथवा द्रव्य श्रुत का कर्ता कहा गया है। भगवान महावीर की दिव्य ध्वनि को सुनकर आपने द्वादशांग की रचना की। जिनवाणी की पूजन में निम्न प्रकार कहा गया है-
‘तीर्थंकर की धुनि, गणधर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानमयी। सो जिनवर वाणी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भयी।।’’
इसीलिए गौतम गणधर को मंगलाचरण में भी भगवान् महावीर के तुरंत बाद ही स्मरण किया जाता है-
‘‘मंगलम् भगवान् वीरो मंगलम् गौतमो गणी। मंगलम् कुन्दकुन्दाद्यो, जैन धर्मोस्तु मंगलम् ।।’’
लेकिन यह बहुत ही आश्चर्य की बात है कि इतना सब होने पर भी गौतम स्वामी के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त नहीं होती है। दिगम्बर आम्नाओं के आगम ग्रंथों-तिलोय पण्णत्ति (४/१४७५-१४९६), हरिवंश पुराण (६०/४७६-४८१), धवला (९/४,१ ४४/२३०), कषाय पाहुड़ (१/६४/८४) तथा महापुराण (२/१३४-१५०) में उनके केवलज्ञान प्राप्त करने तथा मोक्ष जाने संबंधी तो जानकारी है, लेकिन विस्तृत जीवन वृतान्त का यहाँ भी अभाव है। सोलहवीं शताब्दी के मण्डलाचार्य धर्मचन्द्र द्वारा विरचित ‘गौतम चरित्र’ नामक एक ग्रंथ में उनके जीवन के संबंध में थोड़ा सा प्रकाश डाला गया है।
गौतम स्वामी के पूर्वभवों की कुछ जानकारी ‘लब्धि विधान व्रत कथा’ से प्राप्त होती है। इसके रचयिता सिंघई किशनसिंह पाटनी हैं जो कि बरवाडा (सवाई माधोपुर) के पास रामपुरा ग्राम के सिंघई सुखदेव जी पाटनी के पुत्र थे। रचना संवत् १७८२ में फाल्गुन शुक्ला अष्टमी सोमवार को आगरा के मोती कटले के मंदिर में बनकर तैयार हुई है। कवि ने इस हिन्दी पद्ममय कथा की रचना पंडित अभ्र द्वारा संस्कृत में रचित कथा के आधार पर की। इस कथा में बताया गया है कि गौतम स्वामी ने पूर्व भव में ‘लब्धि विधान व्रत किया था। इसी व्रत के प्रभाव से वे ऋद्धिधारी देव होकर गणधर पद के धारक हुए। उनके पूर्व भवों का विवरण निम्न प्रकार है- इस भरत क्षेत्र में काशी नाम का एक देश था। उसके नगर बनारस में विश्वलोचन नाम का एक राजा राज्य करता था। इस राजा की एक बहुत ही सुन्दर रानी थी जिसका नाम नेत्र-विशाला था। (यही रानी गौतम स्वामी का पूर्व भव है) रानी बहुत ही रूपवती एवं गुणवती थी। राजा भी उसे बहुत चाहता था। एक दिन की बात है कि राजा अपने कक्ष में बैठा एक नर्तकी का नृत्य देख रहा था। राजा नृत्य देखने में बहुत ही मगन हो गया। रात बहुत व्यतीत हो चुकी थी। संगीत की मधुर आवास आ रही थी। रानी से रहा न गया। उसने अपने झरोखे से झांककर नर्तकी हो देखा। नर्तकी अपने हाव-भाव दिखाकर राजा को प्रसन्न कर रही थी। इसे देखकर रानी के मन में विकार उत्पन्न हुआ और आकुल-व्याकुल होने लगी। वह मन में चिन्तन करने लगी कि ‘‘मैं तो इतनी सुन्दर हूँ, लेकिन मात्र इस महल की होकर रह गई हूँ। मेरी दशा तो एक कैदी के समान है।’ उसने मन ही मन विचार किया कि वह इस बंदीगृह से मुकत होकर ही रहेगी तथा अपनी सुन्दरता से सबको मोहित करेगी। रानी ने अपनी यह दुर्भावना अपनी दासी से व्यक्त की। इस दासी का नाम चामरी था। दासी के एक बेटी थी वह दुराचारिणी थी। इसका नाम मदनवती था। इन तीनों ने मिलकर महल से बाहर निकल जाने की एक योजना बनाई। रानी के आकार का एक पुतला बनाया और उसे सुन्दर तरीके से सजाकर रानी के पलंग पर बैठ दिया। फिर ये तीनों नकली वेष धारण कर महल से निकल गई। इधर राजा नृत्य और संगीत समाप्त होने पर कामातुर हो रानी के महल जा पहुँचा। वह इतना कामान्ध हो गया था कि वह रानी तथा उसके पुतले में भी अंतर न समझ पाया। वह सीधा ही पुतले के निकट पहुँचकर काम चेष्टा करने लगा। लेकिन जैसे ही उसने स्पर्श किया तो वह समझ गया कि कुछ गड़बड़ है। उसने दासी चामरी को आवाज लगाई। लेकिन वह वहाँ थी ही कहाँ। उसने यहाँ-यहाँ रानी की खोज की, लेकिन वह उसे नहीं मिली। राजा चिन्तामुक्त रहने लगा। समय बीतने लगा लेकिन वह रानी को भुला न पाया। रानी के वियोग से दुःखी राजा आर्त ध्यान करता हुआ कुछ दिनों में मर गया। इधर वे तीनों स्वेच्छाचार करती हुई इधर-उधर भ्रमण करती रहीं। रानी के एक दस वर्ष का पुत्र भी था, लेकिन रानी को उसकी भी कभी याद नहीं आई। रानी और दासी जोगनी का वेष धारण कर इधर-उधर भटकती रहीं। ये रात-दिन मदिरा पीने लगीं तथा मांस भी खाने लगीं। मदनवती तो अपनी पूरी जवानी पर थी। वह भी ब्राह्मण और चाण्डाल सबके साथ व्यभिचार करने लगी। एक बार ये तीनों अवंती देश पहुँची। वहाँ उन्होंने एक मुनि को आहार के लिए जाते देखा। रानी की इच्छा उसके साथ विषय सेवन की हुई। वे तीनों उस मुनि के साथ छेड़छाड़ करने लगीं। मुनि महाराज अन्तराय समझ कर वापस चले गये और जंगल में ध्यान लगाकर बैठ गये। इन तीनों से रहा न गया। ये तीनों शाम को जंगल पहुँच गर्इं तथा रातभर कुचेष्टा करती रहीं कि मुनि इनके साथ विषय सेवन करें। ये निर्वस्त्र होकर मुनि से लिपटने लगीं। लेकिन मुनि महाराज बिल्कुल भी विचलित न हुए। ये तीनों रातभर मुनि महाराज को यातना देती रहीं। रानी के कहने, उकसाने पर दासी तो और भी अधिक कुचेष्ट करने लगी। मुनि महाराज इसे उपसर्ग मानकर निश्चल रहे। रात समाप्त होने लगी। अपने मन्तव्य में सफल न होने के बाद ये तीनों वहाँ से भाग गर्इं। इन तीनों के अंतिम समय बहुत कष्ट में व्यतीत हुए। दासी को पूरे शरीर में कोढ़ हो गया और मरकर वह नरक में गई। नरक में नाना प्रकार की यातनाएं सहने के बाद वह समय पूरा करके तिर्यंच पर्याय में उत्पन्न हुई। पहले वह मार्जारी हुई, फिर शूकर, फिर कूकर और फिर कुर्वुट। उधर वे दोनों भी तिर्यंच गति में भ्रमण करती हुई कुर्वुट हो गईं। कर्मयोग से ये तीनों फिर एक साथ मिल गईं। इनकी यह दशा अपनी कुचेष्टाओं तथा मुनि महाराज को कष्ट यातनाएँ देने के कारण ही हुई। अवन्ती देश में उज्जैनी नगरी के निकट एक ग्राम में एक किसान परिवार रहता था। कर्मयोग से वे तीनों कुर्वुट मरकर इस किसान के घर पुत्रियों के रूप में पैदा