स.प्रा.-संस्कृत शा. कला एवं वाणिज्य महाविद्यालयपुराण भारतीय संस्कृति की आधारशिला है। पुराणों में इतिहास, काव्य और पुरातत्त्व का सम्मिश्रण होता है। विष्णु पुराण में पुराण को पंचलक्षण समन्वित माना गया है, जिनमें सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरित आते हैं।
‘सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च।
वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्च लक्षणम्’।।
जैन पुराणकारों ने भी कुछ परिवर्तन के साथ पुराण के इन लक्षणों का पालन किया है। जैनधर्म विश्व को जड़ चेतन रूप से आदि अनन्त मानता है, किन्तु उसका विकास कालचक्र के आरोह-अवरोह से परिवर्तनशील है। अत: जैन पुराणों में सर्ग और प्रतिसर्ग के स्थान पर विश्व का यही स्वरूप तथा कालचक्र के आरों का उत्सर्पिणी अवसर्पिणी रूप परिवर्तन एवम् लोक व्यवस्था में परिवर्तन का विवरण मिलता है।
वंशों, मनुओं (कुलकरों) तथा वंशानुचरितों का भी जैन पुराणों में परम्परागत वर्णन है। जैन पौराणिक साहित्य अत्यन्त समृद्ध है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, तमिल, कन्नड़, हिन्दी आदि अधिकांश भाषाओं में शताधिक पुराणों की रचना की गई है। इन पुराणों में २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव तथा ९ प्रतिवासुदेव प्रभृति त्रेसठशलाका पुरुषों का जीवन चरित वर्णित है। जैनधर्म में वीरपूजा की मान्यता है। इसमें अंतिम तीर्थंकर भगवान वर्धमान को वीर तथा महावीर नाम से सम्बोधित किया है तथा सम्मानपूर्वक पुराणों की पीठिका पर उनके चरित को प्रतिष्ठित किया है।
समृद्ध जैन संस्कृत साहित्य में त्रेसठशलाका पुरुषों के अंतर्गत तथा कतिपय पुराणों में स्वतंत्र रूप से भी वर्धमान महावीर के अलौकिक चरित का उदात्त वर्णन किया गया है। वर्धमान महावीर के चरित वर्णन से सम्बद्ध संस्कृत पुराणों में आचार्य रविषेण कृत ‘पद्मपुराण’, आचार्य जिनसेन प्रणीत ‘हरिवंशपुराण’, आचार्य जिनसेन एवम् गुणभद्र कृत ‘महापुराण’, श्रीचन्द्र कृत ‘पुराणसार’, मल्लिषेण प्रणीत ‘महापुराण’, आचार्य हेमचन्द्र प्रणीत ‘त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र’, कवि अमरचन्द्र कृत ‘चतुर्विंशतिजिनचरित’, दामनन्दि कृत ‘पुराणसारसंग्रह’, पं. आशाधर प्रणीत ‘त्रिषष्ठिस्मृतिशास्त्र’, भट्टारक सकलकीर्ति कृत ‘पुराणसारसंग्रह’ एवं ‘उत्तरपुराण’, केशवसेन तथा प्रभाचन्द्र कृत ‘कर्णामृत पुराण’, मेरुतुंग प्रणीत ‘महापुराण’ एवं उपाध्याय पद्मसुन्दर प्रणीत ‘रायमल्लाभ्युदय’ नामक पुराण उल्लेखनीय हैं।
इन पुराणों में पद्मपुराण, हरिवंशपुराण तथा उत्तरपुराण विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। आचार्य रविषेण कृत ‘पद्मपुराण’ के द्वितीय पर्व में भगवान महावीर का चरित वर्णित है। इसमें वर्धमानमहावीर के शैशवकालीन अनेक अलौकिक कार्यों का वर्णन है। इसमें भगवान महावीर वीतराग सर्वज्ञ महात्मा, उत्तम सार्थवाह, लोक मंगलकारी व्यक्तित्व के रूप में चित्रित हैं। इसी संदर्भ में आचार्य रविषेण ने महावीर के समवसरण एवं धर्मोपदेशों का भी वर्णन किया है।
