चन्दनामती-पूज्य माताजी! मैं आपसे जानना चाहती हूँ कि साधुओं की सामायिक के बारे में आगम क्या आज्ञा प्रदान करता है ?
श्री ज्ञानमती माताजी- सामायिक कब और कैसे करें, इस विषय में आगम प्रमाण बताती हूँ। सुनो- साधुओं की सामायिक और देववंदना एक है। विधिवत् देववंदना करना इसी का नाम सामायिक है।
‘‘सत्त्वेषु मैत्री’’ आदि पाठ पढ़कर जाप्य आदि करके सामायिक करना और देवदर्शन के समय देववंदना क्रिया करना ऐसा नहींं है प्रत्युत त्रिकाल सामायिक के समय ही तीन बार देववंदना का विधान है। उसी को यहां सप्रमाण दिखाया जाता है। मूलाचार में श्री कुन्दकुन्ददेव ने अट्ठाईस मूलगुणों का वर्णन करते हुए समता नाम के आवश्यक का लक्षण किया है-
जो जिदमरणे लाभालाभे संजोयविप्पओगे य।
बंधुरिसुहदुक्खादिसु समदा, सामाइयं णाम।।२३।।
इसकी टीका में श्री वसुनंदि आचार्य ने कहा है कि- सामाइयं णाम-सामायिकं नाम भवति। जीवितमरणलाभालाभसंयोग विप्रयोगबन्ध्वरिसुख दुःखादिषु यदेतत्समत्वं समानपरिणामः त्रिकालदेववंदनाकरणं च तत्त्सामायिकं व्रतं भवति।
अभिप्राय यह है कि जीवन-मरण, लाभ, अलाभ, संयोग-वियोग, बंधु-शत्रु और सुख-दुःख आदि में जो समान परिणाम का होना है और त्रिकाल में देवदर्शन करना है वह सामयिक व्रत है। अन्यत्र सामायिक के नियतकालिक-अनियतकालिक ऐसे दो भेद करके नियतकालिक में त्रिकालदेववंदना और अनियतकालिक में समता भाव को रखना ऐसा कहा है।
आचारसार ग्रन्थ में सामायिक आवश्यक का वर्णन
आचारसार ग्रन्थ में सामायिक आवश्यक का वर्णन करते हुए सिद्धांत चक्रवर्ती श्री वीरनंदि आचार्यदेव तीर्थक्षेत्र या जिनमंदिर में जाकर विधिवत् ईर्यापथशुद्धि और चैत्य-पंचगुरुभक्ति करने का आदेश दे रहे हैं। यथा-
इसका अर्थ यह है- जो समता से उपयुक्त चित्त मुनि हैं वे उस सामायिक से परिणत भाव सामायिक हैं। यहाँ इस सामायिक में यह प्रकरण है अन्य क्रियाओं में भी इसका निरूपण करते हैं। सर्व क्रियाओं से रहित हुए मन, वचन, काय से शुद्ध होकर हाथ पैर धोकर परमानंद के स्थान ऐसे यतिराज अनंत संसार परंपरा को छेद करने के लिए जिनबिम्ब और जिनमंदिर आदि के स्तवन आदि करने में उद्यमशील होते हैं।
चंपापुरी, पावापुरी आदि क्षेत्रों के समान पवित्र ऐसे जिनमंदिर आदि की हाथ जोड़कर तीन प्रदक्षिणा देते हुए चारों दिशाओं में तीन-तीन आवर्त और एक-एक शिरोनति करते हुए संसार समुद्र में डूबते हुए जनों के लिए हस्तावलंबन स्वरूप ऐसे जिनेन्द्रदेव की अर्चा-पूजा-वंदना करने के लिए मंदिर में प्रवेश करें। वहाँ पहुँचकर ईर्यापथ शुद्धि करके कायोत्सर्ग करें पुन: बैठकर अनुकंपा से आलोचना करके समता भाव रूप-सामायिक को स्वीकार करें।
इसके आगे इस क्रिया में देववंदना आदि क्रिया में इस चैत्यभक्ति का कायोत्सर्ग मैं करता हूँ ऐसी विज्ञापना करके उठकर गुरूस्तवन-णमोकार मंत्र स्तवन पूर्वक उठकर तीन आवर्त एक शिरोनति आदि क्रिया करें। यह तो कृतिकर्म का लक्षण हुआ। आगे कहते हैं कि देववंदना क्रिया में चैत्यपंचगुरू ये दो भक्तियां की जाती हैं और चतुर्दशी के दिन देववंदना में चैत्यभक्ति के बाद श्रुतभक्ति करके पंचगुरूभक्ति की जाती है इत्यादि।
चन्दनामती-अन्य चरणानुयोग ग्रंथों में भी सामायिक की कोई विधि है क्या ?
