दिगम्बर जैन साधु-साध्वियों की आहारचर्या से सम्बन्धित कतिपय प्रमुख विषय
जैन साधुओं की एषणा समिति के अन्तर्गत आहारचर्या का अपना एक विशेष महत्त्व है जो कि याचना नहीं प्रत्युत वीरचर्या की सूचक है। इसमें साधु की अनेक क्रियाएँ श्रावकों पर भी अवलम्बित होती हैं, जैसे—नवधाभक्ति, ४६ दोष और ३२ अन्तराय आदि।
श्रावकों को कर्मयुग की आदि में गुरुओं की नवधाभक्ति का ज्ञान न होने के कारण भगवान् ऋषभदेव को मुनि अवस्था में एक वर्ष उनतालिस दिन तक उपवास करना पड़ा था, पुनः हस्तिनापुर के युवराज श्रेयांसकुमार को आठ भव पूर्व का जातिस्मरण होने से नवधाभक्ति का ज्ञान प्राप्त हुआ और उन्होंने महामुनि ऋषभदेव को विधिपूर्वक आहारदान देकर ‘‘दानतीर्थ प्रवर्तक’’ की उपाधि प्राप्त की थी।
वही आहार की विधि आज तक भी चली आ रही है। श्रावकजन साधु-साध्वियों की नवधाभक्ति करके आहार तो देते हैं किन्तु प्रायः उनसे जब नवधाभक्ति के नाम पूछे जाते हैं तो वे ठीक से न बताकर दिग्भ्रमित होने लगते हैं। वह नवधा भक्ति निम्न प्रकार है—
पडिगहमुच्चट्ठाणं, पादोदयमच्चणं च पणमं च।
मणवयणकायसुद्धी, एसणसुद्धी य णवविहं पुण्णं।।
अर्थात्
(१) पड़गाहन करना
(२) उच्च आसन देना
(३) पादप्रक्षाल करना
(४) अष्टद्रव्य से पूजन करना
(५) पंचांग नमस्कार करना
(६) मनशुद्धि
(७) वचनशुद्धि
(८) कायशुद्धि और
(९) आहारजल शुद्ध है
हे स्वामी! भोजन ग्रहण कीजिए, यह नवधाभक्ति है। जब श्रावक इस प्रकार की नवधाभक्ति करके मुनिराज या माताजी से आहार ग्रहण करने का निवेदन करते हैं तब साधु वहीं चौके में पूर्व दिन के ग्रहण किये गए आहार के त्यागरूप प्रत्याख्यान या उपवास की निष्ठापन क्रिया करते हैं।
आजकल कुछ संघों में देखा जाता है कि आहारचर्या से पूर्व ही साधु-साध्वियाँ मन्दिरजी में आचार्य महाराज या गणिनी माताजी के पास सिद्धभक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान का निष्ठापन करके आहार को निकलते हैं किन्तु यह बात आगम के परिप्रेक्ष्य में जब हम देखते हैं तो ज्ञात होता है कि अनगारधर्मामृत में अध्याय ९ के श्लोक ३७ की टीका में पण्डितप्रवर श्री आशाधर जी ने लिखा है—
अर्थात् ‘‘साधु चौके में भोजन प्रारम्भ करते समय लघु सिद्धभक्ति के द्वारा पूर्व दिन के ग्रहण किए गए प्रत्याख्यान या उपवास का निष्ठापन करें—त्याग कर देवें।’’ आहार के समय सिद्धभक्ति करके प्रत्याख्यान निष्ठापन करने का यहाँ अभिप्राय यह है कि सिद्धभक्ति के पश्चात् आहार सम्बन्धी अन्तराय पालन करने पड़ते हैं और मन्दिर से निकलने के बाद वे अन्तराय नहीं पालन किये जाते हैं।
पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी बताया करती हैं कि चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शान्तिसागर महाराज की परम्परा में मैंने तृतीय पट्टाधीश आचार्य श्री धर्मसागर महाराज तक सारे संघों को देखा है कि कभी भी वहाँ आहार से पूर्व प्रत्याख्यान क्रिया नहीं हुई। यह विधि अभी कहाँ से प्रचलित हो गई है सो समझ में नहीं आया और आगम में ऐसा कोई विधान भी नहीं है।