धर्मोपदेश सुनकर अनेक लोगों ने अणुव्रत धारण किये, संसार से भयभीत अनेक लोगों ने दीक्षा ग्रहण की, सम्यग्दर्शन धारण किया और अनेक लोगों ने स्वसामथ्र्यानुसार पाप कर्मों का त्याग किया। पद्मपुराण के बीसवें पर्व में त्रेसठशलाकापुरुषचरित वर्णन के प्रसंग में जैनधर्म के चौबीसवें तीर्थंकर वर्धमान महावीर का इतिवृत्तात्मक जीवनचरित वर्णित है। तदनुसार वर्धमान महावीर के पूर्वभव का नाम प्रोष्ठिल, पूर्वभव की नगरी का नाम छत्राकासुर एवं पिता का नाम पुष्पोत्तर था।
भगवान महावीर की जन्मनगरी कुण्डलपुर, जन्म नक्षत्र उत्तराफाल्गुनी, माता-पिता का नाम प्रियकारिणी एवं सिद्धार्थ, वैराग्यवृक्ष सालवृक्ष एवं मोक्षस्थान पावापुर है। तीर्थंकर पाश्र्वनाथ के ढाई सौ वर्ष पश्चात् भगवान महावीर का जन्म हुआ। वे सात हाथ उन्नत थे एवं उनकी आयु बहत्तर वर्ष थी। आचार्य जिनसेन कृत ‘हरिवंशपुराण’ के द्वितीय एवं तृतीयसर्ग में भी वर्धमान महावीर का इतिवृत्त वर्णित है। तदनुसार वर्धमान महावीर ने तीस वर्ष की अवस्था में दीक्षा ग्रहण कर साढ़े बारह वर्ष तक कठोर तप किया और ऋजुकूल नदी के तट पर कैवलज्ञान प्राप्त किया। ६६ दिन तक मौन विहार के पश्चात् राजगृह के विपुलाचल पर्वत पर समवसरण की रचना हुई। देवों के मध्य महावीर ग्रहों के मध्य चन्द्रमा के समान सुशोभित हो रहे थे।
इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति एवं कौण्डिन्यादि पण्डित अपने पाँच-पाँच सौ शिष्यों सहित वहाँ आये और दीक्षा ग्रहण की। राजा चेटक की पुत्री चन्दना भी आर्यिका होकर गणिनी हुई। श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के दिन अभिजित नक्षत्र में वर्धमान महावीर की प्रथम देशना हुई। उसमें द्वादश अंगों, चौदह पूर्वों, चूलिकाओं, अंगप्रविष्ट और अंगबाह्यश्रुत का वर्णन, गुणस्थान, मार्गणा, जीव समास तथा जीवाजीवादि तत्त्वों, श्रमण धर्म एवं मुनि धर्म का निरूपण किया।
भगवान महावीर के आर्यखण्ड संंबंधी देशोें में विहार, चौंतीस अतिशय, अष्ट प्रातिहार्य, गणधर तथा अन्य शिष्य समूह का वर्णन किया गया है। आचार्य जिनसेन तथा आचार्य गुणभद्र प्रणीत ‘महापुराण’ में ७६ पर्व हैं। यह दो भागों में विभक्त है। महापुराण के १ से ४७ पर्व तक की रचना आदि पुराण है। इसके रचयिता आचार्य जिनसेन हैं। ४८ से ७६ तक का रचना उत्तर पुराण के नाम से अभिहित है। इसके रचयिता आचार्य गुणभद्र हैं। गुणभद्र कृत ‘उत्तरपुराण’ के ७४वें पर्व में वर्धमान महावीर का जीवनवृत्त वर्णित है। इसमें वर्धमान महावीर के पुरुरवा भील से लेकर ३३ पूर्वभवों का वर्णन किया गया है।९ चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को अर्यमा के शुभ योग में वर्धमान महावीर का जन्म नृप सिद्धार्थ की रानी प्रियकारिणी के गर्भ से हुआ।
शैशवकाल में ही श्रीवर्धमान ने ‘सन्मति’ एवं ‘महावीर’ नाम प्राप्त किये। कुमारकाल व्यतीत कर तीस वर्ष की अवस्था में दीक्षा ग्रहण की। तपश्चरण काल में रुद्र द्वारा असह्य उपसर्ग करने पर अविचलित रहे। तब रुद्रदेव ने ‘महति’ एवं ‘महावीर’ नाम से विभूषित किया। साढ़े बारह वर्ष तक कठोर तप कर वैशाख शुक्ला दशमी को केवलज्ञान प्राप्त किया। चौंतीस अतिशयों से सुशोभित वर्धमान महावीर परमेष्ठी कहलाने लगे और उन्हें परमात्म पद की प्राप्ति हो गई। समवसरण सभा में गौतम इन्द्रभूति द्वारा पूछे गये प्रश्नों के उत्तर के रूप में वर्धमान महावीर ने जीवाजीवादि तत्त्वों की व्याख्या की।