श्री ज्ञानमती माताजी-यही सारी विधि अनगार धर्मामृत मेें कही गई है।
क्रियाकलाप ग्रन्थ में भी छपी हुई है। अनेक प्रमाणों को उद्धृत कर ‘‘दिगम्बर मुनि’’ ग्रंथ में मैंने भी स्पष्टीकरण किया है। विशेष जिज्ञासुओं को उन-उन ग्रंथों को देखना चाहिये। यहाँ तो मैंने संक्षेप में सामायिक और देवदर्शन की प्रयोग विधि बताई है।
दिनचर्या के प्रकरण में सूर्योदय से लेकर ४८ मिनट तक इस देववंदना का काल अनगार धर्मामृत में कहा है। इसी ग्रंथ के आठवें अध्याय में ६-६ घड़ी का उत्कृष्टकाल कहा है एक घड़ी २४ मिनट की होती है। तीनोें संध्या सम्बन्धी देववंदना में चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति तथा वंदना पाठ की हीनाधिकतारूप दोषों की विशुद्धि के लिए प्रियभक्ति (समाधिभक्ति) करना चाहिए।
देववंदना में छह प्रकार का कृतिकर्म
इस देववंदना में छह प्रकार का कृतिकर्म भी होता है। यथा-
१. ईर्यापथ कायोत्सर्ग के अनन्तर बैठकर आलोचना करना और चैत्यभक्ति सम्बन्धी क्रिया विज्ञापन करना,
२.चैत्य-भक्ति के अंत में बैठकर आलोचना करना और पंचमहागुरुभक्ति सम्बन्धी क्रिया विज्ञापन करना,
३.पंचमहागुरुभक्ति के अंत में बैठकर आलोचना करना।
४. चार शिरोनति,
५. बारह आवर्त।
यही सब आगे सामायिक विधि में आता है।
मुद्रा के ४ भेद हैं
जिनमुद्रा, योग मुद्रा, वंदना मुद्रा, मुक्ताशुक्ति मुद्रा। इन चारों मुद्राओं का लक्षण क्रम से कहते हैं। जिनमुद्रा-दोनों पैरों में चार अंगुल प्रमाण अंतर रखकर और दोनों भुजाओं को नीचे लटकाकर कायोत्सर्ग रूप में खड़े होना सो जिनमुद्रा है।
योग मुद्रा-पद्मासन, पर्यंकासन और वीरासन इन तीनों आसनों की गोद में नाभि के समीप दोनों हाथों की हथेलियों को चित्त रखने को जिनेन्द्रदेव योगमुद्रा कहते हैं। वंदना मुद्रा-दोनों हाथों को मुकुलित कर और कुहनियों को उदर पर रखकर खड़े हुए पुरूष के वंदनामुद्रा होती है। मुक्ताशुक्ति मुद्रा-दोनों हाथों की अंगुलियों को मिलाकर और दोनों कुहनियों को उदर पर रखकर खड़े हुए आचार्य मुक्ता-शुक्ति मुद्रा कहते हैं। देव वंदना के लिये जिनमंदिर में पहुँच कर हाथ-पैर धोकर ‘‘निःसहि’’ का तीन बार उच्चारण कर जिनेन्द्रदेव को नमस्कार करें।
अनंतर‘‘दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भवतापहारि’’इत्यादि स्त्रोत पढ़ते हुए चैत्यालय की तीन प्रदक्षिणा देवें। पुन: ‘‘निःसगोऽहं जिनानां’’इत्यादि दर्शनस्तोत्र पढ़कर यदि बैठकर सामायिक करना है तो खड़े होकर ‘‘ईर्यापथशुद्धि पाठ’’ से सामायिक शुरू करें। यदि खड़े होकर सामायिक करने की शक्ति नहीं है तो बैठकर भी देववंदना कर सकते हैं इसका भी प्रमाण देखिये-
