प्राचीन उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर यह कहा जाता है कि भगवान् महावीर की दिव्यदेशना राजगृह पर्वत के विपुलाचल (पहाड़ी) पर मिति श्रावण वदी एकम के प्रात: प्रारम्भ हुई। यद्यपि भगवान् को वैशाख सुदी १० को केवलज्ञान प्राप्त हो गया था किन्तु सुयोग्य गणधर के बिना दिव्यध्वनि का प्रारम्भ ६६ दिन बाद सौधर्मेन्द्र के प्रयत्न द्वारा हुआ। भगवान समवसरण सभा में विराजमान हुए। सभी देव, मनुष्य, तिर्यंच, नारी, देवीगण निराबाध अपने—अपने स्थान पर सुस्थित हुए। दिव्यध्वनि त्रिकाल या चतुष्काल लगभग २—१/२ घंटे एक बार में खिरती रही और भव्यजनों के आत्मकल्याणक का साधन बनी। प्रत्येक संज्ञी प्राणी ने इस वाणी को सुनकर अपने सन्देह का निराकरण किया। इस प्रकार भगवान् महावीर द्वारा धर्मचक्र की प्रवृत्ति हुई। वर्तमान जैनवर्ग इन्हीं भगवान् की छत्रछाया में अपना आत्मविकास करने का उद्यम कर रहे हैं।
दिव्यध्वनि के सम्बन्ध में आगामी आचार्यों ने अनेक प्रकार से विश्लेषण किया है। प्रथम प्रश्न यह है कि भगवान के द्वारा उपदिष्ट तत्त्व ध्वनि के द्वारा होता है या वाणी के द्वारा। ध्वनि का अभिप्राय है अनक्षर आवाज और वाणी का अर्थ है अकारादि वर्णों की स्पष्टता और तज्जन्य अर्थ का स्पष्टीकरण। दोनों की प्रक्रियाएं एक—दूसरे के विरुद्ध प्रतीत होती हैं। यही कारण हुआ कि तीर्थंकर की दिव्यध्वनि का भिन्न—भिन्न आचार्यों ने अनेक प्रकार से विश्लेषण कर प्राणिमात्र को आत्म कल्याणकारी सिद्ध करने का प्रयत्न किया है।
पंचास्तिकाय नामक ग्रंथ की टीका में निम्न संस्कृत छंद आया है जिसमें कई विशेषणों द्वारा दिव्यध्वनि (जिन वचन) का स्वरूप लिखा है—
गंभीर मधुरं मनोहरतरं दोषव्यपेतं हितं,
कंठौष्ठादि वचो निमित्तरहितं यो वातरोधासमम्।
स्पष्टं तत्तदभीष्टवस्तुकथकं निश्शेषभाषात्मकं,
दूरासन्नसमं समं निरुपमं जैनं वच: पातु व:।।१।।
अर्थात् गंभीर, मधुर, मनोहरतर, दोषरहित, हितकारी, कण्ठ, ओष्ठ आदि वचन के निमित्त रहित, वायुरोध से रहित, स्पष्ट, इच्छित वस्तु कथनपरक, सम्पूर्ण भाषात्मक, समीप और दूर से समानरूप से श्रवण योग्य जैन वचन हमारी रक्षा करें।
तिलोयपण्णत्तिकार कहते हैं—
एदािंस णं भासा तालुवदंतोट्ठ कंठ वामारं।
परिहरिय एक्ककालं भव्व जणाणंद करभासो।।१—६२।।
अर्थात् दिव्यध्वनि तालु, दाँत, ओष्ठ, कण्ठ आदि के कम्पनादि व्यापाररहित एक समय में ही भव्यजनों को आनन्द देने वाली होती है।
इसी बात को हरिवंश पुराण में भी पुष्ट किया गया है-
जिनभाषा धरस्पन्दमन्तरेण विजृंभिता।
तिर्यग्देवमनुष्याणां दृष्टिमोहमनीनशत्।।
अधर के स्पन्दन बिना निकली हुई जिनेन्द्र की भाषा तिर्यंच, मनुष्य, देवों के दृष्टिमोह को नाश करती है।
परन्तु उक्त ग्रंथ में ही दिव्यध्वनि चारों दिशाओं में दिखने वाले चार मुखों से निकलती है, ऐसा कथन भी आया है।
महापुराण के कर्त्ता लिखते हैं—
दिव्यमहाध्वनिरस्य मुखाब्जान्मेध, स्नानुभृतिर्निरगच्छत्सु।
भव्यमनोगतमोहतमोघ्नद्य्तदेष, यथैव तमोरि:।।