७६वें पर्व में गुणभद्राचार्य ने भगवान महावीर की शिष्य परम्परा का उल्लेख किया है। इस प्रकार आचार्य रविषेणकृत पद्मपुराण, जिनसेन कृत हरिवंशपुराण, गुणभद्र प्रणीत उत्तरपुराण में वर्धमान महावीर के उदात्त चरित का इतिवृत्तात्मक वर्णन मिलता है। उनका व्यक्तित्व अलौकिक था। वे वीर, निर्भय, साहसी, वीतरागी, उपसर्ग एवं परीषहजयी, उग्र तपस्वी, लोक कल्याणकारी, महान उपदेशक तथा दार्शनिक थे। उनकी अनेक चारित्रिक विशेषताओं का प्रसंगोपात्त विवरण प्रस्तुत है-
वर्धमान महावीर के गर्भावतरण के छह माह पूर्व से ही पृथ्वी पर रत्नों की वृष्टि होने लगी। जन्म होते ही देवलोक में देवेन्द्रों के सिंहासन एवं मुकुट कांपने लगे एवं शंख, भेरी, सिंह एवं घण्टानाद होने लगा। दशोें दिशाएं प्रकाशित हो गई स्वर्ग से सौधर्मादि देव आये और इन्द्र ने सुमेरु पर्वत पर बालक वर्धमान का जन्माभिषेक किया उन्हें आभूषणों से विभूषित किया और वीर और वर्धमान नामकरण किया। बालक वर्धमान के दर्शनमात्र से ही संजय एवं विजय नामक मुनियों का संशय दूर हो गया अत: उन्होंने ‘सन्मति’ नाम से विभूषित किया।
गर्भ एवं जन्म के समय ही नहीं अपितु वर्धमान महावीर को विरक्त जानकर लौकान्तिक देवों के साथ सौधर्मेन्द्र उनकी स्तुति एवं अभिषेकादि क्रियाओं को सम्पन्न कर दीक्षाकल्याणक मनाते हैं। वैवल्य प्राप्ति होने पर ज्ञानकल्याणकोत्सव सम्पन्न कर वैभवयुक्त समवसरण की रचना करते हैं। भगवान के विहार के समय दो सौ योजन तक दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि संकट नहीं होते थे, समस्त जीवों में मैत्री भाव रहता था, विहार के अनुवूकूलमंद-मंद वायु प्रवाहित होती, वृक्ष सभी ऋतुओं के फलफूल धारण करते, पवनदेव एक योजन पर्यन्त भूमि को धूलि, पाषाण एवं कण्टक रहित करते, स्तनितकुमार तथा मेघकुमारादि देव बिजली की माला से शोभा बढ़ाते, भूमि को सुगंधित जल से सींचते थे।
भगवान आकाश में विहार करते थे। उनके विहार के समय देवगण उनके चरणों के नीचे अत्यन्त कोमल कमलों की रचना करते थे, आकाश शरद ऋतु के तालाब के समान निर्मल एवं दिशाएं धूमादि दोषों से रहित अत्यन्त सुंदर लगती थीं। भगवान के उपदेशों को सुनने देव, दानव, मनुष्य एवं पशु-पक्षी सभी अपना वैरभाव भूलकर आते थे। भगवान के निर्वाण के अवसर पर भी चारों निकाय के देवगण आकर निर्वाण कल्याणकोत्सव मनाते हैं। भगवान के निर्वाण कल्याणक की भक्ति से युक्त संसार के प्राणी आज भी दीपमालिकाओं द्वारा उत्सव मनाते हैं। इस प्रकार पुराणों में सर्वत्र महावीर के अलौकिक व्यक्तित्व का दिग्दर्शन होता है।
जैन संस्कृत पुराणों में वर्धमान महावीर की वीरता, निर्भयता एवं साहस के अनेक उदाहरण मिलते हैं। आठ वर्ष की अवस्था में उनके साहस की परीक्षा लेने के लिए आये हुए संगमदेव ने उनकी वीरता और धैर्य से प्रसन्न होकर उन्हें ‘महावीर’ नाम से विभूषित किया। दीक्षोपरान्त वे एकान्त दुर्गम स्थानों में निवास करते थे।