हुर्इं। लेकिन ये तीनों बहुत ही अपशगुनी थीं। जब ये माँ के गर्भ में आर्इं तो सारा धन नष्ट हो गया और जब इनका जन्म हुआ तो माता चल बसी। बचपन में पड़ौसिन भी मर गई और जब ये थोड़ा-थोड़ा चलने लगीं तो सारा गांव ही उजड़ गया। बड़ी होने पर तीनों कन्याओं ने बहुत दुःख भोगे। भूख-प्यास की वेदना सहती हुई ये नगर और ग्राम में भटकती रहीं। ये भ्रमण करती हुई पुहपपुर (पुष्पपुर) जा पहुँचीं। उन दिनों वहाँ एक मुनिराज विराजमान थे। ये महाराज बहुत विद्वान थे और अवधिज्ञानी भी थे। नगर के सभी लोग इनके दर्शन के लिए आ रहे थे। पुष्पपुर के राजा महीचन्द भी मुनि महाराज के दर्शन के लिए पधारे। जिस समय राजा महीचन्द महाराज के चरणों में बैठे थे उसी समय वे तीनों कन्याएं भी वहाँ आ पहुँचीं। उनकी दयनीय अवस्था देख राजा के मन में करुणा भाव जागृत हुए। मुनि महाराज सबको कुव्यसन छोड़ने का उपदेश रहे रहे थे। जब वे अपना उपदेश पूराकर चुके तब राजा ने विनम्र होकर महाराज से निवेदन किया कि ‘महाराज! इन तीनों कन्याओं को देखकर मेरे मन में बार-बार दया का भाव जाग्रत हो रहा है। मेरे हित में कृपया बतायें कि ऐसा क्योें हो रहा है?’ तब महाराज ने पूर्व भव का सारा वृतान्त वर्णन किया। महाराज ने कहा-‘हे राजन्! तुम पूर्व भव में बनारस नगर के राजा विश्व-लोचन थे। यह तुम्हारी रानी नेत्र-विशाला थी तथा दूसरी चामरी दासी थी। यह तीसरी कन्या मदनवती है। ये तीनों श्वेच्छाचार और मुनि को यातनाएं देने के कारण नरक और तिर्यंच गति में भ्रमण करती हुई इस पर्याय में आई हैं और राजा तुम भी कई भव धारण करते रहे। एक भव में सुयोग से तुम्हें सद्बुद्धि आई। मुनि महाराज के दर्शन हुए और उनके उपदेश से श्रावक वेष धारण किया। फिर सन्यास धारण कर अपने प्राण तज दिये और प्रथम विमान में देव बनकर पैदा हुए। वहाँ से चय कर इस भव में तुम पैदा हुए हो। कुछ समय बाद तुम निश्चय ही मोक्ष जाओगे।’ मुनि महाराज के ये वचन सुनकर वे तीनों कन्याएँ उनके चरणों के निकट आर्इं और विनम्र होकर पूछने लगीं कि इस कष्ट से मुक्त होने का कुछ उपाय है? तब महाराज ने करुणा धारण कर कहा कि ‘तुम तीनों लब्धि विधान व्रत’ धारण करो। इससे तुम्हारा कल्याण होगा।’ महाराज के ये वचन सुनकर वे हर्षित हुर्इं तथा पूरी श्रद्धा के साथ जैसी मुनि महाराज ने विधि बतलाई उसके अनुसार व्रत धारण किये। मन-वचन-काय से व्रत विधान पूर्ण किया और फिर उद्यापन किया। आजीवन शील व्रत धारण किया। कुछ समय बाद इन तीनों ने आर्यिका दीक्षा धारण कर ली। अन्त में समाधिपूर्वक मरण किया और पाँचवें स्वर्ग में देव हुर्इं। यह सब मुनिभक्ति और ‘लब्धि विधान व्रत’ का ही महात्म्य है। महापुराण (७४/३५७) में भी वर्णन आता है कि गौतम स्वामी अपने पूर्वभव में आदित्य विमान में देव थे। वहाँ से आयु पूर्ण करने के बाद वे तीनों क्रमश: इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति नाम से प्रसिद्ध हुए।