बादलों के गर्जन का अनुकरण करने वाली भगवान् के मुख से निकली हुई दिव्य महाध्वनि भव्यजनों के मन के मोहरूपी महान् अंधकार को नष्ट करती हुई सूर्य के समान प्रकाशमान हुई। इसके आगे और भी स्पष्ट किया गया है कि—
प्रस्पष्टवर्णी निरगात् ध्वनि: स्वायंभुवान्मुखात्।
अर्थात् भगवान् के मुख से स्पष्टाक्षर वाली ध्वनि निकल रही थी।
तत्त्वार्थवार्तिककार ने दिव्यध्वनि की उत्पत्ति मुख से बतलाई है। सम्पूर्ण ज्ञानावरण के नाश होने पर केवली के जिव्हा इन्द्रिय के आश्रय मात्र से वक्तृत्वरूप परिणत होकर उसे सम्पूर्ण श्रुत का उपदेश करने वाली बतलाया है।
भिन्न—भिन्न आचार्यों के इन उद्धरणों से दो बातों का दृष्टिकोण सामने आ जाता है कि तीर्थंकर की देशना दिव्य—ध्वनि के द्वारा श्रोताजनों का मोहांधकार नष्ट करती है। यह बात तो सर्व सामान्य के लिये मान्य है किन्तु वह केवल मुख द्वारा उत्पन्न होती है या सर्वांग से, इसमें विचार विकल्प है।
यह तो अनुभव सत्य है कि किसी भी शब्द के अर्थ को समझने के लिये पूर्वापर सम्बन्ध, क्षेत्र, काल, संकेत आदि का सहारा लिया ही जाता है। समवसरण में अनेक प्रकार के वाणी (अक्षर) रूप वचन सुनाने वालों के अलावा वे प्राणी भी हैं जो संकेतात्मक भाषा का परस्पर व्यवहार कर अपना अभीष्ट कार्य सिद्ध कर लेते हैं अत: एक विचार तो सुस्थिर हो जाता है कि प्रत्येक समवसरण में स्थित प्राणी दिव्यध्वनि को सुनकर अपने—अपने क्षयोपशम के अनुसार अपना सन्देह निराकरण कर आत्मतोष कर लेता है। दूसरे स्थान—स्थान पर इस ध्वनि की मेघ गर्जना से तुलना की गई है। गर्जनोपरान्त मेघ द्वारा जल से जो तृप्ति होती है उसका कोई बंटवारा या नाप—तोल नहीं है, वह तो सबकी तृप्ति करने वाली मात्र है। यही स्थिति भगवान की दिव्यध्वनि की होती है। सभा में स्थित प्रत्येक प्राणी अपनी क्षयोपशम शक्ति के अनुसार लाभ उठाता है।
अब रही यह ध्वनि सर्वांगीण होती है या मुख मात्र से। इस सम्बन्ध में परम्परा यही चली आ रही है कि केवली के ज्ञानावरण का पूर्ण नाश हो गया तो उनके शरीर के अंग—प्रत्यंगों का क्या कार्य होता है। वे चलते—बैठते, विहार आदि करते हैं, उनकी कायिक क्रिया स्वाभाविक होती है उसी प्रकार तीर्थंकर नामकर्म के कारण उनके सर्वांगीण दिव्यध्वनि का होना ही अधिकतर आचार्यों को स्वीकार है। तालु आदि की सहायता से उत्पन्न वाणी में अशेष भावात्मक अनन्त तत्त्व का प्रकाशन होना क्रमबद्धता की आशंका प्रकट कर सकता है।
दिव्यध्वनि को अनक्षरी कहा जाता है उसका प्रमुख कारण उपर्युक्त अनन्त तत्त्व का प्रकाशन ही है। बुद्धि अतिशयधारी गणधरदेव भी उसका अंश मात्र ग्रहण कर पाते हैं तो उसको किसी भी मर्यादा में रखना उपयुक्त नहीं है। अनक्षरी का यही अभिप्राय है और जब वह श्रोता के कान में आती है तब वह अक्षररूप परिणत होकर उसका संशय निवारण करती है।
आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से भी कुछ सामंजस्य इस विषय में किया जा सकता है। आज तरंगों के सम्प्रेषण से विश्व भर में शब्दावलियों को प्रेषित किया जाता है और अनेक प्रकार के यन्त्रों के सहारे उन शब्दों को पकड़ा जाता है और शब्द श्रवण—श्रावण व्यवहार चलता है। भगवान की ध्वनि भी बिना कोई अंग विशेष की प्रकम्पन किये शब्द वर्गणाओं को प्रेषित करती है और काययोग से आकर्षित हुए कर्म पुद्गल स्कंध स्वयं शब्द तथा भाषा का रूप ले लेते हैं और देशना की यह प्रक्रिया निराबाध नियमित रूप से चलती रहती है।