साधु यदि खड़े होकर वंदना नहीं कर सकते हैं-असमर्थ हैं तो पर्यंकासन से बैठकर पिच्छी लेकर मुकुलित हाथ जोड़कर वक्षःस्थल के पास रखकर देववंदना करें। चैत्यभक्ति पढ़ते-पढ़ते भी जिनप्रतिमा की तीन प्रदक्षिणा देने का विधान हैं।
दीयते चैत्यनिर्वाणयोगिनंदीश्वरेषु हि।
वंद्यमानेष्वधीयानैस्तत्तद्भक्तिं प्रदक्षिणा।।९२।।
अनगार धर्मामृत अ.८चैत्यभक्ति, निर्वाणभक्ति, योगिभक्ति और नंदीश्वर भक्ति पढ़ते-पढ़ते मंदिर में, निर्वाण क्षेत्रों में, योगियों की व जिनबिम्बों की प्रदक्षिणा करना चाहिए।
त्रैकालिक सामायिक किन साधुओं के लिए बताई है
चन्दनामती-यह त्रैकालिक सामायिक पंचमकाल के साधुओं के लिए ही बताई है या चतुर्थकाल में भी साधु ऐसी ही सामायिक करते थे ?
श्री ज्ञानमती माताजी-बात यह है कि समताभाव रूप सामायिक तो साधु के सदाकाल रहती ही है किन्तु उपर्युक्त सामायिक की विधि मुख्य रूप से स्थविरकल्पी साधुओं के लिए बताई है।
पंचमकाल में तो सभी स्थविरकल्पी ही हैं अतः उनके लिए तो त्रैकालिक सामायिक सर्वथा उपादेय ही है, हाँ, चतुर्थकाल में जो जिनकल्पी मुनि होते थे वे तो महीनों, वर्षों तक योग में लीन रहते थे उन्हें सामायिक ही क्या किसी व्यवहारिक क्रिया से कोई प्रयोजन नहीं होता था।
किन्तु स्थविरकल्पी साधारण मुनि तो चतुर्थकाल में भी अवश्य करते होंगे क्योंकि साधुओं के अहोरात्र सम्बन्धी जो २८ कायोत्सर्ग होते हैं वे सामायिक के बिना अधूरे रह जायेंगे तथा २८ मूलगुणों में सामायिक नाम का एक मूलगुण भी है।
चन्दनामती-क्या केवल आत्मचिन्तन या जाप्यमंत्र करने से सामायिक पूरी नहीं होती है ?
श्री ज्ञानमती माताजी-आत्मचिंतन या जाप्यमंत्र तो चौबीस घण्टों में से कभी भी कितनी ही देर तक किया जा सकता है किन्तु विधिवत् त्रैकालिक सामायिक अवश्य करनी चाहिए, देववंदना (सामायिक पाठ) पढ़ने के बाद खूब आत्मचिंतन कर सकते हैं।
एक समय भी यदि सामायिक प्रमादवश छूट जावे तो प्रायश्चित लेने का विधान है।
चन्दनामती-आज समयोचित आपसे उत्तर पाकर बड़ी प्रसन्नता हुई। आपके द्वारा प्रदत्त आगम प्रमाणों से सहित समाधान पाकर अनेकों साधु तथा जिज्ञासुगण अपने पत्रों द्वारा प्रसन्नता व्यक्त करते हैं। अतः आप इसी प्रकार अपने अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग से हम सभी को सम्बोधित करती रहें। इसी भावना के साथ आज की लेखनी को विराम देती हूँ।