भरत क्षेत्र के मगध देश में द्विजपुर नाम का एक नगर था। इस नगर में अनेक विद्वान् ब्राह्मण रहते थे। यहाँ सदा वेदों की ध्वनि गूंजा करती थी। इसी नगर में सदाचार परायण, बहुश्रुत और सम्पन्न गौतम गोत्रीय शांडिल्य नामक एक ब्राह्मण निवास करता था। उसके रूप और शील से सम्पन्न स्थण्डिला और केसरी नामक दो पत्नियाँ थीं। एक दिन रात्रि को सोते हुए अंतिम प्रहर में स्थण्डिला ब्राह्मणी ने शुभ स्वप्न देखे। तभी पाँचवें स्वर्ग से एक देव का जीव आयु पूर्ण होने पर माता स्थण्डिला के गर्भ में आया। गर्भावस्था में माता की रुचि धर्म की ओर विशेष बढ़ गई। नौ माह व्यतीत होने पर माता ने एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया। उस पुण्यशाली पुत्र के उत्पन्न होते ही घर में और बाहर भी खुशी का वातावरण छा गया। एक निमित्तज्ञानी से पुत्र के ग्रहलग्न देखकर भविष्यवाणी की ‘‘यह बालक बड़ा होने पर समस्त विद्याओं का स्वामी होगा और सारे संसार में इसका यश फैलेगा।’’ बालक अत्यन्त रूपवान् था। उसके मुख पर अलौकिक तेज था। उसे जो भी देखता था, वह देखता ही रह जाता था। माता-पिता ने उसका नाम गौतम रखा। यही बालक आगे चलकर इन्द्रभूति के नाम से विख्यात हुआ। बालक गौतम जब तीन वर्ष का था, तब माता स्थण्डिला ने द्वितीय पुत्र को जन्म दिया। यह जीव भी पाँचवें स्वर्ग से आया था। वैसा ही पुण्यात्मा और प्रभावशाली। इसका नाम गाग्र्य रखा और बाद में यह पुत्र अग्निभूति नाम से विख्यात हुआ। इसके कुछ समय बाद ब्राह्मण की दूसरी पत्नी केसरी के भी एक सुन्दर पुत्र हुआ और यह जीव भी पाँचवें स्वर्ग से आया था। इसका नाम रखा भार्गव। बाद में यह वायुभूति नाम से प्रसिद्ध हुआ। तीनों भाइयों ने सम्पूर्ण वेद और वेदांगों का अध्ययन किया और वे पारंगत हो गये। उन तीनों ने अपने-अपने गुरुकुल खोले और छात्रों को विद्याध्ययन करने लगे। इन्द्रभूति के पास पाँच सौ शिष्य पढ़ते थे। इतने विद्वान् होकर भी इन्द्रभूति को अपनी विद्या का बड़ा अभिमान था। वे समझते थे कि उनके समान विद्वान इस संसार में अन्य कोई नहीं है। एक दिन भगवान महावीर छद्मस्थ अवस्था में विहार करते हुए ऋजुकूला नदी के तट पर आये और वहाँ शालवृक्ष के नीचे एक शिला पर ध्यान लगाकर बैठ गये। उन्होेंने वैशाख शुक्ला दसमी को चारों घातिया कर्मों को नाश कर दिया और उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। चारों प्रकार के देवों और इन्द्रों ने आकर भगवान् को नमस्कार किया। सौधर्म इन्द्र ने कुबेर को तत्काल समवसरण निर्माण करने की आज्ञा दी। देवताओं ने शीघ्र ही समवसरण की रचना कर दी। उसमें बारह कक्ष थे। देव, मनुष्य और तिर्यंच यथानिश्चित कक्षों में आकर बैठ गये। भगवान गंधकुटी में सिंहासन पर विराजमान हो गये किन्तु उनकी दिव्यध्वनि नहीं खिरी। यह देखकर सौधर्म इन्द्र ने अपने अवधिज्ञान से जाना कि यदि इन्द्रभूति गौतम आ जायें तो भगवान् की दिव्यध्वनि खिरने लगेगी। यह विचार कर इन्द्र ने