अब हमें श्रोता के कानों में आई हुई अक्षरात्मक वाणी के सम्बन्ध में भी विचार करना है। दिव्यध्वनि को निश्शेष, भावात्मक कहा गया है।
आचार्य समन्तभद्र इसे सर्वभाषात्मक कहते हैं। धवला टीका में इसे १८ महाभाषा और ७०० लघुभाषात्मक लिखा है। महापुराण में दिव्यध्वनि एक होती हुई भी सातिशय पुण्य प्रकृति के कारण सभी के लिये संकेतात्मक भाषा रूप परिणत होती है ऐसा उल्लेख किया है। उक्त सभी कथनों का निष्कर्ष यही है कि जीवों के सन्देह निराकरण की अपूर्व क्षमता दिव्यध्वनि तथा दिव्यवाणी में है, उसका कोई उपमेय नहीं बनाया जा सकता है।
भगवान् महावीर का विहारक्षेत्र मुख्यत: बिहार प्रदेश रहा है। मगध की भाषा मागधी कही जाती थी परन्तु महावीर भगवान् की दिव्यध्वनि अर्धमागधी भाषा में होती थी। इसका तात्पर्य यह रहा कि जिस भाषा का अर्धमागधी और अर्धअंश अनेक भाषात्मक हो वह अर्धमागधी भाषा है। यह बात सर्वजन प्रसिद्ध है कि भगवान् महावीर की देशना का माध्यम सर्वजन साधारण भाषा थी। वह सर्व भाषाओं के अनेक शब्दों से गर्भित, लोकप्रिय, मधुर, हितकारिणी थी अत: सभी जन उससे आत्मबोध प्राप्त कर लेते थे।
उक्त कथन का अन्तिम सार यह है कि भगवान् के सर्वांग से उत्पन्न ध्वन्यात्मक दिव्यध्वनि जीवों के सन्देह तिमिर का नाश करने वाली होती है और वह कर्णविवर में अक्षरात्मक भाषा रूप ही सुनने को मिलती है, इसी कारण श्रोता आत्म—कल्याणोन्मुख होते हैं। उन्हें अपने प्रश्नों का समाधान पूर्णरूप से प्राप्त हो जाता है।
देशी व प्रमुख भाषा तथा अन्य समीपवर्ती अनेक भाषाओं के मिश्रणरूप शब्दावली के कारण इसे अर्धमागधी भाषा कहा जाता है जो व्यवहारपरक है।
भगवान् के तीर्थंकर प्रकृति का तीव्र सातिशय पुण्य विद्यमान है। उसके कारण पुद्गल शब्दों का परिणाम स्वाभाविक होता है, क्योंकि इन्द्रादि द्वारा समवसरण की व्यवस्था होती है अत: ध्वनि विस्तारादि क्रिया आज की तरह तब भी सम्भव थी।
जैनदर्शन में श्रुत परम्परा को अनादिनिधन माना गया है। जिसे हम श्रुत कहते हैं वही इस श्रुत परम्परा का विषय है। वैदिक दर्शन में जिस प्रकार वेदों को अनादिनिधन माना है वही स्थिति इस द्वादशांग श्रुत की है। वैदिक दर्शन वेदों को पौरुषेय (पुरुषकृत) नहीं मानता, उसका उद्भव वह ईश्वर से मानता है। जैनदर्शन श्रुत का उद्भव तीर्थंकर सर्वज्ञ से मानता है, साधारण व्यक्ति से उसका उद्भव नहीं मानता। जैनदर्शन श्रुत को आप्तोत्पन्न मानता है और आप्त उसको मानता है जो वीतरागी हो, सर्वज्ञ हो, साथ ही हितोपदेशी हो। यह द्वादशांग श्रुत उसी हितोपदेशिता का मूर्तिमान रूप है। तीर्थंकर महापुरुष चार कर्मों का नाशकर जब सर्वज्ञ अवस्था प्राप्त करते हैं तब उनके तीर्थंकर नामकर्म का उदय आता है और उसके आधीन होकर उनका उपदेश होता है, इसी उपदेश को दिव्यध्वनि कहा जाता है।