शूरवीरता, एकान्तवास एवं वन में निवास इन तीन विशेषताओं में वे सिंहवृत्ति का अनुकरण करते थे। यथा-शौर्येकत्व वनस्थानैरन्वयान्मृगविद्विषम्। (उत्तरपुराण ७४/३१६) रुद्र कृत भयंकर उपर्सग भी वर्धमान महावीर की समाधि भंग न कर सके। उनके साहस को देखकर दुष्ट रुद्र ने मात्सर्य त्यागकर उन्हें ‘महति’ और ‘महावीर’ नामों से विभूषित किया।
वर्धमान महावीर अनासक्त एवं वीतरागी थे। जल में रहते हुए भी उससे निर्लिप्त कमल की भांति संसार में रहते हुए भी सांसारिक विषयों से अनासक्त ही रहे।२६ सिंह के कुटिल नखों में न ठहर सकने वाले मोती के समान राजकुमार वर्धमान का मन चिरकाल तक भोगों में नहीं ठहर सका। वे आजीवन अविवाहित ही रहे। स्वयं बुद्ध वर्धमान महावीर बिजली की चमक के समान समस्त संसार को क्षण-भंगुर जानकर विरक्त हो गये।
विद्युद्विलसिताकारं ज्ञात्वा य: सर्वसंपदम् ।
प्रवव्राज स्वयंबुद्ध: कृतलौकान्तिकागम: ।।
पद्मपुराण २/८५
बारह वर्ष के तपश्चरण काल में जितेन्द्रिय महावीर ने अनेक उपसर्गोें पर विजय प्राप्त की तथा शीत, उष्ण, आंधी वर्षा आदि परिषहों को समभाव से सहन किया। एक बार उज्जयिनी के अतिमुक्तक नामक श्मशान में प्रतिमायोग से विराजमान वीर वर्धमान को देख महादेव नामक रुद्र ने अपनी दुष्टता से उनके धैर्य और स्थैर्य की परीक्षा लेनी चाहिए। रात्रि में अनेक बड़े-बड़े बेतालों का रूप बनाकर भयंकर और वीभत्स क्रियाओं से उपसर्ग किये, कठोर शब्द, भीषण अट्टहास विकराल दृष्टि तथा सर्प, हाथी, सिंह, अग्नि, वायु आदि के साथ भीलों की सेना बनाकर उपसर्ग किये। किन्तु उन्हें विचलित करने में वह रुद्र समर्थ नहीं हुआ। अन्त में उसने ‘महति’ और ‘महावीर’ इन दो नामों से विभूषित कर भगवान की अनेक प्रकार से स्तुति की।
तपो द्वादश वर्षाणि चकार द्वादशात्मकम्
हरिवंशपुराण-२/५६
वर्धमान महावीर ने अनेक बाह्य आभ्यन्तर तप किये। उनका जीवन तपोमय था। दुर्लंघ्य पर्वत, निर्जन नदी तट, बीहड़ वन एवम् सुनसान श्मशान भूमि आदि स्थानों पर साढ़े बारह वर्ष तक आत्मोदय की प्राप्ति हेतु कठोर तपश्चरण किया। अगणित उपसर्ग एवम् परीषहों को समभाव से सहन किया।
वर्धमान महावीर ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवम् सम्यक्चारित्र की आराधना कर समस्त कर्मों का क्षय कर लोकालोक को प्रकाशित करने वाला केवलज्ञान प्राप्त किया और लोक कल्याण के लिए धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया।
आचाराङ्गस्य तत्वार्थं तथा सूत्रकृतस्य च।
जगाद भगवान् वीर: संस्थानसमवाययो:।।
हरिवंशपुराण-२/९२
वर्धमान महावीर ने आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातधर्म कथा, श्रावकाध्ययन, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद प्रभृति द्वादशांगों का उपदेश दिया। परिकर्म, सूत्रगत, प्रथमानुयोग और पूर्वगत चौदह भेदों तथा वस्तुओं सहित चूलिकाओं का वर्णन किया।
सामायिक प्रकीर्णक, चतुर्विंशति स्तवन, पवित्र वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उतराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक एवम् निषद्य इन चौदह प्रकीर्णकों का वर्णन कर मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल इन पांच ज्ञान का स्वरूप बताया।