एक वृद्ध ब्राह्मण को गौतम के पास पहुँचा दिया। वहाँ पर भी उसने वही बात दोहरायी। गौतम अभिमान की मुद्रा में बोले-तुम्हें जो पूछना हो पूछ सकते हो। वृद्ध बोला-प्रियवर्य! यदि आप मेरे काव्य का अर्थ बता देंगे तो मैं आपका शिष्य बन जाऊँगा और यदि न बता सके तो आपको मेरे गुरु का शिष्यत्व स्वीकार करना होगा। इस बात पर गौतम सहमत हो गये। तब वृद्ध ने श्लोक बोला-‘‘त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं’’ इत्यादि। श्लोक सुनकर इन्द्रभूति उसका अर्थ विचारने लगे लेकिन अर्थ नहीं कर पाये। छह द्रव्य, नौ पदार्थ, छह लेश्या, पाँच अस्तिकाय कौन से हैं? किन्तु अभिमान वश वृद्ध के समक्ष यह बात कुछ भी न सके। उन्होंने बात छिपाते हुए कहा-‘‘मैं तुम्हें क्या बताऊँ, चलो तुम्हारे गुरु के समक्ष ही अर्थ बताऊँगा।’’ इन्द्र भी यही तो चाहता था। वह इन्द्रभूति को उनके शिष्य परिवार सहित लेकर चल दिया। जब समवसरण के द्वार के भीतर घुसते ही मानस्तंभ देखा तो इन्द्रभूति के मन का अभिमान गलित हो गया और मन में कोमलता जागी। समवसरण की विभूति देखकर वे चकित रह गये और विचारने लगे-जिसकी ऐसी लोकोत्तर विभूति है, वे क्या किसी के द्वारा जीते जा सकते हैं? जब वे भगवान् के समक्ष पहुँचे तो अन्तर से भक्ति की हिलौरें-सी उठी और वे हाथ जोड़कर भगवान की स्तुति करने लगे। फिर उन्होंने भगवान् को नमस्कार किया और अपने दोनों भाईयों और पाँच सौ शिष्यों सहित भगवान् के चरणों में जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। उस समय उनके परिणाम इतने निर्मल थे कि उन्हें तत्काल बुद्धि, विक्रिया, क्रिया, तप, बल, औषधि, रस, और क्षेत्र ये आठ ऋद्धियाँ प्राप्त हो गईं। बुद्धि ऋद्धि प्राप्त होने पर अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, कोष्ठ मति, बीजबुद्धि, संभिन्न, संश्रोतृ और पदानुसारी ज्ञान भी प्राप्त हो गये और फिर श्रावण मास में कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के दिन अभिजित् नक्षत्र के उदित रहने पर भगवान् महावीर की दिव्यध्वनि खिरी। इस समय अवसर्पिणी के चतुर्थ काल के अंतिम भाग में तीन वर्ष आठ माह और पन्द्रह दिन शेष रह गये थे। इस प्रकार इन्द्रभूति गौतम भगवान् महावीर के प्रथम गणधर बने। भगवान् महावीर ने गौतम गणधर को उपदेश दिया और उन्होंने अन्तर्मुहूर्त में द्वादशांग के अर्थ का अवधारण करके उसी समय बारह अंगरूप ग्रंथों की रचना की और गुणों से अपने समान श्री सुधर्माचार्य को उसका व्याख्यान किया। कार्तिक कृष्णा १५ की सुबह भगवान् महावीर को मोक्ष प्राप्त हुआ और उसी दिन शाम को गौतम गणधर को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। बारह वर्ष पश्चात् श्री गौतम स्वामी को गुणावां तीर्थ से मोक्ष प्राप्त हुआ। इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतार की गुर्वावली के अनुसार गौतम स्वामी भगवान् महावीर के पश्चात् प्रथम केवली हुए हैं।