ध्वनि का अर्थ एक प्रकार की आवाज है और वह आवाज अपने आपमें एक विलक्षण ही होती है जो सर्वसाधारण आवाजों से सर्वथा भिन्न असाधारण होती है इसीलिये इसको दिव्य कहा जाता है। जैसे—दिव्यरूप, दिव्य प्रकाश आदि।
अर्हंत तीर्थंकर की इस दिव्यध्वनि में अक्षर नहीं होते। इसका नाम ध्वनि है, भाषा नहीं है। भाषा के अक्षर होते हैं ध्वनि में अक्षर नहीं होते। यदि भगवान की वाणी साक्षर होती तो इसे भाषा कहा जाता अत: यह ध्वनि निरक्षर होती है। प्रश्न होता है फिर इसका रूप क्या है ? इस सम्बन्ध में कहा गया है कि यह ध्वनि ओंकारस्वरूप है। जैसा कि देव शास्त्र गुरु पूजा में लिखा है ‘‘जिनकी धुनि है ओंकार रूप’’, इसी तरह सरस्वती पूजा में लिखा है ‘‘ओंकार ध्वनि सार द्वादशांगवाणी विमल’’ इस ध्वनि में कंठ, तालु, ओष्ठ आदि का उपयोग नहीं होता क्योंकि अक्षरों के उच्चारण में कंठ, तालु आदि का उपयोग करना पड़ता है। जहाँ अक्षरोच्चारण नहीं है वहाँ कंठ, तालु आदि का उपयोग भी नहीं होता इसलिये यह ध्वनि निरक्षर ही होती है। प्रश्न हो सकता है फिर द्वादशांगवाणी में अक्षर कहाँ से आये ? इसका उत्तर यह है कि द्वादशांगवाणी के दो रूप हैं—अर्थ प्रतिपादन और अक्षर रचना। इनमें अर्थ प्रतिपादन तीर्थंकर द्वारा होता है और अक्षर रचना गणधर द्वारा होती है इसीलिये शास्त्रों में तीर्थंकर, सर्वज्ञ को अर्थकर्ता और गणधर, श्रुतकेवली को ग्रंथकर्ता कहा गया है अर्थात् तीर्थंकर भगवान ने अपनी वाणी के द्वारा जिस अर्थ का प्रतिपादन किया उसे विषय क्रम के अनुसार गणधरों ने अक्षर रूप में ग्रथित किया है। यही अर्थकर्ता और ग्रंथकर्ता का अभिप्राय है। यहाँ पूछा जा सकता है कि जब भगवान का उपदेश ध्वनिरूप है अक्षररूप नहीं है तब बिना अक्षर के गणधरों ने उसे कैसे समझा। इसका समाधान यह है कि भगवान की उस दिव्यवाणी में अनेक बीजाक्षर गर्भित रहते हैं और प्रत्येक बीजाक्षर एक मंत्र है, जिसमें विशाल अर्थों का समुदाय है। ये बीजाक्षर उसी तरह गर्भित हैं जिस तरह १८ महाभाषाएँ और ७०० क्षुल्लक (लघु) भाषाएँ दिव्यध्वनि में गर्भित रहती हैं। यहाँ गर्भित रहने का इतना ही अभिप्राय है जैसे कि यह कहा जाय कि एक वटबीज में विशाल वटवृक्ष गर्भित है। यद्यपि बीज में वृक्ष नहीं है किन्तु एक विशाल वृक्ष को उत्पन्न करने की जैसे एक बीज योग्यता रखता है, इसी तरह दिव्यध्वनि अनेक बीजाक्षरों एवं अनेक भाषाओं को उत्पन्न करने की शक्ति रखती है। इनमें बीजाक्षरों से अर्थ निकालने का काम गणधर का होता है, गणधर के अतिरिक्त दूसरा कोई उन अर्थों को नहीं निकाल सकता। तभी तो कहा जाता है कि भगवान की वाणी को गणधर ही झेल सकते हैं, अन्य कोई नहीं। प्रत्येक गणधर में भी बुद्धि ऋद्धि के अंतर्गत एक बीज बुद्धि नाम की ऋद्धि भी होती है, जिसके द्वारा वे तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि में उन बीजाक्षरों को खोज निकालते हैं और उन बीजाक्षरों में जो अर्थ भरे पड़े हैं उन्हें ‘‘कोष्ठस्थ धान्योपम’’ नाम की बुद्धि ऋद्धि के द्वारा वे अपने श्रुतज्ञान में संचित करते हैं और बाद में द्वादशांग रूप श्रुतज्ञान की