आहार करने के पश्चात् वहीं चौके में मुखशुद्धि करके तत्क्षण ही अगले दिन आहार ग्रहण करने पर्यन्त चर्तुिवध आहार का त्याग करके प्रत्याख्यान ग्रहण कर लेवें। अनगार धर्मामृत में उपर्युक्त सन्दर्भ के अन्तर्गत यह विषय भी आया है—
अर्थात् ‘‘साधु शीघ्र ही—भोजन के अनंतर ही आचार्य की अनुपस्थिति में वहीं चौके में ही लघु सिद्धभक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान अथवा उपवास ग्रहण कर लेवें अर्थात् अगले दिन आहार ग्रहण के पूर्व तक चर्तुिवध आहार का त्याग कर देवें या अगले दिन उपवास करना है तो उपवास ग्रहण कर लेवें।’’
पुनः श्रावक के घर से निकलकर साधु अपनी वसतिका में आकर आचार्य के समीप गवासन से बैठकर प्रत्याख्यान ग्रहण करें। इस बारे में भी अनगार धर्मामृत में कहा है—
अर्थात् ‘पुनः आचार्य के पास में बैठकर साधु लघु सिद्धभक्ति और लघु योगिभक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान या उपवास ग्रहण करें। अनंतर लघु आचार्य भक्ति पढ़कर आचार्य की या गुरु की वन्दना करें। यथा—‘‘भोजन के पहले लघु सिद्धभक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान अथवा उपवास का त्याग—निष्ठापन करें और भोजन के बाद शीघ्र ही लघु सिद्धभक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान अथवा उपवास ग्रहण करें। यह तो आचार्य की असमक्षता में करें।
आचार्य के समीप में लघु सिद्धभक्ति, लघु योगिभक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान अथवा उपवास धारण करें। अनन्तर लघु आचार्यभक्ति पढ़कर आचार्य वंदना करें।’ उसकी प्रयोगविधि निम्न प्रकार है— नवधा भक्ति के बाद आहार प्रारम्भ करने के पहले की विधि—
‘‘तवसिद्धे णयसिद्धे—इत्यादि लघु सिद्धभक्ति पढ़कर ‘‘इच्छामि भंते! सिद्धभत्ति काओसग्गो कओ—आदि अंचलिका पढ़ें। पुनः आहार करके मुखशुद्धि करने के बाद वहीं पर निम्न विधि करें।
९ बार जाप्य करके लघु सिद्धभक्ति पढ़कर श्रावक के द्वारा दी गई पिच्छी ग्रहण करें। इसी प्रकार गुरु के पास आकर उपर्युक्त प्रक्रिया से सिद्धभक्ति, योगिभक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान लेवें और नमोस्तु आचार्यवंदनायां आचार्यभक्ति कायोत्सर्गं करोम्यहं, यह बोलकर नौ बार णमोकार मंत्र का जाप्य करके
‘‘श्रुतजलधिपारगेभ्यः—इत्यादि लघु आचार्यभक्ति पढ़कर उन्हें नमस्कार करें।’’
यह आगम की विधि मैंने यहाँ प्राचीन गुरु परम्परा के आधार पर प्रस्तुत करने का प्रयास किया है जिसे आचार्यगण, मुनिवर्ग, आर्यिका माताएँ आदि समस्त चर्तुिवध संघ शास्त्रीय विधि मानकर अपनाएँ और पंचम काल के अन्त तक गुरुपरम्परा में इस प्रकार की आगम विधि चलती रहे यही भगवान जिनेन्द्र से प्रार्थना है।
(नोट—मैंने यह सारा प्रकरण पूज्य गणिनीप्रमुख र्आियकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की ‘‘मुनिचर्या’’ नामक पुस्तक से यहाँ उद्धृत किया है। )