तदनन्तर चौदह मार्गणा, चौदहगुणस्थान और चौदह जीव समास के द्वारा जीवद्रव्य का उपदेश दिया, चतुर्गति के दु:ख एवं उसमें उत्पन्न होने के कारणों का वर्णन किया। तत्पश्चात् संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्प बहुत्व इन आठ अनुयोग द्वारों से तथा नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपों से द्रव्य का निरूपण किया। पुद्गलादि द्रव्यों का उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मकता तथा मोक्ष का स्वरूप समझाया। तदनन्तर मुनि धर्म का उपदेश दिया।
वर्धमान महावीर ने अपने उपदेशों के माध्यम से जन-जन को कल्याण का संदेश दिया। उस समय जिन लोगों ने श्री वर्धमान एवम् उनके दिव्य वैभव का साक्षात् दर्शन किया, उनकी दिव्य ध्वनि का साक्षात् श्रवण किया, वे उनसे इतने प्रभावित हुए कि उनकी आसक्ति अन्य पुरुषों के वचनों में नहीं रह गई थी।
राजा श्रेणिक, भक्त, सामन्त, महामंत्री, पुरोहित तथा प्रजाजनों ने नगर, ग्राम, घोष, पर्वतों के अग्रभाग, नदियों के तट और वनान्त प्रदेशों में अनेक मंदिरों का निर्माण किया। अनेक राजाओं, सम्राटों, श्रेष्ठियों, विद्वानों और सामान्यजनों ने उनका शिष्यत्व स्वीकार किया और यथाशक्ति श्रावक और मुनिधर्म स्वीकार किया। उनका चतुर्विध संघ उनके उपदेश का ही प्रभाव था।
‘जीओ और जीने दो’ इस महामंत्र के जनक वर्धमान महावीर ने अपनी साधना द्वारा सिद्धि प्राप्त कर आत्मकल्याण के साथ-साथ विश्वकल्याण का संदेश भी दिया। तीर्थंकर महावीर मानवमात्र का ही नहीं अपितु प्राणीमात्र का उदय चाहते थे। उन्होंने समतावाद का प्रतिपादन कर सर्वजीव समभाव और सर्वजाति समभाव का प्रवर्तन किया। पौराणिक पृष्ठभूमि में पूर्वभवों के वर्णन के साथ वर्धमान महावीर के दिव्यादिव्य गुणों से मण्डित उदात्त चरित का विशद और काव्यात्मक वर्णन है जो इतिहास और कवि कल्पना का मंजुल मणिकांचन संयोग है।
१. पदमपुराण २/७७-१०१
२. पदमपुराण २/१२६-१३४
३. पदमपुराण २/१५५/१९४
४. पदमपुराण २/१९५/१९८
५. पदमपुराण २०/३०, १६, २५
६. पदमपुराण २०/६०
७. पदमपुराण २०/११५/१२२
८. आचार्य जिनसेन-हरिवंशपुराण २/६१
९. गुणभद्र-उत्तरपुराण ७४/१४-२४६, ७६/५३४-५४३
१०. गुणभद्र-उत्तरपुराण ७४/२८२, २८३, २९५
११. गुणभद्र-उत्तरपुराण ७४/३३६
१२. गुणभद्र-उत्तरपुराण ७४/३५०, ३५१
१३. गुणभद्र-उत्तरपुराण ७६/५१६-५३२
१४. गुणभद्र-उत्तरपुराण ७४/२५१-२५२, जिनसेन हरिवंशपुराण २/१९, २० रविषेण पदमपुराण २/७४
१५. जिनसेन-हरिवंशपुराण २/२६-२८
१६. गुणभद्र-उत्तरपुराण ७४/२७६
१७. गुणभद्र-उत्तरपुराण ७४/२८२-२८३
१८. हरिवंशपुराण २/५०-५५
१९. जिनसेन-हरिवंशपुराण २/६०
२०. रविषेण-पदमपुराण २/९१-१००
२१. रविषेण-पदमपुराण २/९४, १०३, हरिवंशपुराण-२/६३, ८७
२२. जिनसेन-हरिवंशपुराण ६६/१८-२१
२३. गुणभद्र-उत्तरपुराण ७४/२८९-२९५
२४. गुणभद्र-उत्तरपुराण ७४/३१६
२५. गुणभद्र-उत्तरपुराण ७४/३३६
२६. आचार्य रविषेण-पदमपुराण २/८४
२७. आचार्य जिनसेन-हरिवंशपुराण २/४८
२८. वासुपूज्यों महावीरो मल्लिपाश्र्वो यदुत्तम:। कुमार निर्गता गेहात् पृथ्वीपतयोऽपरे। पदमपुराण २०/६७
२९. उत्तरपुराण-७४/१३१-१३५
३०. आचार्य रविषेण-पदमपुराण २/८६,८७
३१. जिनसेन-हरिवंशपुराण २/९२-१३१, ३/६६-१७७
३२. जिनसेन-हरिवंशपुराण ३/९
३३. जिनसेन-हरिवंशपुराण २/१४६-१५०