अक्षररूप ग्रंथ रचना करते हैं। वह रचना भी पत्रों या कागजों पर लिखी नहीं जाती। गणधरों ने उसे भगवान की दिव्यध्वनि के रूप में सुनकर और गणधर के अन्य शिष्य, प्रशिष्यों, आरातीयों ने गणधर से सुनकर उसका बोध प्राप्त किया था अत: इन द्वादशांगों की परम्परा श्रुत नाम से अर्थात् जो सुनकर प्राप्त की जाती थी, उत्तरोत्तर चलती रही इसलिये शास्त्रों को श्रुत कहा जाता है। यह परम्परा धरसेनाचार्य तक चलती रही, बाद में यह जानकर कि आगे लोग मन्दबुद्धि होंगे, धरसेन ने अपने ज्ञान को पुष्पदन्त, भूतबलि को दिया और इन दोनों आचार्यों ने उसे षट्खण्डागम के रूप में लिपिबद्ध किया।
गणधर भी जो तीर्थंकर की दिव्यध्वनि साक्षात् सुनते हैं उनके पल्ले भी दिव्यध्वनि में प्रतिपादित अर्थ का अनंतवाँ भाग पड़ता है अत: दिव्यध्वनि की महिमा अपरम्पार है। दिव्यध्वनि में बीजाक्षरों के अतिरिक्त जो १८ महाभाषाएँ और ७०० लघु भाषायें गर्भित रहती हैं, वे भी वटबीज में वटवृक्ष की तरह ही हैं, अन्तर इतना है कि बीजाक्षरों को खोजना और उनसे अर्थ निकालना गणधरों के एकाधिकार के अंतर्गत आता है और भाषाओं का पता लगाना तथा उनको श्रोताओं की भाषा में श्रोताओं तक पहुँचाना देवों का एकाधिकार है इसीलिये देवकृत १४ अतिशयों में अर्द्धमागधी भाषा भी आती है अर्थात् भगवान् की वाणी को अर्द्धमागधी भाषा में परिणत करना देवों का कार्य था। यहाँ यह आशंका होती है यह अर्द्धमागधी कौन सी, किस देश की भाषा है ? अथवा ७०० लघु भाषाओं में से ही एक है। इसका उत्तर यह है कि भगवान् का समवशरण सबसे पहले विपुलाचल पर्वत (बिहार) पर रचा गया। उस समय बिहार को मगध बोला जाता था। समवशरण में जो मनुष्य श्रोता उपस्थित थे उनमें आधी संख्या मगध देश के श्रोताओं की थी और आधी संख्या अन्य सभी देशों के निवासियों की थी अत: देव लोग भगवान की वाणी को आधी मगध भाषा रूप में आधी अन्य सर्व भाषा के रूप में, परिणमाते थे इसलिये इसका नाम अर्द्धमागधी पड़ा। इसका व्युत्पत्यर्थ इस प्रकार है—‘‘अर्द्ध मगधभाषात्मकं अर्द्ध सर्वभाषात्मकम् अर्थात् आधी मगध भाषा रूप, आधी सर्वभाषा रूप जो वाणी सुनाई देती थी वह अर्द्धमागधी भाषा थी। यह महावीर के समय दिव्यध्वनि का रूप थी। यह दिव्यध्वनि सर्वांग से निकलती है क्योंकि यह ध्वनि है, जैसे घंटे को किसी भी तरफ से लकड़ी मारो उसकी आवाज सारे घंटे से निकलती हुई कही जायेगी। इस तरह दिव्यध्वनि का अपना एक विशाल रूप है और तीर्थ की प्रवृत्ति उसका असाधारण कार्य है, लेकिन दिव्यध्वनि का यह प्रभाव गणधर के माध्यम से ही प्रकट होता है। गणधर के बिना दूसरा उसे कोई झेल नहीं सकता अत: सामान्य श्रुतकेवली की अपेक्षा गणधर श्रुतकेवली का और भी अधिक प्रभाव है, ठीक उसी तरह से जैसे सामान्य केवली की अपेक्षा तीर्थंकर केवली का अधिक महत्व होता है। एक—एक तीर्थंव्ाâर केवली के समवशरण में अनेक सामान्य केवली होते हैं और एक गणधर के रहते हुये समवशरण में अनेक श्रुतकेवली रहते हैं लेकिन जो प्रभाव समवशरण में तीर्थंकर और गणधर का होता है वह अन्य सामान्य केवलियों एवं श्रुत केवलियों का नहीं होता है।